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धवला-टीका-समन्वितः
षट्खंडागमः
बन्ध-स्वामित्व-विचय
खंड ३
पुस्तक
सम्पादक
हीरालाल जैन
Jain Education
manimalramme
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श्रीभगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः . .
षट्खंडागमः
श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः।
तस्य तृतीय-खंडः
बन्ध-स्वामित्व-विचयः हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादितः
सम्पादकः नागपुरस्थ-नागपुरमहाविद्यालय-संस्कृताध्यापकः एम्. ए., एल्. एल्. बी., डी. लिट्. इत्युपाधिधारी
हीरालालो जैनः
श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर
श्रीमहावीर जर आराधना केन्द्र बालचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री वा गाधीनगर, पि ३८२००९
सहसम्पादक
संशोधने सहायको व्या. वा., सा. सू., पं. देवकीनन्दनः
डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः सिद्धान्तशास्त्री
उपाध्यायः, एम्. ए., डी. लिट.
प्रकाशकः श्रीमन्त शेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड कार्यालयः
अमरावती ( बरार )
वि. सं. २००४ )
वीर-निर्वाण-संवत् २४७३
( ई. स. १९४७
मूल्यं रूप्यक-दशकम्
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प्रकारकश्रीमन्त शेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र, जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालय
अमरावती ( बरार)
मुद्रक
टी. एम्. पाटील
मैनेजर
सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती.
For Pdvate & Personal Use Only
Page #4
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THE
ȘAȚKHANDĀGAMA PUSPADANTA AND BHŪTABALI
OF
WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VIRASENA
VOL. VIII BANDHA-SWAMITVA-VICAYA
Edited with introduction, translation, indexes and notes
BY - Dř. HIRALAL JAIN, M. A., LL. B., D, Litt., C. P. Educational Service, Nagpnr-Mahavidyalaya, Nagpur,
ASSISTED BY Pandit Balchandra Siddhānta Şhāstrī.
with the cooperation of Pandit DEVAKINANDAN
Dr. A. N. UPADHYE Siddhānta Shastri
M. A., D. LITT,
Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sāhitya Uddhārakā Fund Kāryālaya,
AMRAOTI ( Berar ),
1947. Price rupees ten only.
Page #5
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________________
Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddharaka Fund Kāryālayu.
AMRAOTI ( Berar ].
Printed by T. M. Patil, Manager, Saraswati Printing Press,
AMRAOTI ( Berar ).
Page #6
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विषय-सूची
१ प्राक्कथन
....
....
....
प्रस्तावना
Introduction १ विषय-परिचय .... २ बन्ध-स्वामित्व-विचयकी विषय-सूची .... ३ शुद्धि-पत्र
मूल, अनुवाद और टिप्पण बन्ध-स्वामित्व-विचय १ ओघकी अपेक्षा बन्धस्वामित्व
२ आदेशकी "
"
.
परिशिष्ट १ बन्ध-स्वामित्व-विचय-सूत्रपाठ २ अवतरण-गाथा-सूची ३ न्यायोक्तियां ४ ग्रन्थोल्लेख ५ पारिभाषिक शब्द-सूची
.
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प्राक्-कथन
षट्खण्डागम सातवें भाग खुद्दाबन्धके प्रकाशित होनेके दो वर्ष पश्चात् यह आठवां भाग बन्धस्वामित्व-विचय पाठकोंके हाथ पहुंच रहा है । इस भागके साथ षट्खण्डागमके प्रथम तीन खण्ड पूर्णतः विद्वत्संसारके सन्मुख उपस्थित हो गये । कागज, मुद्रण व व्यवस्थादि सम्बन्धी अनेक कठिनाइयों व असुविधाओंके होते हुए भी यह कार्य गतिशील बना ही रहा है, इसका श्रेय ग्रन्थमालाके संस्थापक श्रीमन्त सेठजी व अन्य अधिकारी, मेरे सहयोगी पं. बालचन्द्रजी शास्त्री तथा सरस्वती प्रेसके मैनेजर श्रीयुत टी. एम्. पाटीलको है जो इस कार्यको विशेष रुचि और अपनत्वके साथ निवाहते जा रहे हैं । इन सबका मैं हृदयसे अनुगृहीत हूं। उन्हींके सहयोगके बलपर आगेका कार्य भी समुचित रूपसे चलता रहेगा, ऐसी आशा है । नवें भागका मुद्रण प्रारम्भ हो गया है ।
नागपुर महाविद्यालय, नागपुर
७-९-१९४७
हीरालाल
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प्रस्तावना
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· INTRODUCTION.
The present volume contains the complete third part ( Khanda ) of the Satkhandagama. It is called Bandha-sämittavicaya which means ' Quest of those who bind the Karmas'. Out of the 148 varieties of Karmas, it is only 120 that are capable of being produced directly by the soul. The author of the Sūtras has mentioned, in the form of questions and answers, the spiritual stages (Günasthanas ) and the detailed conditions of life and existence ( Marganasthanas ) in which specified Karmas may be forged, Fortytwo Sutras are devoted to the Gunasthana treatment, and the rest 282 to the Margana-sthāna. The commentator has enlarged the scope of the treatment of the subject by raising twentythree questions and answering them in relation to all the Karmas. In this way, good many details about the Karma Siddhanta have been exposed, and the whole work is very important for a thorough study of Jaina Philosophy.
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विषय-परिचय
इस खण्डका नाम बन्धस्वामित्व-विचय है, जिसका अर्थ है बन्धके स्वामित्वका विचय अर्थात् विचारणा, मीमांसा या परीक्षा । तदनुसार यहां यह विवेचन किया गया है कि कौनसा कर्मबन्ध किस किस गुणस्थानमें व मार्गणास्थानमें सम्भव है। इस खण्डकी उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई गई है -
कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंमें छठवें अनुयोगद्वारका नाम बन्धन है । बन्धनके चार भेद हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान। बन्धविधान चार प्रकारका है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । इनमें प्रकृतिबन्ध दो प्रकारका है - मूल प्रकृतिबन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध । सत्प्ररूपणा पृष्ठ १२७ के अनुसार उत्तर प्रकृतिबन्ध भी दो प्रकारका है, एकैकोत्तरप्रकृतिबन्ध और अबोगाढउत्तरप्रकृतिबन्ध । एकैकोत्तरप्रकृतिबन्धके समुत्कीर्तनादि चौवीस अनुयोगद्वार हैं जिनमें बारहवां अनुयोगद्वार बन्धस्वामित्व-विचय है ।
इस खण्डमें ३२४ सूत्र हैं। प्रथम ४२ सूत्रोंमें ओघ अर्थात् केवल गुणस्थानानुसार प्ररूपण है, और शेष सूत्रोंमें आदेश अर्थात् मार्गणानुसार गुणस्थानोंका प्ररूपण किया गया है। सूत्रोंमें प्रश्नोत्तर क्रमसे केवल यह बतलाया गया है कि कौन कौन प्रकृतियां किन किन गुणस्थानोंमें बन्धको प्राप्त होती हैं। किन्तु धवलाकारने सूत्रोंको देशामर्शक मानकर बन्धव्युच्छेद
आदि सम्बन्धी तेवीस प्रश्न और उठाये हैं और उनका समाधान करके बन्धोदयव्युच्छेद, स्वोदय-परोदय, सान्तर-निरन्तर, सप्रत्यय-अप्रत्यय, गति-संयोग व गति-स्वामित्व, बन्धावान, बन्धव्युच्छित्तिस्थान, सादि-अनादि व ध्रुव-अध्रुव बन्धों की व्यवस्थाका स्पष्टीकरण कर दिया है, जिससे विषय सर्वांगपूर्ण प्ररूपित हो गया है। इस प्ररूपणाकी कुछ विशेष व्यवस्थायें इस प्रकार हैं
सान्तरबन्धी-एक समय बंधकर द्वितीय समयमें जिनका बन्ध विश्रान्त हो जाता है वे सान्तरबन्धी प्रकृतियां हैं। वे ३४ हैं- असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, मरकगति, एकेन्द्रियादि ४ जाति, समचतुरस्र संस्थानको छोड़ शेष ५ संस्थान, वर्षभनाराचसंहननको छोड़ शेष ५ संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीर्ति ।
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना
निरन्तरबन्धी- जो प्रकृतियां जघन्यसे भी अन्तर्मुहूर्त काल तक निरन्तर रूपसे बंधती हैं वे निरन्तरबन्धी हैं । वे ५४ हैं- ध्रुवबन्धी ४७ (देखिये पृ. ३), आयु ४, तीर्थकर, आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग ।
सान्तर-निरन्तरबन्धी- जो जघन्यसे एक समय और उत्कर्षतः एक समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तके आगे भी बंधती रहती हैं वे सान्तर-निरन्तरबन्धी प्रकृतियां हैं। वे ३२ हैंसातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्षभसंहनन, तिर्यग्गल्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगल्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, नीचगोत्र और ऊंचगोत्र।
गतिसंयुक्त- प्रश्न के उत्तरमें यह बतलाया गया है कि विवक्षित प्रकृतिके बन्धके साथ चार गतियोंमें कौनसी गतियोंका बन्ध होता है । जैसे- मिथ्यादृष्टि जीव ५ ज्ञानावरणको चारों गतियों के साथ, उच्चगोत्रको मनुष्य व देवगतिके साथ, तथा यशकीर्तिको नरकगतिके विना शेष ३ गतियोंसे संयुक्त बांधता है ।
___ गतिस्वामित्वमें विवक्षित प्रकृतियोंको बांधनेवाले कौन कौनसी गतियोंके जीव हैं, यह प्ररूपित किया गया है। जैसे-५ ज्ञानावरणको मिथ्यादृष्टि से असंयत गुणस्थान तक चारों गतियोंके, संयतासंयत तिर्यंच व मनुष्य गतिके, तथा प्रमत्तादि उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्यगतिके ही जीव बांधते हैं।
अध्वानमें विवक्षित प्रकृतिका बन्ध किस गुणस्थानसे किस गुणस्थान तक होता है, यह प्रगट किया गया है । जैसे- ५ ज्ञानावरणका बन्ध मिथ्यादृष्टिस लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक होता है।
सादि बन्ध-विवक्षित प्रकृतिके बन्धका एक वार व्युच्छेद हो जानेपर जो उपशमश्रेणीसे भ्रष्ट हुए जीवके पुनः उसका बन्ध प्रारम्भ हो जाता है वह सादि बन्ध है । जैसे - उपशान्तकषाय गुणस्थानसे भ्रष्ट होकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके ५ ज्ञानावरणका बन्ध ।
अनादि बन्ध- विवक्षित कर्मके बन्धके व्युच्छित्तिस्थानको नहीं प्राप्त हुए जीवके जो उसका बन्ध होता है वह अनादि बन्ध कहा जाता है। जैसे---- अपने बन्धव्युच्छित्तिस्थान रूप सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयसे नीचे सर्वत्र ५ ज्ञानावरणका बन्ध ।
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विषय-परिचय ध्रुव बन्ध - अभव्य जीवोंके जो ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध होता है वह अनादिअनन्त होनेसे ध्रुव बन्ध कहलाता है ।
ध्रुवबन्धी प्रकृतियां ४७ हैं - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तराय ।
अध्रुव बन्ध- भव्य जीवोंके जो कर्मबन्ध होता है वह विनश्वर होनेसे अध्रुव बन्ध है। अध्रुवबन्धी प्रकृतियां-ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंसे शेष ७३ प्रकृतियां अध्रुवबन्धी हैं ।
इनमें ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकार तथा शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध ही होता है । उक्त व्यवस्थायें यथासम्भव आगेकी तालिकाओंमें स्पष्ट की गई हैं
बन्धोदय-तालिका
संख्या
.
प्रकृति
बन्ध किस | उदय किस स्वोदयबन्धी सान्तरबन्धी| गुणस्थानसे | गुणस्थामसे आदि । आदि किस गुणस्थान किस गुणस्थान
तक
तक
| स्वो- बन्धी निरन्तरबन्धी
१-१०
स्व-परो.
१-८
१५
१-१३
सा. निर. सान्तरबन्धी
१-६
ज्ञानावरण ५
| चक्षुदर्शनावरणादि । १०-११/ निद्रा, प्रचला
| निद्रानिद्रादि ३ सातावेदनीय असातावेदनीय
| मिथ्यात्व १८-२१ अनन्तानुबन्धी ४
अप्रत्याख्यानावरण ४ २६.२९/ प्रत्याख्यानावरण ४ ३०.३२ संज्वलनक्रोधादि ३
२१ | संग्वलनलोभ
Ti
स्वो.
नि.
स्व-परो.
१-२
१-९
१-९
५२, ५५
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________________
पखंडागमको प्रस्तावना
संख्या
प्रकृति
बन्ध किस उदय किस स्वोदयबन्धी सान्तरबन्धी गुणस्थानसे गुणस्थानसे आदि । आदि किस गुणस्थान किस गुणस्थान
तक
तक
पृष्ठ
स्व-परो.
सा. निर.
सा. नि.
१-८ १-६
१-८
सा.
१-२
३४-३५/ हास्य, रति ३६-३७ भरति, शोक ३८-३९/ भय, जुगुप्सा
नपुंसकत्रेद स्त्रीवेद पुरुषवेद नारकायु
तिर्यगायु ४५ | मनुष्यायु
देवायु
सा.नि.
१-२
नि.
१
-४
स्व-परा
१-१
|
(३को छोड़) सा. सा.नि.
"
स्व-परो. |
१-१४
१-४ १-८
१-४
स्व-परो.
सा.
सा.नि.
१-८
१-४
१७ | नरकगति ४८ तिर्यग्गति ४९ | मनुष्यगति
देवगति ५१.५१ एकेन्द्रियादि ४ जाति ५५ पंचेन्द्रिय जाति | औदारिकशरीर वैक्रियिकशरीर
आहारकशरीर |तैजसशरीर ६० कार्मणशरीर
औदारिकअंगोपांग
| वैक्रियिकअंगोपांग - ६३ | माहारकअंगोपांग
M००
4
स्व-परो.
सा.नि
परो.
TS
Page #14
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________________
.. विषय-परिचय
स्वो. | नि. | १-८ स्व-परो. | सा. नि.
सा.
स्व-परो.
सा.
२
६४ । निर्माण
समचतुरस्रसंस्थान न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान स्वातिसंस्थान कुब्जकसंस्थान वामनसंस्थान हुण्डकसंस्थान वज्रवृषभनाराचसंहनन वज्रनाराचसंहनन नाराचसंहनन अर्धनाराचसंहनन कीलितसंहनन असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन
"
।
सा. नि.
१-४
१-२
।
१-११
१-७
MY :: :::::::::::::
:: :
स्पर्श
१-१३
रस गन्ध
वणे
परो. स्व-परो.
सा. नि.
नरकगत्यानुपूर्वी तिर्यग्गत्यानुपूर्वी मनुष्यगत्यानुपूर्वी देवगत्यानुपूर्वी अगुरुलघु उपघात
१-२ १-४
परो.
१-८
स्वो.
स्व-परो.
परघात
सा.नि.
आताप
सा.
:: : ::~ T! -
:
उद्योत
१-२
सा.नि.
१-८
१-१३
उच्छ्वास ९१ । प्रशस्तविहायोगति
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________________
षट्खंडागमको प्रस्तावना
संख्या
प्रकृति
बन्ध किस | उदय किस स्वोदयबन्धी सान्वरवन्धी गुणस्थानसे गुणस्थानसे भादि आदि किस गुणस्थान किस गुणस्थान
तक
वृक्ष
तक
स्व-परो.
सा.
अप्रशस्तविहायोगति | प्रत्येकशरीर साधारणशरीर
१-८
त्रस
| सा. नि.
सा. सा. नि.
सा. सा. नि.
१-८
-
-५०
६६
१-१३
सा. नि.
सा. | सा. नि.
१-८ १-२ १-८ १-२ १-८ १-६
सा.
सा. नि.
सा.
स्थावर सुभग दुर्भग सुस्वर दुस्वर
शुभ १०२
अशुभ १०३ बादर १०४ सूक्ष्म १०५ पर्याप्त १०६ अपर्याप्त १०७ | स्थिर १०८ | अस्थिर १०९ आदेय. ११० । अनादेय १११ | यशकीर्ति ११२ | अयशकीति ११३ तीर्थकर ११४ | उच्चगोत्र ११५ | नीचगोत्र ११६-२०/अन्तराय ५
~-
•८
-
३
सा. नि.
सा. सा. नि.
सा. सा. नि.
। सा. नि.
१-६
सा.
१-२
१-१ १-१४
१-६
|१३-१४
सा.नि.
१-१०
नि.
।१-१२
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प्रत्यय-तालिका (पृ. १९-२४)
कषाय
योग
गुणस्थाम
मिथ्यात्व
आहारद्विकसे रहित
सासादन
मिश्र
२१. अनन्तानुबन्धिचतुष्कसे रहित आ. द्विक, औ. मि., वै.मि.
___ व कार्भणसे रहित
असंयत
१३
आहारद्विकसे रहित
देशसंयत
त्रसअसं- अप्रत्याख्यानचतुष्कसे रहित आ. द्विक, औ. मि., वै. द्वि. |
व कार्मणसे रहित
प्रमत्त
१३
प्रत्याख्यानचतुष्कसे रहित | आहारद्विकसे सहित
उपर्युक्त
अप्रमत्त
आहारद्विकसे रहित
उपर्युक्त
अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण भा. १
नोकषाय ६से हीन
भा.२
नपुंसकवेदसे हीन
।
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________________
विषय परिचय
-
-
मिथ्यावविरति
कषाप -
योग
যুগথান
अनिवृत्तिकरण भा.३
स्त्रीवेदसे हीन
आ. द्विक, औ. मि., वै. द्वि... .
व कार्मणसे रहित
भा. ४
पुरुषवेदसे हीन
...
भा.५ ।
संचलनक्रोधसे हीन
संज्वलनमानसे हीन
भा. ७
संज्वलनमायासे हीन
सूक्ष्मसाम्प
राय
उपशान्त
कषाय
क्षीणमोह
सयोग
केवली
सत्य व अनुभय मन और वचन, औ. द्विक., कार्मण
अयोग.. केवली
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________________
विषय-सूची
क्रम नं. विषय
पृष्ठ क्रम नं. विषय १ धवलाकारका मंगलाचरण १ १४ ध्रुववन्धी प्रकृतियोंका निर्देश २ वन्ध-स्वामित्व विचयका दो । १५ निरन्तरबन्ध और ध्रुवबन्धमें प्रकारसे निर्देश
विशेषता ३ बन्ध-स्वामित्व-विचयका अवतार
२/१६ मूल और उत्तर प्रत्ययोंकी विस्तृत
प्ररूपणा ४ बन्ध व मोक्षका स्वरूप .
१७ गतिसंयोगादिविषयक प्रश्नोंका ५ बन्ध-स्वामित्व-विचयका निरु
उत्तर त्यर्थ
|१८ निद्रानिद्रादिक पच्चीस प्रकृ६ ओघसे बन्ध-स्वामित्व-विचयके
तियोंके बन्धस्वामित्व आदिका चौदह जीवसमासोंका निर्देश
विचार ७ चौदह गुणस्थानोंमें प्रकृतिबन्ध १९ निद्रा और प्रचला प्रकृतिके बंधव्युच्छेदकी प्रतिज्ञा
स्वामित्व आदिका विचार ८ व्युच्छेदके भेद और उनका | २० सातावेदनीयके बन्धस्वामित्व निरुक्त्यर्थ
___आदिका विचार ओघकी अपेक्षा बन्धस्वामित्व ७-९२
| २१ असातावेदनीय आदि छह
प्रकृतियोंके बन्धस्वामित्व ९ पांच ज्ञानावरणीय आदिके
आदिका विचार बन्धकोंकी प्ररूपणामें तेईस
| २२ मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतिप्रश्नोंका उद्भावन
योंके वन्धस्वामित्व आदिका १० प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति ९ विचार ११ प्रकृतियोंके बन्धोदयकी पूर्वा २३ अप्रत्याख्यानावरणीय आदि नौ परता
प्रकृतियोंके बन्धस्वामित्व १२ पांच शानावरणीयादिकोंके बंधके
- आदिका विचार स्वामी व उसके व्युच्छेदस्थानकी |२४ प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके बन्ध प्ररूपणा करते हुए उन तेईस ___स्वामित्व आदिका विचार प्रश्नका उत्तर
१२ | २५ पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधके १३ सान्तर, निरन्तर और सान्तर
बन्धस्वामित्व आदिका विचार निरन्तर रूपसे बंधनेवाली २६ संज्वलन मान और मायाके बन्धप्रकृतियोंका निर्देश
१६. स्वामित्व आदिका विचार
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________________
क्रम नं.
विषय
२७ संज्वलन लोभके बन्धस्वामित्व आदिका विचार
२८ हास्य, रति, भय और जुगुप्सा के बन्धस्वामित्व आदिका विचार
बन्धस्वामित्व
२९ मनुष्यायुके आदिका विचार
३० देवायुके बन्धस्वामित्व आदिका विचार
३१ देवगति आदि सत्ताईस प्रकृतियोंके बन्धस्वामित्व आदिका विचार
३२ आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांगके बन्धस्वामित्व आदिका विचार
३३ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धस्वामित्व आदिका विचार
३४ तीर्थकर प्रकृति के विशेष कारणों की आशंका
३५ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके सोलह कारणोंकी प्ररूपणा
३६ तीर्थकर
प्रकृतिके उदयका
माहात्म्य
४० मनुष्यायुके विचार
खंड की प्रस्तावना
पृष्ठ क्रम नं.
५८
५९
६१
६४
६६
७१
७३
७६
७८
९३
९८
१०९
विषय
प्रकृतिके स्वामित्वका विचार
१०२
४९ तीर्थकर
४२ प्रथम तीन पृथिवियोंमें बन्धस्वामित्वका विचार
बन्ध
४७ निर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेद्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेद्विय तियच योनिमतियों में ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार ४८ निद्रानिद्रा आदिक स्वामित्वका विचार
४९ मिथ्यात्व
४३ चतुर्थ, पंचम और छठी पृथिवी में बन्धस्वामित्व आदिका विचार ४४ सातवीं पृथिवी में ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार ४५ सातवीं पृथिवीमें निद्रानिद्रा आदिके बन्धस्वामित्वका विचार १०९ ४६ सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व आदिके बन्धस्वामित्वका विचार १११ तिर्यग्गतिमें
बन्ध
९१
आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
आदेशकी अपेक्षा बन्धस्वामित्व ९३ - ३९८ ५० अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके बंधगतिमार्गणा स्वामित्वका विचार
१२५
३७ नरकगतिमें ज्ञानावरणीय आदि के बन्धस्वामित्वका विचार
५१ देवायुके बन्धस्वामित्वका विचार १२६ ५२ पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तों में ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
३८ निद्रानिद्रादिके बन्धस्वामित्वका विचार
मनुष्यगतिमें
३९ मिथ्यात्व आदि के बन्धस्वामित्वका विचार
बन्धस्वामित्वका
पृष्ठ
५३ मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें ओघके बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा
समान
१०३
१०४
१०५
55
११२
११९
१२३
१२७
१३०
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________________
क्रम नं.
विषय
५४ मनुष्य अपर्याप्तों में पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंके समान बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा
देवगतिमें
५५ देवोंमें पांच ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्व आदिका विचार
बन्ध
५६ निद्रानिद्रा आदिके स्वामित्वका विचार
५७ मिध्यात्व
स्वामित्वका विचार
५८ मनुष्यायुके विचार
आदिके
बन्धस्वामित्वका
५९ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धस्वामित्व आदिका विचार
६४ निद्रानिद्रा आदि के स्वामित्वका विचार
६५ मिथ्यात्व
आदिके स्वामित्वका विचार
बन्ध
बन्ध
विषय-सूची
पृष्ठ क्रम नं.
बन्ध
१३४
६० भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें कुछ विशेषता के साथ सामान्य देवोंके समान बन्धस्वामित्व आदिकी प्ररूपणा १४६ ६१ सौधर्म और ईशान कल्पवासी देवों में सामान्य देवोंके समान बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा ६२ सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में प्रथम पृथि वीस्थ नारकियोंके समान बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा ६३ आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक पांच ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
१३७
१४१
१४३
१४४
१४५
૨૩૭
१४८
१४९
१५२
१५३
६६ मनुष्यायुके विचार
६७ तीर्थंकर
विषय
बन्धस्वामित्वका
प्रकृति के बन्ध
स्वामित्वका विचार
६८ अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक पांच ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
इन्द्रियमाणा
६९ एकेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त, विकलत्रय पर्याप्त अपर्याप्त, तथा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तों में पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंके समान बन्धस्वामित्वकी
प्ररूपणा
७० पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तों में पांच ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्व के विचार में बन्धक आदि विषयक तेईस प्रश्नोंके एक - द्विसंयोगादि भंगों की प्ररू
पणा
७१ उक्त जीवों में निद्रानिद्रा आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
७२ निद्रा और प्रचलाके बन्धस्वामित्वका विचार
७३ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वका विचार
७४ असातावेदनीय आदि प्रकृतियों के विचार
छह
बन्धस्वामित्वका
७५ मिथ्यात्व आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
आदिके
७६ अप्रत्याख्यानावरणीय बन्धस्वामित्वका विचार
११
पृष्ठ
१५४
""
१५५
१५८
१७०
१७४
१७७
66
१७८
१८०
१८२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
विचार
पखंडागमकी प्रस्तावना कम नं. विषय पृष्ठ क्रम नं. विषय
- पृष्ठ ७७ प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके बन्ध
योगमार्गणा स्वामित्वका विचार
। ८९ पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी ७८ पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधके
और काययोगी जीवों में सब बन्धस्वामित्वका विचार.
प्रकृतियों के बन्धस्वामित्वकी ७९ संज्वलन मान और मायाके
ओघके समान प्ररूपणा २०१ बन्धवामित्वका विचार १८५ | ९० उक्त जीवों में सातावेदनीय विष८० संज्वलन लोभक बन्धस्वामित्वका
यक बन्धस्वामित्वकी कुछ " | विशेषता
२०२ ८१ हास्य, रति, भय और जुगुप्साके |९१ औदारिककाययोगियों में मनुष्य बन्धस्वामित्वका विचार
गतिके समान बन्धस्वामित्वकी ८२ मनुष्यायुके बन्धस्वामित्वका
२०३
प्ररूपणा विचार
९२ उक्त जीवों में सातावेदनीयके ८३ देवायुके बन्धस्वामित्वका विचार १८७ /
बन्धस्वामित्वकी मनोयोगियोंके समान प्ररूपणा
२०५ ८४ देवगति आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
| ९३ औदारिकमिश्रकाययोगियों में - ८५ आहारकशरीर और आहारक
पांच ज्ञानावरणीय आदिके बन्ध
स्वामित्वका विचार अंगोपांगके बन्धस्वामित्वका विचार
९४ निद्रानिद्रा आदिके बन्ध.
स्वामित्वका विचार ८६ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धस्वामित्वका
९५ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वका विचार
विचार कायमार्गणा
९६ मिथ्यात्व आदिके बन्धस्वामित्वका ८७ पृथिवीकायिक, जलकायिक,
विचार वनस्पतिकायिक, निगोद जीव ९७ देवचतुष्कके बन्धस्वामित्वका बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त
विचार
२१४ तथा बादर वनस्पतिकायिक ९८ वैक्रियिककाययोगियों में देवप्रत्येकशरीर पर्याप्त अपर्याप्तोंमें
गतिके समान बन्धस्वामित्वकी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके
प्ररूपणा
२१५ समान बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा १९२ / ९९ वैक्रियिकामिश्रकाययोगियों में देव८८ तेजकायिक व वायुकायिक बादर
गतिके समान बन्धस्वामित्वकी सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्तोंमें कुछ
प्ररूपणा
२२२ विशेषताके साथ पंचेन्द्रिय १०० उक्त जीवोंमें तिर्यगायु और तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान बन्ध
मनुष्यायुके बन्धाभावकी स्वामित्वकी प्ररूपणा १९९. विशेषता
२२०
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________________
विषय-सूची
क्रम नं. विषय
पृष्ठ क्रम नं. विषय १०१ आहारक व आहारकमिथ काय
११४ हास्य व रतिसे लेकर तीर्थकर योगियों में पांच ज्ञानावरणीय
प्रकृति तक ओघके समान आदिके बन्धस्वामित्वकाविचार २२९ प्ररूपणा
२५४ १०२ कार्मणकाययोगियों में पांच |११५ अपगतवेदियों में पांच ज्ञानाज्ञानावरणीय आदिके बन्ध
वरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
स्वामित्वका विचार
२६४ १०३ निद्रानिद्रा आदिके बन्ध ११६ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वका स्वामित्वका विचार
विचार
२६५ १०४ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वका ११७ संज्वलनक्रोधके बन्धस्वामित्वका विचार
विचार
२६६ १०५ मिथ्यात्व आदिके वन्ध- ११८ संज्वलन मान और मायाके स्वामित्वका विचार
बन्धस्वामित्वका विचार २६७ १०६ देवगति आदिके बन्ध- ११९ संज्वलनलोभके बन्धस्वामित्वका स्वामित्वका विचार
विचार
२६८ वेदमार्गणा
कषायमार्गणा १०७ स्त्री, पुरुप और नपुंसकवेदियोंमें | १२० क्रोधकषायी जीवों में पांच ज्ञानापांच ज्ञानावरणीय आदिके
वरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका बन्धस्वामित्वका विचार
विचार
२६९ १०८ निद्रानिद्रा आदि द्विस्थानिक
१२१ द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी ओघके प्रकृतियोंके बन्धस्वामित्वकी
समान प्ररूपणा
२७२ ओघके समान प्ररूपणा
१२२ निद्रासे लेकर प्रत्याख्यानावरण१०९ निद्रा और प्रचलाकी ओघके
चतुष्क तक ओघके समान प्ररूपणा
२७४ समान प्ररूपणा
२४८
१२३ पुरुषवेदादिकी ओघके समान ११० असातावेदनीयकी ओघके
प्ररूपणा
२७५ समान प्ररूपणा
२४९
१२४ हास्य व रतिसे लेकर तीर्थकर १११ मिथ्यात्व आदिक एकस्थानिक
प्रकृति तक ओघके समान प्रकृतियोंकी ओघके समान
प्ररूपणा प्ररूपणा
" | १२५ मानकपायी जीवों में पांच ११२ अप्रत्याख्यानावरणीयकी ओघके
ज्ञानावरणीय आदिके बन्ध. समान प्ररूपणा
२५१ स्वामित्वका विचार ११३ प्रत्याख्यानावरणीयकी ओधके १२६ द्विस्थानिक आदि प्रकृतियोंकी समान प्ररूपणा
ओघके समान प्ररूपणा २७६
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षट्खंडागमको प्रस्तावना क्रम नं.
विषय ___पृष्ठ क्रम नं. विषय १२७ हास्य रति आदिकी ओघके १४० मनःपर्ययशानियों में पांच ज्ञानासमान प्ररूपणा
वरणीय आदिके बन्ध१२८ मायाकषायी जीवोंमें पांच
स्वामित्वका विचार ज्ञानावरणीय आदिके वन्ध- १४१ निद्रा और प्रचलाके बन्धस्वामित्वका विचार
स्वामित्वका विचार १२९ द्विस्थानिक आदिकी ओघके १४२ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वसमान प्ररूपणा
का विचार १३० हास्य-रति आदिकी ओघके १४३ शेष प्रकृतियोंकी कुछ विशेसमान प्ररूपणा
षताके साथ ओघके समान
प्ररूपणा १३१ लोभकषायी जीवोंमें पांच शानावरणीय आदिके बन्ध
| १४४ केवलज्ञानियों में सातावेदनीयके स्वामित्वका विचार
बन्धस्वामित्वका विचार १३२ शेष प्रकृतियोंकी ओघके समान
संयममार्गणा प्ररूपणा
,, | १४५ संयत जीवोंमें मन पर्य१३३ अकषायी जीवोंमें सातावेद
यज्ञानियोंके समान बन्धनीयके वन्धस्वामित्वका विचार ,
स्वामित्वकी प्ररूपणा ज्ञानमार्गणा
१४६ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वमें
कुछ विशेषता १३४ मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और
!९४७ सामायिक छेदोपस्थापनशुद्धिविभंगशानियों में पांच ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका
संयतोंमें पांच ज्ञानावरणीय
आदिके बन्धस्वामित्वका विचार विचार
२७९ १३५ एकस्थानिक प्रकृतियोंकी ओधके
। १४. शेष प्रकृतियोंके बन्ध
स्वामित्वकी मनःपर्ययज्ञानियोंसमान प्ररूपणा
के समान प्ररूपणा १३६ आभिनिबोधिक, श्रुत और
! १४९ परिहारशुद्धिसंयतोंमें पांच अवधिज्ञानी जीवों में पांच
ज्ञानावरणीय आदिके बन्धशानावरणीय आदिके बन्ध
स्वामित्वका विचार स्वामित्वका विचार
२८६
१५० असातावेदनीय आदिके बन्ध१३७ निद्रा व प्रचलाकी ओघके
स्वामित्वका विचार समान प्ररूपणा
१५१ देवायुके बन्धस्वामित्वका १३८ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वका विचार
१५२ आहारशरीर और आहार१३९ शेष प्रकृतियोंकी ओघके
शरीरांगोपांगके बन्धस्वामित्वसमान प्ररूपणा
का विचार
२९८
३००
विचार
२८८
३०७
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________________
पृष्ठ
३०९
३४०
विषय-सूची क्रम नं. विषय
पृष्ठ क्रम नं. विषय १५३ सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंमें । १६५ तेज और पद्मलेश्यावालोंमें पांच ज्ञानावरणीय आदिके
पांच ज्ञानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार ३०८ बन्घस्वामित्वका विचार १५४ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें १६६ द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी ओघके सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वका
समान प्ररूपणा विचार
१६७ असातावेदनीयकी ओघके १५५ संयतासंयतोंमें पांच शाना
समान प्ररूपणा वरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
१६८ मिथ्यात्व आदिके बन्धः
स्वामित्वका विचार १५६ असंयत जीवोंमें पांच शानावरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका
१६९ अप्रत्याख्यानावरणीयकी ओघके विचार
समान प्ररूपणा १५७ विस्थानिक प्रकृतियोंकी ओघके १७० प्रत्याख्यानावरणकी ओघके समान प्ररूपणा
समान प्ररूपणा १५८ एकस्थानिक प्रकृतियोंकी १७१ मनुष्यायुकी ओघके समान ओघके समान प्ररूपणा
प्ररूपणा १५९ मनुष्यायु और देवायुके बन्ध- १७२ देवायुकी ओघके समान स्वामित्वका विचार
प्ररूपणा १६० तीर्थकर प्रकृतिके बन्ध
१७३ आहारकशरीर और आहारकस्वामित्वका विचार
शरीरांगोपांगके बन्धस्वामित्वका
विचार दर्शनमार्गणा १६१ चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी
| १७४ तीर्थकर प्रकृतिके बन्ध
खामित्वका विचार जीवोंमें ओघके समान बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा
। १७५ पदमलेश्यावालोंमें मिथ्यात्व१६२ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वमें ।
दण्डककी नारकियोंके समान
प्ररूपणा कुछ विशेषता
१७६ शुक्ललेश्यावालोंमें तीर्थकर १६३ अवधिदर्शनी जीवोंमें अवधि
प्रकृति तक ओघके समान ज्ञानियों और केवलदर्शनी
प्ररूपणा जीवों में केवलज्ञानियोंके समान
! १७७ उक्त जीवोंमें सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा
बन्धस्वामित्वकी मनोयोगियोंके लेश्यामार्गणा
समान प्ररूपणा १६४ कृष्ण, नील और कापोत लेश्या- | १७८ द्विस्थानिक और एकस्थानिक वालोमें असंयतोंके समान
प्रकृतियोंकी नवग्रैवेयकविमान बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा ३२० । वासी देवोंके समान प्ररूपणा
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________________
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
पृष्ठ क्रम नं.
क्रम नं.
विषय
विषय
भव्यमार्गणा
| १९१ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वका १७९ भव्य जीवों में ओघके समान
विचार
३७५ बन्धवामित्वकी प्ररूपणा ३५८ | १९२ असातावेदनीय आदिके
बन्धस्वामित्वका विचार
३७६ १८० अभव्य जीवों में पांच ज्ञानायरणीय आदिके बन्ध
१९३ अप्रत्याख्यानावरणीयकी स्वामित्वका विचार
३५९
अवधिशानियोंके समान
प्ररूपणा सम्यक्त्वमार्गणा
१९४ उक्त जीवोंमें आयुके बन्धका १८१ सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्य
अभाव
३७७ ग्दृष्टि जीवोंमें आभिनिवाधिक
१९५ प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके बन्धशानियोंके समान बन्ध
स्वामित्वका विचार स्वामित्वकी प्ररूपणा. ३६३ १९६ पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधके १८२ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्वमें
बन्धस्वामित्वका विचार कुछ विशेषता
१९७ संज्वलन मान और मायाके १८३ वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें पांच
बन्धस्वामित्वका विचार ३७८ ज्ञानावरणीय आदिके बन्ध- १९८ संज्वलनलोभके बन्धस्वामित्वका विचार
स्वामित्वका विचार १८४ असातावेदनीय आदिके बन्धः १९९ हास्य, रति, भय और स्वामित्वका विचार
जुगुप्साके बन्धस्वामित्वका विचार
३७९ १८५ अप्रत्याख्यानवरणीय आदिके बन्धस्वामित्वका विचार
२०० देवगति आदिके बन्ध१८६ प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके बन्ध
स्वामित्वका विचार स्वामित्वका विचार ।
२०१ आहारकशरीर और आहारक१८७ देवायुके बन्धस्वामित्वका
शरीरांगोपांगके बन्धस्वामित्व
का विचार विचार
२०२ सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी मति१८८ आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांगके बन्धस्वामित्वका
ज्ञानियों के समान प्ररूपणा विचार
३७२ २०३ सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंकी असं. १८२ उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें पांच
यतोंके समान प्ररूपणा ज्ञानावरणीय आदिके वन्ध- | २०४ मिथ्यादृष्टियोंकी अभव्य जीवोंके स्वामित्वका विचार
, समान प्ररूपणा १९० निद्रा और प्रचलाके बन्ध- | २०५ संज्ञी जीवोंमें ओघके समान खामित्वका विचार
३७४ । बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा
३८
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________________
शुद्धि-पत्र
क्रम नं.
विषय
पृष्ठ क्रम नं.
विषय
२०६ सातावेदनीयके बन्धस्वामित्व
की चक्षुदर्शनी जीवोंके समान
प्ररूपणा २०७ असंशी जीवोंमें अभव्योंके
समान बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा
३८७
।२०८ आहारक जीवोंमें ओघके
समान बन्धस्वामित्वकी
प्ररूपणा २०९ अनाहारक जीवोंमें कार्मण
काययोगियोंके समान बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा
शुद्धि-पत्र
,
१२
पृष्ठ पं.
अशुद्ध किस गुणस्थान तक
किस गुणस्थानसे किस गुणस्थान तक ९ ४ उववसो
उवएसो बोच्छिंजदि
वोच्छिज्जदि बज्झति
बज्झंति बंधमाणाणि ।
बंधमाणाणि बंधति
बंधंति ,, २५-२६ दश प्रकृतियां तथा दर्शनावरणकी दश प्रकृतियों तथा दर्शनावरणकी चार ही ..... स्वोदयसे ही बंधती हैं, प्रकृतियोंको बांधनेवाले सब गुणस्थान
स्वोदयसे ही बांधते हैं, १६ ६ पुच्छणं पडिवणं।
पुच्छाणं पडिवणं वुच्चदे। " २२
ये तीन प्रश्न प्राप्त होते हैं। इन तीन प्रश्नोंका उत्तर कहते हैं । थि
इत्थि अशुभ, पांच
अशुभ पांच विहायोगति स्थावर
विहायोगति तथा स्थावर दु बावीसा
दुबावीसा २५ २० हे उदयवोच्छेदो
उदयवोच्छेदादो कदि गदिया
कदिगदिया वुच्चदे
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________________
जाता?
५०
४
षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ पं. अशुद्ध
যুৎ ११ जिरयगइपाओग्गाणुपुग्वि णिरयगई-णिरयगइपाओग्गाणुपुब्वि , २६ नारकायु और
नारकायु, नरकगति और २ ७ धुवबंधो।
धुवबंधो , १७-२१ सर्व काल... क्यों नहीं पाया शंका-सर्व काल.........औदारिकशरीरका
ध्रुव बन्ध और अनादिक बन्ध भी क्यों
नहीं पाया जाता? " २३
अनादि रूपसे ध्रुव बन्धका अनादि एवं ध्रुव बन्धका बंधा ॥ २० ॥
बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा॥२०॥ १५ बन्धक हैं !॥ २० ॥ बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक
हैं ॥ २० ॥ दुविहाभावादो
धुवियाभावादो दो प्रकारके बन्धका
ध्रुव बन्धका xxx
२ प्रतिषु दुविहाभावादो इति पाठः । गयपच्चओ
सगपच्चओ' गतप्रत्यय है, अर्थात् उसका प्रत्यय स्वनिमित्तक है, ऊपर बतला ही चुके हैं, अनुभागोदयसे अथवा अनन्तगुण- अनुभागोदयकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन हानिसे हीन xxx
१ प्रतिषु ' गयपच्चओ' इति पाठः । क्योंकि, वहां
क्योंकि, [ मिथ्यात्व और सासादन गुण
स्थानमें ] अन्तर्दीपक
अन्तदीपक ९१ १० लोकस्स
लोगस्स अच्चणिज्जा वंदणिज्जा अच्चणिज्जा पूजणिज्जा वंदणिज्जा
अर्चनीय, वंदनीय, अर्चनीय, पूजनीय, वंदनीय, ९२ १९ पांच मुष्टियों अर्थात् अंगोंसे पांच मृष्टियों अर्थात् पांच अंगों द्वारा
भूमिस्पर्शसे ९९ ४ वंघो
बंधो १०४ २२ द्वितीय दण्डकमें (!).. द्वितीय दण्डक अर्थात् निद्रानिद्रा आदि
द्विस्थानिक प्रकृतियोंमें
"
२०
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________________
शुद्धि-पत्र
पृष्ठ पं. १०६ ३
११३
११ २५
A
MM 9m
अशुद्ध
शुद्ध जसकित्ति-णिमिण जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण यशकीर्ति, निर्माण
यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण अत्थगदीए
अत्थ गदीए अर्थगतिसे
इस गतिमें उप्पण्णाणं सणकुमारादि' उप्पण्णाणं, ओरालियसरीरअंगोवंगस्स
सणक्कुमारादि जीवोंके, और सनत्कुमारादि । जीवोंके उपर्युक्त प्रकृतियोंका, तथा औदा
रिकशरीरांगोपांगका सनत्कुमारादि भी इनका निरन्तर
भी निरन्तर मणुस्साउ-मणुसगइपाओग्गाणु- मणुस्साउ- [ मणुसगइ-] मणुसगइ. पुवीओ
पाओग्गाणुपुवीओ तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइपाओ- तिरिक्खाउ॰ [तिरिक्खगइ-] तिरिक्खग्गाणुपुत्वीओ
गइपाओग्गाणुपुव्वीओ मनुष्यायु एवं
मनुष्यायु, [ मनुष्यगति ] एवं तिर्यगायु, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानु- तिर्यगायु, [ तिर्यग्गति ], तिर्यग्गतिपूर्वी
प्रायोग्यानुपूर्वी पज्जत्त-पत्तेय
पज्जत्त-अपज्जत्त पत्तेय पर्याप्त, प्रत्येक
पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक धुवबंधित्तादो । xxx धुवबंधित्तादो । अवसेसाणं सादि
अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो। ध्रुवबन्धी हैं । xxx ध्रुवबन्धी हैं। शेष प्रकृतियोंका सादि
और अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे
अध्रुवबन्धी हैं। णवदसणा-सोलसकसाय- णवदसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त
सोलसकसाय[तिर्यग्गइ-तिर्यग्गइपाओगाणु- [तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-]
पुब्बी -] णिमिण-पंचंतराहयाणं णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं निर्माण और
निर्माण, उच्चगोत्र और सादासाद
सादासाद पविक्ख
पडिवक्ख
१३४ ११ १३६ ९
-१४९
, १६० २७३
२० १० १२
Page #29
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________________
२०
१७४
"
१७
२३४ ૨૭૮
૨૨
षटखंडागमकी प्रस्तावना अशुद्ध
शुद्ध सांतर-णिरंतरो।
सांतर-णिरंतरो, आदेज्ज-जसकित्ति
आदेज्ज- [अणादेज्ज-] जसकित्ति आदेय, यशकीर्ति
आदेय, [ अनादेय ], यशकीर्ति अत्थगईए
अत्थ गईए अर्थापत्तिसे
इस पर्यायमें पज्जत्तापज्जाणं
पज्जत्तापज्जत्ताणं मिच्छइट्ठीसु
मिच्छाइट्टीसु ॥ १०५॥
॥ २०५॥ रदि-सोग
रदि-अरदि-सोग रति, शोक
रति, अरति, शोक नरकगगति
नरकगति वेच्छिज्जदि
वोच्छिज्जदि जसकित्तिणामाणं
अजसकित्तिणामाणं अयशकिर्ति
अयशकीर्ति असंजसम्मादिटिप्पहुडि असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि मदिणाणिभंगो
मदिअण्णाणिभंगो मतिज्ञानियोंके
मतिअज्ञानियोंके xxx
१ प्रतिषु मदिणाणिभंगो इति पाठः ।
१५
३१६ २४
३६७
२७
२३
२४
.
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________________
(सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूदयलि-पणीदो
छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो
बंधसामित्तविचओ)
स तदियखंडो
( साहवज्झाइरिए अरहते वंदिऊण' सिद्धे वि ।
जे पंच लोगवाले वोच्छं बंधस्स सामित्तं ॥ जो सो बंधसामित्तविचओ णाम तस्स इमो दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य ॥ १॥
किमट्ठमिदं सुत्तं वुच्चदे ? संबंधाभिहेय-पओजणपदुप्पायणटुं । जो सो बंधसामित्तविचओ
साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरहंत और सिद्ध, ये जो पंच लोकपाल अर्थात् लोकोत्तम परमेष्ठी हैं उनको नमस्कार करके बंधके स्वामित्वको कहते हैं।
जो बंधस्वामित्वविचय है उसका यह निर्देश ओघ और आदेशकी अपेक्षासे दो प्रकार है ॥ १॥
शंका---यह सूत्र क्यों कहा जाता है ?
