Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 03
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 708
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १८ सुसुमादारिकासरितवर्णनम् દ घलहेतुं शरीरबलबर्धनार्थम्, ‘वीरियहेउं ' वीर्यहेतुम् = आन्तरिक शक्तिसम्पादनार्थम्, आहारम् आहारयति, स खलु इह लोके एव बहूनां श्रमणानां श्रमणीनां श्रावकाणां श्राविकाणां च ' हीलणिज्जे जाव' हीलनीयो यावत् यावत्पदेन, निन्दनीयः, खिसनीयः गर्हणीयो भवेत् परलोकेऽपि दुःखं प्राप्नोति यावत्चातुरन्त संसारकान्तारम् ' अणुपरियट्टिस्सइ ' अनुपर्यटिष्यति भ्रमिष्यति, यथा स चिलातस्तस्करः - चिलाततस्करवदिति भावः ॥ ०७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् तपणं से धपणे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धि अप्पछट्टे चिलायं परिधाडेमाणे २ तव्हाए छुहाए य संते तंते परितंते गाणं ४ हीलणिज्जे ३ जाव अणुपरियहिस्सइ जहाव से चिलाए तकरे ) अब प्रभु इस चिलात के दृष्टान्त से निर्ग्रन्थ आदिकों को संबोधित कर प्रतिबोधित करते हैं - हे आयुष्मंत श्रमणों ! इसी तरह जो हमारा निर्ग्रन्थ श्रमण अथवा श्रमणीजन आचार्य उपाध्याय के पास प्रव्रजित होकर वाताववाले यावत् विध्वंसन धर्मवाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेष प्राप्ति के लिये सौन्दर्य आदिरूप विशेष के लिये, बलवधन के लिये तथा आन्तरिक शक्ति वृद्धिके लिये आहार को लेता हैकरता है :- वह इस लोक में अनेक श्रमण श्रमणी श्रावक तथा श्राविका जनों द्वारा हीलनीय यावत् निदंनीय खिंसनीय गर्हणीय तो होता ही है - परन्तु पर भवमें भी वह दुःखों कोही पाता है । यावत् ऐसा जीव इस चतुर्गतिरूप संसार कान्तार में चिलात चोर की तरह परिभ्रमण ही करता रहता है | सूत्र ७ ॥ , For Private and Personal Use Only चैव बहूणं समणाणं ४ हीलणिज्जे २ जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहाव से चिलाए तबकरे ) હવે પ્રભુ તે ચિલાતના દૃષ્ટન્તને સામે રાખીને થિ વગેરેને સ મેધિત કરીને આજ્ઞા કરે છે કે હે આયુષ્મંત શ્રમણા ! આ પ્રમાણે જે અમારા નિગ્રંથ શ્રમણ અથવા શ્રમણીજન આચાય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રત્રજિત થઈને વાન્તાસ્ત્રવવાળા યાવત્ વિધ્વંસન ધમ વાળા આ ઔદારિક શરીરમાં ક્રાંતિ વિશેષની પ્રાપ્તિ માટે, સૌદર્ય વગેરે રૂપ વિશેષના માટે, ખળવધન માટે તેમજ આંતરિક શિકતને વધારવા માટે આહાર ગ્રહણ કરે છે. તે આ લેાકમાં ઘણા શ્રમણ, શ્રમણી, શ્રાવક તેમજ શ્રાવિકાઓ વડે હીલનીય યાવત્ નિંદનીય, ખિસનીય અને ગર્હણીય તે। હાય જ છે પણ સાથે સાથે તે પરભવમાં પણ દુઃખ જ મેળવે છે. ચાવત એવે જીવ આ ચતુતિ રૂપ સંસાર કાંતારમાં ચિલાત ચારની જેમ ભટકતા જ રહે છે. ૫ સૂત્ર ૭ ॥ भ ८७

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