Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 765
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - पाताधर्मकथा निवर्तते प्रत्यागच्छति, प्रतिनिवृत्त्य यौव स्थविराभगवन्तस्तौव उपागच्छति, उपागत्य, भक्तपानं पतिदर्शयति, प्रतिदर्य, स्थविरैर्भगवद्भिरभ्यनुज्ञातः सन् अमूच्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्ना आसक्तिपरिवर्जित इतिभावः, 'विलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं ' बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना इव यथा पन्नग भूतेन पन्नगभवमागतेन आत्मना जीवेन बिलं प्रविष्यते, तथा तं ' फासुएसणिज्ज' प्रासुकैषणीय द्वाचत्वारिंशद्दोषवर्जितम् अशनं पानं खायं स्वाचं 'सरीरकोटुगंसि' शरीरकोष्ठके-उदरे प्रक्षिपति, यथा भुजङ्गो विलस्य पार्श्वभागद्वयमसंस्पृ. शन् मध्यभागत एवात्मानं बिले प्रवेशयति तथा स मुखस्य पाच द्वयस्पर्शरहितमाहारं कण्ठनालाभिमुखं प्रवेश्य आहारयतीति भावः । ततः खलु तस्य पुण्डरीकस्य अनगारस्य 'कालाइकंतं ' कालातिक्रान्तं कालमतिक्रम्य प्राप्तम्-बुभुक्षावापिस आ जाते-वापिस आकर फिर प्राप्त भिक्षान्न को दिखाने के लिये वे जहां स्थविर भगवंत विराजमान होते वहां आते-यहां आकर प्राप्त भिक्षान्न को उन स्थविर भगवंतों को दिखलाते-दिखालकर जब वे उस आहार को खाने की आज्ञा देते-तब वे अमूच्छित भाव से अगृद्धचित्तवृत्ति से, एवं आसक्ति रहित परिणति से उस प्राशुक एषणीय-४२ दोषों से रहित अशन, पान, खाद्य, एवं स्वाद्यरूप-आहार को जिस तरह सर्प-बिल में प्रविष्ट होता है उसी तरह से शरीर कोष्ठक मेंउदर में डाल देते थे। कारण इसका इस प्रकार है-जैसे भुजंग बिल के पार्श्वद्वय नहीं छूता हुआ सीधे मध्यभाग से अपने को बिल में प्रविष्ट कराता है उसी तरह वे मुनिराज मुख के पार्श्वद्रय के स्पर्श से रहित आहार को सीधे कण्ठनाल में धर कर आहार करते थे (तएणं तस्स पुंडरीयस्त अणगारस्स तं कालाइक्कंतं अरसविरसं सियलुक्खं पाणપ્રાપ્ત આહારને બતાવવા માટે જ્યાં તે સ્થવિર ભગવંત વિરાજમાન હતા ત્યાં આવતા. ત્યાં આવીને મેળવેલા આહારને તે સ્થવિર ભગવંતને બતાવતા અને બતાવીને જ્યારે તેઓ તે આહારને ગ્રહણ કરવાની આજ્ઞા કરતા ત્યારે તેઓ અમૂછિત–ભાવથી, અમૃદ્ધ-ચિત્તવૃત્તિથી અને આસક્તિ રહિત પરિણતિથી તે પ્રાસુક એષય-૪૨ દેથી રહિત અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદરૂપ આહારને જેમ સાપ દરમાં પ્રવેશે છે તેમજ શરીર કોષ્ટકમાં-પેટમાં નાખી દેતા હતા. જેમ સાપ દરના બંને પાર્શ્વને સ્પર્શ ન કરતાં સીધે વચ્ચે થઈને પિતાની જાતને દરમાં પ્રવિષ્ટ કરાવી લે છે તેમજ તે મુનિરાજ પણ મુખના બંને પાર્શ્વના સ્પર્શથી રહિત આહારને સીધો કઠનાળમાં મૂકીને ઉદરસ્થ કરતા હતા. (तएणं तस्म पुरीयस्स अणगारस्स त कालाइक्कत भरसं विरसं मिय For Private and Personal Use Only

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