समाधान-सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजनके बतलानेके लिये उक्त सूत्र कहा गया है।
'जो वह बंधस्वामित्वविचय है ' इससे सम्बन्ध कहा गया है । वह इस प्रकार . १ प्रतिषु — वढिऊण ' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः ‘लोकचाले' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'संबंधामिहिय-' इति पाठः ।
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________________
२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १. णामेत्ति एदेण संबंधो कहिदो । तं जहा- कदि-वेदणादिचदुवीसअणिओगद्दारेसु तत्थ बंधणमिदि छट्ठमणिओगद्दारं । तं चउन्विहं बंधो बंधगा बंधणिजं बंधविहाणमिदि। तत्थ बंधो णाम जीवस्स कम्माणं च संबंध णयमस्सिदूण परुवेदि । बंधगो ति अहियारो एक्कारसअणिओगद्दारेहि बंधगे परूवेदि । बंधणिजं णाम अहियारो तेवीसवग्गणाहि बंधजोग्गमबंधजोग्गं च पोग्गलदव्वं परूवेदि । जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधो चेदि । तत्थ पयडिबंधो दुविहो मूलपयडिबंधो उत्तरपयडिबंधो चेदि । जो सो मूलपयडिबंधो सो दुविहो एगेगमूलपयडिबंधो अव्वोगाढमूलपयडिबंधो चेदि । जो सो अव्वोगाढमूलपयडिबंधो सो दुविहो भुजगारबंधो पयडिट्ठाणबंधो चेदि। तत्थ उत्तरपयडिबंधस्स समुक्तित्तणाओ चदुवीसअणिआगदाराणि भवंति । तेसु चदुवीसअणिओगद्दारेसु बंधसामित्तं णाम अणिओगद्दारं । तस्सेव बंधसामित्तविचओ त्ति सण्णा । जो सो बंधसामित्तविचओ बंधण-बंधविहाणप्पसिद्धो [सो ] पवाहसरूवेण अणाइणिहणो । जो सो ति वयणेण जेण सो संभालिदो तेण एसो णिद्देसो संबंधपरूवओ। एसो चेव अभिहेयपरूवओ वि । तं जहा- जीव-कम्माणं मिच्छत्तासंजमकसाय-जोगेहि एयत्तपरिणामो बंधो । उत्तं च
है-कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में बन्धन नामक जो छठा अनुयोगद्वार है वह चार प्रकार है-बंध, बंधक,बन्धनीय और बन्धविधान । उनमें बन्ध नामक आधिकार जीव और कर्मोके सम्बन्धका नयकी अपेक्षा करके निरूपण करता है । बन्धक अधिकार ग्यारह अनुयोगद्वारोंसे बन्धकोंका निरूपण करता है । बन्धनीय नामक अधिकार तेईस वर्गणाओंसे बन्धयोग्य और अबन्धयोग्य पुद्गल द्रव्यका प्ररूपण करता है। जो बन्धविधान है वह चार प्रकार है- प्रकृतिबंध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । उनमें प्रकृतिबन्ध दो प्रकार है-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबंध। जो मूलप्रकृतिबन्ध है वह दो प्रकार है- एक एकमूलप्रकृतिवन्ध और अब्वोगाढमूलप्रकृतिबन्ध । जो अन्वोगाढ़मूलप्रकृतिबन्ध है वह दो प्रकार है- भुजगारबंध और प्रकृतिस्थानबन्ध । इनमें उत्तरप्रकृतिबन्धके समुत्कीर्तन करनेवाले चौबीस अनुयोगद्वार हैं। उन चौबीस अनुयोगद्वारों में बन्धस्वामित्व नामक अनुयोगद्वार है। उसका ही नाम बन्धस्वामित्वविचय है। जो बन्धस्वामित्वविचय बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत बन्धविधान अधिकारके भीतर प्रसिद्ध है वह प्रवाहरूपसे अनादिनिधन है । ' जो सो' इस वचनसे चूंकि उसका स्मरण कराया गया है इसीलिये यह निर्देश सम्बन्धका निरूपक है, और यही अभिधेयका भी निरूपक है। वह इस प्रकार है- जीव और कौका मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगोंसे जो एकत्व परिणाम होता है उसे बन्ध कहते हैं । कहा भी है
१ प्रतिषु अभिहिय' इति पाठः।
Page #32
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३, १.]
णिदेसपरूवणं बंधेण य संजोगो पोग्गलदव्वेण होइ जीवस्स ।
बंधो पुण विण्णेओ बंधविओओ पमोक्खो' दु ॥ १॥ । एदस्स बंधस्स सामित्तं बंधसामित्तं, तस्स विचओ [बंधसामित्तविचओ, विचओ] विचारणा मीमांसा परिक्खा इदि एयहो । तस्स बंधसामित्तविचयस्स इमो दुविहो णिद्देसो त्ति जेणेदं सुत्तं देसामासियं तेणेत्थ पओजणं पि परूवेदव्वं । किमट्टमेत्थ बंधस्स सामित्तं उच्चदे ? संत-दव्व-खेत्त-फोसण-कालंतर-भावप्पाबहुव-गइरागइबंधगत्तेण अवगयाणं चोद्दसगुणट्ठाणाणं अणवगदे बंधविसेसे बंधगत्तं बंधकारणगइरागईओ च सम्मं ण णव्वंति त्ति काऊण चोदसगुणहाणाणि अहिकिच्च अप्पाउआणमणुगहढे बंधविसेसो उच्चदे । तस्स णिद्देसो दुविहो ओघादेसभेएण । तिविहो किण्ण होदि ? ण, वयणपओगो हि णाम परट्ठो । ण च परो वि दुणयवदिरित्तो अत्थि जेण तिविहा एयविहा वा परूवणा होज्ज त्ति । ओघणिद्देसो दव्वट्ठियणयाणुग्गहकरो, इयरो वि पज्जवट्ठियणयस्स ।
___ जीवका पुद्गल द्रव्यसे जो बन्ध सहित संयोग होता है उसे बन्ध और बन्धक वियोगको मोक्ष जानना चाहिये ॥१॥
इस बन्धका जो स्वामित्व है वह बन्धस्वामित्व है । उसका जो विचय है वह बन्धस्वामित्वविचय है । विचय, विचारणा, मीमांसा और परीक्षा, ये समानार्थक शब्द हैं । 'उस बन्धस्वामित्वविचयका यह दो प्रकारका निर्देश है ' चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है इस लिये यहां प्रयोजन भी कहना चाहिये ।
शंका-यहां बन्धके स्वामित्वको किस लिये कहा जाता है ?. ___ समाधान-सत्त्व, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व और गत्यागति बन्धक रूपसे जाने गये चौदह गुणस्थानोंके बन्धविशेषके अज्ञात होनेपर बन्धकत्व व बन्धनिमित्तक गति-आगतिका भले प्रकार ज्ञान नहीं हो सकता, ऐसा जानकर चौदह गुणस्थानोंका अधिकार करके अल्पायु शिष्यों के अनुग्रहके लिये बन्धविशेष कहा जाता है। उसका निर्देश ओघ और आदेशके भेदसे दो प्रकार है।
शंका-वह निर्देश तीन प्रकारका क्यों नहीं होता ?
समाधान नहीं होता, क्योंकि वचनका प्रयोग परके लिये होता है, और पर भी दो नयोको छोड़कर है नहीं जिससे तीन प्रकार या एक प्रकार प्ररूपणा होसके।
__ ओघनिर्देश द्रव्यार्थिक नयवालोंका और इतर अर्थात् आदेशनिर्देश पर्यायार्थिक नयवालोंका अनुग्रहकर्ता है।
१ प्रतिषु ‘पमोक्खा' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २. ओघेण बंधसामित्तविचयस्स चोदसजीवसमासाणि णादव्वाणि भवंति ॥ २॥
'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' त्ति जाणावणट्ठमोघेणेत्ति उत्तं । बंधसामित्तविचयस्सेत्ति संबंधे छट्ठी दट्ठव्वा । अधवा, बंधसामित्तक्चिए इदि विसयलक्खणसत्तमीए छट्ठीणिदेसो कायव्यो । पुव्वमवगया चेव चौदसजीवसमासा, पुणो ते एत्थ किमटुं परूविज्जते ? ण एस दोसो विस्सरणालुअसिस्ससंभालणत्तादो।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा अपुवकरणपइट्टउवसमा खवा अणियट्टिबादरसांपराइयपइट्ठउवसमा खवा सुहुमसांपराइयपइट्ठउवसमा खवा उवसंतकसायवीयरागछदुमत्था खीणकसायवीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवली ॥३॥)
ओघकी अपेक्षा बन्धस्वामित्वविचयके चौदह जीवसमास जानने योग्य हैं ॥ २ ॥
'जैसा उद्देश वैसा निर्देश होता है ' इसके ज्ञापनार्थ · ओघसे' ऐसा कहा है । 'बन्धस्वामित्वविचयके' यह सम्बन्धमें षष्ठी विभक्ति जानना चाहिये । अथवा 'बन्धस्वामित्वविचयमें' इस प्रकार विषयाधिकरण लक्षण सप्तमी विभक्ति के स्थानमें षष्ठी विभक्तिका निर्देश करना चाहिये ।
शंका-चौदह जीवसमास पूर्वमें जाने ही जा चुके हैं, फिर उनकी यहां प्ररूपणा किसलिये की जाती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह कथन विस्मरणशील शिष्योंके स्मरण करानेके लिये है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक, अनिवृत्तिबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक व क्षपक, सूक्ष्मसाम्परायिकप्रविष्ट उवशमक व क्षपक, उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये चौदह जीवसमास हैं ॥३॥
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३, ४.]
पयडिबंधवोच्छेदपरूवणपइण्णा एदस्स सुत्तस्स अत्थो जहा जीवट्ठाणे वित्थरेण परूविदो तहा एत्थ परूवेदव्वो, विसेसाभावादो । एवं चोदसण्हं जीवसमासाणं सरूवं संभालिय बंधसामित्तपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
___ एदेसि चोदसण्हं जीवसमासाणं पयडिबंधवोच्छेदो कादवो भवदि ॥४॥
जदि जीवसमासाणं पयडिबंधवोच्छेदो चेव उच्चदि तो एदस्स गंथस्स बंधसामित्तविचयसण्णा कधं घडदे ? ण एस दोसो, एदम्मि गुणट्ठाणे एदासिं पयडीणं बंधवोच्छेदो होदि त्ति कहिदे हेट्टिल्लगुणट्ठाणाणि तासिं पयडीण बंधसामियाणि त्ति सिद्धीदो। किं च वोच्छेदो दुविहो उप्पादाणुच्छेदो अणुप्पादाणुच्छेदो चेदि । उत्पादः सत्वं, अनुच्छेदो विनाशः अभावः नीरूपिता' इति यावत् । उत्पाद एव अनुच्छेदः उत्पादानुच्छेदः, भाव एव अभाव इति यावत् । एसो दव्वट्ठियणयव्यवहारो। ण च एसो एयंतेण चप्पलओ, उत्तरकाले अप्पिदपज्जायस्स
इस सूत्रका अर्थ जैसे जीवस्थानमें विस्तारसे कहा गया है वैसे ही यहां भी कहना चाहिये, क्योंकि, जीवस्थानसे यहां कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार चौदह 'जीवसमासोंके स्वरूपका स्मरण कराकर बन्धस्वामित्वके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
इन चौदह जीवसमासोंके प्रकृतिबन्धव्युच्छेदका कथन करने योग्य है ॥ ४ ॥
शंका-यदि यहां जीवसमासोंका प्रकृतिबन्धव्युच्छेद ही कहा जाता है तो फिर इस ग्रन्थका ‘बन्धस्वामित्व' यह नाम कैसे घटित होगा?
समाधान---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस गुणस्थानमें इतनी प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद होता है, ऐसा कहनेपर उससे नीचेके गुणस्थान उन प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी हैं, यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है । दूसरी बात यह है कि व्युच्छेद दो प्रकारका है- उत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादका अर्थ सत्व और अनुच्छेदका अर्थ विनाश, अभाव अथवा नीरूपीपना है। 'उत्पाद ही अनुच्छेद उत्पादानुच्छेद ' ( इस प्रकार यहां कर्मधारय समास है)। उक्त कथनका अभिप्राय भावको ही अभाव बतलाना है। यह द्रव्यार्थिक नयके आश्रित व्यवहार है। और यह एकान्त रूपसे अर्थात् सर्वथा मिथ्या भी नहीं है, क्योंकि, उत्तरकालमें विवक्षित पर्यायके विनाशसे विशिष्ट द्रव्य पूर्व
१ प्रतिषु · निरूपिता' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ४. विणासेण विसिट्ठदव्वस्स पुव्विल्लकाले वि उवलंभादो । दव्वट्टियणयम्मि संताणं पज्जायाणं कधमभावो ? को भणदि तेसिं तत्थाभावो त्ति, किंतु ते तत्थ अप्पहाणा अविवक्खिया अणप्पिया इदि तेसिं दव्वत्तमेव ण तत्थ पज्जायत्तं । कधमत्थियवसेण अदव्वाणं पज्जयाणं दव्वत्तं ? ण, दव्वदो एयंतेण तेसिं पुधभूदाणमणुवलंभादो, दव्वसहावाणं चेवुवलंभा । जदि एवं तो भावस्स दुचरिमादिसु समएसु चरिमसमए इव अभावववहारो किण्ण कीरदे ? ण एस दोसो, दुचरिमादीणं चरिमसमयस्सेव अभावेण सह पच्चासत्तीए अभावाद।। दवट्ठियस्स कधमभावबवहारो ? ण एस दोसो, 'यदस्ति न तद् द्वयमतिलंध्य वर्त्तत' इति दो वि णए अविलंबिऊण ट्ठिदणेगमणयस्स भावाभावव्यवहारविरोहाभावादो । अनुत्पादः असत्वं, अनुच्छेदो
कालमें भी पाया जाता है।
शंका-द्रव्यार्थिक नयमें विद्यमान पर्यायोंका अभाव कैसे होता है ?
समाधान-यह कौन कहता है कि उनका वहां अभाव होता है, किन्तु वे वहां अप्रधान, अविवक्षित अथवा अनर्पित हैं, इसलिये उनके द्रव्यपना ही है, पर्यायपना वहां नहीं है।
शंका-द्रव्यार्थिक नयके वशसे द्रव्यसे भिन्न पर्यायोंके द्रव्यत्व कैसे सम्भव है ?
समाधान- यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, पर्याय द्रव्यसे सर्वथा भिन्न नहीं पायी जाती, किन्तु द्रव्यस्वरूप ही वे उपलब्ध होती है ।
शंका-यदि ऐसा है तो फिर पदार्थके अन्तिम समयके समान द्विचरमादि समयों में भी अभावका व्यवहार क्यों नहीं किया जाता ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्विचरमादिक समयोंके अन्तिम समयके समान अभावके साथ प्रत्यासत्ति नहीं है।
शंका-द्रव्यार्थिककी अपेक्षा पर्यायोंमें अभावका व्यवहार कैसे होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, 'जो है वह दोनोंका अतिक्रमण कर नहीं रहता' इस लिये दोनों नयोंका आश्रयकर स्थित नैगमनयके भाव व अभाव रूप व्यवहारमें कोई विरोध नहीं है।
अनुत्पादका अर्थ असत्व और अनुच्छेदका अर्थ विनाश है। अनुत्पाद ही अनुच्छेद
१ मतिषु ' तथाभावो ' इति पाठः ।
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३, ५.]
ओघेण पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं विनाशः, अनुत्पाद एव अनुच्छेदः ( अनुत्पादानुच्छेदः) असतः अभाव इति यावत् , सतः असत्वविरोधात् । एसो पज्जवट्ठियणयव्यवहारो । एत्थ पुण उप्पादाणुच्छेदमस्सिदूण जेण सुत्तकारेण अभावव्ववहारो कदो तेण भावो चेव पयडिबंधस्स परुविदो। तेणेदस्स गंथस्स बंधसामित्तविचयसण्णा घडदि त्ति ।।
पंचण्णं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दंसणावरणीयाणं जसकित्तिउच्चागोद-पंचण्हमंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥५॥
बंधो बंधगो त्ति भणिदं होदि । पयडिसमुक्कित्तणाए णाणावरणादीणं सरूवं परूविदमिदि णेह परूविज्जदे, पउणरुत्तियादो। को बंधो को अबंधओ ति णिद्देसादो एदं पुच्छासुत्तमासंकियसुत्तं वा । किं मिच्छाइट्ठी बंधओ किं सासणसम्माइट्ठी किं सम्मामिच्छाइट्ठी किं असंजदसम्माइट्ठी एवं.गंतूण किं अजोगी किं सिद्धो बंधओ त्ति तेणेवं पुच्छा कायव्वा । एदं देसामासियसुत्तं । किं बंधो पुव्वं वोच्छिज्जदि किमुदओ पुव्वं वोच्छिज्जदि किं दो वि समं वोच्छिज्जंति, किं सोदएण एदासिं बंधो किं परोदएण किं स-परोदएण, किं सांतरो बंधो किं
अर्थात् असत्का अभाव होता है, क्योंकि सत्के असत्वका विरोध है । यह पर्यायार्थिक नयके आश्रित व्यवहार है । यहांपर चूंकि सूत्रकारने उत्पादानुच्छेदका आश्रय करके ही अभावका व्यवहार किया है, इसलिये प्रकृतिबन्धका सद्भाव ही निरूपित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थका ‘बन्धस्वामित्वविचय' नाम संगत ही है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ? ॥ ५॥
'बन्ध' शब्दसे यहां बन्धकका अभिप्राय प्रकट किया गया है । चूंकि प्रकृतिसमुकीर्तन चूलिकामें शानावरणादिकोंका स्वरूप कहा जा चुका है, अत एव अब उनका स्वरूप यहां नहीं कहा जाता, क्योंकि ऐसा करनेसे पुनरुक्ति दोष आवेगा । 'कौन बन्धक और कौन अबन्धक' इस निर्देशसे यह पृच्छासूत्र अथवा आशंकासूत्र है, ऐसा समझना चाहिये । इसीलिये क्या मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या संम्यग्मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, इस प्रकार जाकर क्या अयोगी बन्धक है, क्या सिद्ध जीव बन्धक है, ऐसा यहां प्रश्न करना चाहिये। यह देशामर्शक सूत्र है। इसलिये यहां क्या बन्धकी पूर्वमें व्युच्छित्ति होती है (१) क्या उदयकी पूर्वमें व्युच्छित्ति है (२) या दोनोंकी साथ ही व्युच्छित्ति होती है (३) क्या अपने उदयके साथ इनका बन्ध होता है (४) क्या पर प्रकृतियोंके उदयके साथ इनका बन्ध होता है (५) या अपने व पर दोनोंके उद्यसे इनका बन्ध होता है (६)
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८]. छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ५. णिरंतरो बंधो किं सांतरणिरंतरो, किं सपच्चओ किमपच्चओ, किं गइसंजुत्तो किमगइसंजुत्तो, कदिगदिया सामिणो असामिणो, किं वा बंधद्धाणं, किं चरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि किं पढमसमए किमपढमअचरिमसमए बंधो वोच्छिजदि, किं सादिगो बंधो किं अणादिओ, किं धुवो किमद्धवो त्ति, तेणेदाओ तेवीसपुच्छाओ पुव्विलपुच्छाए अंतब्भूदाओ त्ति दवाओ एत्थुवउज्जतीओ आरिसगाहाओ
बंधो बंधविही पुण सामित्तद्धाण पच्चयविही य । एदे पंचणिओगा मग्गणठाणेसु मग्गेज्जा' ॥ २ ॥ बंधोदय पुव्वं वा समं व णियएण कस्स व परेण । अण्णदरस्सुदर्पण व सांतरविगयंतरं का च ॥ ३ ॥ पच्चय-सामित्तविही संजुत्तद्धाणएण तह चेय। सामित्तं णेयव्वं पयडीणं ठाणमासेज्ज ॥ ४ ॥ बंधोदय पुव्वं वा समं व स-परोदए तदुभएण । सांतर णिरंतर वा चरिमेदर सादिआदीया ॥ ५॥
क्या सान्तर बन्ध होता है (७) क्या निरन्तर बन्ध होता है (८) या सान्तर निरन्तर बन्ध होता है (९) क्या सनिमित्तक वन्ध होता है (१०) या अनिमित्तक (११) क्या गतिसंयुक्त बन्ध होता है (१२) या गतिसंयोगसे रहित (१३) कितनी गतिवाले जीव स्वामी हैं (१४) और कितनी गतिवाले स्वामी नहीं है (१५) बन्धाध्वान कितना है अर्थात् बन्धकी सीमा किस गुणस्थान तक है (१६) क्या अन्तिम समयमें बन्धकी व्युच्छित्ति होती है (१७) क्या प्रथम समयमें बन्धकी व्युच्छित्ति होती है (१८) या बीचके समयमें (१९) बन्ध क्या सादि है (२०) या क्या अनादि (२१) क्या ध्रुव बन्ध होता है (२२) या अध्रुव (२३) ये तेईस प्रश्न पूर्वोक्त प्रश्नके अन्तर्गत हैं, ऐसा जानना चाहिये। यहां उपयुक्त आर्ष गाथायें
बन्ध, बन्धविधि, बन्धस्वामित्व, अध्वान अर्थात् बन्धसीमा और प्रत्ययविधि, ये पांच नियोग मार्गणास्थानों में खोजने योग्य हैं ॥२॥
बन्ध पूर्व में है, उदय पूर्वमें हैं, या दोनों साथ हैं, किस कर्मका बन्ध निजके उदयके साथ होता है, किसका परके साथ, और किसका अन्यतरके उदयके साथ, कौन प्रकृति सान्तरबन्धवाली है, और कौन निरन्तरवन्धवाली, प्रत्ययविधि, स्वामित्वविधि तथा गतिसंयुक्त बन्धाध्वानके साथ प्रकृतियों के स्थानका आश्रयकर स्वामित्व जानना चाहिये ॥३-४॥
बन्ध पूर्वमें, उदय पूर्वमें या दोनों साथ होते हैं, वह बन्ध स्वोदयसे परोदयसे या दोनोंके उदयसे होता है. उक्त बन्ध सान्तर है या निरन्तर, वह अन्तिम समयमें होता है या इतर समयमें, तथा वह सादि है या अनादि है ॥५॥
१ प्रतिषु — मग्गजो' इति पाठः ।
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३, ५.] चोइसगुणट्ठाणेसु पयडीणमुदयवोच्छेदपरूवणा
एत्थ एदासु पुच्छासु विसमपुच्छाणमत्थो वुच्चदे । तं जहा- बंधवोच्छेदो एत्थेव सुत्तसिद्धो त्ति तं मोत्तूण पयडीणमुदयवोच्छेदं ताव वत्तइस्सामो । मिच्छत्त-एइंदिय-बीइंदियतीइंदिय-चउरिंदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं दसण्हूं पयडीणं मिच्छाइट्ठिस्स चरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो । एसो महाकम्मपयडिपाहुडउववसो । चुण्णिसुत्तकत्ताराणमुवएसेण पंचण्णं पयडीणमुदयवोच्छेदो, चदुजादि-थावराणं सासणसम्मादिट्ठिम्हि उदयवोच्छेदब्भुवगमादो। अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोहाणं सासणसम्माइट्टिचरिमसमए उदयवोच्छेदो । सम्मामिच्छत्तस्स सम्मामिच्छाइट्टिम्हि उदयवोच्छेदो । अपच्चक्खाणावरणकोह-माण-माया-लोह-णिरयाउदेवाउ-णिरयगइ-देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउवियसरीरअंगोवंग-चत्तारिआणुपुन्वि-दुभग-अणादेज्जअजसकित्तीणं सत्तारसण्णमेदासिं पयडीणं असंजदसम्मादिट्टिम्हि उदयवोच्छेदो। पञ्चक्खाणावरणकोह-माण-माया-लोह-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-उज्जोव-णीचागोदाणमट्ठण्णं पयडीणं संजदासंजदम्मि उदयवोच्छेदो । णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-आहारसरीरदुगाणं पंचण्णं पयडीणं
___ इन प्रश्नोंमें विषम प्रश्नोंका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-चूंकि बन्धव्युच्छेद यहां ही सूत्रसे सिद्ध है अत एव उसको छोड़कर प्रकृतियों के उदयव्युच्छेदको कहते हैं । मिथ्यात्व, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन दश प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है । यह महाकर्मप्रकृतिप्राभतका उपदेश है । चूर्णिसूत्रोंके कर्ता यतिवृषभाचार्यके उपदेशसे मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें पांच प्र उदयव्युच्छेद होता है, क्योंकि, चार जाति और स्थावर प्रकृतियोंका उद्यव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें माना गया है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका उदयध्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है । सम्यग्मिथ्यात्वका उदयव्युच्छेद सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें होता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, चार आनुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति, इन सत्तरह प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें होता है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, उद्योत और नीच गोत्र, इन आठ प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद संयतासंयतगुणस्थानमें होता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, आहारशरीर और आहारशरीरांगोपांग, इन पांच प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद प्रमत्तसंयत
१ प्रतिषु णमिऊणकत्ताराण-' इति पाठः ।।
२ मिच्छे मिच्छादावं मुहुमतियं सासणे अणेइंदी। थावरवियलं मिस्से मिस्सं च य उदयवोच्छिण्णा॥ गो. क. २६५.
३ अयदे विदियकसाया वेगुब्वियछक्क णिरय-देवाऊ। मणुय-तिरियाणुपुव्वी दुब्भगणादेज्ज अज्जसयं ॥ गो. क. २६६.
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१०] छक्खंडागमे बंधसामित्तयिचओ
[३, ५. पमत्तसंजदम्मि उदयवोच्छेदो । अद्धणारायण-खीलिय-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-वेदगसम्मत्ताणं चदुण्हं पयडीणं अप्पमत्तसंजदम्मि उदयवोच्छेदो । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं छण्णं पयडीणमपुव्वकरणम्मि उदयवोच्छेदो । इत्थि-णqसय-पुरिसवेद-कोह-माण-मायासंजलणाणं छण्णं पयडीणमणियट्टिम्हि उदयवोच्छेदो । लोभसंजलणस्स एक्कस्स चेव सुहुमसांपराइयचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो । वज्जणारायण-णारायणसरीरसंघडणाणं दोण्णं पयडीणं उवसंतकसायम्मि उदयवोच्छेदो । णिद्दा-पयलाणं दोण्हं पि खीणकसायदुचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं चोदसणं पयडीणं खीणकसायचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो । ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघादुस्सास-दोविहायगदिपत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुस्सर-दुस्सर-णिमिणाणमेगुणतीसपयडीणं सजोगिकेवलिम्हि उदय
गुणस्थानमें होता है । अर्धनाराच, कीलित, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन और वेदकसम्यक्त्व इन चार प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें होता है। हास्य, रति, अरति. शोक, भय और जुगुप्सा, इन छह प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद अपूर्वकरण गुणस्थानमें होता है। स्त्री, नपुंसक और पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया, इन छह प्रकृतियोंका उदग्रव्युच्छेद अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होता है। केवल एक संज्वलन लोभका उदयव्युच्छेद सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। वज्रनाराच और नाराच शरीरसंहनन, इन दो प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद उपशान्तकषाय गुणस्थानमें होता है। निद्रा और प्रचला दोनों प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें होता है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इन चौदह प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन. वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुकलघुक, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगतियां,प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर और निर्माण, इन उनतीस प्रक्रतियोंका उदयव्युच्छेद सयोगिकेवली गुणस्थानमें होता है। दो वेदनीय, मनुष्यायु,
१ देसे तदियकसाया तिरियाउज्जोव-णीच-तिरियगदी । छठे आहारदुर्ग थीणतियं उदयवोच्छिण्णा ॥ गो. क. २६७.
२ अपमत्ते सम्मत्तं अंतिमतियसंहदी यऽपुवम्हि । छच्चेव णोकसाया अणियट्टीभागभागेसु ॥ वेदतिय कोह-माणं मायासंजलणमेव सहुमंते । सहुमो लोहो संते वज्जणाराय-णारायं ॥ गो. क. २६८-२६९
३ खीणकसायदुचरिमे णिद्दा पयला य उदयवोच्छिण्णा | णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि चरिमम्हि ॥ गो. क. २७०.
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पयडीणं बंधोदयवोच्छेदस्स पुव्वावरत्तं वोच्छेदो' । दोवेदणीय-मणुस्साउ-मणुस्सगइ-मंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्त-सुभग-आदेज्जजसगित्ति-तित्थयर-उच्चागोदाणं तेरसण्हं पयडीणमजोगिकेवलिम्हि उदयवोच्छेदो' (एत्थ उवसंहारगाहा
दस चदुरिगि सत्तारस अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य ।
छच्छक्क एग दुग दुग चोइस उगुतीस तेरसुदयविही ॥ ६ ॥ एवमुदयवोच्छेदं परूविय कासि पयडीणं बंधो उदए फिट्टे वि होदि, कासिं पयडीणं बंधे फिट्टे वि उदओ होदि, कासिं बंधोदया समं वोच्छिज्जति त्ति वुच्चदे । तं जहादेवाउ-देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउव्वियअंगोवंग देवगइपाओग्गाणुपुन्वि-आहारदुग-अजसकित्तीणमट्टण्णं पयडीणं पढममुदओ वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो (एत्थ उवसंहारगाहा
देवाउ-देवचउक्काहारदुंअं च अजसमट्ठण्हं । पढममुदओ विणस्सदि पच्छा बंधो मुणयेव्यो ॥ ७ ॥)
मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, प्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थकर और उञ्चगोत्र, इन तेरह प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद अयोगिकेवली गुणस्थानमें होता है। यहां उपसंहारगाथा
दश, चार, एक, सत्तरह, आठ, पांच, चार, छह, छह, एक, दो, दो, चौदह, उनतीस और तेरह, (इस प्रकार क्रमशः मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानोंमें उदयव्युच्छिन्न प्रकृतियों की संख्या है)॥६॥
___ इस प्रकार उदयव्युच्छेदको कहकर अब किन प्रकृतियोंका बन्ध उदयके नष्ट होनेपर भी होता है, किन प्रकृतियोंका उदय बन्धके नष्ट होनेपर भी होता है, और किन प्रकृतियोंका बन्ध व उदय दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, इस बातको कहते हैं। वह इस प्रकार है-देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआंगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारकशरीर, आहारकआंगोपांग और अयशकीर्ति, इन आठ प्रकृतियोंका प्रथम उदयका विच्छेद होता है, पश्चात् बन्धका । यहां उपसंहारगाथा
देवायु, देवचतुष्क अर्थात् देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकप्रांगोपांग, तथा आहारकशरीर, महारक आंगोपांग एवं अयशकीर्ति, इन आठ प्रकृतियोंका पहिले उदय नष्ट होता है, पश्चात् बन्ध, ऐसा जानना चाहिये ॥ ७॥
१तदियेक्कवज्ज-णिमिणं थिर-सुह-सर-गदि-उराल-तेजदुगं । संठाणं वण्णागुरुचउक्क-पत्तेय जोगिम्हि ।। गो. क. २७१.
२ तदियेकं मणुवगदी पंचिंदिय-सुभग-तस-तिगादेज । जस-तित्थं मणुवाऊ उच्चं च अजोगिचरिमम्हि॥ गो. क. २७२.
३ गो. क. २६३. ४ देवचउक्काहारदुगज्जसदेवाउगाण सो पच्छा । गो. क. ४००
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११]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ मिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्क-अपच्चक्खाणावरणचउक्क-पच्चक्खाणावरणचउक्क-तिण्णिसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्वि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं एकत्तीसपयडीणं बंधोदया समं वोच्छिजंति । एत्थ उवसंहारगाहाओ
मिच्छत्त-भय-दुगुंछा-हस्स-रई-पुरिस-थावरादावा । सुहुमं जाइचउक्कं साहारणयं अपज्जत्तं ।। ८ ।। पण्णरस कसाया विणु लोहेणक्केण आणुपुत्री य ।
मणुसाणं एदासिं समगं बंधोदवुच्छेदो ॥ ९॥) पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-दोवेयणीय-लोहसंजलण-इत्थि-णqसयवेद-अरइ-सोगणिरयाउ-तिरिक्खाउ-मणुस्साउ-णिरयगइ-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-पंचिंदियजाइ-ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंडघण-वण्णच उक्क-णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-अगुरुअलहुअचउक्क-उज्जोव-दोविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज जसगित्ति-णिमिण-तित्थयर-णीचुच्चगोद-पंचं
मिथ्यात्व, चार अनन्तानुबन्धी, चार अप्रत्याख्यानावरण, चार प्रत्याख्यानावरण, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन इकतीस प्रकृतियोंका बन्ध व उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं। यहां उपसंहारगाथायें
मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, पुरुषवेद, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, साधारण, अपर्याप्त, संज्वलनलोभके विना पन्द्रह कषाय और मनुष्यगत्यानुपूर्वी, इन प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद और उदयव्युच्छेद साथ ही होता है ॥८-९॥
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, दो वेदनीय, संज्वलनलोभ, स्त्रीवेद,नपुंसकवेद, अरति, शोक, नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, वर्णादिक चार, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, उद्योत,दो विहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, नीचगोत्र, उच्चगोत्र
१ अप्रतौ — दुगुंठाणमेगिंदिय-' इति पाठः ।
२ मिच्छत्तादावाणं णराणु-थावरचउक्काणं । पण्णरकसाय-भयदुग-हस्सदु-चउजाइ-पुरिसवेदाणं । सममेक्कत्तीसाणं से सिगसीदाण पुवं तु । गो. क. ४००-४०१.
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३, ६.] पंचणाणावरणीयादीणं बंधवोच्छेदो
१३ तराइयाणमेगासीदिपयडीणं पढमं बंधो वोच्छिज्जदि, पच्छा उदओ (एत्थ उवसंहारगाहा
पुव्वुत्तवसेसाओ एगासीदी हवंति पयडीओ।
ताणं बंधुच्छेदो पुव्वं पच्छोदउच्छेदो ॥ १०॥) सेसाणं जहावसरमत्थं भणिस्सामा ।
मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । सुहुमसापराइयसुद्धिसंजदद्धाएं चरिमसमयं गंतूण बंधो बोच्छिजदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ६ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- 'मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहमसांपराइयखवगा ' त्ति एदेण वयणेण अद्धाणं जाणाविदं । 'एदे बंधा, अवसेसा अबंधा त्ति' एदेण बंधस्स सामित्तं जाणाविदं । 'सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिजदि ' त्ति एदेण वि 'किं चरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि त्ति' पुच्छाए पढम-[ अपढम-] अचरिमपडिसेहमुहेण पडिउत्तरो दिण्णो । अवसेसाणं पुच्छाणं ण परिच्छेओ कदो। तेणेदं
और पांच अन्तराय, इन इक्यासी प्रकृतियोंका पहिले बन्ध नष्ट होता है, पश्चात् उदय । यहां उपसंहारगाथा
पूर्वोक्त प्रकृतियोंसे शेष जो इक्यासी प्रकृतियां रहती हैं उनका बन्धव्युच्छेद पहिले और उदयव्युच्छेद पश्चात् होता है ॥ १० ॥
शेष प्रश्नोंका अर्थ यथावसर कहेंगे
मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उपशामक व क्षपक तक उपर्युक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परायिककालके अन्तिम समयमें जाकर बन्ध व्युछिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ६॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- 'मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक तक' इस वचनसे बन्धाध्वान ज्ञापित किया है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ' इससे बन्धका स्वामित्व ज्ञापित किया है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतकालके अन्तिम समयमें जाकर वन्ध व्युच्छिन्न होता है' इससे भी क्या चरम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता ? ' इस प्रश्नका प्रथम और [ अप्रथम-] अचरम समयके प्रतिषेधमुखसे प्रत्युत्तर दिया गया है। शेष प्रश्नोंका निर्णय यहां सूत्र में नहीं किया गया । इसीलिये यह देशामर्शक
१ प्रतिषु — संजदाए' इति पाठः।
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१४]
'छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६.
देसामासियसुत्तं तम्हा एत्थ लीणत्थाणं परूवणं कस्सामा । तं जहा - किं बंधो पुव्वं वोच्छिजदि, किमुदओ पुव्वं वोच्छिजदि, किं दो वि समं वोच्छिति, एदासिं तिष्णं पुच्छाणं बुत्तरो बुच्चदे । एदासिं सोलसण्णं पयडीणं बंधो पुव्वं वोच्छिजदि सुहुमसांपराइयचरिमसमए, उदओ पच्छा वोच्छिज्जदि; पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय पंचतराइयाणं खीणकसायचरिमसमए, जसकित्ति उच्चागोदाणमजोगिचरिमसमए उदयवोच्छेददंसणादो । किं सोदण, किं परोदरण, किं सोदयपरोदएण एदासिं बंधो त्ति पुच्छमस्सिदूण वुच्चदे । एत्थ ताव देण संबंषेण सोदएण परोदएण सोदय-परोदएण बज्झमाणपयडिपरूवणं कस्सामा । तं जहा- णिरयाउदेवाउ-णिरयगइ-देवगइ-वे उव्वियसरीर- आहारसरीर- वेडव्विय-आहारसरीरंगोवंग- णिरयगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-तित्थयरमिदि एदाओ एक्कारसपयडीओ परोदएण बज्झंति ( एत्थ उवसंहारगाहा -
तित्थयर - णिरय- देवाउअ उव्वियछक्क दो वि आहारा । एक्कारसपयडीणं बंधो हु परोदत्तो ॥ ११ ॥ )
पंचणाणावरणीय - [ चउदसणावरणीय - ] मिच्छत्त-तेजा - कम्मइ यसरीर-वण्णच उक्कं अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह- णिमिण-पंचंतराइयमिदि एदाओ सत्तवीसपयडीओ सोदएण
सूत्र है और देशामर्शक होनेसे यहां लीन अर्थात् अन्तर्निहित अर्थोंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- क्या बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, या क्या दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं ? इन तीन प्रश्नों का उत्तर कहते हैं- इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध उदयव्युच्छित्तिसे पहिले सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें व्युच्छिन्न होता है, तत्पश्चात् उदयकी व्युच्छित्ति होती है; क्योंकि पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इन चौदह प्रकृतियोंका क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें, तथा यशकीर्ति व उच्चगोत्र इन दो प्रकृतियों का अयोगिकेवली के अन्तिम लययमें उदयव्युच्छेद देखा जाता है । ' क्या वोदयसे, क्या परोदयसे, या क्या स्वोदयपरोदयसे इनका बन्ध होता है ?' इस प्रश्नका आश्रयकर उत्तर कहते हैं । अब यहां पहिले इस सम्बन्धसे स्वोदय, परोदय और स्वोदय-परोदय से बंधनेवाली प्रकृतियों का निरूपण करते हैं। वह इस प्रकार है- नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, नरकगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर, ये ग्यारह प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं। यहां उपसंहारगाथा -
तीर्थकर, नारकायु, देवायु, वैक्रियिकशरीरादि छह और दोनों आहारक, इन ग्यारह प्रकृतियोंका बन्ध परोदयसे कहा गया है ॥ ११ ॥
पांच ज्ञानावरणीय, [ चार दर्शनावरणीय ], मिथ्यात्व, तैजस और कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुकलघुक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, ये
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[१५
३, ६.]
स-परोदएण बज्झमाणपयडिपरूवणा बझंति । पंचदंसणावरणीय-दोवेदणीय-सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्खाउ-मणुस्साउतिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइपाओग्गाणुपुब्वि-उवघाद-परघादउस्सास-आदाव-उज्जोव-दोविहायगदि-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साधारणसरीर-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादे। जसकित्ति-अजसकित्ति-णीचुच्चागोदमिदि एदाओ वासीदिपयडीओ सोदय-परोदएण बज्झति । एत्थ उवसंहारगाहाओ
णाणंतराय-दसण-थिरादिचउ-तेजकम्मदेहाई । णिमिणं अगुरुवलहुअं वण्णचउक्कं च मिच्छत्तं ॥ १२ ॥ सत्तावीसेदाओ बझंति हु सोदएण पयडीओ।
सोदय-परोदएण वि बझंतवसेसियाओ दु ॥ १३ ॥) एत्थ णाणावरणंतराइयदसपयडीओ दंसणावरणस्स चत्तारि पयडीओ चेव बंधमाणाणि । सव्वगुणट्ठाणाणि सोदएण चेव बंधति, मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसाया त्ति एदासिं णिरंतरोदयादो सोदएण बज्झमाणपयडीणमभंतरे पादादो वा । जसकित्तिं मिच्छाइटिप्पहुडि
सत्ताईस प्रकृतियां स्वोदयसे बंधती हैं । पांच दर्शनावरणीय, दो वेदनीय सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु,तिर्यग्गति,मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर,छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगति, वर्स, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण शरीर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र, ये व्यासी प्रकृतियां स्वोदय-परोदय दोनों प्रकारसे बंधती हैं । यहां उपसंहारगाथायें
पांच ज्ञानावरण, पांच अन्तराय, दर्शनावरण चार, स्थिर आदिक चार, तैजस और कार्मण शरीर, निर्माण, अगुरुकलघुक, वर्णादिक चार और मिथ्यात्व, ये सत्ताईस प्रकृतियां तो स्वोदयसे बंधती हैं और शेष प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं ॥ १२-१३ ॥ ___यहां शानावरण व अन्तरायकी दश प्रकृतियां तथा दर्शनावरणकी चार ही प्रकृतियां बंधनेवाली हैं । ये अपने बन्ध योग्य सब गुणस्थानों में स्वोदयसे ही बंधती हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक इनका निरन्तर उदय रहता है, अथवा इनका पतन स्वोदयसे बंधनेवाली प्रकृतियोंके भीतर है । यशकीर्ति प्रकृतिको मिथ्यादृष्टिसे
१ सुर-णिरयाऊ तित्थं वेगुब्वियछक्कहारमिदि जेसिं। परउदयेण य बंधो मिच्छं मुहमस्स घादीओ॥ तेमदुगं वण्णचऊ थिर-सुहजुगलगुरु-णिमिण-धुवउदया।सोदयबंधा सेसा वासीदा उभयबंधाओ।गो.क.४०२-४०३.
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१६]
छडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६.
जाव असंजदसम्माडित्ति सोदएण वि परोदरण वि बंधति, एदेसु दोणं एक्कदरस्सुदयतादो । उवरिमा सोदण चेव बंधति, संजदासंजदप्पहुडिउवरिमेसु गुणट्ठाणेसु अजसकित्ति - उदयाभावाद| | उच्चागोदं मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति एदे सोदरण परोद एण वि बज्झति, एत्थ दोण्णं गोदाणमुदयसंभावादो । उवरिमा पुण सोदएण चेत्र बंयंति, तत्थ णीचागोदस्सुदयाभावादो । तम्हा' जसकित्ति उच्चागोदाणि सोदय-परोदयगंधा इदि सिद्धं ।
एदासिं बंध किं सांतरा किं णिरंतरो किं सांतर-निरंतरो त्ति पदासिं पुच्छणं पडिवण्णं । एत्थ एदेण अत्थसंबंधेण ताव सांतर - निरंतर -सांतरणिरंतरेण बज्झमाणपयडीओ जाणावेमो | तं जहापंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुर्गुछा आउच उक्कआहार-तेजा-कम्मइयसरीर- आहारसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस- फास- अगुरुवलहुअ- उवषाद- णिमिणतित्थयर-पंचंतराइयमिदि एदाओ चडवण्णं पयडीओ निरंतरं बज्झति । तत्थ उवसंहारगाहा - सत्तेताल धुवाओ तित्थयराहार - आउचत्तारि ।
चवणं पयडीओ बज्झति गिरंतरं सव्वा ॥ १४ ॥
लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदयसे भी बांधते हैं और परोदयसे भी बांधते हैं, क्योंकि, इन गुणस्थानों में यशकीर्ति और अयशकीर्तिमें से किसी एकका उदय रहता है । असंयतसम्यग्दृष्टिसे ऊपरके गुणस्थानवर्ती जीव सोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि, संयतासंयतसे लेकर उपरिम गुणस्थानों में अयशकीर्तिका उदय नहीं रहता । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तकके जीव स्वोदयसे और परोदयसे भी बांधते हैं, क्योंकि, यहां दोनों गोत्रोंका उदय सम्भव है । परन्तु इससे ऊपरके जीव स्वोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि, वहां नीचगोत्रका उदय नहीं रहता । इस कारण यशकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियां स्वोदय- परोदय से बंधनेवाली हैं, यह सिद्ध होता है ।
अब उक्त सोलह प्रकृतियोंका बन्ध क्या सान्तर है, क्या निरन्तर है, और क्या सान्तर - निरन्तर है ? ' ये तीन प्रश्न प्राप्त होते हैं। यहां इस अर्थसम्बन्धसे पहिले सान्तर, निरन्तर और सान्तर - निरन्तर रूपसे बंधनेवाली प्रकृतियों का बोध कराते हैं । वह इस प्रकार है - पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा आयु चार, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुकलघुक, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और पांच अन्तराय, ये चौवन प्रकृतियां निरंतर बंधती हैं। यहां उपसंहारगाथा -
सैंतालीस ध्रुवप्रकृतियां, तीर्थकर आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग और ये सब चौवन प्रकृतियां निरंतर बंधती हैं ॥ १४ ॥
चार आयु,
९ प्रतिष्षु ' तं जहा ' इति पाठः ।
२ सत्तेताल धुवा विय तित्थाहाराउगा निरंतरगा । गो . क. ४०४.
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३, ६.] सांतर-णिरंतरेण बज्झमाणपयडिपरूवणा
[१७ काओ धुवबंधियपयडीओ ? एदाओ चेव आउचउक्क-तित्थयराहारदुयविरहिदाओ । एदासिं परूवणगाहाओ
णाणंतरायदसयं सण णव मिच्छ सोलस कसाया । भयकम्म दुगुच्छा वि य तेजा कम्मं च वण्णचदू ॥ १५॥ अगुरुअलहु-उबघादं णिमिणं णामं च होंति सगदालं ।
बंधो चउव्वियप्पो धुवबंधीणं पयडिबंधो' ॥ १६ ॥ णिरंतरबंधस्स धुवबंधस्स को विसेसो ? जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थ वि जीवे अणादि-धुवभावेण लब्भइ सा धुववंधपयडी । जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि-अद्धओ अंतोमुहुत्तादिकालावट्ठाई सा णिरंतरबंधपयडी। जिस्से जिस्से पयडीए अद्धाक्खएण बंधवोच्छेदो संभवइ सा सांतरबंधपयडी। असादावेदणीय-इत्थि-णqसयवेद-अरइ-सोग-णिरयगइ-जाइचउक्कहेट्ठिमपंचसंठाण-पंचसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुवि-आदावुज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-थावर
शंका--ध्रुवबन्धी प्रकृतियां कौनसी हैं ?
समाधान-चार आयु, तीर्थकर और दो आहारसे रहित ये उपर्युक्त प्रकृतियां ही ध्रुवप्रकृतियां हैं । इन प्रकृतियोंकी निरूपक गाथायें
ज्ञानावरण और अंतरायकी दश, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय,भयकर्म जुगुप्सा, तैजस और कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुकलघु, उपघात और निर्माण नामकर्म, ये सैंतालीस ध्रुववन्धी प्रकृतियां हैं। इनका प्रकृतिवन्ध सादि, अनादि, ध्रुव एवं अध्रुव रूपसे चार प्रकारका होता है ॥ १५-१६ ॥
शंका-निरंतरबंध और ध्रुवबंधमें क्या भेद है ?
समाधान—जिस प्रकृतिका प्रत्यय जिस किसी भी जीवमें अनादि एवं ध्रुव भावसे पाया जाता है वह ध्रुवबंधप्रकृति है, और जिस प्रकृतिका प्रत्यय नियमसे सादि एवं अध्रुव तथा अन्तर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहनेवाला है वह निरन्तरवन्धप्रकृति है ।
जिस जिस प्रकृतिका कालक्षयसे बन्धव्युच्छेद सम्भव है वह सान्तरबन्धप्रकृति है। असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, जाति चार, अधस्तन पांच संस्थान, पांच संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायो
........................
१ घादिति-मिच्छ-कसाया भय-तेजगुरुदुग-णिमिण-वण्णचओ। सत्तेतालधुवाणं चदुधा सेसाणयं तु दुधा ॥ गो. क. १२४.
२ प्रतिषु ‘पओञ्जत्थ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'पंचओ ' इति पाठः । छ. बं. ३.
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६.
सुहुम-अपज्जत्त-साहारण- अथिर-असुह- दुभग- दुस्सर - अणाज्ज- अजसकित्ती एदाओ चोत्तीसपयडीओ सांतर बज्झति । अवसेसाओ बत्तीस पयडीओ सांतर - निरंतरं बज्झति । तासि णामणिद्देसो कीरदे । तं जहा- सादावेदणीय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-तिरिक्खगइ - मणुस्सगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउव्वियसरीर-समचउरससंठाण - ओरालिय- वेडव्वियसरीरअंगोवंग - वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण - तिरिक्खगइ - मणुस्सगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-परधादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिर- सुह-सुभग-सुस्सर - आदेज्जे-जसकित्ति-णीचुच्चागोदमिदि सांतर- णिरंतरेण बज्झमाणपयडीओ ( एत्थ उवसंहारगाहाओ -
१८]
इथि - उंसयवेदा जाइचउक्कं असाद- णिरयदुगं । आदाउज्जोवारइ - सोगासह पंचसंठाणा ॥ १७ ॥
पंचासह संघडणा विहायगइ अप्पसत्थिया अण्णे । थावर - सुमासुहृदस चोत्तीसिह सांतरा बंधा ॥ १८ ॥
गति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुखर, अनादेय और अयशकीर्ति, ये चौंतीस प्रकृतियां सान्तर रूपसे बंधती हैं। शेष बत्तीस प्रकृतियां सान्तर- निरन्तर रूपसे बंधती हैं । उनका नामनिर्देश किया जाता है । वह इस प्रकार है— सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, राति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र, ये सान्तर- निरन्तर रूपसे बंधनेवाली प्रकृतियां हैं। यहां उपसंहारगाथायें
स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, जाति चार, असातावेदनीय, नरकगति, नरकगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अराति, शोक, अशुभ, पांच संस्थान, पांच अशुभ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति स्थावर, सूक्ष्म एवं अशुभ आदि अन्य दश इस प्रकार ये चौंतीस प्रकृतियां यहां सान्तर बन्धवाली हैं ।। १७-१८ ।।
१ णिरयदुग-जाइचउक्कं संहदि-संठाणपणपणगं || दुग्गमणादावदुगं थावरदसगं असादसंदित्थी । अरदीसोगं वेदे सांतरगा होंति चोत्तीसा ॥ गो. क. ४०४-४०५
२ प्रतिषु मुस्सर दुस्सर-आदेज्ज' इति पाठः ।
३ सुर-पर- तिरियोरालिय-वेगुब्बियदुग-पसत्थगदि वज्जं । परघाददु-समचउरं पंचिदिय तसदसं सादं ॥ हस्सरवि-पुरिस- गोददु सप्पडिवक्खम्मि सांतरा होंति । गट्टे पुण पडिवक्खे णिरंतरा होंति बत्तीसा ॥ गो. क. ४०६ -४०७,
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१, ६.]
ओण पंचाणावरणीयादीणं सांतर - निरंतरबंधित्तं
सांतरणिरंतरेण य बत्तीसवसेसियाओ पयडीओ । बञ्ज्ञंति पच्चयाणं दुपयाराणं वसगयाओ ॥ १९ ॥
एत्थ पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय पंचंतराइयपयडीओ निरंतरं बज्झंति, धुवबंधित्तादो । जसकित्ती सांतर - निरंतरं बज्झदि' । कुदो ? मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव पत्तो सांतर-निरंतरं बज्झइ, पडिवक्खअजसकित्तीए बंधसंभवादो । उवरि णिरंतरं बज्झइ जसकित्ती, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो । तेण जसकित्ती बंधेण सांतर - णिरंतरा । उच्चागोदं मिच्छाइट्ठिसाससम्म इट्टो सांतरं बंधंति, पडिवक्खपयडीए तत्थ बंधसंभवादो । उवरिमा पुण निरंतरं बंधंति, पडिवक्खपयडीए तत्थ बंधाभावाद। । भोगभूमीसु पुण सव्वगुणट्ठाणजीवा उच्चागोदं चैव णिरंतरं बंधंति, तत्थ पज्जत्तकाले देवगई मोत्तूण अण्णगईणं बंधाभावादो । तेण उच्चागोद पि बंधेण सांतर - निरंतरं ।
एदासिं पयडीणं किं सपच्चओ बंधो किमपचओ त्ति पुच्छिदे उच्चदे - सपच्चगो बंधो, ण णिक्कारणे । एत्थ ताव पच्चयपरूवणा कीरदे । तं जहा - मिच्छत्तासंजम - कसाय
१९
शेष बत्तीस प्रकृतियां मूल व उत्तर भेद रूप दो प्रकार प्रत्ययों के वशीभूत होकर सान्तर - निरन्तर रूपसे बंधती हैं ॥ १९ ॥
यहां पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय प्रकृतियां निरन्तर बंधती हैं, क्योंकि, ये प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं । यशकीर्तिको जीव सान्तर - निरन्तर रूपसे बांधते हैं । इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त गुणस्थान तक यह प्रकृति सान्तर-निरन्तर बंधती है, क्योंकि, यहां इसकी प्रतिपक्षी अयशकीर्तिका बन्ध सम्भव है । प्रमत्त गुणस्थान से ऊपर यशकीर्ति प्रकृति निरन्तर बंधती है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । इसीलिये यशकीर्ति बन्धसे सान्तर- निरन्तर है । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध सम्भव है । परन्तु उपरितन गुणस्थानवर्ती जीव उसे निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध नहीं रहता । तथा भोगभूमियोंमें सर्व गुणस्थानवर्ती जीव केवल उच्चगोत्रको ही निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, वहां पर्याप्तकालमें देवगतिको छोड़कर अन्य गतियोंका बन्ध नहीं होता। इसलिये उच्चगोत्र भी बन्धसे सान्तर - निरन्तर है ।
L
इन प्रकृतियोंका क्या सप्रत्यय अर्थात् सकारण बंध होता है या क्या अप्रत्यय अर्थात् अकारण बन्ध होता है ? ' इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं- इन प्रकृतियों का बन्ध सकारण होता है, अकारण नहीं। यहां पहिले प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस
१ अप्रतौ ' बज्नंति' इति पाठः ।
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२०]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६.
जोगा इदि एदे चत्तारि मूलपचया । संपदि उत्तरपचयपरूवणं कस्सामा मिच्छाइट्ठिआदिगुणट्टासु ढोएदूर्ण - मिच्छत्तं पंचविहं एयंतण्णाण - विवरीय-वेण इय-संसइयमिच्छत्तमिद । तथ अस्थि चेव, णत्थि चेव; एगमेव, अणेगमेव; सावयवं चेव, णिरवयवं चेवः णिच्चमेव, अणिच्चमेव; इच्चाइओ एयंताहिणिवेसो एयंतमिच्छतं । विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिपयत्था ण संति णिच्चाणिच्चवियपेहि, तदा सव्वमण्णाणमेव, णाणं णत्थि त्ति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्तं । हिंसालियवयण चोज्ज-मेहुण-परिग्गह-राग-दोस- मोहण्णाणेहि चेव णिव्वुई होइ त्ति अहिणिवे विवरीयमिच्छत्तंौं । अइहिय- पारत्तियसुहाई सव्वाई पि विणयादो चेव, ण णाण- दंसण- तवोववासकिलेसेहिंतो त्ति अहिणिवेसेो वेणइयमिच्छतं । सव्वत्थ संदेहो चेव णिच्छओ णत्थि त्ति
प्रकार है - मिथ्यात्व असंयम, कबाय और योग, ये चार मूल प्रत्यय हैं । अब उत्तर प्रत्ययका निरूपण मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में लाकर करते हैं- एकान्त, अज्ञान, विपरीत, वैनयिक और सांशयिक मिथ्यात्वके भेद से मिथ्यात्व पांच प्रकार है । इनमें सत् ही है, असत् ही है; एक ही है, अनेक ही है; सावयव ही है, निरवयव ही है; नित्य ही है, अनित्य ही है; इत्यादिक एकान्त अभिनिवेशको एकान्तमिथ्यात्व कहते हैं । नित्यानित्य विकल्पोंसे विचार करनेपर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं हैं, अत एव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे अभिनिवेशको अज्ञानमिथ्यात्व कहते हैं । हिंसा, अलीक वचन, चौर्य, मैथुन, परिग्रह, राग, द्वेष, मोह और अज्ञान, इनसे ही मुक्ति होती है, ऐसा अभिनिवेश विपरीतमिथ्यात्व कहलाता है । ऐहिक एवं पारलौकिक सुख सभी विनयसे ही प्राप्त होते हैं, न कि ज्ञान, दर्शन, तप और उपवास जनित क्लेशों से ऐसे अभिनिवेशका नाम वैनयिक मिथ्यात्व हैं । सर्वत्र संदेह ही है, निश्चय नहीं है, ऐसे अभिनिवेशको संशयमिध्यात्व कहते
१ अप्रतौ ' दोगुण ' इति पाठः ।
२ तत्र इदमेव इत्थमेवेति धर्मिधर्म योरभिनिवेश एकान्तः । स. सि. ८, १, त. रा. ८, १, २८. यत्राभिसन्निवेशः स्यादत्यन्तं धर्मिधर्मयोः । इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते ॥ त. सा. ५, १.
३ हिताहितपरीक्षाविरहो-ज्ञानिकत्वम् । स. सि. ८, १ त. रा. ८, १, २८. हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम् । यथा पशुबधो धर्मस्तदाज्ञानिकमुच्यते ॥ त. सा. ५, ७.
४ पुरुष एवेदं सर्वमिति वा, नित्यमेवेति [वा अनित्यमेवेति वा], सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिद्ध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः । स. सि. ८, १. पुरुष एवेदं सर्वमिति वा नित्य एव वा अनित्य एवेति, सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिद्ध्यतीत्येवमादिर्विपर्ययः । त. रा. १, ८, २८. सग्रन्थोऽपि च निर्ग्रन्थो मासाहारी च केवली रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं हि तत्स्मृतम् ॥ त. सा. ५, ६.
५ सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकम् । स. सि. ८, १, त. रा. ८, १, २८. सर्वेषामपि देवानां समयानां तथैव च । यत्र स्यात् समदर्शित्वं ज्ञेयं वैनयिकं हि तत् ॥ त. सा. ५, ८.
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३, ६.] सामण्णपडिपच्चयपरूवणी
(१ अहिणिवेसो संसयमिच्छत्त' । एवमेदे मिच्छत्तपच्चया पंच । ५ ।।
असंजमपच्चओ दुविहो इंदियासंजम-पाणासजमभएण । तत्थ इंदियासंजमो छव्विहो परिस-रस-रूव-गंध-सद्द-णोइंदियासंजमभेएण । पाणासंजमो वि छविहो पुढवि-आउ-ते उ-वाउवणप्फदि-तसासंजमभेएण । असंजमसव्वसमासो बारस | १२।। कसायपच्चओ पंचवीसविहो सोलसकसाय-णवणोकसायभेएण । कसायपच्चयसमासो एसो |२५। । जोगपच्चओ तिविहो मण-वचि-कायजोगभेएण । सच्च-मोस-सच्चमोस-असच्चमोसभेएण चउव्विहो मणजोगा। वचिजोगो वि चउव्विहो सच्च-मोस-सच्चमोस-असच्चमोसभेएण' । कायजोगो सत्तविहो ओरालिय-ओरालियमिस्स-वेउब्विय-वेउव्वियमिस्स-आहार-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगभेएण । एदेसिं सव्वसमासो पण्णारस ।१५। । सव्वपच्चयसमासो सत्तावण्ण
हैं । इस प्रकार ये मिथ्यात्व प्रत्यय पांच (५) हैं।
असंयम प्रत्यय इन्द्रियासंयम और प्राण्यसंयमके भेदसे दो प्रकार है। उनमें इन्द्रियासंयम स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द और नोइन्द्रिय जनित असंयमके भेदसे छह प्रकार है। प्राण्यसंयम भी पृथिवी, अप् , तेज, वायु, वनस्पति और त्रस जीवोंकी विराधनासे उत्पन्न असंयमके भेदसे छह प्रकार है। सब असंयम मिलकर बारह (१२) होते हैं ।
कषायप्रत्यय सोलह कषाय और नौ नोकषायके भेदसे पच्चीस प्रकार है। यह कषाय प्रत्ययाका योग पच्चीस (२५) हुआ।
योगप्रत्यय मन, वचन और काय योगके भेदसे तीन प्रकार है । मनोयोग चार प्रकार है- सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्य-मृषामनोयोग और असत्य-मृषामनोयोग । वचनयोग भी सत्यवचनयोग, मृषावचनयोग, सत्य-मृषावचनयोग और असत्य-मृषावचनयोग भेदसे चार प्रकार है। काययोग औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, और कार्मण काययोगके भेदसे सात प्रकार है। इनका सर्वयोग पन्द्रह (१५) होता है । सब प्रत्ययोंका योग सत्तावन (५७) हुआ।
१ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि किं मोक्षमार्गः स्याद्वा नवेत्यन्यतरपक्षापरिग्रहः संशयः । स. सि. ८, १. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः किं स्याद्वा न वेति मतिद्वैतं संशयः । त. रा. ८, १, २८, किं वा भवेन्न घा जैनो धर्मो हिंसादिलक्षणः । इति यत्र मतिद्वैधं भवेत् सांशयिकं हि तत् । त. सा. ५, ५.
२ अप्रती · सच्चमोस असच्चमोस ससच्चमोस सदसच्चमोसभेएण चउबिहो मणजोगो। वचिजोगो वि चउविहो सच्चमोस सच्चमोस ससच्चमोस सदसच्चमोसमेएण'; कप्रतौ सच्चमोस असच्चमोस सच्चमोस सच्चमोस असच्चमोस असच्चमोसमेएण चउब्विहो वि मण-वचिजोगो' इति पाठः।
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२२
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ | ५७ । । एत्थ आहारदुगमवणिदे मिच्छाइट्ठिपडिबद्धपच्चया पंचवंचास होति । ५५ । एदेहि पच्चएहि मिच्छाइट्ठी सुत्तुत्तसोलसपयडीओ बंधदि । एत्थ पंचमिच्छत्तपच्चयेसु अवणिदेसु पंचासपच्चया हॉति | ५० । । एदेहि पच्चएहि सासणसम्माइट्ठी सुत्तुत्तसोलसपयडीओ बंधदि । पंचासपच्चएसु ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय-अणताणुबंधिचउक्केसु अवणिदेसु तेदालं पच्चया होति | ४३ । एदेहि पच्चएहि सम्मामिच्छाइट्ठी सोलसपयडीओ बंधदि । तेदालपच्चएसु ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चएसु पक्खित्तेसु छादालं पच्चया। ४६ ।। एदेहिं पच्चएहि असंजदसम्माइट्ठी अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि । एदेसु असंजदसम्माइट्टिपच्चएसु अपच्चक्खाणचउक्क-ओरालियमिस्स-वेउब्विय-वेउवियमिस्स-कम्मइय-तसासंजमेसु अवणिदेसु सत्तत्तीसपच्चया हॉति | ३७ ।। एदेहि पच्चएहि संजदासंजदो अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि । एदेसु संजदासंजदस्स सत्तत्तीसपच्च्चएसु पच्चक्खाणचउक्क एक्कारसअसंजमपच्चएसु अवणिदेसु अवसेसा बावीस, तत्थ आहारदुगे पक्खित्ते चउवीस पच्चया होति ।२४ ।। एदेहि पच्चएहि पमत्तसंजदो अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि । एदेसु चउवीसपच्चएसु आहारदुगमवणिदे बावीस पच्चया होंति |२२| । एदेहि पच्चएहि अप्पमत्तसंजदा
इनमेसे आहारक और आहारकमिश्रको अलग करदेनेपर मिथ्यादृष्टिसे सम्बद्ध प्रत्यय पचवन (५५) होते हैं । इन प्रत्ययोंसे मिथ्यादृष्टि सूत्रोक्त सोलह प्रकृतियोंको बांधता है । इनमेंसे पांच मिथ्यात्वप्रत्ययोंको अलग करदेनेपर पचास (५०) प्रत्यय होते हैं । इन प्रत्ययोंसे सासादनसम्यग्दृष्टि सूत्रोक्त सोलह प्रकृतियोंको बांधता है। इन पचास प्रत्ययोंमेंसे औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण और चार अनन्तानुबन्धी प्रत्ययोंको अलग करदेनेपर तेतालीस प्रत्यय होते हैं (४३) । इन प्रत्ययोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि सोलह प्रकृतियोंको बांधता है। तेतालीस प्रत्ययों में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको मिलादेनेपर छयालीस प्रत्यय होते हैं (४६)। इन प्रत्ययोंसे असंयतसम्यग्दृष्टि विवक्षित सोलह प्रकृतियोंको बांधता है। इन असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रत्ययोंमेंसे चार अप्रत्याख्यानावरण, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण और त्रसासंयम, इन नौ प्रत्ययों को कम करदेनेपर सैंतीस प्रत्यय होते हैं (३७)। इन प्रत्ययोंसे संयतासंयत विवक्षित सोलह प्रकृतियों को बांधता है । इन संयतासंयतके सैंतीस प्रत्ययोंमेंसे चार प्रत्याख्यान और ग्यारह असंयम प्रत्ययोंको कम करदेनेपर शेष बाईस रहते हैं, उनमें आहारक और आहारकमिश्रको मिला देनेपर चौबीस प्रत्यय होते हैं (२४)। इन प्रत्ययोंसे प्रमत्तसंयत विवक्षित सोलह प्रकृतियोंको बांधता है । इन चौबीस प्रत्ययोंमेंसे आहारकद्विकको कम करदेनेपर बाईस प्रत्यय होते है (२२)। इन प्रत्ययोंसे अप्रमत्तसंयत और
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३, ६.] ओघेण पंचणाणावरणीयादीण पच्चयपरूवणा
[२३ अपुव्वकरणपइट्ठउवसमा खवा च अप्पिदसोलसपयडीओ बंधंति । एदेसु चेव छण्णोकसाएसु अवाणदेसु सोलस होति । १६ । एदेहि पच्चएहि पढमअणियट्टी सोलस पयडीओ बंधदि । एत्थ णqसयवेदे अवाणदे पण्णारस होति । १५ । एदेहि पच्चएहि बिदियअणियट्टी अप्पिदपयडीओ बंधदि । एदेसु इत्थिवेदे अवणिदे चोद्दस होति | १४ | । एदेहि पच्चएहि तदियअणियट्टी अप्पिदपयडीओ बंधदि । एत्थ पुरिसवेदे अवणिदे तेरह होति । १३ । । एदेहि पच्चएहि चउत्थअणियट्टी अप्पिदपयडीओ बंधदि । पुणो एत्थ कोधसंजलणे अवणिदे बारस होति |१२ । एदेहि बारसपच्चएहि पंचमअणियट्टी अप्पिदपयडीओ बंधदि । पुणो एत्थ माणसंजलणे अवणिदे एक्कारस होति । ११ । । एदेहि पच्चएहि छट्ठअणियट्टी अप्पिदपयडीओ बंधदि । एदेहिंतो मायासंजलणे अवणिदे दस होंति | १० | । एदेहि पच्चएहि सत्तमअणियट्टी अप्पिदपयडीओ बंधदि । एदेहि चेव दसहि पञ्चएहि सुहुमसांपराइयो वि अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि । दससु लोभसंजलणे अवणिदे णव होति ।९। एदे उवसंतकसाय-खीणकसाएहि बज्झमाणपयडीणं पच्चया । एदेहिंतो मज्झिमदो-दोमणवचिजोगे अवणिय ओरालियमिस्स
अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक एवं क्षपक जीव विवक्षित सोलह प्रकुतियोंको बांधते हैं। इन्हीं प्रत्ययोंमेंसे छह नोकपायों को अलग करदेनेपर सोलह होते हैं (१६) । इन प्रत्ययोंसे प्रथम अनिवृत्तिकरण सोलह प्रकृतियोंको बांधता है। इनमेंसे नपुंसकवेदको अलग करदेनेपर पन्द्रह होते हैं (१५)। इन प्रत्ययोंसे द्वितीय अनिवृत्तिकरण विवक्षित प्रकृतियोंको बांधता है । इनमेंसे स्त्रीवेदको कम करदेनेपर चौदह होते हैं (१४)। इन प्रत्ययोंसे तृतीय अनिवृत्तिकरण विवक्षित प्रकृतियों को बांधता है । इनमेंसे पुरुषवेदको अलग करदेनेपर तेरह होते हैं (१३)। इन प्रत्ययोंसे चतुर्थ अनिवृत्तिकरण विवक्षित प्रकृतियोंको बांधता है । पुनः इनमेंसे क्रोधसंज्वलनको अलग करदेनेपर बारह होते हैं (१२)। इन बारह प्रत्ययोंसे पंचम अनिवृत्तिकरण विवक्षित प्रकृतियों को बांधता है । पुनः इनमेंसे मानसंज्वलको कम करदेनेपर ग्यारह होते है (११)। इन प्रत्ययोंसे छठा अनिवृत्तिकरण विवक्षित प्रकृतियोंको बांधता है। इनमेंसे मायासंज्वलनको अलग करदेनेपर दश होते हैं (१०)। इन प्रत्ययोंसे सप्तम अनिवृत्तिकरण विवक्षित प्रकतियों को बांधता है। इन्ही दश प्रत्ययोंसे सूक्ष्मसाम्परायिक भी विवक्षित सोलह प्रकृतियोंको बांधता है । इन दश प्रत्ययोंमेंसे लोभसंज्वलनको अलग करदेनेपर नौ प्रत्यय होते हैं (९)। ये नौ उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंके द्वारा बांधी जानेवाली प्रकृतियोंके प्रत्यय हैं। इनमेंसे मध्यम
१ अप्रतौ ' अपुव्वकरणपइट्ठस्सुवसमा ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' -सांपराइया ' इति पाठः ।
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२४]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६. कम्मइयकायजोगेसु पक्खित्तेसु सत्त होंति | ७ |। एदेहि सत्तहि पच्चएहि सजोगिजिणो बंधदि । एत्थ उवसंहारगाहाओ ---
चदुपच्चइगो बंधो पढमे उवरिमतिए तिपच्चइओ । मिस्सगबिदिओ उवरिमदुगं च सेसेगदेसम्हि ॥ २० ॥ उरिल्लपंचए पुण दुपच्चओ जोगपच्चओ तिण्णं । सामण्णपच्चया खलु अट्टणं होंति कम्माणं ॥ २१ ॥ पणवण्णा इर वण्णा तिदाल छादाल सत्ततीसा य ।
चदुवीस दु बावीसा सोलस एगूण जाव णव सत्तं ॥ २२ ॥) संपधि एगसमइय उत्तरुत्तरपच्चए चोदसजीवसमासेसु भणिस्सामो । तं जहा
दो दो अर्थात् मृषा और सत्यमृषा मन और वचन योगोंको अलग करके औदारिकमिश्र व कार्मण काययोगको मिला देने पर सात होते हैं (७)। इन सात प्रत्ययोंसे सयोगी जिन [एक सातावेदनीयको] बांधते हैं । यहां उपसंहारगाथायें
प्रथम गुणस्थानमें चारों प्रत्ययोंसे वन्ध होता है। इससे ऊपर तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्वको छोड़कर शेष तीन प्रत्ययसंयुक्त बन्ध होता है । देशसंयत गुणस्थानमें मिश्ररूप अर्थात् विरताविरतरूप द्वितीय प्रत्यय और कषाय व योग ये शेष दोनों उपरिम प्रत्यय रहते हैं । इसके ऊपर पांच गुणस्थानों में कषाय और योग इन दो प्रत्ययोंके निमित्तसे बन्ध होता है । पुनः उपशान्तमोहादि तीन गुणस्थानों में केवल योगनिमित्तक बन्ध होता है। इस प्रकार गुणस्थान क्रमसे आठ कमौके ये सामान्य प्रत्यय हैं ॥ २०-२१॥
पचवन', पचास', तेतालीस, छयालीस', सैंतीस', चौबीस', दो वार बाईस., सोलह और इसके आगे नौ तक एक एक कम अर्थात् पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दश, दश, नौ, नौ और सात', इस प्रकार क्रमसे मिथ्यात्वादि अपूर्वकरण तक आठ गुणस्थानों में, अनिवृत्तिकरणके सात भागों में तथा सूक्ष्मसाम्परायादि सयोगकेवली तक शेष गुणस्थानों में बन्धप्रत्ययोंकी संख्या है ॥२२॥
____ अब एक समयमें होनेवाले उत्तरोत्तर प्रत्ययोंको चौदह जीवसमासोंमें कहते हैं।
१ अप्रतौ — उवरिमतिएवपच्चइओ', काप्रतौ — उवरिमतिए चेव पच्चइओ' इति पाठः ।
२ अप्रतौ सेसेगदेसेहिं ', काग्रतौ 'देसेकदेसेहिं ' इति पाठः । चदुपच्चइगो बंधो पढमे णतरतिगे तिपच्चइगो । मिस्सगविदियं उवरिमदुगं च देसक्कदेसम्मि ॥ गो. क. ७८७.
३ गो. क. ७८८.
४ पणवण्णा पण्णासा तिदाल छादाल सत्तत्तीसा य। चदुवीसा बावीसा बावीसयपुवकरणो त्ति ॥ थूले सोलसपहुदी एगणं जाव होदि दस ठाणं । सुहुमादिसु दस णवयं जोगिम्हि सत्तेवा ॥ गो. क.७८९=७९०. . ५ अप्रतौ ' -पच्चएहि ' इति पाठः।
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चौदसगुणट्ठाणेसु एगसमइयउत्तरपच्चयपरूवणा
[२५ तत्थ ताव मिच्छाइट्ठिस्स जहण्णेण दस पच्चया। पंचसु मिच्छत्तेसु एक्को । एक्केण इंदिएण एक्कं कायं जहण्णेण विराहेदि [त्ति] दोण्णि असंजमपच्चया । अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोजिय मिच्छत्तं गयस्स आवलियमेत्तकालमणंताणुबंधिचउक्कस्सुदयाभावादो बारससु कसाएसु तिण्णि कसायपच्चया । तिसु वेदेसु एक्को । हस्स रदि-अरदि-सोगदोसु जुगलेसु एक्कदरं जुगलं । दससु जोगेसु एक्को जोगो । एवमेदे सव्वे वि जहण्णण दस पच्चया | १० | । पंचसु मिच्छतेसु एक्को । एक्केण इंदिएण छकाए विराहेदि त्ति सत्त असंजमपच्चया । सोलसेसु कसाएसु चत्तारि कसायपच्चया | ४ |। तिसु वेदेसु एक्को । हस्स-रदिअरदि-सोगदोजुगलेसु एकं जुगलं । भय-दुगुंछाओ दोण्णि । तेरसेसु जोगपच्चएसु एक्को । एवमेदे सव्वे वि अट्ठारस होति | १८ | । एवमेदेहि दस-अट्ठारसजहण्णुक्कस्सपच्चएहि मिच्छाइट्ठी अप्पिदसोलसपयडीओ बंधइ ।
एक्केणिदिएण एक्कं कायं विराहेदि त्ति दोअसंजमपच्चया । सोलसेसु कसाएसु चत्तारि कसायपच्चया । तिसु वेदेसु एक्को वेदपच्चओ । हस्स-रदि-अरदि-सोगदोजुगलेसु एक्कदरं जुगलं । तेरससु जोगेसु एक्को । एवं जहण्णेण सासणस्स दस पचया होति | १०|| उक्कसेण सत्तरस पच्चया होंति, मिच्छत्तस्सुदयाभावादो | १७ ।। एवमेदेहि जहण्णुक्कस्स
वह इस प्रकार है- उनमें मिथ्यादृष्टिके जघन्यसे दश प्रत्यय होते हैं। पांच मिथ्यात्वों से एक मिथ्यादृष्टि एक इन्द्रियसे एक कायकी जघन्यसे विराधना करता है, इस प्रकार दो असंयम प्रत्यय; अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका विसंयोजन करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके आवलीमात्र काल तक अनन्तानुवन्धिचतुष्टयका उदय न रहनेसे वारह कषायोंमें तीन कषाय प्रत्यय, तीन वेदोंमें एक, हास्य-रति और अरति-शोक इन दो युगलोंमेंसे एक युगल, तथा दश योगोंमें एक योग, इस प्रकार ये सब ही जघन्यसे दश प्रत्यय होते हैं (१०)। पांच मिथ्यात्वोंमें एक, एक इन्द्रियसे छह कायोंकी विराधना करता है, अतः सात असंयम प्रत्यय, सोलह कषायों में चार कषाय प्रत्यय, तीन वेदों में एक, हास्य रति और अरति-शोक इन दो युगलों में एक युगल, भय व जुगुप्सा दो, तेरह योग प्रत्ययों से एक, इस प्रकार ये सभी अठारह होते हैं (१८)। इस प्रकार इन जघन्य दश और उत्कृष्ट अठारह प्रत्ययोसे मिथ्यादृष्टि जीव विवक्षित सोलह प्रकृतियोंको बांधता है।
___एक इन्द्रियसे एक कायकी विराधना करता है इस प्रकार दो असंयम प्रत्यय, सोलह कषायोंमें चार कषाय प्रत्यय, तीन वेदों में एक वेद प्रत्यय, हास्य-रति और अरतिशोक इन दो युगलोंमें एक युगल, तेरह योगों में एक योग, इस प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टिके जघन्यसे दश (१०) और उत्कर्षसे सत्तरह प्रत्यय होते हैं। क्योंकि, उसके मिथ्यात्वका उदय नहीं रहता (१७) । इस प्रकार क्रमसे इन जघन्य और उत्कृष्ट दश व सत्तरह प्रत्ययोंसे छ. बं. ४.
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२६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६. दस-सत्तारसपच्चएहि सासणसम्मादिट्ठी अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि ।
एक्केणिदिएण एक्कं कायं विराहेदि त्ति दो असंजमपच्चया । अणंताणुबन्धिचदुक्कवदिरित्तबारसकसाएसु तिणि कसायपच्चया । तिसु वेदेसु एक्को । हस्स रदि-अरदिसोगदोजुगलेसु एक्कं । दससु जोगेसु एक्को । एवमेदे सव्वे वि णव होति । ९ ।। एक्केणिदिएण छक्काए विराहेदि त्ति सत्त असंजमपच्चया । अणंताणुबंधिविरहिदबारसकसाएसु तिण्णि कसायपच्चया । तिसु वेदेसु एक्को। हस्स रदि-अरदि-सोगदोजुगलेसु एक्कयरं जुगलं । दो भय-दुगुंछाओ । दससु जोगेसु एक्को । एवमेदे सोलस पच्चया | १६ | । एदेहि जहण्णुक्कस्सणव सोलसपच्चएहि सम्मामिच्छाइट्टी असंजदसम्माइट्ठी च अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि ।
___ एक्केणिदिएण एक्कं कायं विराहेदि त्ति दो असंजमपच्चया । अणंताणुबंधि-अपचक्खाणचउक्कविरहिदअट्टकसाएसु दो कसायपच्चया । तिसु वेदेसु एक्को । हस्स-रदि-अरदिसोगदोजुगलेसु एक्कं । णवजोगेसु एक्को । एवमेदे अट्ठ । ८ ।। एक्कणिदिएण पंचकाए विराहेदि त्ति छअसंजमपच्चया। दो कसायपच्चया । एक्को वेदपचओ । हस्स-रदि-अरदि-सोग
सासादनसम्यग्दृष्टि विवक्षित सोलह प्रकृतियों को बांधता है।
एक इन्द्रियसे एक कायकी विराधना करता है इस प्रकार दो असंयम प्रत्यय, अनन्तानुबन्धिचतुष्टयको छोड़कर शेष बारह कपायों में तीन कवाय प्रत्यय, तीन वेदों में एक, हास्य-रति और अरति शोक इन दो युगलोंमेंसे एक, दश योगोंमेंसे एक, इस प्रकार ये सभी नौ प्रत्यय होते हैं (९)। एक इन्द्रियसे छह कायोंकी विराधना करता है इस प्रकार सात असंयम प्रत्यय, अनन्तानुबन्धीसे रहित बारह कषायोंमें तीन कषाय प्रत्यय, तीन वेदों में एक, हास्य-रति और अरति-शोक इन दो युगलों में एक युगल, भय और जुगुप्सा ये दो, दश योगों में एक, इस प्रकार ये सोलह प्रत्यय होते हैं (१६)। इन जघन्य और उत्कृष्ट नो और सोलह प्रत्ययोंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव विवक्षित सोलह प्रकृतियोंको बांधता है।
एक इन्द्रियसे एक कायकी विराधना करता है इस प्रकार दो असंयम प्रत्यय, अनन्तानुबन्धिचतुष्टय और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयसे रहित आठ कषायोंमें दो कषाय प्रत्यय, तीन वेदोंमें एक, हास्य रति और अरति शोक इन दो युगलोंमें एक, नौ योगोंमें एक, इस प्रकार ये आठ प्रत्यय होते हैं (८)। एक इन्द्रियसे पांच कायोंकी विराधना करता है इस प्रकार छह असंयम प्रत्यय, दो कषाय प्रत्यय, एक वेद प्रत्यय, हास्य-रति भौर अरात-शोक इन दो युगलोंमेंसे एक, भय और जुगुप्सा, तथा नौ योगोंमेसे एक, इस
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३, ६.]
चोदसगुणट्ठाणेसु एगसमइयउत्तरपच्चयपरूवणा [२७ दोण्हं जुगलाणमेक्कदरं । भय-दुगुंछाओ। णवजोगेसु एक्को । एवमेदे चोद्दस । १४ । । एदेहि जहण्णुक्कस्सअट्ठ-चोद्दसपच्चएहि संजदासजदो अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि ।
चदुसंजलणेसु एक्को कसायपच्चओ । तिसु वेदेसु एक्को । हस्स-रदि-अरदि-सोगदोण्हं जुगलाणमेक्कदरं । णवसु जोगेसु एक्को । एवमेदे पंच जहण्णेण पच्चया । ५ । । एक्को कसायपचओ । एक्को वेदपचओ । हस्स रदि-अरदि-सोगदोणं जुगलाणमेक्कदरं । भयदुगुंछाओ। णवसु जोगेसु एक्को । एवमेदे सत्तुक्कस्सपच्चया । ७ ।। एवमेदेहि जहण्णुक्कस्सपंच-सत्तपच्चएहि पमत्तसंजदो अप्पभत्तसंजद। अपुव्वकरण। च अप्पिदपयडीओ बंधदि ।
____एकको संजलणकसाओ । एक्को जोगो । एवमेदे जहण्णेण दो पच्चया । २ ।। उक्कस्सेण तिण्णि वेदेण सह । ३ ।। एदेहि जहण्णुक्कस्सदो-तिण्णिपच्चएहि अणियट्टी अप्पिदसोलसपयडीओ बंधदि ।
लोभकसाओ एकको । [ एकको ] जोगपच्चओ । एवमेदेहि जहण्णेण उक्कस्सेण वि दोहि पच्चएहि सुहुमसांपराइओ अप्पिदपयडीओ बंधदि । उवरि उवसंतकसाओ खीणकसाओ सजोगी च एक्केण चेव जोगेण बंधति । एत्थ उवसंहारगाहा--
प्रकार ये चौदह प्रत्यय है । इन जघन्य और उत्कृष्ट आठ व चौदह प्रत्ययोंसे संयतासंयत जीव विवक्षित सोलह प्रकृतियोंको बांधता है।
चार संज्वलनों से एक कषाय प्रत्यय, तीन वेदों मेंसे एक, हास्य-रति और भरतिशोक इन दो युगलों से एक, तथा नौ योगोंमेंसे एक, इस प्रकार जघन्यसे ये पांच प्रत्यय हैं (५)। एक कषाय प्रत्यय, एक वेद प्रत्यय, हास्य-रति और अरति शोक इन दो युगलों से एक युगल, भय और जुगुप्सा, तथा नौ योगों में से एक, इस प्रकार ये सात उत्कृष्ट प्रत्यय हैं (७)। इस प्रकार इन जघन्य और उत्कृष्ट पांच व सात प्रत्ययोंसे प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव विवक्षित प्रकृतियों को बांधता है ।
___एक संज्जलनकषाय और एक योग इस प्रकार ये जघन्यसे दो प्रत्यय (२), तथा उत्कर्षसे वेदके साथ तीन (३), इस प्रकार इन जघन्य और उत्कृष्ट दो व तीन प्रत्ययोंसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीव विवक्षित सोलह प्रकृतियों को बांधता है। लोभकषाय एक और एक योग प्रत्यय, इस प्रकार इन जघन्य व उत्कर्षसे भी दो प्रत्ययोंसे सूक्ष्मसाम्परायिक जीव विवक्षित प्रकृतियों को बांधता है। इससे ऊपर उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली केवल एक योगसे ही बन्धक हैं । यहां उपसंहारगाथा
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२८ ]
जहा
किंग संजुत्तो ? एदिस्से पुच्छाए चोदसजीवसमासपडिबद्धो उत्तरो वुच्चदे । तं मिच्छाइट्ठी चदुर्गादिसंजुत्तं बंधदि । णवरि उच्चागोदं णिरय-तिरिक्खगई मोचूण दुर्गादिसंजुत्तं बंधदि । जसकित्तिं णिरयगदिं मोत्तूण तिगदिसंजुत्तं बंधदि । सासणो चोदसपडीओ रियगई मोत्तूण तिगदिसंजुत्तं बंधदि । उच्चागोदं णिरय - तिरिक्खगईओ मोत्तूण दुर्गादिसंजुत्तं बंधदि । जसकित्तिं पुण णिरयगई मोत्तूण तिगइसंजुत्तं बंधदि । सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्म इट्ठी' च सोलसपयडीओ णिरयगइ - तिरिक्खगईओ मोत्तूण दुगसंजुत्तं बंधदि । संजदासंजदप्पहुडि जाव अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण ट्टिदा त्ति अप्पिद सोलसपयडीओ देवगदिसंजुत्तं बंधंति । उवरिमा अगदिसंजुत्तं बंधंति ।
कदिगदीया सामिणो ? एदिस्से पुच्छाए परिहारो वुच्चदे - मिच्छादिट्ठी चदुगदिया
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
दस अट्ठारस दसय सत्तरह णव सोलसं च दोष्णं तु । अट्ठ य चोद्दस पणयं सत्त तिए दु ति दु एयमेयं च ॥ २३ ॥
मिथ्यात्व गुणस्थानमें दश व अठारह, सासादनमें दश व सत्तरह, दो गुणस्थानों में अर्थात् मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टिमें नौ व सोलह, संयतासंयतमें आठ और चौदह, प्रमत्तसंयतादिक तीनमें पांच व सात, अनिवृत्तिकरणमें दो व तीन सूक्ष्मसाम्पराय में दो, तथा उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय एवं सयोगिकेवली गुणस्थानों में एकमात्र, इस प्रकार एक जीवके एक समय में जघन्य व उत्कृष्ट बन्धप्रत्यय पाये जाते हैं ॥ २३ ॥
4
'कौनसी गति से संयुक्त बन्धक है ?' इस प्रश्नका चौदह जीवसमासों से सम्बद्ध उत्तर कहते हैं । वह इस प्रकार है- मिथ्यादृष्टि जीव चारों गतियोंसे संयुक्त उक्त प्रकृतियों का बन्धक है। विशेष इतना है कि उच्चगोत्रको नरकगति और तिर्यग्गतिको छोड़कर शेष दो गतियोंसे संयुक्त बांधता है । यशकीर्तिको नरकगतिको छोड़कर तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है । सासादन गुणस्थान में चौदह प्रकृतियों को नरकगतिको छोड़ तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है, उच्चगोत्रको नरक व तिर्यग्गतिको छोड़ शेष दो गतियोंसे संयुक्त बांधता है । किन्तु यशकीर्तिको नरकगतिको छोड़ शेष तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सोलह प्रकृतियों को नरकगति व तिर्यग्गतिको छोड़ दो गतिसंयुक्त वांधते हैं । संयतासंयत से लेकर अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर स्थित जीव विवक्षित सोलह प्रकृतियों को देवगतिसंयुक्त बांधते हैं । इससे ऊपरके जीव अगतिसंयुक्त बांधते हैं ।
1
-
' उक्त प्रकृतियों के कितने गतिवाले जीव स्वामी होते हैं ? ' इस प्रश्नका परिहार कहते हैंमिथ्यादृष्टि चारों गतियोंके जीव स्वामी हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्या
[ ३, ६.
१ गो. क. ७९२.
२ प्रतिषु ' असंजदसम्म इट्टिणी ' इति पाठः ।
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३, ६.]
नाणावरणीयादीनं सादि आदिबंधपरूवणा
[ २९
सामिणो । सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठो वि चदुगदिया सामिणो । दुर्गादिसंजदासंजदा सामिणो । उवरिमा मणुसगदिया चेव । अद्धाणं सुत्तसिद्धं । पढमअपढमचरिम-चरिमंसमयबंधवोच्छेदपुच्छा विसयपरूवणा वि सुत्तसिद्धा चैव ।
किं सादिओ किमणादिओ किं धुवो किमद्भुवो बंधो त्ति एदिस्से पुच्छाए बुच्चदेचोद्दसपयडीणं बंधो मिच्छाइट्ठिस्स सादिओ, उवसमसेडिम्हि बंधवोच्छेदं काढूण हेट्टा ओदर बंधसादिं करिय पडिवण्णमिच्छत्ताणं सादियबंधोवलंभादो । अणादिगो, उवसमसेडिमणारूढमिच्छादिट्टिजीवाणं बंधस्स आदीए अभावादो । धुवो बंधो, अभवियमिच्छादिट्टीणं बंधस्स वोच्छेदाभावाद। । अद्भुवो, उवसम- खवगसेडिं चडणपाओग्गमिच्छाइट्टिबंधस्स धुवत्ता - भावादो । जसकित्ति-उच्चागोदाणं पि एवं चेव । णवरि अणादि- धुवबंधा णत्थि, अजसकित्ति - णीचागोदाणं पडिवक्खाणं संभवाद। । सव्वगुणड्डाणेसु सेसेसु चोदसधुवपयडीओ सादि-अनादिअद्भुवमिदि तिहि वियप्पेहि बज्झति । धुवभंगो णत्थि, तेसिं भवियाणं णियमेण बंधवोच्छेद
दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भी चारों गतियोंके जीव स्वामी हैं । दो गतियों के संयतासंयत जीव स्वामी हैं । उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्यगतिके ही जीव स्वामी हैं । बन्धाध्वान सूत्र से सिद्ध है । प्रथम, अप्रथम - अचरम और चरम समय में होनेवाले बन्धव्युच्छेदसम्बन्धी प्रश्नविषयक प्ररूपणा भी सूत्रसिद्ध ही है ।
अब ' क्या सादिक बन्ध होता है, क्या अनादिक बन्ध होता, क्या ध्रुव बन्ध होता है, या क्या अध्रुव बन्ध होता है ? ' इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं- चौदह प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टिके सादिक होता है, क्योंकि, उपशमश्रेणी में बन्धव्युच्छेद करके पुनः नीचे उतरकर बन्धका प्रारम्भ करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवोंके सादिक बन्ध पाया जाता है । अनादिक बन्ध होता है, क्योंकि, उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़े हुए मिथ्यादृष्टि जीवों के बन्धके आदिका अभाव है । ध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवोंके बन्धका कभी व्युच्छेद नहीं होता । अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, उपशम और क्षपक श्रेणीपर चढ़नेके योग्य मिथ्यदृष्टि जीवोंका बन्ध ध्रुव नहीं होता । यशकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियों का भी मिथ्यादृष्टिके इसी प्रकार ही बन्ध होता है। विशेष इतना है कि इन दोनों प्रकृतियों का उसके अनादि और ध्रुव बन्ध नहीं होता, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्षभूत अयशकीर्ति और नीच गोत्रका बन्ध सम्भव है । शेष सब गुणस्थानों में चौदह ध्रुवप्रकृतियां सादि, अनादि और अध्रुव इन तीन विकल्पोंसे बंधती हैं । वहां ध्रुव भंग नहीं है, क्योंकि, उन भव्य जीवोंके
१ प्रतिषु 'पटम- अपदम चरिम अचरिम ' इति पाठः ।
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३० छक्खंडागमे बंधसामित्तबिचओं
३, ७. संभवादो । जसकित्ति-उच्चागोदाणं पुण बंधो सव्वगुणट्ठाणेसु सादि-अद्भुवो चेव ।।
णिदाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोह-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडणतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ७॥
एदं पुच्छासुत्तं देसामासियं च । तेण किं मिच्छाइट्ठी बंधओ किं सासणसम्माइट्ठी बंधओ किं सम्मामिच्छाइट्ठी बंधओ एवं गंतूण किमजोगी किं सिद्धो बंधओ, किमेदेसि कम्माणं बंधो पुवं वोच्छिज्जदि, किमुदओ, किं दो वि समं वच्छिज्जति, एदाओ किं सोदएण बज्झंति किं परोदएण, किं सोदय-परोदएण, किं सांतरं बज्झंति, किं णिरंतरं बज्झंति, किं सांतरणिरंतरं बझंति, किं पच्चएहि बझंति, किं पच्चएहि विणा बज्झंति, किं गइसंजुत्तं बज्झंति, किमगइसंजुत्तं बज्झंति, कदिगदिया एदेसिं बंधसामिणो होति, कदिगदिया ण होति, किं वा बंधद्धाणं, किं चरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि, किं पढमसमए, किमपढम-अचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि,
नियमसे बन्धव्युच्छेद सम्भव है । परन्तु यशकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंका बन्ध सर्व गुणस्थानों में सादि और अध्रुव ही होता है ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक ? ॥७॥
___ यह पृच्छसूत्र भी देशामर्शक है । अतएव क्या मिथ्यादृष्टि बन्धक है,क्या सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि बन्धक है, इस प्रकार जाकर क्या अयोगी बन्धक हैं, क्या सिद्ध बन्धक हैं; क्या इन कर्मोका बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं: ये प्रकृतियां क्या स्वोदयसे बंधती हैं, क्या परोदयसे बंधती हैं, क्या स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं; क्या सान्तर बंधती हैं, क्या निरन्तर बंधती हैं, क्या सान्तर-निरन्तर बंधती हैं; क्या प्रत्ययोंसे बंधती हैं, क्या विना प्रत्ययोंके बंधती हैं; क्या गतिसंयुक्त बंधती हैं, क्या अगतिसंयुक्त बंधती है; इन कर्मोके बन्धके स्वामी किन गतियोंवाले होते हैं व किन गतियोंवाले नहीं होते; बन्धाध्वान कितना है; क्या चरम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्या प्रथम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्या अप्रथम-अचरम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है।
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३, ८.]
ओघेण णिहाणिद्दादीणं बंधसामित्तपरूवणा किमेदासिं सादिओ बंधो, किमणादिओ, किं धुवो, किमद्धवो बंधो त्ति एदाओ पुच्छाओ एत्थ कादवाओ । एदासिं पुच्छाणमुत्तरपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ८ ॥
एदं देसामासियसुत्तं, सामित्तद्धाणपरूवणदोरण पुच्छासुत्तुद्दिट्ठसवत्थपरूवणादो । सामित्तमद्धाणं च सुत्तादो चेव णव्वदि त्ति ण तेसिमत्थो वुच्चदे । किमेदासिं बंधो पुव्वं वोच्छिज्जदे, किमुदओ पुव्वं वोच्छिज्जदे, एदस्सत्थो वुच्चदे-थीणगिद्धितियस्स पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो, पच्छा उदयस्स वोच्छेदो, सासणसम्मादिट्ठिचरिमसमए बंधे फिट्टे संते पच्छा उवरि गंतूण पमत्तसंजदम्मि उदयवोच्छेदोवलंभादो । अणताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं फिट्टति, सासणसम्माइटिचरिमसमए एदेसिं बंधोदयाणं जुगवं वोच्छेददंसणादो । इत्थिवेदस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, सासणम्मि बंधे वोच्छिण्णे पच्छा उवरि गंतूण अणियट्टिम्हि उदयवोच्छेदादो। एवं तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव
क्या इन प्रकृतियोंका सादिक बन्ध है, क्या अनादिक बन्ध है, क्या ध्रुव बन्ध है, या क्या अध्रुव बन्ध है, इस प्रकार ये प्रश्न यहां करना चाहिये । इन प्रश्नोंका उत्तर कहनेके लिये अगला सूत्र कहते हैं
उपर्युक्त प्रकृतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ८॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, बन्धके स्वामित्व और अध्वानकी प्ररूपणा द्वारा वह पृच्छासूत्रमें उद्दिष्ट सब अर्थोका निरूपण करता है। बन्धस्वामित्व और अध्वान चूंकि सूत्रसे ही जाना जाता है अतः इन दोनोंका अर्थ यहां नहीं कहा जाता । 'क्या इनका बन्ध पहिले व्युच्छिन्न होता है या उदय पहिले व्युच्छिन्न होता है ? ' इसका अर्थ कहते हैं-स्त्यानगृद्धि आदि तीन प्रकृतियोंका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, तत्पश्चात् उदयका व्युच्छेद होता है, क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टिके चरम समयमें बन्धके नष्ट होनेपर पश्चात् ऊपर जाकर प्रमत्तसंयतमें इनके उद्यका व्युच्छेद पाया जाता है। अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका बन्ध और उदय दोनों साथ नष्ट होते हैं, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टिके चरम समयमें इनके बन्ध और उदयका एक साथ व्युच्छेद देखा जाता है । स्त्रीवेदका पूर्वमें बन्ध पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनगुणस्थानमें बन्धके व्युच्छिन्न होनेपर तत्पश्चात् ऊपर जाकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उदयका व्युच्छेद होता है । इसी प्रकार तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृति
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३२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[१, ८. णीचागोदाणि, सासणम्मि बंधवोच्छेदे जादे पच्छा उवरिं गंतूण संजदासंजदम्मि उदयवोच्छेदादो, तिरिक्खाणुपुव्वीए असंजदसम्माइट्ठिम्हि उदयवोच्छेदुवलंभादो । एवं मज्झिमचदुसंठाणाणि, सासणम्मि बंधे थक्के संते उवरि गंतूण सजोगिम्हि उदयवोच्छेदादो । एवं चेव मज्झिमचदुसंघडणाणि, सासणम्मि बंधे थक्के संते उवरि अपमत्त-उवसंतकसाएसु कमेण दोणं दोण्णमुदयक्खयदंसणादो। एवं अप्पसत्थविहायगदीए, सासणम्मि बंधे थक्के संते उवरि सजोगिम्हि उदयवोच्छेदादो । एवं दुभग-अणादेज्जाणं वत्तव्वं, सासणम्मि बंधे थक्के उवरि असंजदसम्मादिहिम्हि उदयवोच्छेदो । एवं दुस्सरस्स वि वत्तव्यं, सासणम्मि बंधे थक्के सजोगिकेवलिम्हि उदयवोच्छेदादो ।
किं सोदएण किं परोदएण किमुभएण बझंति त्ति पुच्छाए उत्तरो वुच्चदे । तं जहाथीणगिद्धित्तियमित्थिवेदं तिरिक्खाउअं तिरिक्खगइ चदुसंठाणाणि चदुसंघडणाणि तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वि उज्जोवं अप्पसत्थविहायगदिमणताणुबंधिचदुक्कं दुभग-दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणि च मिच्छादिद्वि-सासणसम्माइट्ठिणो सोदएण वि परोदएण वि बंधंति, विरोहा
योंका पूर्वमें बन्धव्युच्छिन्न होता है, तत्पश्चात् उदयका व्युच्छेद होता है, क्योंकि सासादनगुणस्थानमें बन्धका व्युच्छेद हो जानेपर पश्चात् ऊपर जाकर संयतासंयत गुणस्थानमें उदयका व्युच्छेद होता है, तथा तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीके उदयका व्युच्छेद असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पाया जाता है । इसी प्रकार मध्यम चार संस्थानोंका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, तत्पश्चात् उदयका व्युच्छेद होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थानमें बन्ध के रुक जानेपर ऊपर जाकर सयोगकेवली गुणस्थानमें उदयका व्युच्छेद होता है। इसी प्रकार ही मध्यम चार संहनन हैं, क्योंकि, सासादनगुणस्थानमें इनके बन्धके रुक जानेपर ऊपर अप्रमत्तसंयत और उपशान्तकषाय गुणस्थानों में क्रमसे दो दो संहननोंका उदयक्षय देखा जाता है । इसी प्रकार अप्रशस्तविहायोगतिका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि, सासादनगुणस्थानमें बन्धके रुक जानेपर ऊपर सयोगकेवलीमें उदयका व्युच्छेद होता है। इसी प्रकार दुर्भग और अनादेयका कथन करना चाहिये, क्योंकि, सासादनमें
जानेपर ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टि में उदयका व्यच्छेद होता है। इसी प्रकार दुस्वरका भी कहना चाहिये, क्योंकि, सासादनमें बन्धके रुक जानेपर सयोगकेवलीमें उदयका व्युच्छेद होता है।
__ 'उपर्युक्त प्रकृतियां क्या स्वोदयसे क्या परोदयसे या क्या स्व-परोदय उभयरूपसे बंधती हैं?' इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं। वह इस प्रकार है-स्त्यानगृद्धित्रय, स्त्रीवेद, तिर्य: गायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वोदयसे भी और परोदयसे भी बांधते हैं, क्योंकि,
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३, ८.] ओघेण णिहाणिहादीण बंधसामित्तपरूवणा
[ ३३ . भावादो।
किं सांतरं किं णिरंतरं किं सांतर णिरंतरं बझंति त्ति एदस्सत्थो बुच्चदे -- थीणगिद्धितियमणंताणुबंधिचउक्कं च णिरंतरं बज्झई, धुवबंधित्तादो । इत्थिवेदो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि सांतरं बज्झइ, बंधगद्धाए खीणाए णियमेण पडिवक्खपयडीणं बंधसंभवादो । तिरिक्खाउअं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि णिरंतरं वज्झइ, अद्धाक्खएण बंधस्स थक्कणाभावादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीओ सांतर-णिरंतरं बझंति ।
होदु सांतरबंधो, पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो; ण णिरंतरबंधो, तस्स कारणाणुवलंभादो त्ति वुत्ते वुच्चदे- ण एस दोसो, तेउक्काइय-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसेण णिरंतरबंधोवलंभादो । सासणसम्माइट्ठिणो दोणं पयडीणमेदासिं कधं णिरंतरबंधया ? ण, सत्तमपुढविसासणाणं तिरिक्खगई मोत्तणण्णगईणं बंधाभावादो ?
इसमें कोई विरोध नहीं है।
उक्त प्रकृतियां क्या सान्तर, क्या निरन्तर, या क्या सान्तर-निरन्तर बंधती है?' इसका अर्थ कहते हैं-स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुवन्धिचतुष्क निरन्तर बंधती हैं, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां है । स्त्रीवेदको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, बन्धककालके क्षीण होनेपर नियमसे प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है । तिर्यगायुको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, कालके क्षयसे बन्धके रुकनेका अभाव है । तिर्यग्गति और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सान्तरनिरन्तर बांधते हैं।
शंका--प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के बन्धकी उपलब्धि होनेसे सान्तर बन्ध भले ही हो, किन्तु निरन्तर बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है ?
समाधान---इस शंकाका उत्तर कहते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवीके नारकी मिथ्यादृष्टियोंके भवसे सम्बद्ध संक्लेशके कारण उक्त दोनों प्रकृतियोंका निरन्तर वन्ध पाया जाता है।
शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि इन दोनों प्रकृतियों के निरन्तर बन्धक कैसे हैं ?
समाधान—यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, सत्तम पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंके तिर्यग्गतिको छोड़कर अन्य गतियोंका बन्ध ही नहीं होता।
१ अ-आपत्योः 'तिरिय-' इति पाठः ।
२ अ-आप्रत्योः ‘बंधय-' कापतौ । बंधिय-' इति पाठः । छ.बं. ५.
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• ३४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ८. चदुसंठाण-चदुसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगदि-दूभग-दुस्सर - अणादेज्जाणमित्थिवेदभंगो, सांतरबंधित्तं पडि भेदाभावादो । णीचागोदस्स तिरिक्खगदिभंगो, तेउ-वाउक्काइएसु सत्तमपुढविणेरइएसु च णीचागोदस्स णिरंतरं बंधुवलंभादो।
किं पच्चएहि बझंति किं तेहि विणा, एदस्सत्यो बुच्चदे--- मिच्छादिट्ठी मिच्छतासंजम कसाय-जोगसण्णिदचदुहि मूलपच्चएहि पणवण्णुत्तरपच्चएहि दस-अट्ठारसएगसमयसंभविजहण्णुक्कस्सपच्चएहि य एदाओ पवडीओ बंधदि । सासणसम्माइट्ठी मिच्छत्तं मोत्तूण तीहि मूलपच्चएहि पंचासुतरपच्चएहि एगसमयसंभविददस सत्तारसजहण्णुक्कस्सपच्चएहि य एदाओ पयडीओ बंधदि । णवरि तिरिक्खाउअस्स वेउवियमिस्स-कम्मइयपच्चएहि विणा तेवण्ण ओरालियमिस्सेण च विणा सत्तेताल पच्चया मिच्छाइट्ठि-सासणाणं' होति ।
___ गइसंजुत्तपुच्छाए अत्थो वुच्चदे । तं जहा - थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्कं च मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो गिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं बंधइ । इत्थिवेदं मिच्छाइट्ठी सासणो च णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं बंधइ । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ तिरिक्ख
चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय प्रकृतियां स्त्रीवेदके समान हैं, क्योंकि, सान्तरबन्धित्वके प्रति इन प्रकृतियों में स्त्रीवेदसे कोई भेद नहीं है । नीचगोत्र तिर्यग्गतिके समान है, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक तथा सत्तम पृथिवीके नारकियों में नीचगोत्रका निरन्तर वन्ध पाया जाता है ।
अब ' सूत्रोक्त प्रकृतियां क्या प्रत्ययोंसे वंधती हैं या क्या उनके विना ? ' इसका अर्थ कहते हैं-मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग संज्ञावाले चार मूल प्रत्ययोंसे, पचवन उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा एक समयमें सम्भव होनेवाले दश और अठारह जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे इन प्रकृतियों को बांधते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वको छोड़कर शेष तीन मूल प्रत्ययोंसे, पचास उत्तर प्रत्ययोसे, तथा एक समयमें सम्भव दश और सत्तरह जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे इन प्रकृतियोंको बांधते हैं । विशेष यह कि तिर्यगायुके वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोगके बिना मिथ्यादृष्टिके तिरेपन, तथा वैक्रियिकमिश्र, कार्मण और औदारिकमिश्रके विना सासादनसम्यदृष्टिके सैंतालीस प्रत्यय होते हैं।
गतिसंयुक्त प्रश्न का उत्तर कहते हैं । वह इस प्रकार है-स्त्यानगृद्धि आदि तीन तथा अनन्तानुवन्धिचतुष्कको मिथ्याधि जीव चारों गतियोंसे संयुक्त और सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है । स्त्रीवेदको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति,
१ अप्रतौ ‘पञ्चयामिदि सासणाणं ' इति पाठः ।
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३, ९.] ओघेण णिद्दा-पयलाणं बंधसामित्तपरूवणा
[३५ गइपाओग्गाणुपुन्वि-उज्जोवे मिच्छाइट्ठी सासणो च तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधति । चउसंठाणचउसंघडणाणि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बंधति । अप्पसत्थविहायगइ दुभग दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि मिच्छाइट्ठी देवगईए विणा तिगइसंजुत्तं, सासणो देव-णिरयगईहि विणा दुगदिसंजुत्तं बंधदि ।
कदि गदिया सामिणो त्ति वुत्ते थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कादिपयडीणं बंधस्स चउग्गइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो सामी । बंधद्वाणं सासणचरिमसमए बंधवोच्छेदो च सुत्तणिद्दिट्टो त्ति ण पुणो वुच्चदे ।
किमेदासिं पयडीणं सादिओ बंधओ त्ति पुच्छासंबद्धो अत्था बुच्चद । तं जहा--- थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं बंधा मिच्छाइडिम्हि सादिओ अणादिओ धुवो अद्धवो च । सासणम्मि अणाइधुवेण विणा दुवियप्पो । सेसाणं पयडीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सादिगो अद्धवो च ।
णिद्दा-पयलाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९ ॥ एदं पुच्छासुतं देसामासियं, तेणेत्थ पुब्विल्लपुच्छाओ सव्वाओ पुच्छिदव्वाओ ।
तिर्यग्गतिप्रयोग्यानुपूर्वी और उद्योतको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं। चार संस्थान और चार सहननोंको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टितिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको मिथ्यादृष्टि देवगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, और सासादनसम्यग्दृष्टि देव व नरक गतिके विना दो गतियोंसे संयुक्त बांधता है।
कितने गतिवाले जीव स्वामी होते हैं, ऐसा कहनेपर उत्तर कहते हैं-स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुवन्धिचतुष्क आदि प्रकृतियोंके बन्धके चारों गतियोंवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। बन्धाध्वान और सासादनके चरम समय में होने वाला बन्धयुच्छेद सूत्रसे निर्दिष्ट है, अतः उसे फिरसे नहीं कहते।।
क्या इन प्रकृतियोंका सादिक बन्ध है ? ' इस प्रश्नसे सम्बद्ध अर्थको कहते हैं। वह इस प्रकार है-स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सादिक, अनादिक, ध्रुव और अध्रुव रूप होता है । सासादन गुणस्थानमें अनादि और ध्रुवके विना दो प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादन दोनों गुणस्थानोंमे सादिक व अध्रुव होता है ।
निद्रा और प्रचला प्रकृतियोंका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक ? ॥ ९॥ यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, अतएव यहां सब पूर्वोक्त प्रश्न पूछना चाहिये ।
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३६) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १०. पुच्छिदसिस्सस्स संदेहविणासणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपविट्ठसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । अपुवकरणद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १०॥ ___ एदं पि देसामासियसुत्तं, बंधद्धाणं बंधसामि-असामिणो च अपुबकरणद्धाए अपढमअचरिमसमए बंधवोच्छेदं च भणिदूण सेसत्थे सूचिय अवठ्ठाणादो । अपुव्वकरणद्धाए पढमसत्तमभागे णिद्दा पयलाणं बंधो थक्कदि ति एत्थ वत्तव्यं । कधमेदं णबदे ? परमगुरूवएसादो ।
किमेदेसिं कम्माणं बंधो पुव्वं पच्छा सममुदएण वोच्छिज्जदि त्ति पुच्छाए णिच्छओ कारदे । एदेसिं बंधो पुव्वं विणस्सदि', पच्छा उदयस्स वोच्छेदो; अपुवकरणद्धाए पढमसत्तमभागे बंधे थक्के संते उवरि गंतूण खीणकसायस्स दुचरिमसमयम्हि उदयवोच्छेदादो ।
किं सोदएण परोदएण सोदय-परोदएण बज्झंति त्ति पुच्छाए वुच्चदे- एदाओ दो वि पयडीओ सोदय-परोदएण बझंति, णाणांतरायपंचकस्सेव एदासिं धुवोदयत्ताभावादो । किं शंकायुक्त शिष्यके सन्देहको दूर करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरणप्रविष्टशुद्धिसंयतोंमें उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्धव्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ १० ॥
यह भी देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह बन्धाध्वान, बन्धस्वामी-अस्वा मी तथा अपूर्वकरणकालके अप्रथम-अचरम समयमें होनेवाले बन्धव्युच्छेदको कहकर शेष अर्थीको सूचित कर अवस्थित है। अपूर्वकरणकालके प्रथम सतम भागमें निद्रा और प्रचला प्रकृतियोंका वन्ध रुक जाता है, ऐसा यहां कहना चाहिये।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान----यह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है ।
'क्या इन दोनों कर्मोका बन्ध उदयसे पूर्व, पश्चात् अथवा साथमें व्युच्छिन्न होता है ? ' इस प्रश्नका निर्णय करते हैं --इनका बन्ध पूर्वमें नष्ट होता है, तत्पश्चात् उदयका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके प्रथम सप्तम भागमें बन्धके रुक जानेपर ऊपर जाकर क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है।
"दोनों कर्म प्रकृतियां क्या स्वोदय, क्या परोदय या क्या स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं ?' • इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं- ये दोनों ही प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे वंधती हैं, क्योंक, पांच ज्ञानाबरण और पांच अन्तरायके समान इन दोनों प्रकृतियोंके ध्रुवोदयका अभाव है।
१ प्रतिषु ‘पुव्वं व णस्सदि ' इति पाठः ।
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३, १०. ओघेण णिद्दा-पयलाणं बंधसामित्तपरूवणा
। ३७ सांतरं णिरंतरं सांतर-णिरंतरं बझंति ? एदाओ णिरतरं बझंति, सत्तेतालधुवपयडीसु पादादो । किं पच्चरहि बंधदि त्ति पुच्छाए वुच्चदे-मिच्छाइट्ठी चदुहि मूलपच्चएहि पणवण्णणाणासमयुत्तरपच्चएहि दस-अट्ठारसएगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चएहि, सासणो मिच्छत्तेण विणा तिहि मूलपचएहि पंचासुत्तरपच्चएहि दस सत्तारसएगसमयजहण्णुक्कस्सपञ्चएहि, सम्मामिच्छाइट्ठी तिहि मूलपच्चएहि तेदालुत्तरपच्चएहि एगसमयणव-सोलसजहण्णुक्कस्सपञ्चएहि, असंजदसम्माइट्ठी तिहि मूलपच्चएहि छादालुत्तरपच्चएहि एगसमयणव-सोलसजहण्णुक्कस्सपञ्चएहि, संजदासंजदो मिस्सासंजमेण सहिदकसाय जोगदोमूलपच्चएहि सत्ततीसुत्तरपच्चएहि एगसमइयअट्ठ-चोदसजहण्णुकस्सपञ्चएहि, पमतसंजदो दोहि मूलपञ्चएहि चदुवीसुत्तरपच्चएहि एगसमयपंच-सत्तजहण्णुकस्सपच्चएहि, अप्पमत्तसंजदो अपुव्वकरणो च दोहि मूलपच्चएहि बावीसुत्तरपञ्चएहि एगसमयपंचसत्तजहण्णुक्कस्सपञ्चरहि बंधति ।
शंका-उक्त दोनों प्रकृतियां क्या सान्तर, निरन्तर या सान्तर-निरन्तर बंधती है?
समाधान-ये दोनों प्रकृतियां निरन्तर बंधती हैं, क्योंकि, ये सैंतालीस ध्रुव प्रकृतियोंके अन्तर्गत हैं।
'ये प्रकृतियां किन किन प्रत्ययोंसे बंधती हैं ?' इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं-मिथ्यादृष्टि जीव चार मूल प्रत्ययोंसे, पचवन नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्ययोंसे,तथा दश और अटारह एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे निद्रा एवं प्रचला प्रकृतियों को बांधते है। सासादनसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वके विना तीन मूल प्रत्ययोंसे, पचास उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा
श और सत्तरह एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययासे उक्त प्रकृतियोंको बांधते हैं । सम्यमिथ्यादृष्टि तीन मूल प्रत्ययोंसे, तेतालीस उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा एक समय सम्बन्धी नौ व सोलह जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे उक्त प्रकृतियोंको बांधते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि तीन मूल प्रत्ययोंसे, ख्यालीस उत्तर प्रययोंसे, तथा एक समय सम्बन्धी नौ और सोलह जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे उक्त प्रकृतियोंको बांधते हैं । संयतासंयत मिश्र असंयम (संयमासंयम) के साथ कपाय एवं योग रूप दो मूल प्रत्ययोंसे, सैंतीस उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा एक समय सम्बन्धी आठ व चौदह जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे उक्त प्रकृतियोंको बांधते हैं । प्रमत्तसंयत दो मूल प्रत्ययोंसे, चौबीस उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा एक समय सम्बन्धी पांच और सात जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे उक्त प्रकृतियों को बांधते हैं। अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीव दो मूल प्रत्ययोंसे, बाईस उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा एक समय सम्बन्धी पांच और सात जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे उक्त प्रकृतियोंको बांधते हैं।
१ प्रतिषु 'पमत्तसंजदो हि' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ११.
इसंजुत्तबंधपुच्छाए यत्थो -- मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी देव- मणुस्सगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं णिद्दा - पयलाओ दो वि बंधंति । कदिगदिया सामी, एदिस्से पुच्छाए बुचदे- मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी चउगइया, दुर्गादिसंजदासंजदा, उवरिमा मणुस्सगईया सामी । अद्धाणं सुगमं । वोच्छिण्णपदेसो वि सुगमो । किं सादिओ त्ति पुच्छाए वुच्चदेमिच्छाइट्ठिम्हि णिद्दा - पयलाणं बंधो सादिओ अणादिओ धुवो अद्भुवो त्ति चदुवियप्पो । सासणादिगुणणे तिवियप्पो, धुवत्ताभावादो । सेसं सुगमं ।
२८ ]
सादावेदणीस को बंधो को अबंधो ? ॥ ११ ॥
बंध बंधयो त्ति घेत्तव्वो । एदं पुच्छासुत्तं देसामासियं, सामिपुच्छं णिद्दिसिदूण सेसपुच्छाविसयणिद्दे साकरणादो । तेणेत्थ सव्वपुच्छाओ णिद्दिसिदव्वाओ । पुच्छिदसिस्ससंसयफुसणमुत्तरमुत्तं भणदि
गतिसंयुक्त बन्धसम्बन्धी प्रश्नका अर्थ कहते हैं - मिथ्यादृष्टि जीव चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गति से संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त निद्रा व प्रचला दोनों प्रकृतियोंको बांधते हैं ।
' कितने गतियोंवाले जीव उक्त दोनों प्रकृतियों के स्वामी हैं ? ' इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं- मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि चारों गतियोंवाले; दो गतियोंवाले संयतासंयत, तथा उपरिम जीव मनुष्यगतिवाले स्वामी होते हैं । बन्धाध्वान सुगम है । चरम समयादिरूप बन्धव्युच्छिन्नप्रदेश भी सुगम है । ' उक्त प्रकृतियों का बन्ध क्या सादि है ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं - मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें निद्रा और प्रचला प्रकृतियों का बन्ध सादिक, अनादिक, ध्रुव और अध्रुव इस प्रकार चारों तरहका होता है । सासादनादि गुणस्थानों में ध्रुव बन्धके न होनेसे शेष तीन प्रकारका बन्ध होता है । शेष सूत्रार्थ सुगम है ।
9
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ११ ॥
6
'बन्ध' शब्द से बन्धकरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिये । यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह स्वामिविषयक पृच्छाका निर्देश करके शेष पृच्छाविषयक निर्देश नहीं करता । इसलिये यहां सब पृच्छाओंका निर्देश करना चाहिये । शंकायुक्त शिष्यके संशयको दूर करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं----
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३, १२. ] ओघेण सादावेदणीयस्स बंधसामित्तपरूवणा
[ ३९ __ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति बंधा। सजोगिकेवलिअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १२ ॥
___एदं पि सुत्तं देसामासियं, सामित्तमद्धाणं बंधविणासट्ठाणं च भणिदूणण्णेसिमत्थाणमणिद्देसादो। तेणिदरेसिं परूवणा कीरदे । तं जहा- एदस्स बंधो पुव्वमुदओ पच्छा वोच्छिज्जदि, सजोगिचरिमसमये बंधे वोच्छिण्णे संते पच्छा अजोगिचरमसमए उदयवोच्छेदादो। सादावेदणीयं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति सोदण परोदएण वि बज्झदि, सादासादोदयाणं परावत्तिदसणादो, स-परोदएहि बंधविरोहाभावादो च । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तो त्ति सांतरो बंधो, तत्थ पडिवक्खपयडीए बंधसंभवादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो। जम्हि जम्हि गुणट्ठाणे जत्तिया जत्तिया मूलपञ्चया णाणासमयउत्तरपच्चया एगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया च वुत्ता ताणि गुणट्ठाणाणि तेत्तिएहि पच्चएहि सादावेदणीयं बंधति ।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली तक सातावेदनीयके बन्धक हैं । सयोगिकेवलिकालके अन्तिम समयको प्राप्त होकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥१२॥
यह भी सूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह स्वामित्व, बन्धाध्वान और बन्धविनाशस्थानको कहकर अन्य अर्थोका निर्देश नहीं करता। इस कारण अन्य अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- सातावेदनीयका बन्ध पूर्वमें और उदय पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें बन्धके व्युच्छिन्न होनेपर पीछे अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है । सातावेदनीय मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयंगिकेवली तक स्वोदयसे और परोदयसे भी बंधता है, क्योंकि, यहां साता और असाताके उदयमें परिवर्तन देखा जाता है, तथा स्व परोदयसे बन्ध होनेमें कोई विरोध भी नहीं है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त गुणस्थान तक सातावेदनीयका बन्ध सान्तर है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृति ( असाता ) का बन्ध सम्भव है । प्रमत्त गुणस्थानसे ऊपर निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। जिस जिस गुणस्थानमें जितने जितने मूल प्रत्यय, नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय और एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय कहे गये हैं, वे गुणस्थान उतने प्रत्ययोंसे सातावेदनीयको बांधते हैं।
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४० ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १३.
मिच्छाइट्ठी णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं । अप्पसत्थाए तिरिक्खगईए सह कथं सादबंध ? ण, णिरयगई व अच्चतियअप्पसत्थत्ताभावाद । एवं सासणे वि । सम्मामिच्छाइड्डी असंजदसम्माइट्ठी दुगइसंजुत्तं बंधंति णिरय-तिरिक्खगईए विणा । उवरिमा देवगइसंजुत्तं । अपुव्वकरणस्स चरिमसत्तमभागप्पहुडि उवरि अगदिसंजुत्तं बंधंति । मिच्छाइट्टि - सासणसम्माइट्ठिसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्टिणो चदुगदिया, दुर्गादिसंजदासंजदा सामिणो, सेसा माणुस - गदीए चेव । बंधद्धाणं बंधवोच्छेदट्ठाणं च सुगमं सुत्त्ताद । सव्वेसु गुणणे सादावेदणीयस्स बंधो सादि-अद्भुवो, सादासादाणं परावत्तणसरूवेण बंधादो ।
असादावेदणीय-अरदि-सोग- अथिर असुह-अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १३ ॥
एदं पुच्छासुतं देसामा सियं, तेणेत्थ सव्वपुच्छाओ कायव्वाओ । अधवा, आसंकिय
मिथ्यादृष्टि जीव नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त सातावेदनीयको
बांधते हैं ।
शंका- - अप्रशस्त तिर्यग्गतिके साथ कैसे सातावेदनीयका बन्ध होना सम्भव है ? समाधान —— नहीं, क्योंकि तिर्यग्गति नरकगतिके समान अत्यन्त अप्रशस्त नहीं है
1
इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि भी तीन गतियों से संयुक्त सातावेदनीयको बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नरक और तिर्यग्गतिके विना दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । अपूर्वकरणके अन्तिम सप्तम भागसे लेकर ऊपरके जीव अगतिसंयुक्त बांधते हैं । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि चारों गतियोंवाले तथा दो गतियोंवाले संयतासंयत स्वामी हैं। शेष जीव मनुष्यगतिके ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धयुच्छेदस्थान सूत्रोक्त होनेसे सुगम हैं । सब गुणस्थानों में साता और असाताका परिवर्तित बन्ध होनेसे सातावेदनीयका बन्ध सादि और अध्रुव है ।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १३ ॥
यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसलिये यहां सब प्रश्नोंको करना चाहिये । अथवा
१ अ-काप्रत्योः अप्पसत्थाभावादो', आमतौ ' अप्पसत्थाभावेण ', मप्रती ' अप्पसत्थत्थाभावादो
इति पाठः ।
C
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३, १४.] ओघेण असादावेदणीयादीणं बंबसामित्तपरूत्रणा [१ सुत्तमेदमिदि दट्टव्वं । तण्णिण्णयजणण,मुत्तरसुत्तं भणदि. ---
मिच्छादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १४ ॥
एदं देसामासियं सुत्तं, पुच्छिदत्थाणमेगदेसं छिविदूण अवट्ठाणादो । तेणेदेण सूइदत्थाणं अत्थपरूवणा कीरदे । असादावेदणीयस्स पुव्वं बंधो उदओ पच्छा वोच्छिण्णो, पमत्तसंजदम्मि बंधवोच्छेदे संते पच्छा अजोगिचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदादो । एवमरदि-सोगाणं, पमत्तसंजदम्मि बंधे णटे संते अपुवचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदादो । अथिर-असुहाणं पि एवं चेव वत्तव्यं, पमत्तम्मि बंधे विणटे सजोगिचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदादो । अजसगित्तीए पुवमुदओ वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो, असंजदसम्मादिदिम्हि उदए णडे पच्छा पमत्तसंजदम्मि बंधवोच्छेदादो।
असादावेदणीय-अरदि-सोगा सोदय-परोदएहि बझंति, उदयस्स धुवत्ताभावादो ।
यह आशंका सूत्र है ऐसा समझना चाहिये। उसके निश्चयोत्पादनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ १४ ॥
___ यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, वह पूछे हुए अर्थोके एक देशको छूकर अवस्थित है। इस कारण इसके द्वारा सूचित अधोंकी प्ररूपणा की जाती है। सातावेदनीयका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्तगुणस्थानमें वन्धव्युच्छेद होजानेपर पीछे अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है । इसी प्रकार अरति और शोकका वन्ध पूर्वमें और उदय पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्तसंयतमें वन्धके नष्ट होजानेपर पीछे अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है । अस्थिर और अशुभ प्रकृतियोंका भी इसी प्रकार ही बन्धोदयव्युच्छेद कहना चाहिये, क्योंकि, प्रमत्तसंयतमें बन्धके नष्ट होनेपर सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है । अयशकीर्तिका पूर्वमें उदय व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् बन्ध, क्योंकि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदयके नष्ट होजाने पर पीछे प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें वन्धका व्युच्छेद होता है ।
असातावेदनीय, अरति और शोक प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे बंधती है, क्योंकि,
१ अ-आप्रत्योः । णियजणण?-' इति पाठः । छ. बं. ६.
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४२] . छवखंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १५. एवमजसकित्ती वि, उदयस्स अद्धवत्तणेण भेदाभावादो। णवीर संजदासंजदम्पहुडि उवरि परोदएणेव बंधो, तत्थ जसकित्तिं मोतूण अवराए उदयाभावादी । अथिर-असुहाण सोदएणेव बंधो, धुवोदयत्तादो। एदासिं छण्णं पयडीणं मिच्छाइटिप्पहुडि छसु वि गुणट्ठाणेसु सांतरो बंधो । कुदो ? एदासिं पडिवक्खपयडीणमेत्थ बंधवोच्छेदाभावादो । णाणावरणादिसोलसपयडीणं जे पच्चया पुरूविदा एदेसु छसु गुणट्ठाणेसु तेहि चेव पच्चएहि एदाओ छप्पयडीओ बझंति । असाद-अरदि-सोगे मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणी णिरयगई मेात्तूण तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिविणो देव-मणुसगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधति । एवं अथिर-असुभ-अजसकित्तीणं,भेदाभावादो । चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छाइटिअसंजदसम्मादिहिणो सामी । दुगइसंजदासंजदा सामी। पमत्तसंजदा मणुसा चेव । बंधद्धाणं बंधवोच्छेदट्ठाणं च सुगमं । एदाओ छ वि पयडीओ बंधेण सादि-अद्धवाओ।
मिच्छत्त-णवंसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बेइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-णिरयगइ
इनका उदय ध्रुव नहीं है। इसी प्रकार अयशकीर्ति भी स्वोदय-परोदयसे बंधती है, क्योंकि, उदयकी अचवताकी अपेक्षा इसके उक्त तीनों प्रकृतियोंसे कोई भेद नहीं है। विशेष इतना है कि संयतासंयतसे लेकर आगे इसका वन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, वहां यशकीतिको छोड़कर अयशकीतिका उदय नहीं रहता। अस्थिर और अशुभ
शुभ प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदयसे ही होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । इन छहों प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि आदि छहों गुणस्थानों में सान्तर वन्ध होता है । इसका कारण यह है कि यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धन्युच्छेदका अभाव है। ज्ञानावरणादि सोलह प्रकृतियोंके जो प्रत्यय इन छह गुणस्थानों में कहे गये हैं उन्हीं प्रत्ययोंसे ही ये छह प्रकृतियां बंधती हैं । असातावेदनीय, अरति और शोक प्रकृतियोंको मिथ्याडष्टि जीव चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिको छोड़कर तीन गतियोंसे संयुक्त, सभ्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव-मनुष्य गतियोंसे संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त वांधते हैं । इसी प्रकार अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति प्रकृतियोंका भी गतिसंयुक्त बन्ध जानना चाहिये, क्योंकि, उनसे इनके कोई भेद नहीं है। चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी है। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं । प्रमत्तसंयत मनुष्य ही स्वामी होते हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम है। ये छहों प्रकृतियां बन्धसे सादि एवं अध्रुव हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर,
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३, १६.] ओघेण मिच्छत्तादीणं बंधसामित्तारूवणा पाओग्गाणुपुव्वि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १५॥
एदं पुच्छासुत्तं देसामासियं, तेणेत्थ सव्वपुच्छाओ कायव्वाओ। पुच्छिदसिस्सस्स संसयविणासणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
मिच्छाइट्टी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १६ ॥ ____एदं देसामासियसुत्तं, सामित्तद्धाणाणं दोण्णं चेव परूवणादो । तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवर्ण कीरदे-मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जति, मिच्छाइट्टिचरिमसमए बंधोदयवोच्छेददंसणादो । एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणं मिच्छत्तभंगो, मिच्छाइट्ठिम्हि बंधोदयवोच्छेदं पडि एदासिं मिच्छत्तेण सह भेदाभावादो। णqसयवेदस्स पुव्वं बंधवोच्छेदो पच्छा उदयस्स', मिच्छाइट्ठिम्हि बंधे णढे संते पच्छा अणियट्टिम्हि उदयवोच्छेदादो । एवं णिरयाउ-णिरयगइपाओग्गाणुपुविणामाणं वत्तव्वं, मिच्छाइट्टिम्हि
सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ?
यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसलिये यहां पूर्वोक्त सब प्रश्नों को करना चाहिये । पूछनेवाले शिष्यका संशय नष्ट करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
मिथ्यादृष्टि जीव बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ १६ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, वह बन्धस्वामित्व और बन्धाध्वान इन दोनोंका .. ही प्ररूपण करता है । इस कारण इससे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं-मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके
समयमें इसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणसरीर प्रकृतियोंका बन्धोदयव्युच्छेद मिथ्यात्व प्रकृतिके ही समान है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें होनेवाले बन्धोदयव्युच्छेदके प्रति इनका मिथ्यात्वके साथ कोई भेद नहीं है। नपुंसकवेदका पूर्वमें बन्धव्युच्छेद और पश्चात् उदयका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर पीछे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उदयका व्युच्छेद होता है। इसी प्रकार नारकायु और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका बन्धोदयव्युच्छेद कहना चाहिये, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर पीछे असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें
१ अ-आप्रत्योः पच्छादयस्स' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ बंधे णटे संते पच्छा असंजदसम्माइट्ठिम्हि उदयवोच्छेदादो । एवं इंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणाणं पि वत्तव्यं, मिच्छाइट्टिम्हि बंधे फिट्टे संते पच्छा जहाकमेण सजोगिकेवलिअप्पमत्तसंजदेसु उदयवोच्छेदादा ।
मिच्छत्तस्स सोदएणेव बंधो। णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्विणामाओ परोदएणेव बझंति, सोदएण सगबंधस्स विरोहादो । णqसयवेद-एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणि सोदय-परोदएहि बझंति, उभयथा वि विरोहाभावाद।।
मिच्छतं णिरयाउअं च णिरंतरबंधिणो, धुवबंधित्तादो अद्धाक्खएण बंधविणासाभावादो । अवसेससव्वपयडीओ सांतरं बझंति, तासिं पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो ।
चदुहि मूलपच्चएहि पंचवंचासणाणासमयउत्तरपच्चएहि दस अट्ठारसएगसमय जहण्णुक्कस्सपच्चएहि य मिच्छाइट्ठी एदाओ पयडीओ बंधइ । णवरि वेउब्बिय-वेउब्वियमिस्सओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चएहि विणा एगवंचासपच्चएहि णिरयाउअं बंधइ त्ति वत्तव्यं । एवं
इनके उदयका व्युच्छेद होता है। इसी प्रकार हुण्डसंस्थान और असंग्रातसृपाटिकासंहननका भी कहना चाहिये, क्योंकि, मिथ्याटष्टि गुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर पीछे यथाक्रमसे सयोगकेवली और अप्रमत्तसंयन गुणस्थानमें इनके उदयका व्युच्छेद होता है।
मिथ्यात्वका स्वोदयसे ही बन्ध होता है। नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म परोदयसे ही बंधते हैं, क्योंकि, स्वोदयसे इनके अपने बन्धका विरोध है । नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन, आताप. स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर स्वोदयपरोदयसे बंधते हैं, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है ।
मिथ्यात्व और नारकायु प्रकृतियां निरन्तर बंधनेवाली हैं, क्योंकि ध्रुवबन्धी होनेसे कालक्षयसे इनके बन्धविनाशका अभाव है। शेष सब प्रकृतियां सान्तर बंधती हैं, क्योंकि, उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकी सम्भावना है।
चार मूल प्रत्ययोसे, पचवन नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्ययोंसे, तथा दश व अठारह एक समय सम्बन्धी जघन्य एवं उत्कृष्ट प्रत्ययोंसे मिथ्यादृष्टि इन प्रकृतियोंको बांधता है। विशेष इतना है कि वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंके विना बह इक्यावन प्रत्ययोंसे नारकायुको बांधता है, ऐसा कहना चाहिये । इसी
१ प्रतियु ' ताहिं ' इति पाठः ।
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३, १६.} विण मिच्छत्तादीणं बंधसामित्तपत्रणा
[ ४५ [णिरयगइ-] णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं । बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-सुहुम-साहारण अपजत्ताणं वेउब्वियदुगेण विणा तेवण्णा पच्चया ।
मिच्छतं च उगइसंजुत्तं, णबुंसयवेदं देवगईए' विणा तिगइसंजुत्तं, णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुब्बिणामाओ णिरयगइसंजुतं, हुंडसंठाणं देवगई मोत्तूण तिगइसंजुत्तं, असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-अपज्जत्तणामाओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, सेसाओ तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधंति ।
मिच्छत्त-णसयवेद-टुंडेसठाण-असंपत्तपेवट्टसरीरसंवडणाणं च उगइमिच्छाइट्ठी सामी । एइंदिय-आदाव-थावरणामाणं बंधस्स णिरयगई मोत्तूण तिगइमिच्छाइट्ठी सामी । सेसाणं पयडीणं तिरिक्ख-मणुसगइमिच्छाइट्ठी सामी । बंधद्वाणं बंधवोच्छे दट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो सादि-अणादि-धुव-अद्धवभेएण चउबिह। । सेसाणं बंधो सादि-अद्धयो ।
प्रकार [ नरक गति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके भी इक्यावन प्रत्यय हैं। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, मूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त प्रकृतियोंके वैक्रियिकद्विकके विना तिरेपन प्रत्यय हैं।
मिथ्यात्वको चार गतियों से संयुक्त, नपुंसकवेदके देवगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्तः नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको नरकगतिसे संयुक्त; हुण्डसंस्थानको देवगतिको छोड़ तीन गतियोंसे संयुक्त, असंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहनन
और अपर्याप्त नामकर्मको तिर्यग्गति व मनुष्यातिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियों को तिर्यग्गतिसे संयुक्त वांधते हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासरीरसंहनन प्रकृतियोंके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी है। एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर नामकर्मके वन्धके नरकगतिको छोड़ शेष तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी है। शेष प्रकृतियों के तिर्यग्गति व मनुष्यगतिके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम हैं। मिथ्यात्वक. बंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव भेदसे चार प्रकार है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि और अध्रुव होता है ।
१ अमतौ —णसयवेदं व देवगईए ' इति पाठः । २ प्रतिषु — बंधवोच्छिण्णाणं ' इति पाठः ।
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४६) खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १७. ___ अपच्चक्खाणावरणीयकोध-माण-माया-लोभ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसंघडणमणुसगइपाओग्गाणुपुरिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १७॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १८ ॥
एदं देसामासियसुत्तं, सामित्तद्धाणाणं' चेव परूवणादो । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- अपच्चक्खाणावरणचउक्कस्स मणुसगइपाओग्गाणुपुविणामाए बंधोदया समं वोच्छिज्जति, एक्कम्हि असंजदसम्माटिम्हि दोण्णं विणासुवलंभादो । मणुसगईए पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, असंजदसम्मादिट्टिम्हि बंधे पट्टे पच्छा अजोगिचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदादो । एवमोरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसंधडणाणं । णवरि सजोगिचरिमसमए उदयवोच्छेदो ।
अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्षभवज्रनाराचसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १७ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बंधक है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ १८ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, वह केवल वन्धस्वामित्व और वन्धाध्वानका ही निरूपण करता है। इसी कारण इस सूत्रसे सूचित अर्थको प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्यच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें दोनोंके विनाश पाये जाते हैं । मनुष्यगतिका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वन्धके नष्ट होनेपर पीछे अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है। इसी प्रकार औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है । विशेष इतना है कि सयोगीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद होता है ।
२ प्रतिषु ‘विणासाणुवलंभादो' इति पाटुः ।
१ प्रतिषु 'सामित्तद्वाणिणं ' इति पाठः । ३ प्रतिषु सम्मादिट्ठीहि' इति पाठः ।
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३, १८.] ओघेण अपरचक्खाणावरणीयादीणं बंधसामित्तपरूवणा [४.
अपच्चक्खाणावरणचउक्कादीणं सव्वेसिं सोदय-परोदएहि बंधो, विरोहाभावादो । णवरि सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं परोदओ बंधो । अपच्चक्खाणावरणचउक्कबंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । मणुसगइ-मणुसगइपा
ओग्गाणुपुट्विबंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठीणं सांतर-णिरंतरो, आणदादिदेवेसु णिरंतरबंध लद्धण अण्णत्थ सांतरबंधुवलंभादो । सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठीसु णिरंतरो, देव-णेरड्यअप्पिददोगुणट्ठाणेसु अण्णगइ-आणुपुव्वीणं बंधाभावादो। एवमोरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं वत्तव्यं । कुदो ? ओरालियसरीरस्स सव्वदेव-णेरइएसु तेउवाउकाइएसु च णिरंतरं बंधुवलंभादो, अण्णत्थ सांतरबंधदंसणादो; ओरालियसरीरअंगोवंगस्स सव्वणेरइए सु सणक्कुमारादिदेवेसु च णिरंतरं बंधं लद्धण ईसाणादिहेट्ठिमदेवाणं मिच्छाइटिसासणेसु तिरिक्ख-मणुस्सेसु च सांतरबंधुवलंभादो, वज्जरिसहसंघडणस्स देव-णेरइयसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरं बंधं लद्धण अण्णत्थ सांतरबंधुवलंभादो ।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क आदिक सबका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, पसा होने में कोई विरोध नहीं है। विशेष यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें मनुष्यगनिद्धिक, औदारिकद्विक एवं वज्रर्षभसंहननका परोदय बन्ध होता है।
_ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध निरन्तर है, क्योंकि, ये चारों प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दाष्टके सान्तर निरन्तर है, क्योंकि, आनतादि देवोंमें निरन्तर बन्धको प्राप्तकर अन्यत्र सान्तर वन्ध पाया जाता है । सम्यग्मिथ्याहाष्ट्र और असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोमे निरन्तर बन्ध है, क्योंकि. देवों व नारकियोंके इन विवक्षित दो गुणस्थानों में अन्य गति व आनुपूर्वीके बन्धका अभाव है। इसी प्रकार औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननके भी कहना चाहिये । इसका कारण यह कि औदारिकशरीरका सर्व देव नारकी तथा तेजकायिक व वायुकायिक जीवों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है, अन्यत्र यही बन्ध सान्तर देखा जाता है; औदारिकशरीरांगोपांगका सब नारकियोंमें और सानत्कुमार एवं माहेन्द्र कल्पके देवोंमें भी निरन्तर बन्ध पाकर ईशानादिक अधस्तन देवोंके मिथ्यादृष्टि व सासादन गुणस्थानों में तथा तिथंच और मनुष्यों में सान्तर बन्ध पाया जाता है; बज्रर्षभसंहननका देव और नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध पाकर अन्यत्र सान्तर बन्ध पाया जाता है।
१ अ-आप्रत्योः 'देव-णेरइअप्पिद-' काप्रती · देव-णेरइयप्पिद- ' इति पाठः ।
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१८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १८. अपचक्खाणावरणचउक्कं चउगुणट्ठाणजीवा णाणावरणपच्चएहि चेव बंधंति । एवं मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुर्बीणं पि चदुसु गुणट्ठाणेसु पच्चया परूवेदव्वा । णवरि सम्मामिच्छाइट्ठिस्स बादालपच्चया वत्तवा, ओरालियकायजोगपच्चयाभावादो । असंजदसम्माइहिस्स चोदालपच्चया, ओरालियकायजोग-ओरालियमिस्सकायजोगपच्चयाणमभावादो । एवमोरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-बज्जरिसहसंघडणाणं पि पचयपरूवणा मसुसगईए व कायव्वा ।
अपच्चक्खाणचउक्कं मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, सेसा दो वि देव-मणुसगइसंजुत्तं बंधंति । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीओ सव्वगुणट्ठाणजीवा मणुसगइसंजुत्तं बंधंति । ओरालियसरीर-ओरालियअंगोवंगाई मिच्छाइट्टि सासणसम्मादिहिणो तिरिक्ख-मणुसगइसंसुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिद्विणो मणुसगइसंजुत्तं बंधति । एवं वज्जरिसहवइरणारायणसंघडणस्स वि वत्तव्यं, भेदाभावादो।
अपच्चक्खाणचउक्कबंधस्स चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्मादिट्ठी सामी । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्धि-ओरालियसरीर-ओरालियअंगोवंग
___ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कको चार गुणस्थानोंके जीव ज्ञानावरणप्रत्ययोंसे ही बांधते हैं। इसी प्रकार मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके भी प्रत्ययोंकी चारों गुणस्थानों में प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टिके ब्यालीस प्रत्यय कहना चाहिये, क्योंकि, उसके औदारिककाययोग प्रत्ययका अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टिके चवालीस प्रत्यय कहना चाहिये, क्योंकि, उसके औदारिककाययोग और औदारिकमिश्रकाययोग प्रत्ययोंका अभाव है। इसी प्रकार औदारिकशरीर, औदारिक शरीरांगोपांग और वज्रपेभसहननके भी प्रत्ययाकी प्ररूपणा मनुष्यगति नामकर्मके समान करना चाहिये।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कको मिथ्यादृष्टि चार गतियोंसे संयुक्त,सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, और शेष दोनों गुणस्थानवी जीव देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बांधते हैं। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सर्व गुणस्थानोंके जीव मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । औदारिकशरीर और औदारिकअंगोपांगको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति एवं मनुष्यगति संयुक्त बांधते हैं; सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । इसी प्रकार वज्रर्षभवज्रनाराचसंहननका भी गतिसंयोग कहना चाहिये, क्योंकि, उक्त प्रकृतियोंसे इसके कोई भेद नहीं है।
___ अप्रत्याख्यानवरणचतुष्कके वन्धके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्याग्मथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग और वज्रर्षभवज्रनाराचसंहनन प्रकृतियोंके चारों
१ प्रतिषु 'ब' इति पाठः ।
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३, १८.] ओघेण अपच्चक्खाणावरणीयादीणं बंधसामित्तपरूवणा [१९ वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठी सामी। दुगइसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठी सामी । बंधद्धाणं बंधणट्ठपदेसो वि सुगमो।
अपच्चक्खाणचउक्कबंधो मिच्छाइट्ठिम्हि चउब्विहो, धुवबंधित्तादो । सेसेसु गुणट्ठाणेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो। मणुसगइ-ओरालियसरीर ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बिणामाणं बंधो सव्वगुणहाणेसु सादि-अद्धवो, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो। ओरालियसरीरस्स णिच्चणिगोदेसु सव्वकालं वेउव्विय-आहारसरीरबंधविरहिदेसु धुवबंधो । अणादियबंधो च किण्ण लब्भदे ? ण, पडिवक्खपयडिबंधसत्तिसम्भावं पडुच्च अणादि-धुवभावापरूवणादो', चउगइणिगोदे मोत्तूण णिच्चणिगोदेहि एत्थ अहियाराभावादो वा । बंधवत्तिं पडुच्च पुण बंधस्स अणादियधुवत्तं ण विरुज्झदे ।
गतियोंके मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । दो गतियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धनष्टप्रदेश अर्थात् जिस स्थान तक बन्ध होता है तथा जहां बन्धकी व्युच्छित्ति होती है वह जानना भी सुगम है।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें चारों प्रकारका है, क्योंकि, ये चारों प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं । शेष गुणस्थानों में इनका बन्ध तीन प्रकारका है, क्योंकि, वहां ध्रुब बन्ध नहीं होता । मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका बन्ध सब गुणस्थानों में सादि व अध्रुव है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। सर्वकाल वैक्रियिक और आहारक शरीरोंके बन्धसे रहित नित्यनिगोदी जीवोंमें औदारिकशरीरका ध्रुव बन्ध होता है।
शंका-नित्यनिगोदी जीवोंमें औदारिकशरीरका अनादि बन्ध भी क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी बन्धशक्तिके सद्भावकी अपेक्षा करके अनादि रूपसे ध्रुव बन्धका प्ररूपण नहीं किया गया। अथवा चतुर्गतिनिगोदोंको अर्थात् चारों गतियों में होकर पुनः निगोदमें आये हुए जीवोंको छोड़कर नित्यानगोदोंका यहां अधिकार नहीं है । परन्तु बन्धकी अभिव्यक्तिकी अपेक्षा करके बन्धके अनादि और ध्रुव होनेमें कोई विरोध नहीं है।
१ प्रतिषु ' -भावपरूवणादो' इति पाठः ।
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५० ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १९.
पच्चक्खाणावरणीय कोध-माण- माया लोभाणं को बंधो को
अबंधो ? ॥ १९ ॥
सुगममेदं सुतं ।
मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा बंधा ॥ २० ॥
एदं देसामासियसुत्तं, सामित्तद्धाणाणमेव परूवणादो | तेणेत्थ अवत्तत्थाणं परूवणा कीरदे । तं जहा - एदासं पडणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, संजदासंजदम्मि बंधस्सेव उदयवोच्छेददंसणादो । एदासिं चउण्णं पिबंधो सोदय-परोदहि, कोधादीणं बंधकाले तस्सेव उद व होदव्यमिदि नियमाभावादो । एदासिं चदुष्णं पि णिरंतरो बंधो, सत्तेत्तालीसधुवबंधपयडीसु पादादो । मिच्छादिडिआदिपंचगुणट्टाणेसु जे पच्चया परूविदा मूलुत्तरभेएण तेहि.. पच्चएहि एदाओ बज्झति त्ति तेसु तेसु गुणड्डाणेसु ते ते चैव पच्चया वत्तव्वा, बंधस्स पच्चयसमूहकज्जत्तादो | अधवा, एदासिं पयडीणं बंधस्स पच्चक्खाणपयडीए' उदयसामण्णं
प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १९ ॥
यह सूत्र सुगम है |
मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक बन्धक हैं ॥ २० ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, वह बन्धस्वामित्व और बन्धाध्वानका ही निरूपण करता है । इस कारण यहां अनुक्त अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है - इन चारों प्रकृतियों का बन्ध और उदय दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थान में बन्धके समान इनके उदयका भी व्युच्छेद देखा जाता है । इन चारों ही प्रकृतियों का बन्ध स्वोदय- परोदयसे होता है, क्योंकि, क्रोधादिकोंके बन्धकालमें उसका ही उदय भी होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । इन चारोंका ही निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये चारों प्रकृतियां सैंतालीस ध्रुववन्धी प्रकृतियों में आती हैं ।
मिध्यादृष्टि आदि पांच गुणस्थानों में जो मूल व उत्तर प्रत्यय कहे गये हैं उन प्रत्ययोंसे ये प्रकृतियां वंधती हैं, अत एव उन उन गुणस्थानोंमें उन्हीं उन्हीं प्रत्ययों को कहना चाहिये, क्योंकि, वन्ध प्रत्ययसमूहका कार्य है । अथवा, इन प्रकृतियोंके बन्धका प्रत्यय प्रत्याख्यान प्रकृतिका उदयसामान्य है ।
१ प्रतिषु ' अवृत्तद्धाणं ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु पच्चयाण पयडीए' इति पाठः ।
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३, २०. ]
ओघेण पच्चक्खाणावरणीयको हादीणं बंधसामित्त परूवणा
[ ५१
पच्चओ | सेसकसायाणमुदओ जोगो च पच्चओ ण होदि, एत्तो उवरि तेसु संतेसु वि एदासिं बंधाभावाद।। ण मिच्छत्ताणताणुबंधि - अपच्चक्खाणावरणाणमुदओ वि एदासिं बंधस्स पच्चओ, ते विणा व बंधुवलंभादो । जस्सण्णय- वदिरेगेहि जस्सण्णयवदिरेगा होंति [तं ] तस्स कज्जमियरं च कारणं । ण चेदं पच्चक्खाणोदयं मुच्चा अण्णत्थत्थि तम्हा पच्चक्खाणोदओ चेव पच्चओ त्ति सिद्धं । मिच्छाइट्टिम्हि णट्टबंध सोलसपयडीणं बंधस्स मिच्छतोदओ चेव पच्चओ, तेण विणा तासिं बँधाणुवलंभादो | सासणम्मि डुबंधपणुवीसपयडीणं अगताणुबंधी णमुदओ चेव पच्चओ, तेण विणा तासिं बंधाणुवलंभादो । असंजदसम्मादिट्टिम्हि णबंधणवपयडीणं बंधस्स अपच्चक्खाणोदओ कारणं, तेण विणा तासिं बंधाणुवलभादो । पमत्तसंजदम्मि डुबंधछप्पयडीणं बंधस्स पमादो पच्चओ, तेण विणा तदणुवलंभादो । एवमण्णत्थ वि जाणिय वत्तव्यं ।
एदाओ पयडीओ मिच्छाइड्डी चउगइसंजुत्तं, सासणेो णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं,
शेष कषायका उदय और योग प्रत्यय नहीं है, क्योंकि, पांचवें गुणस्थानके ऊपर उनके रहनेपर भी इनका बन्ध नहीं होता । मिथ्यात्व अनन्तानुवन्धी और अप्रत्याख्यानावरण प्रकृतियोंका उदय भी इन प्रकृतियों के बन्धका प्रत्यय नहीं है, क्योंकि, उनके उदयके बिना भी इनका बन्ध पाया जाता है । जिसके अन्वय और व्यतिरेकके साथ जिसका अन्वय और व्यतिरेक होता है वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है । और यह बात प्रत्याख्यानावरण के उदयको छोड़कर अन्यत्र है नहीं, इसलिये प्रत्याख्यानाचरणका उदय ही अपने बन्धका प्रत्यय है, यह बात सिद्ध हुई । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में व्युच्छिन्न सोलह प्रकृतियों के बन्धका प्रत्यय मिथ्यात्वका उदय ही है, क्योकि, उसके विना उन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध पाया नहीं जाता। सासादनगुणस्थानमें व्युच्छिन्न पच्चीस प्रकृतियोंके बन्धका अनन्तानुबन्धिचतुष्कका उदय ही प्रत्यय है, क्योंकि, उसके विना इन पचीस प्रकृतियोंका वन्ध पाया नहीं जाता। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में व्युच्छिन्न नौ प्रकृतियोंके वन्धका अप्रत्याख्यानावरणका उदय कारण है, क्योंकि, उसके विना उनका बन्ध पाया नहीं जाता । प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें व्युच्छिन्न छह प्रकृतियोंके बन्धका प्रत्यय प्रमाद है, क्योंकि, उसके बिना उनका बन्ध पाया नहीं जाता। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानकर कहना चाहिये ।
इन प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि नरक
५ प्रतिषु 'अण्णत्थ त्ति ' इति पाठः ।
२ अप्रतौ ' गिरयगई ' आ-काप्रत्योः ' गिरयगर' इति पाठः ।
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५२]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २१. सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी देवगइ-मणुसगइसंजुत्तं, संजदासजदा देवगइसंजुत्तं बंधति । एदासिं चउगइमिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो बंधस्स सामी। संजदासजदा दुगइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । एदासिं बंधो मिच्छाइदिम्हि चउव्विहो, सत्तेदालीसधुवबंधपयडीसु पादादो । उवरिमेसु गुणहाणेसु तिविहो, दुविहाभावादो।
पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २१ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टिवादरसांपराइयपइट्ठउवसमा खवा बंधा। अणियट्टिवादरद्धाए सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २२ ॥
'मिच्छादिटिप्पहुडि उवसमा खवा बंधा' एदेण सुत्तावयवेण गुणट्टाणगर्यबंध
गतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, सम्यग्मिथ्याढष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति एवं मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा संयतासंयत देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। चारों गतियोंके मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन प्रकृतियों के बन्धके स्वामी हैं। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान स्थान सुगम हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें इनका चारों प्रकारका बन्ध है, क्योंकि, ये सैंतालीस ध्रुवबन्धप्रकृतियों में आती हैं। उपरिम गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध है, क्योंक, वहां दो प्रकारके बन्धका अभाव है।
पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधका कौन बन्धक और कौन अबन्धक ? ॥ २१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक एवं क्षपक तक पन्धक हैं। अनिवृत्तिबादरकालके शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्धव्युच्छेद होता है। ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ २२ ॥
'मिश्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक और क्षपक बन्धक हैं ' इस
१ अप्रतौ · देवं आप्रतौ · देवगइ कांप्रती · देवगई ' इति पाठः । २ प्रतिषु । गइय-' इति पाठः ।
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३, २२.] ओघेण पुरिसंवेद-कोधसंजलणाणं बंधसामित्तपस्वणा सामित्तं बंधद्धाणं च परविदं । 'अणियट्टिबादरद्धाए सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधो वोच्छिजदि' त्ति एदेण बंधविणठ्ठाणं परविदं । तं जहा- सेसे अंतरकरणे कदे जा सेसा अणियट्टिअद्धा तम्मि सेसे संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडाणि गंतूणेगखंडावसेसे पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं बंधो बोच्छिण्णो त्ति उत्तं होदि । एदे तिण्णि चेव अत्था एदेण परूविदा त्ति देसामासियसुत्तमेदं । तेणेदस्सियरत्थाणं परूवणा कीरदे
पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं उदए संतक्खएणुवसमेण वा णडे बंधाणुवलंभादो । संसारावत्थाए सोदएण विणा वि बंधो उवलब्भदि त्ति ण सोदयाविणाभावी एदासिं बंधो त्ति वुत्ते होदु तथा तत्थ, इच्छिजमाणत्तादो। एत्थ पुण पडिवक्खपयडिबंधेण विणा बंधविणटाणे चेव उदयविणासादो एगम्हि काले दोणं विणासो ण विरुज्झदे त्ति । एदासिं दोणं पयडीणं सोदयपरोदएहि बंधो, सोदएण विणा वि बंधोवलंभादो । कोधसंजलणस्स बंधो णिरंतरो, सत्तेत्तालीसधुवबंधपयडीणं मज्झे
मूत्रावयवसे गुणस्थानगत बन्धस्वामित्व और बन्धाध्वानका निरूपण किया है । 'अनिवृत्ति यादरकालके शेपमें संख्यात बहुभाग जाकर वन्ध व्युच्छिन्न होता है ' इससे बन्धव्युच्छेदस्थानका निरूपण किया है। वह इस प्रकार है-शेष अर्थात् अन्तरकरण करनेपर जो अवशेष अनिवृत्तिकाल रहता है उस शेष कालके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत खण्ड जाकर एक खण्ड अवशिष्ट रहनेपर पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधका बन्ध व्युच्छिन्न होता है, यह उसका अभिप्राय है । ये तीन ही अर्थ इस सूत्र द्वारा कहे गये हैं, अत एव यह देशामर्शक सूत्र है । इसी कारण इसके अन्य अर्थोकी प्ररूपणा की जाती है
पुरुषवेद और संज्वलनक्रोध इनके बन्ध व उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योकि. परुपवेद और संज्वलनकोधके उदयके सत्वक्षयसे या उपशमसे नष्ट होनेपर उन दोनोंका बन्ध नहीं पाया जाता ।
शंका-संसारावस्थामें स्वोदयके विना भी बन्ध पाया जाता है, अत एव इनका बन्ध स्वोदयका अविनाभावी नहीं है ?
समाधान-ऐसी शंका करने पर उत्तर देते हैं कि संसारावस्थामें वैसा भले ही हो, क्योंकि, वहां ऐसा इष्ट है। परन्तु यहांपर प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके विना बन्धब्युच्छेदस्थानमें ही उदयका व्युच्छेद होनेसे एक कालमें दोनोंका व्युच्छेद विरुद्ध नहीं है। - इन दोनों प्रकृतियोंका स्वोदय-परोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयके विना भी उनका बन्ध पाया जाता है । संज्वलनक्रोधका बन्ध निरन्तर है, क्योंकि, वह सैंतालीस
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५.
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३२. पादादो । पुरिसवेदबंधो सांतरो.। कुदो ? मिच्छाइट्ठि-सासणेसु पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो । णिरंतरो वि, पम्म-सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुसमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सम्मामिच्छाइट्ठिआदिउवरिमगुणट्ठाणेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो ।
एदासिं पचयपरूवणे कीरमाणे पुध पुध जे पच्चया मूलुत्तरणाणेगसमयभेयभिण्णा गुणट्ठाणाणं परुविदा ताणि गुणट्ठाणाणि तेहि पच्चएहि एदाओ पयडीओ बंधति ति पुधपरूवणा णत्थि, भेदाणुवलंभादो । अधवा पुरिसवेदो गयपच्चओ, अवगदवेदेसु तब्बंधाणुवलंभादो । कोधसंजलणो संजलणकसायस्स तिव्वाणुभागोदयपच्चओ, उवसमसेडिम्हि कोधचरिमाणुभागोदयादो अणंतगुणहीणेण वूणाणुभागोदएण कोधसंजलणस्स बंधाणुवलंभादो । मिच्छाइट्ठी सासणां च णिरयगईए विणा पुरिसवेदं तिगइसंजुत्तं बंधइ । णिरयगईए सह पुरिसवेदो किण्ण बज्झदे ? ण, अचंताभावेण पडिसिद्धत्तादो । सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी च दुगइसंजुत्तं, तेसिं णिरय तिरिक्खगईणं बंधाभावादो । संजदासंजदप्पहुडि उवरिमा
प्रवबन्धी प्रकृतियोंके मध्यमें आया है। पुरुषवेदका बन्ध सान्तर है। इसका कारण यह कि मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानों में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है । वही बन्ध निरन्तर भी है, क्योंकि, पद्म एवं शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि उपरिम गुणस्थानों में भी निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
इन दोनों प्रकृतियोंके प्रत्ययोंका प्ररूपण करनेपर मूल, उत्तर तथा नाना व एक समय सम्बन्धी प्रत्ययोंके भेदसे भिन्न पृथक् पृथक् जो प्रत्यय जिन गुणस्थानोंके कहे गये हैं वे गुणस्थान उन प्रत्ययोंसे इन प्रकृतियोंको बांधते हैं, अतः इनकी पृथक् प्रत्ययप्ररूपणा नहीं है, क्योंकि, उनसे यहां कोई भेद नहीं पाया जाता । अथवा पुरुषवेद गतप्रत्यय है, अर्थात् उसका प्रत्यय ऊपर बता ही चुके हैं, क्योंकि, अपगतवेदियों में उसका बन्ध नहीं पाया
लनक्रोधका बन्ध संज्वलनकषायके तीव्र अनुभागोदयनिमित्तक है, क्योंकि, उपशमश्रेणीमें क्रोधके अन्तिम अनुभागादयसे अथवा अनन्तगुणहानिसे हीन अनुभागोदयसे संज्वलनक्रोधका बन्ध नहीं पाया जाता।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना पुरुषवेदको तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं।
शंका-नरकगतिके साथ पुरुषवेद क्यों नहीं बंधता ? समाधान नहीं बांधता, क्योंकि, वह अत्यन्ताभाव रूपसे प्रतिषिद्ध है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव है । संयतासंयतसे लेकर उपरिम जीव .
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३, २३. ]
ओघेण माण - मायासंजलणाणं बंधसामित्तपरूवणा
[ ५५
देवगइसंजुत्तं, सेसगईणं तत्थ बंधाभावादो । अपुव्वकरणसत्तमसत्तभागप्पडुडि उवरिमा अगदि संजुत्तं बंधति, तत्थ गइकम्मस्स बंधाभावादो | एवं कोधसंजलणस्स वि वत्तव्वं । णवरि मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं बंधइ, तत्थ णिरयगईए सह बंधविरोहाभावादो । पुरिसवेदबंधस्स चउगइमिच्छाइट्टि-सासणसम्माइडि-सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिट्टिणो सामी । दुगसंजदासंज़दा सामी, देव-णिरयगईसु तदभावाद । उवरिमा मणुसगईए सामी, अण्णत्थ पमत्तादीणमभावादो । पुरिमवेदबंधो सव्वगुणणेसु सादिगो अद्भुवो, पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो । णियमेण सम्मामिच्छाइडिप्पहुड उवरिमेसु बंधविणासदंसणा दो । कोधसंजणस्स मिच्छाडिदि वो बंध, धुवबंधित्तादो । उवरिमेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो ।
माण- मायसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २३ ॥
सुगममेदं ।
देवगति से संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, वहां शेष गतियोंका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरणके सातवें सप्तम भागसे लेकर उपरिम जीव अगतिसंयुक्त पुरुषवेदको बांधते हैं, क्योंकि, वहां गतिकर्मका बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार संज्वलनक्रोधके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि मिध्यादृष्टि उसे चार गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, वहां नरकगतिके साथ उसके बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है ।
पुरुषवेदके बन्धके चारों गतियोंवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्याष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । दो गतियोंवाले संयतासंयत स्वामी हैं, क्योंकि, देव व नरक गतिमें संयतासंयतोंका अभाव है । ऊपरके जीव मनुष्यगतिके ही स्वामी हैं, क्योंकि, दूसरी गतियों में प्रमत्तसंयतादिकों का अभाव है । पुरुषवेदका बन्ध सब गुणस्थानों में सादिक व अध्रुव है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है, नियम से सम्यग्मिथ्यादृष्टिसे लेकर उपरिम गुणस्थानों में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्धविनाश देखा जाता है । संज्वलनक्रोधका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । उपरिम गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है ।
संज्वलन मान और मायाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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५६]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २४. मिच्छाइडिप्पहडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठउवसमा • खवा बंधा । अणियट्टिबादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २४ ॥
'मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविठ्ठउवसमा खवा बंधा' एदेण सुत्तावयवेण बंघद्धाणं गइगएण विणा गुणहाणगयबंधसामित्तं च वुत्तं । 'अणियट्टिबादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जाभाग गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि' एदेण सुत्तावयवेण बंधविणठ्ठठ्ठाणं परविदं । कोधसंजलणे विणढे जो अवसेसो अणियट्टिअद्धाए संखेज्जदिभागो तम्हि संखेज्जे खंडे कदे तत्थ बहुभागे गंतूण एयभागावसेसे माणसंजलणस्स बंधवोच्छेदो । पुणो तम्हि एगखंडे संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडे गंतूण एगखंडावसेसे मायासंजलणबंधवोच्छेदो त्ति । कधमेदं णव्वदे ? 'सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूणेत्ति ' विच्छाणिदेसादो । कसायपाहुडसुत्तेणेदं सुत्तं विरुज्झदि त्ति वुत्ते सच्चं विरुज्झइ, किंतु एयंतग्गहो एत्थ ण कायव्यो, इदमेव तं चेव
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । अनिवृत्तिबादरकालके शेष शेपमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ २४ ॥
'मिथ्याटिसे लेकर अनिवृत्तिकरणबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं' इस सूत्रावयवसे वन्धाध्वान और गतिगत बन्धस्वामित्वके विना गुणस्थानगत बन्धस्वामित्व भी कहा गया है। 'अनिवृत्तिबादरकालके शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध ब्युच्छिन्न होता है' इस सूत्रावयव द्वारा वन्धविनष्टस्थानकी प्ररूपणा की गई है । संज्वलनक्रोधके विनष्ट होनेपर जो शेष अनिवृत्तिबादरकालका संख्यातवां भाग रहता है उसके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुभागोंको विताकर एक भाग शेष रहनेपर संज्वलनमानका बन्धव्युच्छेद होता है। पुनः एक खण्डके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत खण्डोंको विताकर एक खण्ड शेप रहनेपर संज्वलनमायाका बन्धव्युच्छेद होता है।
शंका—यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-'शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर' इस वीसा अर्थात दो बार निर्देशसे उक्त प्रकार दोनों प्रकृतियोंका व्युच्छेदकाल जाना जाता है।
शंका-कषायप्राभृतके सूत्रसे तो यह सूत्र विरोधको प्राप्त होगा?
समाधान-ऐसी आशंका होनेपर कहते हैं कि सचमुचमें कषायप्राभृतके सूत्रसे यह सूत्र विरुद्ध है, परन्तु यहां एकान्तग्रह नहीं करना चाहिये, क्योंकि, 'यही सत्य है'
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३, २४.] ओघेण माण-मायासंजलणाणं बंधसामित्तपरूवणा
[५७ सच्चमिदि सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छत्तप्पसंगादो । कधं सुत्ताणं विरोहो ? ण, सुत्तोवसंहाराणमसयलसुदधारयाइरियपरतंताणं विरोहसंभवदंसणादो। उवसंहाराणं कधं पुण सुत्तत्तं जुज्जदे ? ण, अमियसायरजलस्स अलिंजर-घड-घडी-सरावुदंचणगयस्स वि अमियत्तुवलंभादो ।
संपहि एदेण सूइदत्थाणं' परूवणा कीरदे । तं जहा- एदासिं दोणं पयडीणं बंधोदया अक्कमेण वोच्छिज्जंति, उदए विण? बंधाणुवलंभादो। ण च उदयद्धाक्खएण उदयस्स विणासो एत्थ विवक्खिओ, संतोवसम-खएहि समुप्पण्णुदयाभावेण अहियारादो । एदासिं सोदय-परोदएहि बंधो, णिरंतरबंधीणं सांतरुदयाणं सोदएणेव बंधविरोहादो । णिरंतरबंधीओ, धुवबंधीहि सह पादादो । मिच्छाइटिप्पहुडि जे पच्चया मूलुत्तरणाणेगसमयभेयभिण्णा पुव्वं परूविदा तग्गुणविसिट्ठजीवा तेहि चेव पच्चएहि एदाओ पयडीओ बंधंति, पच्चयंतरा
या ' वही सत्य है ऐसा श्रुतकेवलियों अथवा प्रत्यक्षशानियोंके विना निश्चय करनेपर मिथ्यात्वका प्रसंग होगा।
शंका ----सूत्रों के विरोध कैसे हो सकता है ?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, अल्प श्रुतके धारक आचार्योंके परतंत्र सूत्र व उपसंहारोंके विरोधकी सम्भावना देखी जाती है।
शंका-उपसंहारोंके सूत्रपना कैसे उचित है ?
समाधान-यह भी शंका ठीक नहीं, क्योंकि, आलिंजर (घटविशेष), घट, घटी, शराव व उदंचन आदिमें स्थित भी अमृतसागरके जलमें अमृतत्व पाया ही जाता है।
अब इस सूत्रके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- इन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, इनके उदयके नष्ट होनेपर फिर बन्ध नहीं पाया जाता। और यहां उदयकालके क्षयसे होनेवाला उदयका विनाश विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि, सत्वोपशम या सत्वक्षयसे उत्पन्न उदयाभावका अधिकार है। इन दोनों प्रकृतियोंका स्वोदय परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, निरन्तरबन्धी और सान्तर उदयवाली प्रकृतियोंके स्वोदयसे ही बन्ध होनेका विरोध है । ये निरन्तरबन्धी प्रकृतियां हैं, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंके साथ आती हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर मूल, उत्तर व नाना एवं एक समय सम्बन्धी भेदोंसे भिन्न जो प्रत्यय पूर्वमें कहे जा चुके हैं, उन गुणस्थानोंसे विशिष्ट जीव उन्हीं प्रत्ययोंसे इन प्रकृतियों को बांधते हैं, क्योंकि, अन्य प्रत्ययोंका
१ अप्रतौ ‘सुत्तोवसंघाराणा-', आ-काप्रयोः ‘सुत्तोवसंहाराणा-' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः ‘ सहदत्थाणं', काप्रतौ — सहिदत्थाणं ' इति पाठः ।
क.
.८.
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५८]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५. भावादो । अधवा, एदासिं संजलणोदयविसेसो चेव पच्चओ, तेण विणा बंधाणुवलंभादो ।
मिच्छादिट्ठी चउगइसंजुत्तं, तस्स सव्वगइबंधेहि विरोहाभावादो। सासणो तिगइसंजुत्तं, तस्स णिरयगइबंधेण सह विरोहादो । सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी च दुगइसंजुत्तं बंधंति, तेसिं णिरय-तिरिक्खगईहि सह विरोहादो। उवरिमा देवगइ-अगइसंजुत्तं वा बंधंति, तेसिं सेसगईहि सह विरोहादो । मिच्छाइट्ठी सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी चउगइया, दुगइसंजदासंजदा, सेसा मणुस्सगईया सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुत्तुद्दिट्टमिदि सुगमं । मिच्छाइटिस्स चउविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं तिविहो, धुवत्ताभावादो ।
लोभसंजलणस्स को बंधो को अबंधो ? ॥२५॥ सुगम ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टिवादरसांपराइयपविट्ठउवसमा खवा बंधा। अणियट्टिबादरद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधोवोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २६ ॥
अभाव है । अथवा, इन प्रकृतियोंका संज्वलनका उदयविशेष ही प्रत्यय है, क्योंकि, उसके विना इनका बन्ध पाया नहीं जाता।
मिथ्यादृष्टि इन्हें चार गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, उसके सब गतियोंके बन्धके साथ कोई विरोध नहीं है । सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, उसके नरकगतिबन्धके साथ विरोध है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरक व तिर्यग्गतिके साथ बन्ध होनेमें विरोध है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त या गतिसंयोगसे रहित बांधते हैं, क्योंक उनके शेष गतियोंके साथ बन्ध होने में विरोध है । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि चारों गतियोंवाले, दो गतियोंवाले संयतासंयत, और शेष गुणस्थानवर्ती जीव मनुष्यगतिवाले स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छित्तिस्थान चूंकि सूत्रप्रतिपादित है अतः सुगम हैं । मिथ्यादृष्टिके इनका चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। शेष जीवोंके ध्रुववन्धका अभाव होनेसे तीन प्रकारका ही वन्ध होता है।
संज्वलनलोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २५ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं । अनिवृत्तिबादरकालके अन्तिम समयको प्राप्त होकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ २६ ॥
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औघेण इस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं बंधसामित्तपरूवणा
[ ५९
मिच्छाइट्टिप्पाहुडि०' एदेण सुत्तावयवेण बंधद्धाणं गुणडाणगयसामित्तं च परूविदं । अणियट्टिबादर० ' एदेण बंधविणद्वाणपरूवणा कदा । एदेसिं तिण्णं चैवत्थाणं परूवणा कदा ति सामा सियसुत्तमेदं । तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे । तं जहा
३, २७. ]
"
"
बंधोपुवच्छिदि पच्छा उदओ, अणियट्टिच रिमसम्रए बंधे वोच्छिण्णे सुहुमसांपराइय चरिमसमए उदयवोच्छेदुवलंभादो । लोभसंजलणस्स सोदय - परोदएहि बंधो, धुवोदत्ताभावाद । णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पच्चयपरूवणाए माणसंजलणभंगो | गइसंजुत्तसामित्तद्धाण-बंधवोच्छिष्णद्वाणपरूवणाओ सुगमाओ । मिच्छाइट्टिस्स चउविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो ।
हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २७ ॥
सुमं ।
'मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिवादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं ' इस सूत्रांश द्वारा वन्धाध्यान और गुणस्थानगत बन्धस्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है । 'अनिवृत्तिवादरकालके अन्तिम समयको प्राप्त होकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है ' इस सूत्रांश द्वारा बन्धव्युच्छित्तिस्थानका निरूपण किया गया है। चूंकि सूत्र द्वारा इन्हीं तीन अर्थोकी प्ररूपणा की गई है, अतएव यह देशामर्शक सूत्र है । इस कारण इसके द्वारा सूत्रित अर्थोका निरूपण करते हैं । वह इस प्रकार है
संज्वलनलोभका बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योंकि, अनिवृत्तिकरण अन्तिम समयमें बन्धके व्युच्छिन्न होजानेपर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । संज्वलनलोभका स्वोदय- परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, उसके ध्रुवोदयत्वका अभाव है । बन्ध उसका निरन्तर है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । प्रत्ययोंकी प्ररूपणा संज्वलनमानके समान है । गतिसंयुक्तता, स्वामित्व, अध्वान और बन्धव्युच्छित्तिस्थानकी प्ररूपणायें सुगम हैं । मिथ्यादृष्टिके चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी प्रकृति है । शेष जीवोंके तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुवबन्धका अभाव है ।
हास्य, रति, भय और जुगुप्सा प्रकृतियोंका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ? ॥ २७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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१०]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २८. मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्वकरणपविट्ठउवसमा खवा बंधा । अपुवकरणद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥२८॥
एदेण बंधद्धाणं गुणगयबंधसामित्तं बंधविणट्ठाणं च परूविदं । तेणेदं देसामासियं दट्ठव्वमण्णहा सेसत्थाणमेत्थ संभवाभावादो । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे- हस्स-रदिभय-दुगुंछाणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, अपुवकरणचरिभसमए चदुण्णं वोच्छेदुवलंभादो । सोदय-परोदएहि बंधो, धुवोदयत्ताभावादो परोदए वि बंधविरोहाभावादो । भय-दुगुंछाणं सव्वगुणट्ठाणेसु णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । हस्स-रदीण मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंधो, एत्थ पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चयपरूवणाए णाणावरणभंगो । मिच्छाइट्टी चउगइसंजुत्तं, एदासिं बंधस्स चउगइबंधेण सह विरोहाभावादो। णवरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं बंधइ, तब्बंधस्स
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक बंधक हैं। अपूर्वकरणकालके अन्तिम समयको प्राप्त होकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ २८॥
इस सूत्रके द्वारा बन्धाध्वान,गुणस्थानगत वन्धस्वामित्व और वन्धव्युछित्तिस्थानकी प्ररूपणा की है, इसीलिये इसे देशामर्शक सूत्र समझना चाहिये, अन्यथा यहां शेष अर्थोकी सम्भावना नहीं है। अतएव इसके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं- हास्य, रति,भय और जुगुप्सा इनका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उक्त चारों प्रकृतियोंके वन्ध और उदय दोनोंकी व्युच्छित्ति पायी जाती है। इनका बन्ध स्वोदय-परोदयसे होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां नहीं हैं अतः इनके परोदयसे भी बन्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है। भय और जुगुप्साका सब गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । हास्य और रतिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका वन्ध पाया जाता है। प्रमत्तसंयतसे ऊपर निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । प्रत्ययोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है।
मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिके इनके बन्धका चारों गतियोंके बन्धके साथ कोई विरोध नहीं है । विशेष इतना है कि हास्य और रतिको तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, इनके बन्धका नरकगतिके बन्धके साथ विरोध
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३, २९. ]
ओघेण मणुस्सा अस्स बंधसामितरूणा
[ ६१
णिरयगइबंधेण सह विरोहादो । सासणो तिगइसंजुत्तं, तत्थ णिरयगईए बंधाभावादो । सम्मामिच्छाइडि - असंजद सम्मादिट्टिणो दुगइसंजुत्तं, एदेसिं णिरय - तिरिक्खगईणं बंधाभावाद। । उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधंति, तेसु अण्णगईणं बंधाभावाद। । णवरि अपुव्वकरणद्धाए चरिमे सत्तमे भागे वट्टमाणा अगइसंजुत्तं बंधंति त्ति वत्तव्वं । चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठिणो सामी । दुगइसंजदासंजदा, देव - णेरइएस अणुव्वईणमभावाद । उवरिमा गुस्सा चैव होण एदासिं बंधस्स सामी, अण्णत्थ पमत्तादीणमभावाद । बंधद्वाणं बंधविणद्वाणं च सुगमं । भय-दुगुंछाणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो । उवरिमेसु तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो । हस्स रदीर्ण बंधो सादि-अद्भुवो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । मस्सा अस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २९ ॥
एवं सामासि पुच्छा सुत्तं । तेण को बंधओ को अबंधओ, किमेदस्स बंधो पुव्वं वोच्छिज्जदि किमुदओ किं दो वि समं वोच्छिज्जंति, किं सोदएण परोदएण किं सोदय
है । सासादन सम्यग्दष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, वहां नरकगतिका बन्ध नहीं रहता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनके नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनमें अन्य गतियोंका बन्ध नहीं होता । विशेष इतना है कि अपूर्वकरणकालके अन्तिम सप्तम भाग में वर्तमान जीव अगतिसंयुक्त बांधते हैं ऐसा कहना चाहिये ।
चारों गतियोंवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। दो गतियोंवाले संयतासंयत स्वामी हैं, क्योंकि, देव और नारकियों में अणुव्रतियोंका अभाव है । उपरिम जीव मनुष्य ही होकर इनके बन्धके स्वामी हैं, क्योंकि, अन्यत्र प्रमत्तादिकों का अभाव है ।
बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम हैं । भय और जुगुप्साका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । उपरिम गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । हास्य और रतिका बन्ध सादि-अध्रुव है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध उपलब्ध है । मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९ ॥
यह देशामर्शक पृच्छासूत्र है । इस कारण कौन बन्धक कौन अबन्धक, क्या इसका बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय, या क्या दोनों ही साथ व्युच्छिन्न होते हैं; 'क्या स्वोदयसे, क्या परोदयसे या क्या स्वोदय-परोदय से बन्ध होता है; क्या इसका
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६२ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३०. परोदएण, किं सांतरं किं णिरंतरं किं सांतर-णिरंतरं, किं पच्चएहि किं तेहि विणा, किं गइसंजुत्तं किमगइसंजुत्तं बज्झइ, एदस्स बंधस्स कदिगदिया सामी असामी वा, किं बंधद्धाण, किं चरिमसमए बंधो वोच्छिजदि किं पढमसमए किमपढम-अचरिमसमए बंधेो वोच्छिज्जदि, किं सादिओ किमणादिओ किं धुवो किमद्धवो बंधो त्ति एदाओ पुच्छाओ एत्थ कायवाओ । पुणो पुच्छिदजणाणुग्गहढे उत्तरसुत्तं भणदि
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३० ॥
एत्थ बंधद्धाणं गुणहाणाणि अस्सिदूण बंधसामित्तं च उत्तं, तेण इदरत्थाणं परूवणा कीरदे । तं जहा- मसुस्साउअस्स पुव् बंधो वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि णट्ठबंधस्स मणुसाउअस्स अजोगिचरिमसमए उदयवोच्छेदुवलंभादो । मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठिणो सोदएण परोदएण वि मणुसाउअं बंधति, अविरोहादो । असंजदसम्मादिट्ठी परोदएणेव, सोदएण सह तत्थ बंधविरोहादो। णिरंतरो बंधो, वज्झमाणभवे पडिवक्खपयडीए
बन्ध सान्तर,क्या निरन्तर, या क्या सान्तर-निरन्तर है; क्या प्रत्ययोंसे या क्या उनके विना ही बन्ध होता है, क्या गतिसंयुक्त याक्या अगतिसंयुक्त बन्ध होता है, इसके बन्धके कितनी गतियोवाले स्वामी अथवा अस्वामी हैं, बन्धाध्वान क्या है, क्या चरम समयमें बन्ध व्युछिन्न होता है, क्या प्रथम समयमें, या क्या अप्रथम-अचरम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है; क्या सादिक, क्या अनादिक, क्या ध्रुव या क्या अध्रुव बन्ध होता है; इन प्रश्नों को यहां करना चाहिये । फिरसे पृच्छायुक्त जनोंके अनुग्रहके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ३० ॥
इस सूत्रमें बन्धाध्वान और गुणस्थानोंका आश्रयकर बन्धस्वामित्व ही कहा गया है, इसलिये अन्य अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-- मनुष्यायुका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है पश्चात् उदय, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें मनुष्यायुके बन्धके व्युच्छिन्न होजानेपर अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वोदय और परोदयसे भी मनुष्यायुको बांधते हैं, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टि परोदयसे ही मनुष्यायुको बांधते हैं, क्योंकि, स्वोदयके साथ वन्ध होनेका इस गुणस्थानमें विरोध है । इसका बन्ध निरन्तर है, क्योंकि, बध्यमान भवमें प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके विना इसके बन्धकी
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३, ३०.]
ओघेण मणुस्साउअस्स बंधसामित्तपरूवणा बंधेण विणा बंधपरिसमत्तिदसणादो। बंधविरोहो अंतरमिदि किण्ण घेप्पदे ? ण, पडिवक्खपयडिबंधकदंतरेण एत्थ पओजणादो । मिच्छादिहिस्स मूलुत्तरणाणेगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया णाणावरणम्हि वुत्ता चेव होति । णवरि णाणासमयउक्कस्सपच्चया तेवण्णं होंति, वेउव्वियमिस्स-कम्मइयाणमभावादो । सासणस्स णाणासमयउक्कस्सपच्चया सत्तेतालीस, ओरालियमिस्सवेउव्वियमिस्स-कम्मइयाणमभावादो । असंजदसम्माइट्ठिस्स मणुसाउअं बंधमाणस्स मूलपच्चया तिण्णि, मिच्छत्ताभावादो । एगसमइयजहण्णुक्कस्सपच्चया णव सोलस । णाणासमयउत्तरपच्चया बादालं, ओरालिय-ओरालियमिस्स-वेउबियमिस्स-कम्मइयाणमभावादो। तिण्णि वि गुणट्ठाणाणि मणुस्सगइसंजुतं बंधति, तबंधस्स अण्णगईहि सह विरोहादो । चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठिणो सामी। दुगइअसंजदसम्मादिट्टिणो सामी, तिरिक्ख-मणुस्सगइट्टिदअसंजदसम्मादिट्ठीणं मणुस्साउबंधेण विरोहादो । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो असंजदसम्मादिहिस्स अपढम-अचरिमसमए । मणुस्साउअस्स बंधो सादि-अद्धवो, बंधस्स धुवत्ताभावादो।
समाप्ति देखी जाती है।
शंका-बन्धका विरोध हो अन्तर है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान-ऐसा ग्रहण इसलिये नहीं करते कि यहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्ध द्वारा किये गये अन्तरसे प्रयोजन है ।
मिथ्यादृष्टिके मूल और उत्तर नाना व एक समय सम्बन्धी जघन्य एवं उत्कृष्ट प्रत्यय ज्ञानावरणमें कहे हुए ही होते हैं । विशेष इतना है कि नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय तिरेपन होते हैं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोगका यहां अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टिके नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय सैंतालीस होते हैं, क्योंकि, यहां औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोगोंका अभाव है। मनुष्यायुको बांधनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टिके मूल प्रत्यय तीन होते हैं, क्योंकि, उसके मिथ्यात्वका अभाव है। एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय नौ और सोलह होते हैं। नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय ब्यालीस होते हैं, क्योंकि, यहां औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोगोंका अभाव है।
____ तीनों ही गुणस्थान मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उसके बन्धका अन्य गतियोंके साथ विरोध है। चारों गतियोंवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। दो गतियोंवाले असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यग्गति और मनुष्यगतिमें स्थित असंयतसम्यग्दृष्टियोंके मनुष्यायुवन्धसे विरोध है । बन्धाध्वान सुगम है। बन्धव्युच्छेद असंयतसम्यग्दृष्टिके अप्रथम-अचरम समयमें होता है। मनुष्यायुका बन्ध सादि-अधुव है, क्योंकि, उसके बन्धके ध्रुवताका अभाव है।
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६४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
देवा अस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ३१ ॥
सुगमं ।
मिच्छारट्टी सासणसम्माहट्टी असंजदसम्माहट्टी संजदासंजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा बंधा । अप्पमत्त संजदद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३२ ॥
6
' मिच्छाइडि पहुडि० ' एदेण सुत्तावयवेण बंधद्धाणं गुणगयसामित्तं च परुविदं । अप्पमत्तसंजदद्धाए० ' एदेण बंधविणट्ठाणं परूचिदं । तिण्णं चेव परूवणादो देसामा सियसुत्तमिणं । तेणेदेण सूइदत्थे भणिस्सामा । तं जहा- एदस्स पुव्वमुदओ वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो, देवाउअस्स असंजदसम्मादिट्ठिचरिमसमए वोच्छिण्णुदयस्स अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधवोच्छेदुवलंभादो । परोदणेव बंधो, सोदणेदस्स तित्थयरस्सेव बंधविरोहादो । णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधक यंतराभावादो ।
मिच्छाइट्ठिस्स देवाउअ बंधंतस्स चत्तारि मूलपच्चया । एगसमइया जहण्णुक्कस्स
( ३, ३९.
देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, और अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं । अप्रमत्तसंयतकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ३२ ॥
I
'मिथ्यादृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं' इस सूत्रांश द्वारा बन्धाध्वान और गुणस्थानगत स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है । 'अप्रमत्तसंयतकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है' इससे बन्धविनष्टस्थानकी प्ररूपणा की है । इन तीन अर्थोंकी ही प्ररूपणा करनेसे यह सूत्र देशामर्शक है। इस कारण इससे सूचित अथको कहते हैं । वह इस प्रकार है- देवायुका पूर्वमें उदय व्युच्छिन्न होता है पश्चात् बन्ध, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें इसके उदयके व्युच्छिन्न होनेपर पश्चात् अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्धव्युच्छेद पाया जाता है । इसका बन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिके समान स्वोदयसे इसके बन्ध होनेका विरोध है । बन्ध इसका निरन्तर है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धसे किये गये अन्तरका यहां अभाव है ।
देवायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टिके मूल प्रत्यय चार होते हैं। एक समय सम्बन्धी
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३, ३२. ]
ओवेण देवा अस्स बंधसामित्त परूवणा
[ ६५
पच्चया दस अट्ठारस । णाणासमयउक्कस्सपच्चया एक्कवंचास, वेउव्विय - वेडव्वियमिस्सओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणं तत्थाभावादो । सासणसम्मादिट्ठिस्स पच्चया देवाउअं धमाणस्स गाणावरणबंधतुल्ला । णवरि णाणासमयउक्कस्सपच्चया छादलं, वेउव्विय-वेउव्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावाद । असंजदसम्मादिट्ठिपच्चयपरूवणाए . णाणावरण भंगो । वरि णाणासमयउक्कस्सपच्चया बादालं, वेउव्विय-वेउब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । उवरिमेसु गुणाणेसु पच्चया देवाउअस्स गाणावरणतुला ।
सव्वे देवग संजुत्तं, अण्णगइबंधेण देवाउअबंधस्स विरोहादो । तिरिक्ख - मणुस्सगइमिच्छाडी सासणसम्माइट्टी असंजदसम्माइडी संजदासंजदा सामी । उवरिमा मणुसा चैव, अण्णत्थ महव्वाणमवलंभादो | बंधद्वाणं सुगमं । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिभागे गदे देवाउअस्स बंधवोच्छेदो । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु देवाउअस्स बंधो वोच्छिज्जदि त्ति केसु वि सुत्तपोत्थएसु उवलम्भइ । तदो एत्थ उवएस लवण वत्तव्वं । देवाउअस्स बंधो सादिओ अद्धयो, अद्धवबंधित्तादो । )
जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमशः दश और अठारह होते हैं। नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय इक्यावन होते हैं, क्योंकि, वहां वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययों का अभाव है। देवायुको बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टिके प्रत्यय ज्ञानावरणके बन्धके समान हैं। विशेष इतना है कि नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय छ्यालीस होते हैं, क्योंकि, वैक्रियिक, वैfareकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययों का यहां अभाव है । असंयतसम्यग्दृष्टिकी प्रत्ययप्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । विशेषता यह है कि नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय व्यालीस हैं, क्योंकि, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययका यहां अभाव है । उपरिम गुणस्थानोंमें देवायुके प्रत्यय ज्ञानावरणके समान हैं ।
सभी जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंके बन्धके साथ देवायुके बन्धका विरोध है । तिर्यच और मनुष्य गतिके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत स्वामी हैं । उपरिम जीव मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, दूसरी गतियों में महाव्रतोंका अभाव है । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग बीत जानेपर देवायुका बन्धव्युच्छेद होता है । अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभागोंके बीत जाने पर देवायुका बन्ध व्युच्छिन्न होता है, ऐसा किन्हीं सूत्रपुस्तकों में पाया जाता है । इस कारण यहां उपदेश प्राप्तकर कहना चाहिये । देवायुका बन्ध सादि व अध्रुव है, क्योंकि वह अध्रुवबन्धी है ।
छ. नं. ९.
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६६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३३. देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्विय तेजा कम्मइयसरीर--समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-अगुरुवलहुव-उवघाद परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ३३ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपट्टउवसमा खवा बंधा। अपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि ! एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३४ ॥
जेणेदेण सुत्तेण बंधद्धाणं गुणगयसामितं बंधविणटुट्ठाणं वि य वुतं तेणेई देसामासियं । तदो एदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे--- देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियअंगावंगणामाण पुव्वमुदओ वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो, असंजदसम्मादिडिम्हि णट्ठोदयाणमेदासिं चउण्णं पयडीणमपुव्वकरणद्वाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु बंधवोच्छेदुवलंभादो । तेजा-कम्मइय
देवगति, पंचेन्द्रियजति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण, इन नामकर्म प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३३॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर इनका बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ३४॥
___ चूंकि इस सूत्रके द्वारा बन्धाध्वान, गुणस्थानगत स्वामित्व और बन्धविनयस्थानका ही निर्देश किया गया है अतएव यह देशामर्शक सूत्र है। इस कारण इसके द्वारा सूचित
प्ररूपणा करते हैं-देवगति. देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी.वैक्रियिकशरीर और वैऋियिक शरीरांगोपांग नामकर्मका पूर्वमें उदय व्युच्छिन्न होता है पश्चात् बन्ध, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इन चारों प्रकृतियों के उदयके नष्ट होजानेपर पश्चात् अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर इनका बन्धव्युच्छेद पाया जाता है। तैजस व कार्मण शरीर,
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३, ३४.) ओघेण देवगइ-पंचिदियादीणं बंधसामित्तपरूवणा सरीर-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्मास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ सुस्सर-णिमिणणामाणं पुव्वं बंधो वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, अपुव्वकरणम्हि णट्टबंधाणं एदासिं पयडीणं सजोगिचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदुवलंभादो । पंचिंदियजादि तस-बादर पज्जत्त-सुभगादे ज्जाणं पि एवं चेव। णवरि एदासिमजोगिचरिमसमए उदओ वोच्छिण्णो ।
देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुग्वि-वेउव्वियसरीर-वेउब्बियसरीरअंगोवंगणामाणं परोदएण सब्वगुणट्ठाणेसु बंधो, परोदएण बज्झमाणएक्कारसपयडीहि सह पादादो । तेजा-कम्मइय-वण्णगंध-रस-फास अगुरुअलहुअ थिर-सुभ-णिमिणणामाओ सोदएणेव बझंति, धुवोदयत्तादो। पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्तणं मिच्छाइटिम्हि बंधो सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, तत्थ पडिवक्खुदयाभावादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सव्वगुणट्ठाणेसु सोदय- परोदओ,पडिवक्खुदयसंभवादो। सुभगादेजाणं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छा-.. इट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवखुदयाभावादो। उवघाद
समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर और निर्माण नामकर्मका पूर्वमें बन्ध ब्युच्छिन्न होता है पश्चात् उदय, क्योंकि, अपूर्वकरणमें बन्धके नष्ट होजानेपर पश्चात् सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें इन प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद पाया जाता है । पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग और आदेय, इनका भी वन्धोदयम्युच्छेद इसी प्रकार है। विशेषता यह है कि इनका उदय अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें व्युच्छिन्न होता है ।
देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका वन्ध सब गुणस्थानों में परोदयसे होता है, क्योंकि, ये प्रकृतियां परोदयसे बंधनेवाली ग्यारह प्रकृतियों के साथ आती हैं । तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर शुभ और निर्माण, ये नामकर्मप्रकृतियां स्वोदयसे हो बंधती हैं, क्योंकि, वे धुवोदयी हैं। पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर और पर्याप्त प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदयपरोदयसे होता है । इसके ऊपर स्वोदयसे ही होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका
स्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयकी सम्भावना है। सुभग और आदेय प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय परोदयसे होता है। इसके ऊपर स्वोदयसे ही होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है।
१ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः।
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६८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३४. परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ बंधो; अपज्जत्तकाले परघादुस्सासाणमुदयाभावे वि, विग्गहगदीए उवघाद-पत्तेयसरीराण' उदयाभावे वि, मिच्छाइट्ठिम्हि पत्तेयसरीरस्स साहारणसरीरोदए संते वि बंधुवलंभादो । अवसेसाणं सोदओ चेव, अपज्जत्त-साहारणसरीरोदयाणमभावादो । णवरि परघादुस्सासाणं पमत्तम्मि सोदय-परोदओ बंधो।
तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिणाणं णिरंतरा बंधो, धुवबंधित्तादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुब्वि-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कुदो ? असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो चेव, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जाणं सांतर-णिरंतरो मिच्छाइट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु, भोगभूमिएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरं, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर
.........................................
उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें परघात और उच्छ्वास प्रकृतियोंके उदयका अभाव होनेपर भी उनका वन्ध, विग्रहगतिमें उपघात और प्रत्येकशरीरके उदयका अभाव होनेपर भी उनका बन्ध, तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें प्रत्येकशरीरका साधारणशरीरके उदयके होनेपर भी बन्ध पाया जाता है। शेष गुणस्थानवर्ती जीवोंके उनका बन्ध स्त्रोदय ही है, क्योंकि, वहां अपर्याप्त और साधारणशरीरके उदयका अभाव है। विशेषता यह है कि परघात और उच्छ्वासका प्रमत्त गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध है।
तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलयु, उपघात और निर्माण, इनका निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांग, इनका वन्ध मिथ्याडष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर- निरन्तर है । इसका कारण यह है कि असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यच
और मनुष्यों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । इससे ऊपर निरन्तर ही बन्ध है, क्योंकि, एक समयसे बन्धका नाश नहीं होता । समचतुरनसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तरनिरन्तर है, क्योंकि, भोगभूमिजोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर ही बन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पंचेन्द्रिय
१ प्रतिषु पत्तेयसरीराणि ' इति पाठः।
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.३, ३४.] औघेण देवगइ-पंचिंदियादीणं बंधसामित्तपरूवणा पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंत। बंधो । कुदो ? सणक्कुमारादिदेव णेरइएसु भोगभूमिएसु च णिरंतरबंधुवलंभादो। सासणादिसु णिरंतरो, पडिवक्खपयंडिबंधाभावादो । परघादुस्सासाणं मिच्छ.इटिम्हि सांतर-णिरंतरो, देव-णेरइएसु भोगभूमीए च णिरंतरबंधुवलंभादो। सासणादिसु णिरंतरो, अपज्जत्तबंधाभावादो । थिर-सुभाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तो त्ति सांतरो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खपयडिबंधादो ।
देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुब्बि-वेउवियदुगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्स-कम्मइय-वेउब्धियदुगाभावादो एक्कवंचास-छाएदालीसपच्चया । सम्मामिच्छादिडिम्मि बादाल सपच्चया, वे उब्वियकायजोगाभावादो । असंजदसम्मादिट्ठिम्मि चोदालीसपच्चया, वेउवियदुगाभावाद। । अवसेसाणं पयडीणं पच्चया सव्वगुणट्ठाणेसु [णाणावरण-] पच्चयतुल्ला, विसेसकारणाभावादो । जदि अत्थि तो चिंतिय वत्तव्यो ।
देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीओ सव्वगुणट्ठाणजीवा देवगइसंजुत्तं बंधति, अण्णगईहि सह विरोहादो। वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणि मिच्छाइट्ठी देव-णेरइयगइसंजुत्तं ।
जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध है। इसका कारण यह है कि सनत्कुमारादि देवों, नारकियों और भोगभूमिजों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । सासादन आदि उपरिम गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर वन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । परघात और उच्छ्वासका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर निरतर बन्ध है, क्योंकि, देव, नारकी और भोगभूमिजोंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है । सासादन आदि उपरिम गुणस्थानों में इनका निरन्तर वन्ध है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तके बन्धका अभाव है । स्थिर और शुभ प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्या दृष्टिसे लेकर प्रमत्त तक सान्तर है । ऊपर निरन्तर है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धसे रहित है।
देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और वैक्रियिकद्धिकके प्रत्यय मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे इक्यावन और छयालीस हैं, क्योंकि, यहां औदारिकमिश्र, कार्मण और वैक्रियिकद्विक प्रत्ययोंका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें व्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, वहां वैक्रियिक काययोगका अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें चवालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, वहां वैक्रियिकद्विकका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके प्रत्यय सर्व गुणस्थानों में [ ज्ञानावरणके ] प्रत्ययोंके समान हैं, क्योंकि, विशेष कारणोंका अभाव है । और यदि हैं तो विचारकर कहना चाहिये ।
देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सब गुणस्थानोंके जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियों के साथ उनके बन्धका विरोध है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगको मिथ्यादृष्टि जीव देवगति व नरकगतिसे संयुक्त बांधते हैं। उपरिम
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७.1
छक्खडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३४. उवरिमगुणट्ठाणेसु देवगइसंजुत्तं बंधति, सेसगुणट्ठाणाणं णिरयगइबंधेण सह विरोहादो । पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइय-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद परघाद-उस्सास-तसबादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिणणामाओ मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिटि-असंजदसम्मादिट्टिको दुगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधंति । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेजणामाओ मिच्छाइट्टि-सासणसम्मादिट्टिणो तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजुत्तं, णिरय तिरिक्खगईणमभावाद। । उवरिमा देवगइसंजुत्तं, तत्थ सेसगईणं बंधाभावादो। .
देवगदि-देवगदिपाओग्गाणुपुब्धि-उब्वियसरीर वे उब्वियसरीरअंगोवंगणामाण बंधस्स तिरिक्ख मगुस्स गइ मिन्छाइट्ठि-सासणसम्माइटि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइटि-संजदासंजदा सामी । उवरिमा मणुसा चेव, अण्णत्थ तेसिमभावादो। पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीरसमचउरससंठाण-वग्ण-गंध-रस-फास-अगुरुखलहुव-उवधाद-परबाद उस्सास-पसत्थविहायगइतस-चादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-णिमिणणामाणं चउगइमिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्भादिट्टिणो, दुगइसंजदासंजदा, मणुसगइपमत्तादओ
गुणस्थानोंमें देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, शेष गुणस्थानोंका नरकगतिबन्धके साथ विरोध है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और निर्माण नामकर्मीको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, सम्यग्मिथ्याटष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय नामकर्मोंको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनके बन्धके साथ उनके नरकगतिके बन्धका अभाव है। सम्याग्मथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनमें शेष गतियोंके बन्धका अभाव है।
देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांग नामकौके बन्धके तिर्यंच वमनुष्य गतिवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत स्वामी हैं। उपरिम जीव मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्यत्र प्रमत्तसंयतादिकों का अभाव है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण नामकर्मोंके बन्धके चारों गतियोंवाले मिथ्यादृष्टि., सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्याग्मथ्यादष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टिः दो गतियोंवाले संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके
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३, ३६. ]
ओघेण आहारसरीर-तदंगोवंगाणं बंधसामित्त परूवणा
[ ७१
सामी । वद्धाणं सुगमं । अपुव्वकरणद्धं सत्तखंडाणि काऊण छखंडाणि उवरि चडिय सत्तमखंडावसेसे बंधो वोच्छिनदि । सुत्ताभावे सत्त चैव खंडाणि कीरंति त्ति कथं णव्वदे ? ण, आइरियपरंपरागदुवदेसादो | तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास अगुरुवलहुव-उवघादणिमिणणामाणं मिच्छादिविम्हि चउब्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो । उवरिमगुणेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाओ पपडीओ सादि - अद्भुवियाओ, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो, परघादुस्सासाणमपज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणकाले पडिवक्खबंधपयडीए अभावे वि बंधाभाववलंभादो | आहारसरीर-आहारसरीर अंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ३५ ॥
सुगममेदं ।
अप्पमत्त संजदा अपुव्वकरण पट्टवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धाए संखेजे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३६ ॥
प्रमत्तसंयतादिक स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है। अपूर्वकरणकालके सात खण्ड करके छह खण्ड ऊपर चढ़कर सातवें खण्डके शेष रहनेपर उनका बन्ध व्युच्छिन्न होता है ।
शंका--सूत्र के अभाव में सात ही खण्ड किये जाते हैं यह किस प्रकार ज्ञात होता है ?
समाधान- -नहीं, यह आचार्य परम्परागत उपदेश से ज्ञात होता है ।
तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण नामकर्मोका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध है, क्योंकि ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । उपरिम गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध है, क्योंकि, वहां ध्रुव वन्ध नहीं है । शेष प्रकृतियां सादि व अध्रुव बन्धसे युक्त है, क्योंकि, उनको प्रतिपक्ष प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है; परघात और उच्छ्वासको अपर्यात संयुक्त बांधने के काल में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धके अभाव में भी उनका बन्ध नहीं पाया जाता है ।
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मो का कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३५ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं || ३६ ॥
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७२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३६. एवं देसामासियसुत्तं, बंधद्धाणं, सामित्त विणटुट्ठाणं वि य' परूवणादो । तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे---- एदासिमुदओ पुव्वं वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो, पमत्तसंजदम्मि णट्ठोदयाणमेदासिमपुवकरणम्मि बंधवोच्छेदुवलंभादो । परोदएणेव एदाओ बझंति, आहारदुगोदयविरहिदअप्पमत्तेसु चेव बंधोवलंभादो । णिरंतरं वज्झंति, पडिवक्खपयडीण बंधेण विणा बंधभावादों । पच्चयपरूवणाए मूलुत्तरणाणेगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया णाणावरणस्सेव वत्तव्वा । [जदि चदुसंजलण-णवणोकसाय-जोगा बाबीस चेव आहारदुगस्स पच्चया तो सब्वेसु अप्पमत्तापुव्वकरणेसु आहारदुगबंधेण होदव्वं । ण चेवं, तहाणुवलंभादो। तदो अण्णेहि वि पच्चएहि होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, इच्छिज्जमाणत्तादो । के ते अण्णे पच्चया जेहि आहारदुगस्स बंधा होदि ति वुत्ते वुच्चदे- तित्थयराइरिय-बहुसुद-पवयणाणुरागो आहारदुगपच्चओ । अप्पमादो वि, सप्पमादेसु आहारदुगबंधस्साणुवलंभादो । अपुवस्सुवरिमसत्तमभाग
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह बन्धाध्वान, स्वामित्व और बन्धविनष्टस्थानका ही प्ररूपण करता है। इसी कारण इस सूत्रसे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं- इन दोनों प्रकृतियोंका उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् बन्ध; क्योंकि प्रमत्तसंयतमें इनके उदयके नष्ट होजानेपर अपूर्वकरणमें वन्धव्युच्छेद पाया जाता है। ये दोनों प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, आहारद्विकके उदयसे रहित अप्रमत्तसंयतोंमें अर्थात् अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानों में ही इनका बन्ध पाया जाता है। उक्त दोनों प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धके विना इनके बन्धका सद्भाव पाया जाता है। प्रत्ययप्ररूपणामें मूल व उत्तर नाना एवं एक समय सम्बन्धी जघन्य उत्कृष्ट प्रत्यय शानावरणके समान ही कहना चाहिये।
शंका--चार संज्वलन, नौ नोकपाय और नौ योग, इस प्रकार यदि वाईस ही आहारकद्विकके प्रत्यय हे तो सर्व अप्रमत्त और अपूर्वकरण संयतोंमें आहारद्विकका वन्ध होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अत एव अन्य भी प्रत्यय होना चाहिये?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्य प्रत्ययोंका मानना अभीष्ट ही है। शंका-वे अन्य प्रत्यय कौनसे हैं जिनके द्वारा आहाराद्विकका बन्ध होता है ?
समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं- तीर्थकर, आचार्य, बहुश्रुत अर्थात् उपाध्याय और प्रवचन, इनमें अनुराग करना आहारद्विकका कारण है । इसके अतिरिक्त प्रमादका अभाव भी आहारद्विकका कारण है, क्योंकि, प्रमाद सहिद जीवों में आहारद्विकका बन्ध पाया नहीं जाता।
...................... ...
२ आ-कापत्योः ‘बंधाभावादो' इति पाठः ।
१ आप्रती ‘वि य य' इति पाठः । ३ प्रतिषु — अपुब्बासुवरिम' इति पाठः ।
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३, ३८.] ओघेण तित्थयरणामस्स बंधसामित्तपरूवणा
[७१ किण्ण बंधो ? ण, तत्थ तित्थयराइरिय-बहुसुद-पवयणविसयरागजणिदसंसकाराभावादो । देवगइसुजुत्तो आहारदुगबंधो, अण्णगईहि सह तब्बंधविरोहादो । मणुसा चेव सामी, अण्णत्थ तित्थयराइरिय-बहुसुदरागस्स संजमसहियस्स अणुवलंभादो । बंधद्धाणं बंधविणट्ठठ्ठाणं च सुगम, सुत्तणिद्दिट्टत्तादो । सादिओ अद्धवो च बंधो, आहारदुगपच्चयस्स सादि-सपज्जवसाणत्तदंसणादो।
तित्थयरणामस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ३७॥ सुगमं ।
असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपइट्ठउवसमा खवा बंधा । अपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३८ ॥
एदं देसामासियसुत्तं, सामित्त-बंधद्धाण-बंधविणट्ठट्ठाणाणं चेव परूवणादो । तेणेदेण
शंका-अपूर्वकरणके उपरिम सप्तम भागमें इनका बन्ध क्यों नहीं होता?
समाधान--नहीं होता, क्योंकि वहां तीर्थकर, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचनविषयक रागसे उत्पन्न हुए संस्कारोंका अभाव है।
आहारद्विकका बन्ध देवगतिसे संयुक्त होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्ध होनेका विरोध है । इनके बन्धके मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्यत्र तीर्थकर, आचार्य और बहुश्रुत विषयक राग संयम सहित पाया नहीं जाता । बन्धावान और बन्धविनटस्थान सुगम हैं, क्योंकि, ये सूत्रमें ही निर्दिष्ट हैं । दोनों प्रकृतियोंका सादिक और अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, आहारद्विकका प्रत्यय सादि और सपर्यवसान देखा जाता है।
तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३७॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक बंधक हैं। अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ३८॥
यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह स्वामित्व, बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थानका क.मं.१०.
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७४ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३८. सूइदत्थवण्णणं कस्सामो- तित्थयरस्स पुव्वं बंधो वोछिज्जदि पच्छा उदओ, अपुव्वकरणछसत्तमभागचरिमसमए णट्ठबंधस्स तित्थयरस्स सजोगिपढमसमए उदयस्सादि कादूण अजोगिचरिमसमए उदयवोच्छेदुवलंभादो । परोदएणव बंधो, तित्थयरकम्मुदयसंभवट्ठाणेसु सजोगि-अजोगिजिणेसु तित्थयरबंधाणुवलंभादो। णिरंतरो बंधो, सगबंधकारणे सते' अद्धाक्खएण बंधुवरमाभावादो । असंजदसम्मादिट्टी दुगइसंजुत्तं बंधंति, तित्थयरबंधस्स णिरय-तिरिक्खगइबंधेहि सह विरोहादो । उवरिमा देवगइसंजुत्त, मणुसगइदिजीवाणं तित्थयरबंधस्स देवगई मोत्तूण अण्णगईहि सह विरोधादो । तिगदिअसंजदसम्मादिट्ठी सामी, तिरिक्खगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो। मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणःणमभावादो । किंतु पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खे. सुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्त-- ण, बद्धतिरिक्ख-मणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो । तं पि ही प्ररूपण करता है। इसी कारणसे इसके द्वारा सूचित अर्थोका वर्णन करते हैंतीर्थकर नामकर्मका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय, क्योंकि अपूर्वकरणके छठे सप्तम भागके अन्तिम समयमें वन्धके नष्ट होजानेपर तीर्थंकर नामकर्मका सयोगकेवलीके प्रथम समयमें उदयका प्रारंभ करके अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । इसका बन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, जहां तीर्थकरकर्मका उदय सम्भव है उन सयोगकेवली और अपोगकेवली जिनोंमें तीर्थकरका बन्ध पाया नहीं जाता। बन्ध इसका निरन्तर है, क्योंकि, अपने कारणक होनेपर कालक्षयसे बन्धका नहीं होता । असंयतसम्यग्दृष्टि इसे दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका नरक व तिर्यंच गतियं के वन्धके साथ विरोध है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त वांधत हैं, क्योंकि, मनुष्यगतिमें स्थित जीवोंके तोर्थकर प्रकृतिके बन्धका देवगतिको छोड़कर अन्य गतियों के साथ विरोध है । तीन गतियों के असंयतसम्यग्दृष्टि जाव इसके बन्धके स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यग्गतिक साथ तीर्थकरके वन्धका अभाव है।
शंका-तिर्यग्गतिमें तीर्थंकरकर्मके बन्धका प्रारम्भ भले ही न हो, क्योंकि, यहां जिनोंका अभाव है। किन्तु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायुको बांध लिया है उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणोंके प्राप्त होजानेसे तीर्थकरकर्मको बांधकर पुनः तिर्यों में उत्पन्न होनेपर तीर्थकरके बन्धका स्वामिपना पाया जाता है।
समाधान - इसके उत्तग्में कहते हैं कि ऐसा होना सम्भव नहीं है, क्योंकि, जिन्होंने पूर्व में तिर्य व व मनुष्य आयुका बन्ध करलिया है उन जीवोंके नरक व देव आयुओंके बन्धसे संयुक्त जीवोंके समान तीर्थकरकर्मके बन्धका अभाव है।
शंका-वह भी कैसे सम्भव है ?
१ प्रतिषु ‘सुत्ते ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु — गई हि' इति पाठः ।
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३, ३८.] तित्थयरबंधकारणपरूवणा
[७५ कुदो ? पारद्धतित्थयरबंधभवादो' तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादों । ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज । तम्हा' तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्धं । सादिओ अद्धवो च बंधो, बंधकारणाणं सादि-सांतत्तदंसणादो । तित्थयरकम्मस्स पच्चयपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि .---
समाधान -क्योंकि, जिस भवमें तीर्थंकर प्रकृतिका बंध प्रारम्भ किया गया है उससे तृतीय भत्रमें तीर्थकर प्रकृतिके सत्वयुक्त जीवों के मोक्ष जानेका नियम है । परन्तु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी देवों में उत्पन्न न होकर देवनारकियों में उत्पन्न हुए जीवोंके समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं जिससे कि तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी तृतीय भवमें भक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि ही तीर्थकरप्रकृतिके बन्धके स्वामी हैं, यह बात सिद्ध होती है।
विशेषार्थ--यहां शंकाकारका कहना है कि जिस जीवने पूर्व में तिर्यगायुको बांध लिया है वह यदि पश्चात् सम्यक्त्वादि गुणों को प्राप्त कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ करे और तत्पश्चात् मरणको प्राप्त होकर तिर्यचों में उत्पन्न हो तो वह तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका स्वामी क्यों नहीं हो सकता? इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि यह सम्भव नहीं है, कारण कि तीर्थंकर प्रकृतिको बांधनेके भवसे तृतीय भवमें मोक्ष जानेका नियम है। परन्तु यह बात उक्त जीवमें वन नहीं सकती, क्योंकि, तिर्यगायुको बांधनेवाला जीव द्वितीय भवमें तिर्यंच होकर सम्यग्दृष्टि होनेसे तृतीय भवमे देव ही होगा, मनुष्य नहीं । अत एव कोई भी तिर्यच तीर्थंकर प्रकतिके बन्धका स्वामी नहीं होसकता।
तीर्थकर प्रकृतिका सादिक व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, उसके वन्धकारणों के सादि-सान्तता देखी जाती है। तीर्थकर कर्मके प्रत्ययोंके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
१ अप्रती · -तित्थयर कम्मरस बंधाभावादो', आकाप्रत्योः । -तिस्थयरबंधाभावादो' इति पाठः ।
२ एतच्च तीर्थकरनामकर्म मनुप्यगतावेव वर्तमानः पुरुषः स्त्री नपुंसको वा तीर्थकरभवात् पृष्ठतस्तृतीयमवं प्राप्य बद्धमारभते । प्र. सा. १०, ३१३-१९.
३ प्रतिषु ' तं जहा' इति पाठः।
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७५
, छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३९. कदिहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधति ?
__ कधं तित्थयरस्स णामकम्मावयवस्स गोदसण्णा ? ण, उच्चागोदबंधाविणाभावित्तणेण तित्थयरस्स वि गोदत्तसिद्धीदो । सेसकम्माणं पच्चए अभणिदूण तित्थयरणामकम्मस्सेव किमिदि पच्चयपरूवणा कीरदे ? सोलसकम्माणि मिच्छत्तपच्चयाणि, मिच्छत्तोदएण विणा एदेसि बंधा. भावादो। पणुवीसकम्माणि अणंताणुबंधिपच्चयाणि, तदुदएण विणा तेसिं बंधाणुवलंभादो । दस कम्माणि असंजमपच्चयाणि, अपच्चक्खाणावरणोदएण विणा तेसिं बंधाभावादो। पच्चक्खाणावरणचदुक्कं सगसामण्णोदयपच्चयं, तेण विणा तब्बंधाणुवलंभादो । छक्कम्माणि पमादपच्चयाणि, पमादेण विणा तेसिं बंधाणुवलंभादो । देवाउअं मज्झिमविसोहिपच्चइयं, अप्पमत्तद्धाए संखेजदिभागे गदे अइविसोहिट्ठाणमपावेदूण मज्झिमविसोहिट्ठाणे चेव देवाउअस्स
कितने कारणोंसे जीव तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मको बांधते हैं ? ॥ ३९ ॥ शंका--नामकर्मके अवयवभूत तीर्थकर कर्मकी गोत्र संशा कैसे सम्भव है ?
समाधान--यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, उच्च गोत्रके बन्धका अविनाभावी होनेसे तीर्थकरकर्मको भी गोत्रत्व सिद्ध है।
शंका-शेष कर्मोंके प्रत्ययोंको न कहकर केवल तीर्थकर नामकर्मकी ही प्रत्ययप्ररूपणा क्यों की जाती है ?
समाधान--सोलह कर्म मिथ्यात्वनिमित्तक है, क्योंकि, मिथ्यात्वके उदयके विना इनके बन्धका अभाव है। पच्चीस कर्म अनन्तानुबन्धिनिमित्तक हैं, क्योंकि, अनन्तानुबन्धी कपायक उदय विना उनका वन्ध नहीं पाया जाता। दश कर्म असंयमनिमित्तक है, क्योंकि, अप्रत्याख्यानावरणके उदय विना उनका बन्ध नहीं होता। प्रत्याख्यानावरणचतुष्क अपने ही सामान्य उदयनिमित्तक है, क्योंकि, उसके विना प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध पाया नहीं जाता। छह कर्म प्रमादनिमित्तक है, क्योंकि, प्रमादके विना उनका बन्ध नहीं पाया जाता । देवायु मध्यम विशुद्धिनिमित्तक है, क्योंकि, अप्रमत्तकालका संख्यातवां भाग बीत जानेपर अतिशय विशुद्धिके स्थानको न पाकर मध्यम विशुद्धि
१ तित्थयरणामगोयकम्म-तीर्थकरत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकरनाम, तच्च गोत्रं च कर्मविशेष एवेत्येकवदभावात् तीर्थकरनामगोत्रम् । अ. रा. पृ. २३१३.
२ अ-आमत्योः 'तन्त्रंद्धाणाणुवलंभादो', काप्रती · तददाणाणुवलंभादो ' इति पाउः ।
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तित्थयरबंधकारणपरूवणी बंधवोच्छेददंसणादो। आहारदुगं विसिट्ठरागसमण्णिदसंजमपच्चइयं, तेण विणा तब्बंधाणुवलंभादो । परभवणिबंधसत्तावीसकम्माणि हस्स-रदि-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-चदुसंजलणाणि च कसायविसेसपच्चइयाणि, अण्णहा एदेसिं भिण्णट्ठाणेसु बंधवोच्छेदाणुववत्तीदो। सोलसकसायाणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि संते तेसिं बंधुवलंभादो । सादावेदणीयं जोगपच्चइयं, सुहुमजोगे वि तस्स बंधुवलंभादो। तेण सव्वकम्माणं पच्चया जुत्तिबलेण णवंति त्ति ण भणिदा । एदस्स पुण तित्थयरणामकम्मस्स बंधपच्चओ ण णव्वदे-णेदं मिच्छत्तपच्चइयं, तत्थ बंधाणुवलंभादो । णासजमपच्चइयं, संजदेसु वि बंधदसणादो। ण कसायसामण्णपच्चइयं, कसाए संते वि वंधवोच्छेददंसणादो बंधपारंभाणुवलंभादो वा । ण कसायमंददा कारणं, तिव्वकसाएसु णेरइएसु वि बंधदंसणादो । ण तिव्वकसाओ कारणं, मंदकसाएसु सव्वट्ठदेवेसु अपुवकरणेसु च बंधदंसणादो । ण सम्मत्तं तब्बंधकारणं, सम्मादिट्टिस्स' वि तित्थयरस्स बंधाणुवलंभादो। ण केवलं दंसणविसुज्झदा कारणं, खीणदंसणमोहाणं पि केसि वि बंधाणु
स्थानमें ही देवायुका बन्धव्युच्छेद देखा जाता है। आहारद्विक विशिष्ट रागसे संयुक्त संयमके निमित्तसे बंधता है, क्योंकि, ऐसे संयमके विना उसका बन्ध नहीं पाया जाता। परभवनिबन्धक सत्ताईस कर्म एवं हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और चार संज्वलनकषाय, ये सब कर्म कषायविशेषके निमित्तसे बंधनेवाले हैं, क्योंकि, इसके विना उनके भिन्न स्थानोंमें बन्धव्यच्छेदकी उपपत्ति नहीं बनती । सोलह कर्म कषायसामान्यके निमित्तसे बंधनेवाले हैं, क्योंकि, अणुमात्र कषायके भी होनेपर उनका बन्ध पाया जाता है । सातावेदनीय योगनिमित्तक है, क्योंकि, सूक्ष्म योगमें भी उसका बन्ध पाया जाता है। इस प्रकार चूंकि सब कौके प्रत्यय युक्तिबलसे जाने जाते हैं, अतः उनका यहां कथन नहीं किया गया। किन्तु इस तीर्थकर नामकर्मका बन्धप्रत्यय नहीं जाना जाता–कारण कि यह मिथ्यात्वनिमित्तक तो हो नहीं सकता, क्योंकि, मिथ्यात्वके होनेपर उसका बन्ध नहीं पाया जाता । असंयमनिमित्तक भी नहीं है, क्योंकि, संयतोंमें भी उसका बन्ध देखा जाता है । कषायसामान्यनिमित्तक भी वह नहीं है, क्योंकि, कषायके होनेपर भी उसका बन्धव्युच्छेद देखा जाता है, अथवा कपायके होनेपर भी उसके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता। कपायमन्दतानिमित्तक भी इसका वन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि, तीवकषायवाले नारकियोंके भी उसका बन्ध देखा जाता है। तीव्र कषाय भी इसके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, मन्दकषायवाले सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों और अपूर्वकरणगुणस्थानवी जीवोंमें भी उसका बन्ध देखा जाता है । सम्यक्त्व भी उसके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टिके भी तीर्थंकर कर्मका बन्ध नहीं पाया जाता । केवल दर्शनविशुद्धता भी उसका कारण नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहका क्षय करचुकनेवाले भी किन्हीं जीवोंके उसका बन्ध
१ अ-आप्रत्योः 'सम्मादिहिस्सु' इति पाठः ।
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छरखंडागमे बंधसामित्तविचा वलंभादो । तदो एदस्स वंधकारणं वत्तव्यमेव । अधवा, असंजद-पमत्त-सजोगिसण्णाओ व्व एवं सुत्तमंतदीवयं सव्वकम्माणं पच्चयपरूवणाए त्ति एवं सुत्तमागदं । कदिहि कारणेहिकिमेक्केण किं दोहि किं तिहिमेवं पुच्छा कायव्वा । एवंविहसंसयम्मि ट्ठिदाणं णिच्छयजणणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
(तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्म बंधंति ॥ ४०॥
तत्थ मणुस्सगदीए चेव तित्थयरकम्मस्स बंधपारंभो होदि, ण अण्णत्थेत्ति जाणावणटुं तत्थेत्ति वुत्तं । अण्णगदीसु किण्ण पारंभो होदि त्ति वुत्ते - ण होदि, केवलणाणोवलक्खियजीवदवसहकारिकारणस्स तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुपत्तिविरोहादो । अधवा, तत्थ तित्थयरणामकम्मबंधकारणाणि भणामि त्ति भणिदं होदि । सोलसेत्ति कारणाणं संखाणिद्देसो कदो । पज्जवट्टियणए अवलबिज्जमाणे तित्थयरकम्मबंधकारणाणि सोलस चेव होति । दवट्टियणए पुण अवलंबिज्जमाणे एक्कं पि होदि, दो वि होति । तदो एत्थ सोलस चेव
नहीं पाया जाता । अतएव इसके बन्धका कारण कहना ही चाहिये। अथवा असंयत, प्रमत्त और सयोगी संज्ञाओंके समान यह सूत्र सब कर्मों की प्रत्ययप्ररूपणामें अन्तर्दीपक है, इसीलिये यह सूत्र आया है । कितने कारगोसे- क्या एकल, क्या दोसे, क्या तीनसे इस प्रकार यहां प्रश्न करना चाहिये । इस प्रकार संशयमें स्थित जीवोंके निश्चयोत्पादनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं---
वहां इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मको बांधते हैं ॥ ४० ॥
मनुष्यगतिमें ही तीर्थकरकर्मके बन्धका प्रारम्भ होता है, अन्यत्र नहीं, इस बातके शापनार्थ सूत्रमें 'वहां ऐसा कहा गया है।
शंका--मनुष्यगतिके सिवाय अन्य गतियों में उसके बन्धका प्रारम्भ क्यों नहीं होता?
__ समाधान-इस शंकांके उत्तरमें कहते हैं कि अन्य गतियों में उसके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता, कारण कि तीर्थकर नामकर्मके बन्धके प्रारम्भका सहकारी कारण केवलज्ञानसे उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव, मनुष्य गतिके विना उसके बन्ध प्रारम्भकी उत्पत्तिका विरोध है। अथवा, उनमें तीर्थकरनामकर्मके बन्धके क.रणोंको कहते हैं, यह अभिप्राय है । 'सोलह' इस प्रकार कारणों की संख्याका निर्देश किया गया है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर तीर्थकर नामकर्मके बन्धके कारण सोलह ही होते हैं। किन्तु द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर एक भी कारण होता है, दो भी होते हैं। इसलिये यहां सोलह ही कारण होते हैं ऐसा अवधारण नहीं करना
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३, ४१.]
तित्थ यरबंधःकारण परुवणा कारणाणि त्ति णावहारणं कायव्वं । एदस्स णिण्णयट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि -
दसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खण-लवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधा तवे. साहणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति ॥४१॥)
एदस्स सुत्तस्स अत्था वुच्चदे । तं जहा-दंसणं सम्मइंसणं, तस्स विसुज्झदा दंसण. विसुज्झदा. नीए दंसणविसुज्झदाए जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति । तिमूढावोढ-अह.
चाहिये । इसके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं ।
दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शील-व्रतोंमें निरतिचारता, छह आवश्यकोंमें अपरि - हीनता, क्षण-लवप्रतिबोधनता, लब्धि-संवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओंको प्रासुकपरित्यागता, साधुओंकी समाधिसंधारणा, साधुओंकी वैयावत्ययोगयुक्तता, अरहतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्मको बांधते हैं ॥४१॥ .
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है--- 'दर्शन' का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धताका नाम दर्शनविशुद्धता है। उस दर्शनविशुद्धतासे जीव तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मको वांधते हैं। तीन मूढ़ताओंसे रहित और आठ मलोंसे व्यतिरिक्त जो
१ अप्रती यथापाये', आप्रतौ यथामे', काप्रती यथाथामे' इति पाठः। २ प्रतिषु ‘साणं' इति पाठः ।
३ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणज्ञानोपयोग-संवेगी शक्तितस्त्याग तपसी साधुसमाधियानृत्य करणभदाचार्य बहु त प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । त. सू. ६, २४. अरिहंत सिद्ध पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए तवस्सी य । वच्छल्लया य एसिं अभिक्खनाणोवआगो य ॥ दंसणत्रिणए आवस्सए य सीलब्बए णिरइयारो। खण-लव-तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ अप्पुन्चनाणगहण सुयभत्ती पवयण पभावणया। एएहि कारणेहिं तित्थयरतं लहइ जीवो।। प्र, सा. १०,३१०-३१२,
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८० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ४१. मलवदिरित्तसम्मइंसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम । कथं ताए एक्काए चेव तित्थयरणामकम्मस्स बंधो, सव्वसम्माइट्ठीणं तित्थयरणामकम्मबंधपसंगादो त्ति ? वुच्चदे- ण तिमूढावोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुघिल्लगुणहि सरूवं लद्धण हिदसम्मइंसणस्स साहणं पासुअपरिच्चागे साहूणं समाहिसंधारणे साहूणं वेज्जाकञ्चजोगे अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणे पहावणे अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तत्तणे' पयट्टावणं विसुज्झदा णाम । तीए दंसणविसुज्झदाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधति ।
अधवा, विणयसंपण्णदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बंधति । तं जहा- विणओ तिविहो णाण-दसण-चरित्तविणओ त्ति। तत्थ णाणविणओ णाम अभिक्खणभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदा बहुसुदभत्ती पवयणभत्ती च । दसणविणओ णाम पवयणेसुवइट्ठसव्वभावसद्दहणं तिमूढादो ओसरणमट्टमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खण-लवपडिबुज्झणदा' लद्धिसंवेगसंपण्णदा
सम्यग्दर्शन भाव होता है उसे दर्शनविशुद्धता कहते हैं ।
___ शंका-केवल उस एक दर्शनविशुद्धतासे ही तीर्थकर नामकर्मका बन्ध कैसे सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेसे सव सम्यग्दृष्टियोंके तीर्थकर नामकर्मके बन्धका प्रसंग आवेगा?
समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि शुद्ध नयके अभिप्रायसे तीन मूढ़ताओं और आठ मलोंसे रहित होनेपर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त गणोंसे अपने निजस्वरूपको प्राप्तकर स्थित सम्यग्दर्शनकी साधओंको प्रा परित्याग, साधुओंकी समाधिसंधारणा, साधुओंकी वैयावृत्तिका संयोग, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावना और अभीक्षणशानोपयोगयुक्ततामें प्रवर्तनेका नाम विशुद्धता है । उस एक ही दर्शनविशुद्धतासे जीव तीर्थकर कर्मको बांधते हैं।
अथवा, विनयसम्पन्नतासे ही तीर्थकर नामकर्मको बांधते हैं। वह इस प्रकारसेमानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनयके भेदसे विनय तीन प्रकार है। उनमें बारंबार ज्ञानोपयोगसे युक्त रहनेके साथ बहुश्रुतभाक्ति और प्रवचनभक्तिका नाम ज्ञानविनय है। आगमोपदिष्ट सर्व पदार्थोके श्रद्धानके साथ तीन मूढ़ताओंसे रहित होना, आठ मलोंको छोड़ना, अरहंतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षण लवप्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेगसम्पन्नताको दर्शन
१ प्रतिषु · सरूवलद्धण', मप्रतो ' सरूवलद्धण' इति पाठः । २ आ-काप्रत्योः 'जुत्तत्तणेण' इति पाठः । ३ अ-काप्रलोः 'पडिबझणदा', आप्रतौ 'परिबझणदा' इति पाठः ।
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३, ४१.] तित्थयरबंधकारणपरूवणा
[८१ च। चरित्तविणओ णाम सीलव्वदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा जहाथामे तहा तवो च । साहूणं पासुगपरिच्चाओ तेसिं समाहिसंधारण तेसिं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा पवयणवछल्लदा च णाण-दंसण-चरित्ताणं पि विणओ, तिरंयणसमूहस्स साहु-पवयण त्ति ववएसादो । तदो विणयसंपण्णदा एक्का वि होदूण सोलसावयवा । तेणेदीए विणयसंपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्म मणुआ बंधंति । देव-णेरइयाण कधमेसा संभवदि ? ण, तत्थ वि णाणदसणविणयाणं संभवदंसणादो । कधं तिसमूहकजं दोहि चेव सिझदे ? ण एस दोसो, मट्टियाजल-सूरणकंदहितो समुप्पज्जमाणसूरणकंदकुरस्स तकंद-दुद्दिणेहिंतो चेव समुप्पज्जमाणस्सुवलंभादो, दोहि तुरंगेहि कड्डिजमाणसंदणस्स बलवंतणेक्केणेव देवेण विजाहरेण मणुएण वा कड्डिजमाण
विनय कहते हैं । शील व्रतोंमें निरतिचारता, आवश्यकोंमें अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता,
और शक्त्यनुसार तपका नाम चारित्रविनय है। साधुओंके लिये प्रासुक आहारादिकका दान, उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्तिमें उपयोग लगाना, और प्रवचनघत्सलता, यह ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र तीनोंकी ही विनय है, क्योंकि, रत्नत्रय समूहको साधु व प्रवचन संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण चूंकि विनयसम्पन्नता एक भी होकर सोलह अवयवोंसे सहित है, अतः उस एक ही विनयसम्पन्नतासे मनुष्य तीर्थकरनामकर्मको बांधते हैं।
शंका-यह विनयसम्पन्नता देव-नारकियोंके कैसे सम्भव है ?
समाधान-उक्त शंका ठीक नहीं, क्योंकि, देव-नारकियों में भी शानविनय और दर्शनविनयकी सम्भावना देखी जाती है।
शंका–तीनों विनयोंके समूहसे सिद्ध होनेवाला कार्य दोसे ही कैसे सिद्ध हो सकता है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मट्टी, जल और सूरणकंदसे उत्पन्न होनेयाला सूरणकंदका अकुंर उसके कन्द और दुर्दिन अर्थात् वर्षासे ही उत्पन्न होता हुआ पाया जाता है, अथवा दो घोड़ोंसे खींचा जानेवाला रथ बलवान् एक ही देव, विद्याधर या मनुष्यसे
१ अरहंत-सिद्ध-चेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य । आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि ॥ भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स । आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण ॥ म. आ. ४७-४८,
२ प्रतिषु · तिरियण ' इति पाठः।।
३ अप्रतौ कहिज्जमाणसेदसणस्स', आप्रती किंदिज्जमाणस्सेदंसणस्स', काप्रती कट्टिज्जमाणस्सेदंसणस्स' इति पाठः । क. बं. ११.
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८२]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ४१. स्सुवलंभादो वा । जदि दोहि चेव तित्थयरणामकम्मं बज्झदि तो चरित्तविणओ किमिदि तक्कारणमिदि बुच्चदे ? ण एस दोसो, णाण-दसणविणयकजविरोहिचरणविणवो ण होदि त्ति पदुप्पायणफलत्तादो ।
___ अधवा, सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए चेव तित्थयरणामकम्म बज्झइ । तं जहाहिंसालिय-चोजब्बभ-परिग्गहेहिंतो विरदी वदं णाम । वदपरिरक्खणं' सीलं णाम । सुरावाण-मांसभक्खण-कोह माण-माया-लोह-हस्स-रइ-सोग-भय-दुगुंछित्थि-पुरिस-णबुसयवेयापरिचागो अदिचारो; एदेसिं विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारदा। तीए' सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयरकम्मस्स बंधो होदि । कधमेत्थ सेसपण्णरसण्णं संभवो ? ण, सम्मइंसणेण खण-लवपडिबुज्झण-लद्धिसंवेगसंपण्णत्त-साहुसमाहिसंधा
खींचा गया पाया जाता है।
शंका-यदि दो ही विनयोंसे तीर्थंकर नामकर्म बांधा जा सकता है, तो फिर चारित्रविनयको उसका कारण क्यों कहा जाता है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, शान दर्शनविनयके कार्यका विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बातको सूचित करनेके लिये चारित्रविनयको भी कारण मान लिया गया है।
___ अथवा, शील-व्रतोंमें निरतिचारतासे ही तीर्थकर नामकर्म बांधा जाता है। वह इस प्रकारसे-हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होनेका नाम व्रत है । व्रतोंकी रक्षाको शील कहते हैं । सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद, इनके त्याग न करनेका नाम . अतिचार और इनके विनाशका नाम निरतिचार या सम्पूर्णता है, इसके भावको निरातिचारता कहते हैं । शील-व्रतोंमें इस निरतिचारतासे तीर्थंकर कर्मका बन्ध होता हे।
शंका-इसमें शेष पन्द्रह भावनाओंकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान- यह ठीक नहीं, क्योंकि क्षण लवप्रतिबुद्धता, लब्धि संवेगसम्पन्नता,
१ अप्रती · -परिवखणं', आ-काप्रयोः परिक्खणं ' इति पाठः ।
२ अहिंसादिषु व्रतेसु तत्प्रतिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शालेषु निरवद्या वृत्तिः शील व्रतेष्वनतिचारः । स. सि. ६, २४. चारित्रविकल्पेषु शील-व्रतेषु निरवद्या वृत्तिः शील-व्रतेवनतिचार:-अहिंसादिषु व्रतेषुxxx निखद्या वृत्तिः काय-वाङ्-मनसां शील-व्रतेप्वनतिचार इति कथ्यते । त. रा. ६, २४, ३. शीलानि च व्रतानि च शील-व्रतम्, अत्रापि समाहारद्वन्दः, तस्मिन् । तत्र शीलानि उत्तरगुणाः व्रतानि मूलगुणाः तेषु निरतिचारः सन् तीर्थकरनामकमे वध्नातीति क्रियायोगः । प्रव. पृ. ८३.
३ अप्रतौणिरदिचारदीए', आ-काप्रत्योः ‘णिरदिचार तीए' इति पाठः।
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३, ४१.] तित्थयरबंधकारणपरूवणा
[८१ रण-वेजावच्चजोगजुत्तत्त-पासुअपरिच्चाग-अरहंत-बहुसुद पवयणभत्ति-पवयणपहावणलक्खणसुद्धिजुत्तेण विणा सीलव्वदाणमणदिचारत्तस्स अणुववत्तीदो । असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरणहेदू वदं णाम । ण च सम्मत्तेण विणा हिंसालिय-चोज्जब्बभपरिग्गहविरइमेत्तेण सा गुणसेडिणिज्जरा होदि, दोहिंतो चेवुप्पज्जमाणकज्जस्स तत्थेक्कादो समुप्पत्तिविरोहादो । होदु णाम एदेसिं संभवो, ण णाणविणयस्स ? ण, छदव्व-णवपदत्थसमूह-तिहुवणविसएण अभिक्खणमभिक्खणमुवजोगविसयमापज्जमाणेण णाणविणएण विणा सीलव्वदणिबंधणसम्मत्तुप्पत्तीए अणुववत्तीदो। ण तत्थ चरणविणयाभावो वि, जहाथामतवावासयापरिहीणत्त-पवयणवच्छलत्तलक्खणचरणविणएण विणा सीलबदणिरदिचारत्ताणुववत्तीदो । तम्हां तदियमेदं तित्थयरणामकम्मबंधस्स कारणं ।
( आवासएसु अपरिहीणदाए- समदा-थर्व-वंदण-पडिक्कमण-पञ्चक्खाण-विओसग्गभेएण
साधुसमाधिधारण, वैयावत्ययोगयुक्तता, प्रासुकपरित्याग, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति और प्रवचनप्रभावना लक्षण शुद्धिसे युक्त सम्यग्दर्शनके विना शील-व्रतोंकी निरतिचारता बन नहीं सकती। दूसरी बात यह है कि जो असंख्यात गणित श्रेणीसे कर्मनिर्जराका कारण है वही व्रत है। और सम्यग्दर्शनके विना हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होने मात्रसे वह गुणश्रेणीनिर्जरा हो नहीं सकती, क्योंकि, दोनोंसे ही उत्पन्न होनेवाले कार्यकी उनमेंसे एकके द्वारा उत्पत्तिका विरोध है।
शंका- इनकी सम्भावना यहां भले ही हो, पर ज्ञानविनयकी सम्भावना नहीं हो सकती?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि छह द्रव्य, नौ पदार्थों के समूह और त्रिभुवनको विषय करनेवाले एवं बार बार उपयोगविषयको प्राप्त होनेवाले शानविनयके विना शीलव्रतोंके कारणभूत सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं बन सकती।
शील-व्रतविषयक निरतिचारतामें चारित्रविनयका भी अभाव नहीं कहा जासकता है, क्योंकि यथाशक्ति तप, आवश्यकापरिहीनता और प्रवचनवत्सलता लक्षण चारित्रविनयके विना शील-व्रतविषयक निरतिचारताकी उपपत्ति ही नहीं बनती। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मके बन्धका तीसरा कारण है।
आवश्यकोंमें अपरिहीनतासे ही तीर्थकर नामकर्म बंधता है--समता, स्तव,
१ प्रतिषु · ते जहा' इति पाठः।
२ प्रतिषु वय ' इति पाठः ।
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८४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ४१.
छावासया होंति' सत्तु-मित्त-मणि-पाहाण - सुवण्ण-मट्टियासु' राग-देसाभावो समदा णाम । तीदाणागद-वट्टमाणकालविसयपंचपरमेसराणं भेदमकाऊण णमो अरहंताणं णमो जिणाणमिच्चादिणमोक्कारो दव्वट्ठियणिबंधणो थवो णाम । उसहाजिय संभवाहिणंदण - सुमइ - पउमपह-सुपासचंदप्पह- पुप्फदंत-सीयल - सेयंस- वासुपूज्ज-विमलाणंत-धम्म-संति- कुंथु-अर-मल्लि-मुणिसुव्वय-मिणेमि-पास-वड्ढमाणादितित्थयराणं भरहादिकेवलीणं आइरिय-चइत्तालयादीणं भेयं काऊण णमोक्कारो गुणगयभेदमल्लीणो सद्दकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदना णाम । पंचमहव्वसु चउरासीदिलक्खगुणगणकलिएसु समुप्पण्णकलंकपक्खालणं पडिक्कमणं णाम ।
वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्गके भेद से छह आवश्यक होते हैं। शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण और सुवर्ण मृत्तिका में राग-द्वेष के अभावको समता कहते हैं । अतीत, अनागत और वर्तमान काल विषयक पांच परमेष्ठियों के भेदको न करके ' अरहन्तोंको नमस्कार, जिनोंको नमस्कार' इत्यादि द्रव्यार्थिकनिबन्धन नमस्कारका नाम स्तव है । ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नाम, पार्श्व और वर्धमानादि तीर्थकर तथा भरतादिक केवली, आचार्य एवं चैत्यालयादिकोंके भेदको करके अथवा गुणगत भेदके आश्रित, शब्दकलापसे व्याप्त गुणानुस्मरण रूप नमस्कार करनेको वन्दना कहते हैं। चौरासी लाख गुणों के समूह से संयुक्त पांच महाव्रतों में उत्पन्न हुए मलको धोनेका नाम प्रतिक्रमण है । महाव्रतोंके विनाश व
१ समदा थवो य वंदण पडिक्क्रमणं तहेव णादव्वं । पच्चक्खाण विसग्गो करणीया वासया छप्पि ॥ मूला. २२. सामाइय चउवीसत्थव वंदणयं पडिक्कमणं । पच्चक्खाणं च तहा काओसग्गो हवदि छट्टो ॥ मूला. ७, १५. षडावश्यक क्रियाः -- सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवः वंदना प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं कायोत्सर्गचेति । त. रा. ६, २४, ११. से किं तं आवस्यं ? आवस्सयं छन्विहं पण्णत्तं तं जहा -- सामाइयं चउवीसत्थवो वंदणयं पडिकमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं से तं आवरसयं । नन्दीसूत्र ४४.
२ अप्रतौ 'पडियासु', आ-काप्रत्योः ' मडियासु ' इति पाठः ।
३ जीविद - मरणे लाभालाभे संजोय-विप्पओगे य । बंधुरि-सुह- दुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम || मूला. २३. तत्र सामायिकं सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिलक्षणं चित्तस्यैकत्वेन ज्ञाने प्रणिधानम् । त. रा. ६, २४, ११. ४ उहादिजिणवराणं णामणिरुत्तिं गुणाणुकिर्ति च । काऊण अच्चितॄण य तिमुद्धिपणमो थवो ओ ॥ मूला. २४. चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थकरगुणानुकीर्तनम् । त. रा. ६, २४, ११.
५ अप्रतौ ' गुणगणभेदमहिणो '; आ-काप्रत्योः ' गुणगयभेदमल्लिणो ' इति पाठः ।
६ अरहंत-सिद्धपडिमा तव सुद-गुण- गुरूण रादीणं । किदियम्मेणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो ॥ मूला. २५. वंदना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुः शिरोवनतिः द्वादशावर्तना । त. रा. ६,२४,११.
७ प्रतिषु ' लक्खणगुणगण-' इति पाठः ।
८ दव्वे खेते काले भावे य कयावराहसोहणयं । निंदण - गरहणजुत्तो मण वच-कायेण पडिक्कमणं ॥ मूला. २६. अतीतदोषनिवर्तनम् प्रतिक्रमणम् । त. रा. ६, २४, ११.
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[८५
तित्थयरबंधकारणपरूवणा महव्वयाण विणासण-मलारोहणकारणाणि जहा ण होसंति तहा करेमि त्ति मणेणालोचिय चउरासीदिलक्खवदसुद्धिपडिग्गहो पच्चक्खाणं णाम । सरीराहारेसु हु मण-वयण-पवुत्तीओ ओसारिय ज्झयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम । एदेसिं छण्णमावासयाणं अपरिहीणदा अखंडदा आवासयापरिहीणदा । तीए आवासयापरिहीणदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मस्स बंधो होदि । ण च एत्थ सेसकारणाणमभावो, ण च दंसणविसुद्धिविणयसंपत्ति-वदसीलणिरदिचार-खणलवपडिवोह लद्धिसंवेगसंपत्ति-जहाथामतव-साहुसमाहिसंधारण-वेज्जावच्चजोग-पासुअपरिच्चागारहंत-बहुसुद-पवयणभत्ति-पवयणवच्छल्ल-प्पहावणाभिक्खणणाणोवजोगजुत्तदाहि विणा छावासएसु णिरदिचारदा णाम संभवदि । तम्हा एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स चउत्थकारणं ।)
खण-लवपडिबुज्झणदाए- खण-लवा णाम कालविसेसा । सम्मइंसण-णाण-वद-सीलगुणाणमुज्जालणं कलंकपक्खालणं संधुक्खणं वा पडिबुज्झणं णाम, तस्स भावो पडिबुज्झणदा। खण लवं पडि पडिबुज्झणदा खण-लवपडिबुज्झणदा। तीए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मस्स
मलोत्पादनके कारण जिस प्रकार न होंगे वैसा करता हूं, ऐसी मनसे आलोचना करके चौरासी लाख व्रतोंकी शुद्धिके प्रतिग्रहका नाम प्रत्याख्यान है। शरीर व आहारमें मन एवं वचनकी प्रवृत्तियोंको हटाकर ध्येय वस्तुकी ओर एकाग्रतासे चित्तका निरोध करनेको व्युत्सर्ग कहते हैं । इन छह आवश्यकोंकी अपरिहीनता अर्थात् अखण्डताका नाम आवश्यकापरिहीनता है । उस एक ही आवश्यकापरिहीनतासे तीर्थकर नामकर्मका वन्ध होता है। इसमें शेष कारणों का अभाव भी नहीं है, क्योंकि दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पत्ति, व्रत-शीलनिरतिचारता, क्षण-लवप्रतिबोध, लब्धि-संवेगसम्पत्ति, यथाशक्ति तप, साधुसमाधिसंधारण, वैयावत्ययोग, प्रासुकपरित्याग, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति,प्रवचनभक्ति,प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावना और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता, इनके विना छह आवश्यकोंमें निरतिचारता सम्भव ही नहीं है । इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मके बन्धका चतुर्थ कारण है।
क्षण लवप्रतिबुद्धतासे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है--क्षण और लव ये कालविशेषके नाम हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील गुणोंको उज्ज्वल करने, मलको धोने अथवा जलानेका नाम प्रतिबोधन और इसके भावका नाम प्रतिबोधनता है । प्रत्येक क्षण व लवमें होनेवाले प्रतिवोधको क्षण-लवप्रतिवुद्धता कहा जाता है । उस एक ही क्षण-लवप्रतिबुद्धतासे
१ णामादीणं छण्हं अजोगपरिवज्जणं तियरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले । मूला. २७. अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम् । त. रा. ६, २४, ११.
२ प्रतिषु 'सरीराहारासु' इति पाठः ।
३ देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुणचिंतण जुत्तो काउस्सग्गो तणुविसग्गो । मूला. २८. परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः । त. रा. ६,२४,११.
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८६) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ४१. बंधो। एत्थ वि पुव्वं व सेसकारणाणमंतब्भावो दरिसेदव्यो। तदो एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स पंचमं कारणं ।
लद्धिसंवेगसंपण्णदाए- सम्मइंसण-णाण-चरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी णाम । हरिसो संतो संवेगो णाम । लद्धीए संवेगो लद्धिसंवेगो, तस्स संपण्णदा संपत्ती । तीए तित्थयरणामकम्मस्स एक्काए वि बंधो। कधं लद्धिसंवेगसंपयाए सेसकारणाणं संभवो ? ण सेसकारणेहि विणा लद्धिसंवेगस्स संपया जुज्जदे, विरोहादो । लद्धिसंवेगो णाम तिरयणदोहलओ, ण सो दंसणविसुज्झदादीहिं विणा संपुण्णो होदि, विप्पडिसेहादो हिरण्ण-सुवण्णादीहि विणा अड्डो' व्व । तदो अप्पणो अंतोखित्तसेसकारणा लद्धिसंवेगसंपया छटुं कारणं ।
जहाथामे तहा तवे- बलो वीरियं थामो इदि एयहो । तवो दुविहो बाहिरो अभंतरो चेदि । बाहिरो अणसणादिओ, अभंतरो विणयादिओ। एसो सव्वा वि तवो वारसविहो । जहाथामे तहा तवे सते तित्थयरणामकम्मं बज्झइ । कुदो ? जहाथामतवे सयलसेसतित्थयर
तीर्थकर नामकर्मका बन्ध होता है। इसमें भी पूर्वके समान शेष कारणोंका अन्तर्भाव दिखलाना चाहिये । इसीलिये यह तीर्थकर नामकर्मके बन्धका पांचवां कारण है।
लब्धिसंवेगसम्पन्नतासे तीर्थकर कर्मका बन्ध होता है-- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें जो जीवका समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं, और हर्ष व सात्त्विक भावका नाम संवेग है । लब्धिसे या लब्धिमै संवेगका नाम लब्धिसंवेग और उसकी सम्पन्नताका अर्थ संप्राप्ति है। इस एक ही लब्धिसंवेगसम्पन्नतासे तीर्थकर नामकर्मका बन्ध होता है।
शंका-लब्धिसंवेगसम्पदामें शेष कारणोंकी सम्भावना कैसे है ?
समाधान-क्योंकि, शेष कारणों के विना विरूद्ध होनेसे लब्धिसंवेगकी सम्पदाका संयोग ही नहीं होसकता। इसका कारण यह कि रत्नत्रयजनित हर्षका नाम लब्धिसंवेग है।
और वह दर्शनविशुद्धतादिकोंके विना सम्पूर्ण होता नहीं है, क्योंकि, इसमें हिरण्य-सुवर्णादिकोंके विना धनाढ्य होनेके समान विरोध है । अत एव शेष कारणोंको अपने अन्तर्गत करनेवाली लब्धिसंवेगसम्पदा तीर्थकर कर्मबन्धका छठा कारण है।
शक्त्यनुसार तपसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है-- बल, वीर्य और थाम (स्थामन्) ये समानार्थक शब्द हैं । तप दो प्रकार है-- बाह्य और आभ्यन्तर । इनमें अनशनादिकका नाम बाह्य तप और विनयादिकका नाम आभ्यन्तर तप है। छह बाह्य एवं छह आभ्यन्तर इस प्रकार मिलकर यह सब तप बारह प्रकार है। जैसा बल हो वैसा तप करनेपर तीर्थकर नामकर्म बंधता है। इसका कारण यह है कि यथाशक्तितपमें तीर्थकर नामकर्मके बन्धके
१ प्रतिषु · अद्दो' इति पाठः ।
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[८७
३, ४१.]
तित्थयरबंधकारणपरूवणा कारणाणं संभवादो, जदो जहाथामो णाम ओघषलस्स धीरस्स' णाणदंसणकलिदस्स होदि । ण च तत्थ दंसणविसुज्झदादीणमभावो, तहा तवंतस्स अण्णहाणुववत्तीदो । तदो एवं सत्तमं कारणं ।
साहूणं पासुअपरिच्चागदाए- अणतणाण-दंसण-वीरिय-विरइ-खइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम । पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा तं पासुअं, अधवा जं णिरवज्जं तं पासुअं। किं ? णाण-दसण-चरित्तादि । तस्स परिच्चागो विसज्जणं, तस्स भावो पासुअपरिच्चागदा । दयाबुद्धीए साहूणं णाण-दसण-चरित्तपरिच्चागो दाणं पासुअपरिच्चागदा णाम । ण चेदं कारणं घरत्थेसु संभवदि, तत्थ चरित्ताभावादो । तिरयणोवदेसो वि ण घरत्थेसु अत्थि, तेसिं दिट्ठिवादादि उवरिमसुत्तोवदेसणे अहियाराभावादो। तदो एदं कारणं महेसिणं चेव होदि । ण च एत्थ सेसकारणाणमसंभवो । ण च अरहंतादिसु अभत्तिमंते णवपदत्थविसयसद्दहणेणुम्मुक्के सादिचारसीलव्वदे परिहीणावासए णिरवज्जो णाण-दंसण-चरित्तपरिच्चागो संभवदि, विरोहादो। तदो एदमट्ठमं कारणं ।
सभी शेष कारण सम्भव हैं, क्योंकि, यथाथाम तप ज्ञान-दर्शनसे युक्त सामान्य बलवान् और धीर व्यक्तिके होता है, और इसलिये उसमें दर्शनविशुद्धतादिकोंका अभाव नहीं होसकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर यथाथाम तप बन नहीं सकता। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मबन्धका सातवां कारण है।
साधुओंके द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्य ज्ञान-दर्शनादिकके त्यागसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोंके जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं। जिससे आस्रव दूर हो गये हैं उसकानाम प्रासुक है,अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है। वह ज्ञान, दर्शन व चारित्रादिक ही तो सकते हैं । उनके परित्याग अर्थात् विसर्जन करनेको प्रासुकपरित्याग और इसके भावको प्रासुकपरित्यागता कहते हैं । अर्थात् दयाबुद्धिसे साधुओं द्वारा किये जानेवाले ज्ञान, दर्शन व चारित्रके परित्याग या दानका नाम प्रासुकपरित्यागता है । यह कारण गृहस्थोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनमें चारित्रका अभाव है। रत्नत्रयका उपदेश भी गृहस्थोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, दृष्टिवादादिक उपरिमश्रतके उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है । अत एव यह कारण महर्षियोंके ही होता है । इसमें शेष कारणोंकी असंभावना नहीं है, क्योंकि अरहन्तादिकोंमें भक्तिसे रहित, नौ पदार्थविषयक श्रद्धानसे उन्मुक्त, सातिचार शील-व्रतोंसे सहित और आवश्यकोंकी हीनतासे संयुक्त होनेपर निरवद्य ज्ञान, दर्शन व चारित्रका परित्याग विरोध होनेसे सम्भव ही नहीं है । इसी कारण यह तीर्थंकर नामकर्म बन्धका आठवां कारण है।
१ अप्रतो वीरस्स' इति पाठः ।
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८८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ४१. साहूणं समाहिसंधारणदाए-दंसण-णाण-चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही णाम । सम्म साहणं धारणं संधारणं । समाहीए संधारणं समाहिसंधारणं, तस्स भावो समाहिसंधारणदा। ताए तित्थयरणामकम्मं बज्झदि त्ति । केण वि कारणेण पदंतिं समाहिं दट्टण सम्मादिट्ठी पवयणवच्छलो पवयणप्पहावओ विणयसंपण्णो सील-बदादिचारवज्जिओ अरहंतादिसु भत्तो संतो जदि धरेदि तं समाहिसंधारणं । कुदो एदमुवलब्भदे ? सं-सद्दपउंजणादो । तेण बज्झदि त्ति वुत्तं होदि । ण च एत्थ सेसकारणाणमभावो, तदत्थित्तस्स दरिसिदत्तादो । एवमेदं णवमं कारणं ।
साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए- व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्यम् । जेण सम्मत्त-णाणअरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छल्लादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चजोगो दंसणविसुज्झदादि, तेण जुत्तदा वेज्जावच्चजोगजुत्तदा । ताए एवंविहाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं बंधइ । एत्थ सेसकारणाणं जहासंभवण अंतब्भावो वत्तव्यो । एवमेदं
साधुओंकी समाधिसंधारणतासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है-दर्शन, ज्ञान व चारित्रमें सम्यक् अवस्थानका नाम समाधि है । सम्यक् प्रकारसे धारण या साधनका नाम संधारण है । समाधिका संधारण समाधिसंधारण और उसके भावका नाम समाधिसंधारणता है। उससे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है। किसी भी कारणसे गिरती हुई समाधिको देखकर सम्यग्दृष्टि, प्रवचनवत्सल, प्रवचनप्रभावक, विनयसम्पन्न, शील व्रतातिचारवर्जित और अरहंतादिकोंमें भक्तिमान् होकर चूंकि उसे धारण करता है इसीलिये वह समाधिसंधारण है।।
शंका—यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-यह 'संधारण' पदमें किये गये 'सं' शब्दके प्रयोगसे जाना जाता है।
इस समाधिसंधारणसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है, यह अभिप्राय है। इसमें शेष कारणोंका अभाव नहीं है, क्योंकि, उनका अस्तित्व वहां दिखला ही चुके हैं । इस प्रकार यह नौवां कारण है।
साधुओंकी वैयावत्ययोगयुक्ततासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- ब्यापृत अर्थात् रोगादिसे व्याकुल साधुके विषयमें जो किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है । जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति एवं प्रवचनवत्सलत्वादिसे जीव वैयावत्यमें लगता है वह वैयावत्ययोग अर्थात् दर्शनविशुद्धतादि गुण हैं, उनसे संयुक्त होने का नाम वैयावत्ययोगयुक्तता है । इस प्रकारकी उस एक ही वैयावत्ययोगयुक्ततासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है । यहां शेष कारणोंका यथासम्भव अन्तर्भाव कहना
१ प्रतिषु ‘सीउवदादि' इति पाठः । २ आ-काप्रत्योः ‘पउंजणादारेण बज्झदि ' इति पाठः।
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३, ४१. ] तित्थयरबंधकारणपरूवणा
[८९ दसमं कारणं ।
___ अरहंतभत्तीए - खविदधादिकम्मा केवलणाणण हिदसव्वट्ठा अरहंता णाम । अधवा, गिट्ठविदट्ठकम्माणं घाइदघादिकम्माणं च अरहंतेत्ति सण्णा, अरिहणणं पडि दोण्हं भेदाभावादो । तेसु भत्ती अरहंतभत्ती । ताए तित्थयरकम्मं बज्झइ । कथमेत्थ सेसकारणाणं संभवो? वुच्चदे --- अरहंतवुत्ताणुट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम । ण च एसा दसणविसुज्झदादीहि विणा संभवइ, विरोहादो । तदो एसा एक्कारसमं कारणं ।।
बहुसुदभत्तीए- बारसंगपारया बहुसुदा णाम, तेसु भत्ती - तेहि वक्खाणिद.' आगमत्थाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा- बहुसुदभत्ती । ताए वि तित्थयरणामकम्मं बज्मइ, दंसणविसुज्झदादीहि विणा एदिस्से असंभवादो । एदं बारसमं कारणं ।
चाहिये । इस प्रकार यह दशवां कारण है।
__ अरहन्तभक्तिसे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है-जिन्होंने घातियाकर्मोको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको देख लिया है वे अरहन्त हैं। अथवा, आठों कोको दूर करदेनेवाले और घातिया कर्मोंको नष्ट करदेनेवालोंका नाम अरहन्त है, क्योंकि कर्म-शत्रुके विनाशके प्रति दोनोंमें कोई भेद नहीं है । (अर्थात् 'अरहन्त' शब्दका अर्थ चूंकि 'कर्म-शत्रुको नष्ट करनेवाला' है, अत एव जिस प्रकार चार घातिया कर्मोको नष्ट कर देनेवाले सयोगी और अयोगी जिन ' अरहन्त' शब्दके वाच्य हैं उसी प्रकार आठों कर्मोंको नष्ट कर देनेवाले सिद्ध भी' अरहन्त' शब्दके वाच्य होसकते हैं, क्योंकि, निरुक्त्यर्थकी अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है।) उन अरहन्तों में जो गुणानुरागरूप भक्ति होती है वही अरहन्तभक्ति कहलाती है । इस अरहन्तभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है।
शंका-इसमें शेष कारणोंकी सम्भावना कैसे है ?
समाधान-इस शंकाका उत्तर देते हैं कि अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठानके अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अरहन्तभक्ति कहते है। और यह दर्शनविशुद्धतादिकोंके विना सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध है। अतएय यह तीर्थकर कर्मवन्धका ग्यारहवां कारण है।
बहुश्रुतभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- जो बारह अंगोंके पारगामी हैं वे बहुश्रुत कहे जाते हैं, उनके द्वारा उपदिष्ट आगमार्थके अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्श करनेको बहुश्रुतभक्ति कहते हैं। उससे भी तीर्थकर नामकर्म बंधता है, क्योंकि, यह भी दर्शनविशुद्धतादिक शेष कारणोंके विना सम्भव नहीं है। यह तीर्थकर नामकर्मबन्धका बारहवां कारण है। क. बं. १२.
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१०]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[१, ११. पवयणभत्तीए- सिद्धंतो बारहंगाणि पवयणं', प्रकृष्टं प्रकृष्टस्य वचनं प्रवचनमिति व्युत्पत्तेः। तम्हि भत्ती तत्थ पदुप्पादिदत्थाणुट्ठाणं । ण च अण्णहा तत्थ भत्ती संभवइ, असंपुण्णे संपुण्णववहारविरोहादो । तीए तित्थयरणामकम्मं बज्झइ । एत्थ सेसकारणाणमंतब्भावो वत्तव्यो। एवमेदं तेरसमं कारणं ।
(पवयणवच्छलदाए-पवयणं सिद्धंतो बारहंगाई, तत्थ भवा देस-महव्वइणो असंजदसम्माइट्टिणो च पवयणा । कुदो एत्थ आकारस्स अस्सवणं ? 'एए छच्च समाणा' ति सुत्तेण आदिवुड्डीए कयअकारत्तादो । तेसु अणुरागो आकंखा ममेदभावो पवयणवच्छलदा णाम । तीए तित्थयरकम्मं बज्झइ । कुदो ? पंचमहव्वदादिआगमत्थविसयस्सुक्कट्ठाणुरागस्स दसणविसुज्झदादीहि अविणाभावादो । तेणेदं चोद्दसमं कारणं ।
प्रवचनभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है-सिद्धान्त या बारह अंगका नाम प्रवचन है, क्योंकि, 'प्रकृष्ट वचन प्रवचन, या प्रकृष्ट (सर्वज्ञ ) के वचन प्रवचन हैं 'ऐसी व्युत्पत्ति है । उस प्रवचनमें कहे हुए अर्थका अनुष्ठान करना, यह प्रवचनमें भक्ति कही जाती है। इसके विना अन्य प्रकारसे प्रवचनमें भक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, असम्पूर्ण में सम्पूर्णके व्यवहारका विरोध है । इस प्रवचनभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है। इसमें शेष कारणोंका अन्तर्भाव कहना चाहिये । इस प्रकार यह तेरहवां कारण है।
__प्रवचनवत्सलतासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- सिद्धान्त या बारह अंगोंका नाम प्रवचन है। इसमें होनेवाले देशवती, महावती और असंयतसम्यग्दृष्टि प्रवचन कहे जाते हैं।
शंका-इसमें आकारका श्रवण क्यों नहीं होता, अर्थात् 'प्रवचनमें होनेवाले' इस विग्रहके अनुसार 'प्रावचन' होना चाहिये, न कि 'प्रवचन' ?
समाधान-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ये छह स्वर और ए, ओ, ये दो सन्ध्य क्षर, इस प्रकार ये आठों स्वर अविरोध भावसे एक दूसरेके स्थानमें आदेशको प्राप्त होते हैं । इस सूत्रसे आदि वृद्धिरूप आ के स्थानपर अ का आदेश हो गया है । - उन प्रवचनों अर्थात् देशवती, महावती और असंयतसम्यग्दृष्टियों में जो अनुराग, आकांक्षा अथवा 'ममेदं' बुद्धि होती है उसका नाम प्रवचनवत्सलता है। उससे तीर्थकर कर्म बंधता है। इसका कारण यह है कि पांच महाव्रतादिरूप आगमार्थविषयक उत्कृष्ट अनुरागका दर्शनविशुद्धतादिकोंके साथ अविनाभाव है, अर्थात् उक्त प्रकार प्रवचनवत्सलता दर्शनविशुद्धतादि शेष गुणोंके विना नहीं बन सकती। इसीलिये यह चौदहवां कारण है।
१प्रवचनं द्वादशाङ्गं तदुपयोगानन्यत्वात्संघो वा प्रवचनम् । प्रव. पृ. ८२.
२ एए छच्च समाणा दोण्णि अ संज्झक्खरा सरा अट्ठ । अण्णोण्णस्सविरोहा उवेति सव्वे समाएसं ॥ कसायपाहुड १, पृ. ३२६.
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1९१
३, ४२.]
तित्थयरुदयपहावपदसणं (पवयणप्पहावणदाए- आगमट्ठस्स पवयणमिदि सण्णा । तस्स पहावणं णाम वण्णजणणं तब्बुड्डिकरणं च, तस्स भावो पवयणप्पहावणदा । तीए तित्थयरकुम्म बज्झइ, उक्कट्ठपवयणप्पहावणस्स देसणविसुज्झदादीहि अविणाभावादो । तेणेदं पण्णरसमं कारणं ।
अभिक्खणमभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए - अभिक्खणमभिक्खणं णाम बहुवारमिदि भाणदं होदि । णाणोवजोगो त्ति भावसुदं दव्वसुदं वावेक्खदे । तेसु मुहुम्मुहुजुत्तदाए तित्थयरणामकम्मं बज्झइ, दंसणविसुज्झदादीहि विणा एदिस्से अणुववत्तीदो । एदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामकम्मं बंधंति । अधवा, सम्मइंसणे संते सेसकारणाणं मज्झे एगदुगादिसंजोगेण बज्झदि' त्ति वत्तव्वं ।)
। जस्स इणं तित्थयरणामगोदकम्मस्स उदएण सदेवासुरमाणुसस्स लोकस्स अच्चणिज्जा वंदणिज्जा णमंसणिज्जा णेदारा धम्म-तित्थयरा जिणा केवलिणो हवंति ॥ ४२ ॥)
___ प्रवचनप्रभावनासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- आगमार्थका नाम प्रवचन है, उसके वर्णजनन अर्थात् कीर्तिविस्तार या वृद्धि करनेको प्रवचनकी प्रभावना और उसके भावको प्रवचनप्रभावनता कहते हैं। उससे तीर्थकर कर्म बंधता है, क्योंकि, उत्कृष्ट प्रवचनप्रभावनाका दर्शनविशुद्धतादिकोंके साथ अविनाभाव है। इसीलिये यह पन्द्रहवां कारण है।
___ अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्ततासे तीर्थकर कर्म बंधता है- अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णका अर्थ 'बहुत वार' है । ज्ञानोपयोगसे भावभुत अथवा द्रव्यश्रुतकी अपेक्षा है। उन (भाव व द्रव्य श्रुत) में बार बार उद्युक्त रहनेसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है, क्योंकि, दर्शनविशुद्धतादिकोंके विना यह अभीक्ष्ण-अभीक्षण ज्ञानोपयोगयुक्तता बन नहीं सकती।
इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नामकर्मको बांधते हैं । अथवा, सम्यग्दर्शनके होनेपर शेष कारणों से एक दो आदि कारणों के संयोगसे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है, ऐसा कहना चाहिये।
जिन जीवोंके तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मका उदय होता है वे उसके उदयसे देव, असुर और मनुष्य लोकके अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, नेता, धर्म-तीर्थके कर्ता जिन व केवली होते हैं ॥ ४२ ॥
१ तान्येतानि षोडशकारणाणि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थकरनामकर्मास्रवकारणानि प्रत्येतव्यानि । स. सि. ६, २४. त. रा.६,२४,१३. तीर्थकरनामकर्मणि षोडश तत्कारणान्यमन्यनिशम् । व्यस्तानि समस्तानि च भवन्ति सद्भाव्यमानानि ।। है. पु. ३४, १४९. एते गुणाः समस्ता व्यस्ता वा तीर्थकरनाम्न आसवा मवन्तीति । त. सू. भाष्य ६, २३.
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९२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ४२. - तित्थयरणामगोदकम्मस्सेत्ति एत्थ 'उदओ तेणेत्ति' दोण्णं पदाणमज्झाहारो कायब्बो, अण्णहा अत्थाणुवलंभादो । जस्स जेसि जीवाणं इणं एदस्स तित्थयरणामगोदकम्मस्स उदओ तेण उदएण सदेवासुर-माणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा त्ति संबंधो कायव्यो । चरु-बलि-पुप्फफल-गंध-धूव-दीवादीहि सगभत्तिपगासो अच्चणा णाम (एदाहि सह अइंदधय-कप्परुक्खमहामह-सव्वदोभद्दादिमहिमाविहाणं पूजा णाम । तुहुं णिहवियट्ठकम्मो केवलणाणण दिट्ठसव्वट्ठो धम्मुम्मुहसिहगाहीए पुट्ठाभयदाणो सिट्टपरिवालओ दुणिग्गहकरो देव त्ति पसंसा वंदणा णाम । पंचहि मुट्ठीहि जिणिंदचलणेसु णिवदणं णमंसणं । धम्मो णाम सम्मदंसण-णाणचरित्ताणि । एदेहि संसार-सायरं तरंति त्ति एदाणि तित्थं । एदस्स धम्म-तित्थस्स कत्तारा जिणा केवलिणो णेदारा च भवंति ।
एवमोवाणुगमो समत्तो ।)
सूत्रमें 'तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मका' यहां 'उदय' और 'उससे' इन दो पदोंका अध्याहार करना चाहिये, अन्यथा अर्थकी उपलब्धि नहीं होती। जिसके अर्थात् जिन जीवोंके, यह अर्थात् इस तीर्थकर नाम गोत्रकर्मका उदय होता है वे उसके उदयसे देव, असुर एवं मनुष्योंसे परिपूर्ण लोकके अर्चनीय होते हैं, ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये । चरु, बलि, पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप आदिकोंसे अपनी भक्ति प्रकाशित करनेका नाम अर्चना है । इनके साथ ऐन्द्रध्वज, कल्पवृक्ष, महामह और सर्वतोभद्र, इत्यादि महिमाविधानको पूजा कहते हैं । आप अष्ट कौको नष्ट करनेवाले, केवलज्ञानसे समस्त पदार्थोंको देखनेवाले, धर्मोन्मुख शिष्टोंकी गोष्ठीमें अभयदान देनेवाले, शिष्टपरिपालक और दुष्टनिग्रहकारी देव है, ऐसी प्रशंसा करनेका नाम वन्दना है । पांच मुष्टियों अर्थत् अंगोंसे जिनेन्द्र देवके चरणों में गिरनेको नमस्कार कहते हैं। धर्मका अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । चूंकि इनसे संसार-सागरको तरते हैं इसीलिये इन्हें तीर्थ कहा जाता है । इस धर्म-तीर्थके कर्ता जिन, केवली और नेता होते हैं ।
इस प्रकार ओघानुगम समाप्त हुआ।
१ सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । र. श्रा. ३.
२ जं नाण-दंसण-चरित्तभावओ तबिवक्खभावाओ। भवभावओ य तारेइ तेण तं भावओ तिथं ॥ विशेषा.१०३८.
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३, ४४.] रियगदौए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं ९३
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु पंचणाणावरणछदंसणावरण-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-- भय-दुगुंछा-मणुसगदि-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरसमचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-वण्ण-गंधरस-फास-मणुसगइपाओग्गाणुपुवि-अगुरुलहुग-उवघाद-परघादउस्सास-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहा-- सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-- पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ४३ ॥
___ एदं देसामासिययुच्छासुतं, तेणेदेण सूइदसधपुच्छाओ एत्थ वत्तव्वाओ । एवं पुच्छिदसिस्सणिच्छय जणणहमुत्तरसुत्तं भणदि
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ ४४ ॥
एदं देसामासियसुत्तं, सामित्तद्धाणाणं चेव पावणादो । तेणेदेण सूइदत्थाणं परवणं
आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कपाय, मुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघुक, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इन काँका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥४३॥
यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसी कारण इसके द्वारा सूचित सब पृच्छाओंको यहां कहना चाहिये । इस प्रकार पृच्छायुक्त शिष्यके निश्चयजननार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
मिथ्यादृष्टिको आदि लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥४४॥ - यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, वह बन्धस्वामित्व और बन्धाध्वानका ही निरूपण करता है । इसी कारण इसके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं- पांच ज्ञानावरणीय,
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छक्खंडागमे बंधसामित्सविचओ
[३, ४५. कस्सामो-पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भयदुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुअ-उवघाद-परघादउस्सास-तस-बादर पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-अजसकित्ति-णिमिण-पंचतराइयाणं एदेसिमेत्थ बंधादयवोच्छेदो णत्थि, विरोहाभावादो । पुरिसवेद-मणुसगइ-ओरालियसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुल्वि-पसत्थविहायगइसुभग-सुस्वर-आदज्ज-जसकित्ति-उच्चागोदाणमुदओ एत्थ णत्थि चेव, विरोहादो । तम्हा एत्य एदासु पयडीसु बंधोदयवोच्छेदाणं पुव्वापुव्वविचारो णत्थि ।
पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइय-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुअलहुअ-तस-पादर-पज्जत्त-थिराथिर सुभासुभ-अजसकित्ति णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो । णिहा-पयला-सादासाद-बारसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाओ सोदय-परोदएहि बझंति, सव्वगुणट्ठाणेसु परावत्तणोदयादो । उववाद मिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदएहि बज्झइ, विग्गहगदीए उदयाभावादो। सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीसु सोदएण बज्झइ, तेर्सि तत्थ उप्पत्तीए अभावादो। परघादुस्सास-पत्तेयसरीराणि मिच्छाइटि
छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इनके बन्ध और. उदयका यहां व्युच्छेद नहीं होता, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है अर्थात् इनका बन्धोदयव्युच्छेद यथासम्भव उन उपरिम गुणस्थानोंमें होता है जो नरकगतिमें सम्भव नहीं हैं। पुरुषवेद, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र, इन कर्मोंका उदय यहां है ही नहीं, क्योंकि, नारकियों में इनके उदयका विरोध है । इसलिये यहां इन प्रकृतियोंमें बन्धव्युच्छेद और उदयव्युच्छेदको पूर्वापरताका विचार नहीं है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध है । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, ये प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, इनका सब गुणस्थानों में परिवर्तित उदय रहता है। उपघात प्रकृति मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदयसे बंधती है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इसका उदय नहीं रहता । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानोंमें यही प्रकृति स्वोदयसे बंधती है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यारष्टियोकी नारकियों में उत्पत्ति नहीं है । परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर
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३, ४४.] णिरयगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदएहि बझंति, अपज्जत्तकाले एदेसिमुदयाभावादो। णवरि पत्तेयसरीरस्स उवघादभंगो, विग्गहगदीए चेव उदयाभावादो । सेसेसु दोसु सोदएणेव एदासिं बंधो, तेसिं तत्थ अपज्जत्तकालाभावादो । पुरिसवेद-मणुसगइ-ओरालियसरीर-समचउरससंठाणओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वि-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सरआदेज्ज-जसकित्ति-उच्चागोदाणं चदुसु गुणहाणेसु परोदएणेव बंधो, णिरएसु एदासिमुदयविरोहाद।।
पंचणाणावरणीय-छंदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-ओरालियतेजा-कम्मइयसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस फास-अगुरुगलहुग-उवघाद-परघाद---- उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण पंचंतराइयाण णिरंतरो बंधो, णिरयगइम्हि णिरंतरबंधित्तादो। सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, सव्वगुणहाणेसु पडिवक्खपयडीए बंधुवलंभादो । पुरिसवेद-मणुसगइ-समचउरससंठाणवजरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-मणुसगइपाओग्गाणुपुवि-उच्चागोदाणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । णवरि मणुसगइ
प्रकृतियां मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनका उदय नहीं रहता। विशेष इतना है कि प्रत्येकशरीरका बन्ध उपघातके समान है, क्योंकि, केवल विग्रहगतिमें ही उसका उदय नहीं रहता। शेष दो गुणस्थानों में स्वोदयसे ही इनका बन्ध होता है, क्योंकि, शेष दोनों गुणस्थान नारकियोंके अपर्याप्तकालमें होते नहीं हैं। पुरुषवेद, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंका चारों गुणस्थानोंमें परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियोंमें इनके उदयका विरोध है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त,प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच
य, इनका निरन्तर वन्ध है, क्योंकि, ये प्रकृतियां नरकगतिमें निरन्तर बंधती हैं। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध है, क्योंकि, सर्व गुणस्थानोंमें इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र, इनका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर बन्ध है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। विशेषता इतनी है कि तीर्थकर
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९६ ] छक्खंडागमे बंधसामितविचओ
[ ३, ४४. . मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मिच्छादिष्टिम्हि तित्थयरसंतक म्मयम्मि णिरंतो वि बंधो लब्भदि । सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो बंधो, एदासिं पडिवक्वपयडीणं बंधाभावादो ।
एदाओ पयडीओ बंधमाणमिच्छाइहिस्स चत्तारि मूलपच्चया। णाणासमयउत्तरपच्चया एक्कवंचास, ओरालिय ओरालियमिस्स-इत्थि-पुरिसपञ्चयाणमभावादो । एगसमयजहण्णुक्करसपच्चया जहाकमेण दस अट्ठारस । सासणस्स मूलपच्चया तिणि, मिच्छताभावादो । णाणासमयउत्तरपच्चया चउवेत्तालीस, ओरालिय-ओरालियमिस्स-वेउवियमिस्स-कम्मइय-इत्थि-पुरिसपच्चयाणमभावादो । एगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया जहाकमेण दस सत्तारस । सम्मामिच्छाइट्ठिस्स मूलपच्चया तिण्णि, मिच्छत्ताभावादो। णाणासमयउत्तरपच्चया चालीस, ओघेसु पच्चएसु ओरालिय-इत्थि-पुरिसपच्चयाणमभावादो । एगसमइयजहण्णुक्कस्सपच्चया जहाकमेण णव सोलस । असंजदसम्मादिट्ठिस्स मूलपच्चया तिण्णि, मिच्छत्ताभावादो । णाणासमयउत्तरपच्चया बाएत्तालीस, ओघपच्चएसु ओरालिय-ओरालियमिस्स-इत्थि-पुरिसपच्चयाणमभावादो । एगसमइय• जहण्णुक्कस्सपच्चया जहाकमेण णव सोलस ।
प्रकृतिकी सता रखनेवाले मिथ्याष्टि जीवमें मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका निरन्तर भी वन्ध पाया जाता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उक्त प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता।
इन प्रकृतियों को वांधनेवाले मिथ्यादृष्टि नारकी जीवके मूल प्रत्यय चारों होते हैं। नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय इक्यावन होते हैं, क्योंकि, उसके औदारिक, औदारिकमिश्र, स्त्रीवेद, और पुरुषवेद, इन चार प्रत्ययोंका अभाव है। एक समय सम्बन्धी जघन्य
और उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमसे दश और अठारह होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिके मूल प्रत्यय तीन होते हैं, क्योंकि, उसके मिथ्यात्वका अभाव है। नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय चवालीस होते हैं, क्योंकि, उसके औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकामश्र, कार्मण, स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन छह प्रत्ययोंका अभाव है। एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमसे दश और सत्तरह होते है । सम्यग्मिथ्याप्टिके मूल प्रत्यय तीन होते हैं, क्योंकि, उसके मिथ्यात्वका अभाव है। नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय चालीस होते हैं. क्योंकि. ओघप्रत्ययोंमेंसे औदारिक, स्त्रीवेद और पुरुषवेद प्रत्यय नहीं होते। एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमसे नौ और सोलह होते है । असंयतसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वका अभाव होनेसे मूल प्रत्यय तीन होते हैं, व नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय ब्यालीस होते हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमेंसे औदारिक, औदारिकमिश्र, स्त्रोवेद और पुरुषवेद, इन चार प्रत्ययोंका अभाव है। एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय यथाक्रमसे नौ और सोलह होते हैं।
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३, ४४.] णिरयगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं
[ ९७. पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवधाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणपंचंतराइयाणि मिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधति, सेसगईणं बंधाभावादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्विउच्चागोदाणि सव्वे मणुसगइसंजुत्तं चेव बंधति, सेसगईहि सह विरोहादो ।
एदासिं सव्वासिं पि पयडीणं बंधस्स हेरइया चेव सामी । बंधद्धाणं सुगमं । एदार्सि णेरइयाणं गुणट्ठाणाणं चरिमाचरिमट्ठाणेसु बंधवोच्छेदो णत्थि । सव्वपयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अणादि-धुवणेरइयाणमभावादो । अधवा, पंचणाणावरणीय छइंसणावरणीय-बारसकसाय-भयदुगुंछा-वण्णचउक्क-अगुरुअलहुव-उवघाद-तेजा-कम्मइय-णिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो, उवसमसेडीदो ओयरिय णिरयं पइट्ठम्मि सादि-अद्धवबंधदसणादो । सेसगुणट्ठाणेसु धुवं णत्थि, बंधवोच्छेदमकुणमाणसासणादीणमभावादो । सेसपयडीणं बंधो सादि
जस व
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, औदारिद कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग,सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इन प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि दो [ तिर्यंच और मनुष्य ] गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके शेष गतियोंका बन्ध नहीं होता। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको सभी नारकी मनुष्यगतिसे संयुक्त ही बांधते हैं, क्योंकि, उनके शेष गतियोंके साथ इनके बांधनेका विरोध है।
इन सभी प्रकृतियोंके बन्धके नारकी जीव ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है। इन प्रकृतियोंका नारकियोंके गुणस्थानोंके चरम व अचरम स्थानोंमें बन्धव्युच्छेद नहीं है। अर्थात् इन प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद नारकियोंके सम्भव चार गुणस्थानों में नहीं होता। सब प्रकृतियोंका बन्ध सादि-अध्रुव है, क्योंकि, अनादि और ध्रुव नारकियोका अभाव है। अथवा, पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, तैजस व कार्मण शरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध है, क्योंकि, उपशमश्रेणीसे उतरकर नरकमें प्रविष्ट हुए जीवमें सादि व अधुव बन्ध देखा जाता है। शेष गुणस्थानोंमें ध्रुव बन्ध नहीं है, क्योंकि, बन्धव्युच्छेदको न करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि आदिकोंका अभाव है। शेष अ.बं. १३.
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९८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ४५. अद्भुवो चेव, अद्धवबंधित्तादो।
णिहाणिहा-पयलापयला-थीमगिद्धि-अणताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडणतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-- अणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो? ॥४५॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ४६॥
सव्वाणि बंधसामित्तसुत्ताणि देसामासियाणि त्ति दट्ठव्वाणि । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, सासणचरिमसमयम्मि एदस्स समं बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-सिमिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बि-उज्जोवाणं णिरयगदीए उदओ णत्थि, विरोहादो।
.......
प्रकृतियोंका बन्ध सादि-अध्रुव ही है, क्योंकि, वे प्रकृतियां अध्रुववन्धी हैं ।
निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ४५ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष नारकी अबन्धक
बन्धस्वामित्वके सब सूत्र देशामर्शक हैं, ऐसा समझना चाहिये । इसी कारण इस सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादनगुणस्थानके चरम समयमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका साथ ही बन्धोदयव्युच्छेद पाया जाता है । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनका नरकगतिमें उदय नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध
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३, ४६.] णिरयगदीए णिहाणिहादीणं बंधसामिस
[ ९९ तदो एदासिं पुव्वं पच्छा वा बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णिकासविरोहादो । अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं पुव्वं बंधो वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, सासणम्मि णट्ठबंधाणं असंजदसम्मादिट्ठिम्हि उदयवोच्छेदुवलंभादो।
अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सर-अणंताणुबंधिचउक्काणं सोदय-परोदएण वंधो, अद्धवोदयतादो। णवरि अप्पसत्थविहायगदि-दुस्सराणं सासणसम्मादिविम्हि सोदओ चेव अत्थि । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगडपाओग्गाणुपुग्वि-उज्जोव-थीणगिद्धितियाणं परोदएणेव बंधो, एत्थ एदेसिमुदयाभावादो। दुभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं सोदएणेव बंधो, णेरइएसु एदेसिं पडिवक्खाणं उदयाभावादो।
थीणगिद्धितिय-अणंताणुवंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो । इत्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडणउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेजाणं सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो। तिरिक्खाउअस्स णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधेण विणा बंधविरामुवलंभादो । तिरिक्खगइ. पाओग्गाणुपुव्वि-तिरिक्खगइ-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो, छसु पुढवीसु सांतरो होदूण सत्तमपुढविम्हि णिरंतरेणेव बंधदसणादो । जदि पडिवक्खपयडिबंधमस्सिदूण थक्कमाणबंधा
...............
है। इसीलिये इन प्रकृतियोंके पूर्वमें अथवा पश्चात् वन्धोदयव्युच्छेदका विचार नहीं है, क्योंकि, सत् और असत् वस्तुके सन्निकर्षका विरोध है । अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीत्रगोत्रका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय क्योंकि, सासादनगुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है। .
अप्रशस्तविहायोगति, दुस्वर और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । विशेष इतना है कि अप्रशस्तविहायोगति
और दुस्वरका सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय ही बन्ध होता है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और स्त्यानगृद्धित्रय, इनका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका अभाव है। दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियोंमें इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है।
स्त्यानगृद्धि आदिक तीन और अनन्तानुवन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है। स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्त
स्वर और अनादेय, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। तिर्यगायुका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके विना इसके बन्धकी विश्रान्ति पायी जाती है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, छह पृथिवियों में इनका सान्तर बन्ध होकर सातवीं पृथिवीमें निरन्तर रूपसे ही बन्ध देखा जाता है।
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१०० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ४६. सांतरबंधपयडी वुच्चदि तो उज्जोवस्स पडिवक्खबंधपयडीए अणुज्जोवसरूवाए अभावादो उज्जोवेण णिरंतरबंधिणा होदव्वमध बंधविणासो अत्थि ति जदि सांतरत्तं वुच्चदि तो तित्थयराहारदुगाउआणं पि सांतरत्तं पसज्जदि त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-जं वुत्तं पडिवक्खपयडिबंधमस्सिदूण थक्कमाणबंधा सांतरबंधि त्ति तं सांतरबंधीसु पडिवक्खपयडिबंधाविणाभावं दट्ठण वुत्तं । परमत्थदो पुण एगसमय बंधिदूण बिदियसमए जिस्से बंधविरामो दिस्सदि सा सांतरबंधपयडी। जिस्से बंधकालो' जहण्णो वि अंतोमुत्तमेत्तो सा जिरंतरबंधपयडि त्ति घेत्तन्वं ।
पच्चयपरूवणे कीरमाणे चउठाणियपयडिभंगो । णवरि तिरिक्खाउअस्स मिच्छाइट्ठिम्हि एगुणवंचास पच्चया, वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो ।
शंका-यदि प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका आश्रय करके बन्धविश्रान्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृति सान्तरबन्ध प्रकृति कही जाती है तो उद्योतकी प्रतिपक्षभूत अनुद्योतस्वरूप प्रकृतिका अभाव होनेसे उद्योतको निरन्तरबन्धी प्रकृति होना चाहिये । अथवा बन्धका विनाश है, इस कारणसे यदि सान्तरता कही जाती है तो फिर तीर्थंकर, आहारद्विक और आयु कर्मोंके भी सान्तरताका प्रसंग आता है ?
समाधान-यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं -- प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका आश्रय करके बन्धविश्रान्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृति सान्तरवन्धी है, इस प्रकार जो कहा है वह सान्तरबन्धी प्रकृतियोंमें प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके अविनाभावको देखकर कहा है। वास्तवमें तो एक समय बंधकर द्वितीय समयमें जिस प्रकृतिकी बन्धविश्रान्ति देखी जाती है वह सान्तरबन्ध प्रकृति है। जिसका बन्धकाल जघन्य भी अन्तर्मुहूर्तमात्र है वह निरन्तरबन्ध प्रकृति है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
प्रत्ययप्ररूपणा करते समय चतुस्थानिक ( चार गुणस्थानों में बंधनेवाली) प्रकृतियोंके समान ही प्रत्ययप्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि तिर्यगायुके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें यहां उनचास प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैफियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है।
१ प्रतिषु 'काला' इति पाठः ।
२ यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमात्र बन्धः, उत्कर्षतः समयादारभ्य यावदन्तर्मुहुर्ते न परतः, ताः सान्तरबन्धाः, अन्तर्मुहूर्त्तमध्येऽपि सान्तरो विच्छेदलक्षणान्तरसंहितो बन्धो यास ताः सान्तरा इति व्युत्पत्तेः । अन्तर्मुहूर्तोपरि विच्छिद्यमानबन्धवृत्तिजातिमत्यः सान्तरबन्धा इति फलितार्थः | xxx जघन्येनापि या अन्तर्मुहूर्त यावरन्तर्येण बन्ध्यन्ते ता निरन्तरबन्धाः, निर्गतमन्तरमन्तर्मुहूर्तमध्ये व्यवच्छेदलक्षणं यस्य तादृशो बन्धो यासामिति व्युत्पत्तेः, अन्तर्मुहूर्तमध्याविच्छिन्नबन्धवृत्तिजातिमत्य इति यावत् । क. प्र. पृ. १४-१५.
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३, ४८.] णिरयगदीए मिच्छत्तादीणं बंधसामित्तं
1१०१ तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्माणुपुव्वि-उज्जोवाणि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिविणो तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधति । सेसाओ दुट्ठाणपयडीओ दुगइसंजुत्तं बंधति । सव्वासिं पयडीणं णेरइया सामी। बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । सासणे सादि-अद्धवो । सेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो चेव ।
मिच्छत्त-णqसयवेद हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ४७ ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥४८॥
एदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे-मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, मिच्छाइट्ठिचरिमसमए बंधोदयवोच्छेददंसणादो । णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामाणं पुव्वं बंधो वोच्छिन्जदि पच्छा उदओ, मिच्छाइट्टि चरिमसमए णट्ठबंधाणमेदार्सि असंजदसम्मादिहिहिं उदयवोच्छेदुवलंभादो । णवरि असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणस्स पुवावर
तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष द्विस्थान प्रकृतियोंको दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । सब प्रकृतियों के नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्ध विनष्टस्थान सुगम हैं। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादनमें सादि और अध्रुव बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव ही होता है ।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपटिकाशरीरसंहनन नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ४७ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष नारकी जीव अबन्धक हैं ॥४८॥
इस सूत्रसे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं - मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके चरम समयमें इसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहनन नामकर्मीका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके चरम समयमें बन्धके नष्ट हो जानेपर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमै इनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है । विशेष इतना है कि असंप्राप्त
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१०२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १९. धोक्यवोच्छेदविचारो पत्थि, बंधं मोत्तूण उदयाभावादो ।
मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाणाणं सोदओ बंधो । णवरि हुंडसंठाणस्स स-परोदओ वि, विग्गहगदीए' तस्सुदयाभावादो । असंपत्तसेवट्टसरीरसंवडणस्स परोदओ बंधो, तत्थ संघडणस्सुदयाभावादो । मिच्छत्तस्स णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं तिण्णं सांतरा, एगसमएण बंधुवरमदसणादो।
पच्चया चउट्ठाणियपयडिपच्चएहि समा । एदाओ पयडीओ चत्तारि वि दुगइसंजुत्तं पझंति । णेरइया सामी । [बंधद्धाणं ] बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउन्विहो पंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अद्भुवो, धुवबंधित्ताभावादो।
मणुस्साउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ४९ ॥ सुगम।
...............
सपाटिकाशरीरसंहननके पूर्व या पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेद होनेका विचार नहीं है, क्योंकि, बन्धको छोड़कर वहां इसके उदयका अभाव है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका सोदय बन्ध होता है । विशेष यह है कि हुण्डसंस्थानका बन्ध स्वोदय परोदयसे भी होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उसका उद्य नहीं रहता । असंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहननका बन्ध परोदयसे होता है, क्योंकि, नारकियोंमें संहननका उदय नहीं रहता। मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी प्रकृति है। शेष तीन प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम देखा जाता है।
प्रत्ययोंकी प्ररूपणा चतुस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययों के समान है। ये चारों ही प्रकृतियां दो गतियोंसे संयुक्त बंधती हैं। नारकी जीव स्वामी हैं । [बन्धाध्वान ] और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि, वह भुवबन्धी प्रकृति है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी नहीं है।
मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ४९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
१ आमतौ · गदीस ' इति पाठः।
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१, ५२.] णिरयगदीए तिक्ष्यरणामकम्मरस बंधसामितं [.१०३
मिच्छाइट्टी सासणसम्माइही असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ५० ॥
___ एदेण सूइदत्थस्स परूवणं कस्सामो- एत्थ बंधोदयाणं पुवावरवोच्छेदविचारो पत्थि, बंधं मोत्तूण उदयाभावादो । परोदएण बंधंति, णिरयगदीए मणुस्साउअस्स उदयविरोहादो । णिरंतरं बंधंति, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । मिच्छाइट्ठिस्स एगूणवण्णपच्चया, वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो। सासणस्स चोदाल असंजदसम्मादिहिस्स चालीस पच्चया । सेसं सुगमं । मणुसगइसंजुत्तं बंधति । णेरइया सामी। बंधद्धाणं बंधविणवाणं च सुगमं । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
तित्थयरणामकम्मस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ५१ ॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिट्टी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥५२॥ तित्थयरबंधस्स उदयादो पुव्वं पच्छा वोच्छेदो होदि त्ति सण्णिकासो णस्थि, तित्थयर
..............................
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष नारकी जीव अबन्धक हैं ॥ ५० ॥
इस सूत्रसे सूचित अर्थको प्ररूपणा करते हैं - यहां बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार नहीं है, क्योंकि, बन्धको छोड़कर नारकियोंमें इसके उदय नहीं रहता है । मारकी जीव इसे परोदयसे बांधते हैं, क्योंकि, नरकगतिमें मनुष्यायुके उदयका विरोध है । निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, एक समयमें इसके बन्धका विश्राम नहीं होता। मिथ्या दृष्टिके उनचास प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका यहां अभाव है । सासादनके चवालीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके चालीस प्रत्यय होते हैं। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है । मनुष्यायुको नारकी जीव मनुष्यगतिले संयुक्त बांधते हैं। नारकी जीव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्स्थान सुगम हैं। इसका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, यह अध्रुवबन्धी प्रकृति है।
तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ५१ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष नारकी अबन्धक हैं ॥ ५२ ॥ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका उदयसे पूर्व अथवा पश्चात् व्युच्छेद होता है, इस प्रकार
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१०.१ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ५३. स्सेत्थुदयाभावादो । तेणेव परोदओ बंधो। णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। पच्चया दंसणविसुज्झदा लद्धिसंवेगसंपण्णदा अरहंत-बहुसुद-पवयणभत्तिआदओ । मणुसगदिसंजुत्तं । णेरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
एवं तिसु उवरिमासु पुढवीसु णेयव्वं ॥ ५३॥
एदं बंधसामित्तं सामण्णं] पडुच्च उत्तं। विसेसे पुण अवलंबिज्जमाणे भेदो अत्थि । तं भणिस्सामो- मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं सांतर-णिरंतरो मिच्छाइट्ठिम्हि पढमाए पुढवीए बंधो णत्थि, सांतरो चेव; तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमभावादो । बिदियदंडयम्हि [तिरिक्खगइ-] तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो णत्थि, सांतरो चेव, सत्तमपुढवि मुच्चा अण्णत्थ णिरयगदीए एदासिं णिरंतरबंधाभावादो । एसो भेदो पढम-बिदिय-तदियपुढवीसु । बिदिय-तदियपुढवीसु उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदओ चेव बंधो, तत्थ अपज्जत्तकाले असंजदसम्माइट्ठीणं अभावादो। मणुसगइदुगं तित्थयरसंत
तुलना यहां नहीं है, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिका यहां नारकियों में उदय नहीं होता। इसी कारण इसका परोदयसे बन्ध होता है । वन्ध इसका निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयमें इसके बन्धका विश्राम नहीं होता। इसके प्रत्यय दर्शनविशुद्धता, लब्धि-संवेगसम्पन्नता, अरहन्तभक्ति, बहशतभक्ति और प्रवचनभक्ति आदिक है । मनुष्य
मनुष्यगतिसे संयुक्त इसका बन्ध होता है । नारकी जीव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । इसका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, यह अध्रुवबन्धी प्रकृति है ।
इस प्रकार यह व्यवस्था उपरिम तीन पृथिवियोंमें जानना चाहिये ॥ ५३ ॥
यह बन्धस्वामित्व [सामान्यको ] अपेक्षासे कहा गया है। किन्तु विशेषताका अवलम्बन करनेपर भेद है । उसे कहते हैं- मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध प्रथम पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर नहीं है, किन्तु सान्तर ही है; क्योंकि यहां तीर्थकर प्रकृतिके सत्ववाले मिथ्यादृष्टि नारकी जीव नहीं होते हैं । द्वितीय दण्डकमें (?) [तिर्यग्गति],तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंका सान्तर-निरन्तर बन्ध नहीं होता, किन्तु सान्तर ही होता है क्योंकि सप्तम पृथिवीको छोड़कर अन्यत्र नरकगतिमें इन प्रकृतियों के निरन्तर बन्धका अभाव है। यह भेद प्रथम, द्वितीय और तृतीय पृथिवियोंमें है। द्वितीय और तृतीय पृथिवियोंमें उपधात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर, इन प्रकृतियोंका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तकालमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अभाव है। मनुष्यगति और
१ प्रतिषु ' -भत्ते आदओ' इति पाठः ।
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३, ५४.] सत्तमपुढबीए बंधसामित्तपरूवणा
[ १०५ कम्मियमिच्छाइट्ठीणं णिरंतरं, सेसाणं सांतरं। असंजदसम्मादिहिस्स चालीस पच्चया, वेउब्वियमिस्सकम्मइयपच्चयाणमभावादो । एत्तिओ चेव भेदो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि ।
चउत्थीए पंचमीए छट्टीए पुढवीए एवं चेव णेदव्वं । णवरि विसेसो तित्थयरं णत्थिं ॥ ५४ ॥
__तित्थयरस्स बंधो किमिदि णत्थि त्ति उत्ते तित्थयरं बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतूण तित्थयरसंतकम्मेण सह बिदिय-तदियपुढवीसु व उप्पज्जमाणाणमभावादो। एदेणेव कारणेण मणुसगइदुगं मिच्छादिट्ठी सांतरं बंधइ । णत्थि अण्णो भेदो।
सत्तमाए पुढवीए णेरइया पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीयसादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछापंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंडाण-ओरा
मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी तीर्थकर प्रकृतिकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टियोंके निरन्तर बंधती हैं, शेष नारकियोंके सान्तर बंधती हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिके चालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका यहां अभाव है। इतना ही भेद है, अन्यत्र कहीं और कोई भेद महीं है।
चतुर्थ, पंचम और छठी पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि इन पृथिवियोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है ॥ ५४ ॥
शंका-तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध यहां क्यों नहीं होता?
समाधान- इस शंकाके होनेपर उत्तर देते हैं कि जिस प्रकार तीर्थंकर प्रकृतिको बांधनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्ताके साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियोंमें उत्पन्न नहीं होते। इसी कारणसे ही मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको मिथ्यादृष्टि सान्तर बांधते हैं। और कोई भेद नहीं है।
सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता और असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग,
१ घम्मे तित्थं बंधदि बंसामेघाण पुण्णगो चेव । गो. क. १०६. पंकाइसु तित्थयरहीणो । क. अं. ३, ६. क.बं. १४.
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१०६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ५५. लियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुवउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीरथिराथिर-[सुहा-] सुह-सुगम-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो? ॥ ५५ ॥
सुगमं ।
मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ ५६ ॥
एदेण देसामासियसुत्तेण सूइदत्थपरूवणं कस्सामो- एत्थ उदयादो बंधो पुत्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, एत्थ तस्स असंभवादो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइय-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-तस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुभासुभ-अजसकित्ति-णिमिण पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एदेसिं धुवोदयत्तादो । णिद्दापयला-सादासाद-बारसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदओ बंधो, अद्धवोदयत्तादो । उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदय-परोदओ बंधो । सेसेसु
वर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥५५॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥५६॥
इस देशामर्शक सूत्रके द्वारा सूचित अर्थको प्ररूपणा करते हैं- यहां उदयसे बन्ध पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है; क्योंकि, यहां उसकी सम्भावना नहीं है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर, इनका मिथ्या
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३, ५६. ]
सत्तमढवी बंधसामित्त परूवणा
सोदओ चेव, सिमेत्थ अपज्जत्तकाले अभावादो । पुरिसवेद - ओरालियसरीर-समचउरससंठाणओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण -पसत्थविहाय गइ - सुभग- सुस्सर - आदेज्ज-जस कित्तीर्ण परोदओ वंधो, एदेसिमुदयस्स एत्थ विरोहादो ।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय - बारहकसाय-भय- दुगुंछा - पंचिंदियजादिः -ओरालियतेजा-कम्मइयसरीर-ओरालिय सरीरअंगोवंग-वण्णचउक्क - अगुरुवलहुव-उवघाद - परघाद-उस्सासतस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर - णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादासाद-ह्रस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर - सुभासुभ-जसकित्ति - अजस कित्तीणं सांतरो बंधो, सव्वगुणट्ठाणेसु एदासिमेगाणेगसमयबंधसंभवादो । पुरिसवेद- समचउरससंठाण वज्जरिसहसंघडण -पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर- आदेज्जाणं मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्टीसु सांतरा बंधो, एगाणेगसमयबंधसंभवादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडीं धाभावाद |
एदाओ यडीओ बंधतमिच्छाइट्ठिस्स मूलपच्चया चत्तारि । णाणासमयउत्तरपच्चया
- [ १०७
दृष्टि गुणस्थान में स्वोदय- परोदय बन्ध होता है । शेष गुणस्थानों में स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिको छोड़कर शेष गुणस्थान यहां अपर्याप्तकालमें नहीं होते । पुरुषवेद, औदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्ति प्रकृतियोंका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके उदयका यहां विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये प्रकृतियां यहां ध्रुवबन्धी हैं । साता व असातावेदनीय, हास्य, रति, अराति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सब गुणस्थानों में इनका एक और अनेक समय तक बन्ध सम्भव है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय, इन प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका एक-अनेक समय तक बन्ध सम्भव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है ।
इन प्रकृतियोंको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि नारकी के मूल प्रत्यय चार, नाना समय
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१०८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ५६. एक्कवंचास । एगसमइयजहण्णुक्कस्सपच्चया दस अट्ठारस । सासणसम्मादिट्ठिस्स मूलपच्चया तिण्णि, णाणासमयउत्तरपच्चया चउवेत्तालीस, एगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया दस सत्तारस । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मूलपच्चया तिषिण, उत्तरपच्चया चालीस, एगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया णव सोलस ।
____एदाओ सव्वपयडीओ मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो च तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधंति, सम्मामिच्छादिट्टि-असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तमुभयत्थ अण्णगईणं बंधाभावादो । णेरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइय-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउब्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसगुणट्ठाणेसु धुवबंधो पत्थि, बंधवोच्छेदमकुणमाणसासणादीणमभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सव्वगुणट्ठाणेसु सादिअदुवो, अद्धवबंधित्तादो ।
सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय इक्यावन, तथा एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय दश और अठारह होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिके मूल प्रत्यय तीन, नाना समय सम्बन्धी उत्तर प्रत्यय चवालीस और एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय दश और सत्तरह होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें मूल प्रत्यय तीन, उत्तर प्रत्यय चालीस, तथा एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय नौ और सोलह होते हैं ।
इन सब प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं, तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, दोनों जगह अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है । नारकी जीव इनके बन्धके स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं ।
___ पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। शेष गुणस्थानोंमें ध्रुव बन्ध नहीं है, क्योंकि, इनके बन्धव्युच्छेदको न करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि आदिकोंका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सब गुणस्थानोंमें सादि और अध्रुव होता है, क्योंकि, वे प्रकृतियां अध्रुवबन्धी हैं।
१ प्रतिषु ' मूलपयडी' इति पाठः । २ प्रतिषु · मिच्छाइवीहि ' इति पाठः ।
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३, ५८. ]
सत्तमपुढवीए बंधसामित्तपरूवणा. णिद्दाणिदा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ इत्थिवेद-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ५७ ॥ - सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ५८ ॥
एदस्स अत्थो उच्चदे- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, सासणे चेव दोण्णं वोच्छेदुवलंभादो । अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणसम्मादिष्टिम्हि बंधे वोच्छिण्णे संते पच्छा असंजदसम्मादिट्टिम्हि उदयवोच्छेदुवलंभादो । थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउ
ज
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ५७॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ५८॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- अनन्तानुवन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें ही दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्धके व्युच्छिन्न होजानेपर तत्पश्चात् असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदयका ब्युच्छेद पाया जाता है। स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्मतिप्रायो
१ अ-आप्रत्योः ' असंजद दिवीहि ', काप्रती ' असंजदसम्माइट्टीहि ' इति पाठः ।
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११०]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३,५८०
संघडण - तिरिक्खगइंपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवाणं पुव्वं पच्छा बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, एदासमेत्थ उदयाभावादो |
अनंताणुबंधिच उक्कस्स सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवीदयत्तादो । अप्पसत्थविहायगइदुस्सराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदय - परोदएण बंधो, अपज्जत्तकाले एदासिमुदयाभावादो । सासणे सोदएणेव बंधो, तस्सेत्थ अपज्जत्तकालाभावा दो । दुभग-अणादेज्ज - णीचागोदाणं सोदणेव बंधो, धुवोदयत्तादो । श्रीणगिद्धितिय इत्थवेद - तिरिक्खगइ चउसठाण च उसंघडण - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोवाणं परोदएणेव बंधो । कुदो ? विस्ससादो ।
थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिच उक्क तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी - णीचा - गोदाणं णिरंतरो बंधो । कुो ? एत्थ धुवबंधित्तादो । सेसाणं सांतरो, एगसमएण हि' बंधवोच्छेदुवलंभादो | पच्चया चउट्ठाणपयडिपच्चयसमा । एदाओ सव्वपयडीओ तिरिक्खगइसंजुत्त धति । रइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । श्रीणगिद्धितिय -अणंताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउन्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो | सासणम्मि सादि - अद्भुवा । साणं
ग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनके पूर्व में या पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेद होनेका विचार नहीं है, क्योंकि, यहां इनके उदयका अभाव है ।
अनन्तानुबन्धिचतुष्कका स्वोदय-परोदय से बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं । अप्रशस्तविहायोगति और दुस्वरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय- परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनका उदय नहीं रहता । सासादन गुणस्थानमें स्वोदयसे ही इनका बन्ध होता है, क्योंकि, इस गुणस्थानका यहां अपर्याप्तकालमें अभाव है। दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्र, इनका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, ये प्रकृतियां ध्रुवोदयी हैं । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनका परोदयसे ही वन्ध होता है। इसका कारण स्वभाव ही है ।
स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्र, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां वे ध्रुवबन्धी हैं। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धव्युच्छेद पाया जाता है। प्रत्ययोंकी प्ररूपणा चतुस्थानिक प्रकृतियोंके समान है । इन सब प्रकृतियोंको तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं। नारकी जीव इनके बन्धके स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। सासादनगुणस्थानमें
१ प्रतिषु हि पदं नोपलभ्यते, मप्रतौ तु समुपलभ्यते तत् ।
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१, ६१.] सत्तमपुढवीए बंधसामित्तपरूवणा
[ १११ पयडीणं बंधो सव्वत्थ सादि-अद्भुवो, अद्भुवबंधित्तादो ।
मिच्छत्त-णवंसमवेद-तिरिक्खाउ-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ५९ ॥
सुगम ।
मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ६०॥
एदस्स वक्खाणं णिरओघएगट्ठाणियवक्खाणतुलं । णवरि तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधदि त्ति वत्तव्यं ।
मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-उच्चागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६१ ॥
सुगमं ।
सादि व अध्रुव बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यगायु, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसपाटिकाशरीरसंहनन प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ५९॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ६०॥
इस सूत्रका व्याख्यान नारकसामान्यकी एकस्थानिक प्रकृतियोंके व्याख्यानके समान है। विशेष इतना है कि [यहां सातवीं पृथिवीमें] तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं, ऐसा कहना चाहिये।
मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ६१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
१ प्रतिषु — एगट्ठाणाणिय-' इति पाठः ।
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ए
११२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६२. सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा॥ ६२॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- एत्थ बंधादो उदओ पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णस्थि, एदासिमेत्थ उदयाभावादो । एदासिं परोदएणेव बंधो, गिरयगदीए उदयाभावादो । णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुक्रमाभावादो । पच्चया चउहाणियपयडिपच्चयतुल्ला । मणुसगइसंजुत्तं सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो बंधंति । णेरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । सादि-अद्धवबंधो, अद्धवबंधित्तादो सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिणिव्वाणुवगमणे णियमादो वा।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादासाद-अट्ठकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि अरदि-सोग-भय-दुगुंछादेवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण
सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष गुणस्थानवर्ती अबन्धक हैं ॥ ६२॥
- इसका अर्थ कहते हैं- बन्धसे उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या पश्चात्, यह विचार यहां नहीं हैं, क्योंकि, इनका यहां उदय नहीं है। इनका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, नरकगतिमें इनके उदयका अभाव है । बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धका विश्राम नहीं होता। इनके प्रत्यय चतुस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययोंके समान हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि वे अधुववन्धी हैं; अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके मुक्तिगमनमें नियम होनेसे भी सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
. तिर्यग्गतिमें तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक तैजस
१ मिस्साविरदे उच्चं मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो। मिच्छा सासणसम्मा मणुवदुगुच्चं ण बंधंति ।। गो. क. १०७.
२ अ-काप्रत्योः ‘णियमाभावादो' इति पाठः।
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३, ६४.] तिरिक्खगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं [११३ वेउव्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण गंध-रस-फास-देवगदिपाओग्गाणुपुवीअगुरुवलहुव -उवघाद-परघाद--उस्सास-पसत्थविहायगइ--तस-बादर-- पज्जत्त-पत्तेयसरीर-[थिरा-] थिर-सुहासुह सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६३ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ ६४॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-देवगइ-वेउव्वियसरीर वेउब्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवि-उच्चागोदाणं तिरिक्खेसु उदयाभावादो पुवं पच्छा बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णिकासविरोहादो । अवसेसपयडीसु वि एस विचारो णत्थि, अत्थगदीए एदासिं बंधोदयवोच्छेदाभावादो । पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-[ थिरा-] थिर-सुभासुभ णिमिण-पंचंतराइयाण सोदओ
व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ६३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ ६४॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र, इनका तिर्यचोंमें उदय न होनेसे बन्धोदयव्युच्छेदकी पूर्वापरताका विचार नहीं है, क्योंकि, सत् और असत्की समानताका विरोध है। शेष प्रकृतियों में भी यह विचार नहीं है, क्योंकि, अर्थगतिसे इनके बन्धोदयव्युच्छेदका अभाव है।
पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, वैक्रियिक तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय,
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११४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
बंधो, धुवोदयत्तादो । गिद्दा - पयला - सादा साद - अडकसाय- पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भयदुर्गुछा- समचउर संसंठाण-पसत्थविहाय गइ सुस्सराणं सव्वट्टाणेसु सोदय - परोदओ बंधो । णवरि जोणिणी पुरिसवेदबंधो परोदओ । उवघादबंधो मिच्छादिडि सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं सोदय- परोदओ, विग्गहगदीए उवघादस्सुदयाभावादो । सम्मामिच्छादिडि-संजदासंजदाणं सोदओ चेव, तेसिमपज्जत्तकालाभावादो । परघादुस्सास - पत्तेयसरीराणं मिच्छादिट्ठिीसासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय- परोदओ, एदासिमपज्जत्तकाले उदयाभावादो | सदगुणट्ठाणेसु सोदओ बंधो। णवरि जोणिणीसु असंजदसम्मादिट्टी एदाओ सोदणेव बंधदि, तत्थेदस्स अपज्जत्तकालाभावादो । तस - बादर पज्जत पंचिंदियजादीओ मिच्छाइट्ठी सोदय- परोदएण बंधइ, पडिवक्खपयडीणं उदयसंभवादो । अवसेसा सोदणेव, तत्थ पडिवक्खपयडीणमुदयाभावादो । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु सोदणेव सव्वगुणट्ठाणेसु बंधो, एत्थ पडिवक्खपयडीणमुदयाभावादो | णवरि पंचिंदियतिरिक्खेसु मिच्छाइडीणं पज्जत्तस्स सोदय- परोदओ बंधो, तत्थ पडिवक्खपयडीए उदयसंभवादो । सुभगादेज्ज-जस कित्तीणं मिच्छादिट्टि - सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि
[ ३, ६४.
इनका सोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। निद्रा, प्रचला, साता व असातावेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्स्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वर, इनका सब गुणस्थानों में स्वोदय- परोदय बन्ध होता है । विशेष इतना है कि योनिमती तिर्यचों में पुरुषवेदका बन्ध परोदयसे होता है । उपघातका बन्ध मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उपघातका उदय नहीं होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों के स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनके अपर्याप्तकालका अभाव है । परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका बन्ध मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंका अपर्याप्तकालमें उदय नहीं होता । शेष दो गुणस्थानोंमें स्वोदय बन्ध होता है । विशेषता यह है कि योनिमतियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव इन्हें स्वोदयसे ही बांधता है, क्योंकि, योनिमतियों के अपर्याप्तकालमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका अभाव है । त्रस, बादर, पर्याप्त और पंचेन्द्रिय जाति, इनको मिथ्यादृष्टि जीव स्वोदय-परोदय से बांधता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का उदय सम्भव है । शेष गुणस्थानवर्ती स्वोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि.. 'उन गुणस्थानों में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंमें स्वोदयसे ही सब गुणस्थानोंमें बन्ध होता है, क्योंकि, इनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है । विशेषता यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें मिथ्यादृष्टियोंके पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय सम्भव है । सुभग, आदेय और यशकीर्तिका बन्ध मिक्ष्या
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३, ६४. ]
तिरिक्खगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं
[ ११५
असं जद सम्मादिडीसु बंधो सोदयपदिओ, एत्थ पडिवक्खुद यदंसणादे । संजदासंजदेसु सोदओ चेव, तत्थ पडिवक्खाणमुदयाभावादो । मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिङि-सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु अजसकित्तीए बंधो सोदय- परोदओ, एत्थ पडिवक्खुदयदंसणादो । संजदासंजदेसु परोदओ, तत्थ पडिवक्खपयडीए चेव उदयदंसणादो । देवगदि वे उव्वियसरीरवेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी उच्चागोदाणं परोदओ बंधो, एदासिमेत्थ उदय
विरोहादो |
पंचणाण/वरणीय-छदंसणावरणीय अट्ठकसाय-भय- दुर्गुछा- तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंधरस-फास - अगुरुगलहुव-उववाद- णिमिण-पंचं तराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सादासादहम्म रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जसकित्ति - अजसकित्तीणं सांत बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठि - सासणेसु सांतरा णिरंतरो च बंधो, पम्म-सुक्क - लेस्सिएस निरंतरबंध दंसणादो | सगुणड्डाणेसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो | पंचिं
दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है। संयतासंयतोंमें इनका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में अयशकीर्तिका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका भी उदय देखा जाता है । संयतासंयतों में उसका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतिका ही उदय देखा जाता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र, इनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यचों में इनके उदयका विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कवाय, भय, जुगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम देखा जाता है । पुरुषवेदका मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर व निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है। शेष गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है ।
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१९६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ६४. दिय-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो, तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिएसु णिरंतरबंधदंसणादो। सेसुवरिमगुणहाणेसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। समचउरससंठाणस्स बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, असंखेज्जवासाउएसु तेउ-पम्मसुक्कलेस्सियसंखेज्जवासाउएसु च णिरंतरबंधदसणादो । उपरिमगुणेसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । परघादुस्सासाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो बंधो, अपज्जत्तसंजुत्तबंधायावादो तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिएसु संखेज्जवासाउएसु असंखेज्जवासाउएसु च णिरंतरबंधदसणादो । उवरिमगुणेषु णिरंतरो बंधो, तत्थ अपज्जत्तस्स बंधाभावादो। पसत्थविहायगईए मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, सुहतिलेस्सियसंखेज्जासंखेज्जवासाउएसु णिरंतरबंधदंसणादो। उवरिमगुणेसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। सुभ-सुस्सर-आदेज्जाणं मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, सुहतिलेस्सियसंखेज्जासंखेज्जवासाउएसु णिरंतरबंधदसणादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । देवगदिदुग-वेउब्बियदुग
पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवों में इनका निरन्तर बन्ध देखा जाता है। शेष उपरिम गुणस्थानोंमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। समचतुरस्रसंस्थानका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क और तेज, पदम एवं शुक्ल लेश्यावाले तिर्यचोंके इन गुणस्थानोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है। उपारम गुणस्थानोंमें उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । परघात और उच्छ्वास प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तके बन्धसे संयुक्त इनके बन्धका अभाव होनेसे तेज, पद्म एवं शुक्ल लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुप्कों में निरन्तर बन्ध देखा जाता है। उपरिम गुणस्थानों में दोनों प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्तके बन्धका अभाव है। प्रशस्तविहायोगतिका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्ढाष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्कोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है । उपरिम गुणस्थानों में उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । शुभ, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्कोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिक
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१ प्रतिष 'मिच्छाइष्टीहि ' इति पाठः ।
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तिरिक्खगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्त
[ ११७
उच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठि - सासणेसु सांतर- णिरंत बंधो, सुहतिलेस्सिय संखेज्जासंखेज्जवासाउएसु निरंतर बंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो बंधो ।
"
६४. 1
तिरिक्खेसु मिच्छाइडीणं मूलपच्चया चत्तारि । उत्तरपच्चया तेवंचास, वेव्वियवेउब्वियमिस्सपच्चयाणमभावादो | णवरि देवगइचउक्कस्स एक्कवंचास पच्चया, वेउब्वियवेउब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावाद । ऐगसमय जहण्णुक्कस्सपच्चया दस अट्ठारस 1 सासणस्स मूलपच्चया तिण्णि, उत्तरपच्चया अत्तालीस । वेउव्वियचउक्कस्स छाएत्तालीस, पुञ्चिल्लाणं चेवाभावादो । एगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया दस सत्तारस । सम्मामिच्छाइडि- असंजदसम्मादिडीणं मूलोघपच्चया चेव । णवरि सम्मामिच्छा
हि वेउव्वयकायजोगो असंजदसम्मादिट्ठिम्हि वेउब्विय-वेउब्वियमिस्साजोगा अवणेदव्वा । संजदासंजदे ओघपच्चया चेव । एवं चउव्विहाणं पच्चयपरूवणा कदा | णवरि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु पुरिस - णवुंसयपच्चया अवणेदव्वा । असंजदसम्माइट्ठिम्हि ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा ।
शरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और उच्चगोत्रका मिध्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुष्कों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है ।
तिर्यचों में मिथ्यादृष्टियोंके मूल प्रत्यय चार होते हैं । उत्तर प्रत्यय तिरेपन होते हैं, क्योंकि, यहां वैकियिक और वैकिथिकमिश्र प्रत्ययोंका अभाव है । विशेष इतना है कि 'देवगतिचतुष्कके इक्यावन प्रत्यय होते है, क्योंकि, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है । एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमसे दश और अठारह होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टिके मूल प्रत्यय तीन और उत्तर प्रत्यय अड़तालीस होते हैं । वैक्रियिकचतुष्कके उत्तर प्रत्यय छ्यालीस होते हैं, क्योंकि, पूर्वोक्त प्रत्ययों का ही अभाव रहता है। एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमसे दश और सत्तरह होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिके मूलोघ प्रत्यय ही होते हैं । विशेषता यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में वैक्रियिककाययोग और असंयतसम्यग्दृष्टिमें वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र योगोंको कम करना चाहिये । संयतासंयत गुणस्थान में ओघ प्रत्यय ही होते हैं । इस प्रकार चार प्रकारके तिर्यचों के प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की है । विशेषता यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में पुरुषवेद और नपुंसक वेद प्रत्यय कम करना चाहिये । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययको कम करना चाहिये ।
१ अप्रतावतः प्राक् ' णवरि देवगरच उक्कस्स ' इत्यधिकः पाठः
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१९८] . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६४. पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-अट्ठकसाय-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादितेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवधाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्ताणं, सासणो णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्ताणं, सेसा देवगइसंजुत्ताणं बंधया । सादावेदणीय-हस्स-रदीओ मिच्छाइट्ठी सासणो च णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं बंधति। एवं जसकित्तिं पि बंधंति', विसेसाभावादो। असादावेदणीय-अजसकित्तीओ मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्त, सासणो तिगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं । पुरिसवेदं मिच्छाइट्ठी सासणो च णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं बंधंति । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग सुस्सर-आदेज्जाणमेवं चेव वत्तव्यं । देवगदि देवगदिपाओग्गाणुपुबीओ सब्वे देवगइसंजुत्तं बंधंति । [वेउबियसरीर-] वेउब्वियसरीरअंगोवंगाणि मिच्छाइट्ठी देव-णिरयगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं । थिर-सुभाणं सादभंगो । अथिर-असुहाणं असादभंगो । उच्चागोद मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठिणो देव मणुसगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं बंधंति ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कवाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात. उच्छवास, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इन प्रकृतियोंके मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त; सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, और शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बन्धक हैं । सातावेदनीय, हास्य और रतिको मिथ्या दृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । इसी प्रकार यशकीर्तिको भी वांधते हैं, क्योंकि, इसके कोई विशेषता नहीं है। असातावेदनीय और अयशकीर्तिको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादन तीन गतियोंसे संयुक्त, और शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। पुरुषवेदको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त और शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंका गतिसंयोग भी इसी प्रकार कहना चाहिये । देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सब देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगको मिथ्यााष्टि देव व नरकगतिसे संयुक्त तथा शेष देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । स्थिर और शुभ प्रकृतियोंका गतिसंयोग सातावेदनीयके समान है । अस्थिर और अशुभ प्रकृतियोंका गतिसंयोग असातावेदनीयके समान है । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त, तथा शेष तिर्यंच देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं।
१ प्रतिषु — जसकित्तिं हि बंधं पि' इति पाठः ।
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३, ६६. ]
तिरिक्खगदीए णिहाणिद्दादणि बंधसामित्तं
[ ११९
सव्वासिं पयडीणं बंधस्स तिरिक्खा चैव सामी । बंधद्वाणं बंधविणट्टट्ठाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय अडकसाय-भय-दुगुंछा - तेजा कम्मइय-वण्ण-गंध-रस - फासअगुरुवलहुव-उववाद- णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइडिम्हि चउव्विहो बंधो, सेसेसु तिविहो, ध्रुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सादि-अद्भुवा ।
णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थीणगिद्धि - अणताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ- इथिवेद-तिरिक्खाउ- मणुसाउ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-ओरालियसरीर- चउसंठाण - ओरालियसरीर अंगोवंग-पंच संघडण -तिरिक्खगइमणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव - अप्पसत्थविहायगइ - दुभग- दुस्सरअणादेज्ज - णीचा गोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६५ ॥
सुगममेदं ।
मिच्छाडी सासणसम्माइट्टी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ६६ ॥
सब प्रकृतियों के बन्धके तिर्यच हो स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय व नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ६५ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ६६ ॥
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१२० छपखंडागमे बंधसामित्तयिचओ
[३, ६६. एदेण सूइदत्थाण परूवणा कीरदे - थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-ओरालियसरीर-चउसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सर-णीचागोदाणं तिरिक्खगईए उदयवोच्छेदो णत्थि, सासणे बंधवोच्छेदो चेव । णवरि तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुबीए' पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो पच्छा उदओ, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि उदयवोच्छेदादो । अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, सासणसम्मादिहिचरिमसमयम्हि उभयवोच्छेददंसणादो । मणुसाउ-मगुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं तिरिक्खगईए उदओ चेव णत्थि, विरोहादो। तेणेदासिं बंधोदयाणं पुवं पच्छा वोच्छेदविचारो णत्थि । दुभग-अणादेज्जाणं पुव्वं बंधो वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, सासणे वोच्छिण्णबंधाणं अजंदसम्मादिविम्हि उदयवोच्छेददंसणादो ।
थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-चउसंठाण-पंचसंघडण-उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्जाणं सोदय-परोदएहि बंधो । णवरि तिरिक्खजोणिणीसु इत्थिवेदस्स सोदएणेव बंधो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-णीचागोदाणं सोदएणेव बंधो । मणुस्साउ
साथ
राधिका
इसके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं-स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुखर और नीचगोत्र, इनका तिर्यग्गतिमें उदयव्युच्छेद नहीं है, सासादनगुणस्थानमें केवल बन्धव्युच्छेद ही है। विशेष इतना है कि तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योंकि [सासादनगुणस्थानमें बन्धके नष्ट हो जानेपर तत्पश्चात् ] असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदयका व्युच्छेद होता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों
होते हैं, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टिके चरम समयमें दोनोंका व्यच्छेद देखा जाता है । मनुष्यायु और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका तिर्यग्गतिमें उदय ही नहीं है, क्योंकि, वहां इनके उदयका विरोध है । इसी कारण इनके बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार नहीं है । दुर्भग और अनादेयका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योंकि सासादनगुणस्थानमें इनके बन्धके नष्ट हो जानेपर असंयतसम्यग्दृष्टि में उदयका व्युच्छेद देखा जाता है।
__ स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, चार संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय, इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है । किन्तु विशेष इतना है कि तिर्यंच योनिमतियोंमें स्त्रीवेदका स्वोदयसे ही बन्ध होता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गति और नीचगोत्रका स्वोदयसे ही बन्ध होता है ।
१ प्रतिषु 'तिरिक्खगइपाओग्गाशुपुवी' इति पाठः ! २ प्रतिषु 'सासणो' इति पाठः ।
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३, ६६. ] तिरिक्खगदीए णिहाणिद्दादीणं बंधसामित्तं
[१२१ मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं परोदएणेव बंधो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं सोदय-परोदएण बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावादो । तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवीए वि सोदयपरोदएण बंधो, विग्गहगदीए विणा अण्णत्थ उदयाभावादो ।
थीणगिद्धित्तिय-अणताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । इत्थिवेदमणुसगइ-चउसंठाण-पंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभगदुस्सर-अणादेज्जाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो। तिरिक्खाउ-मणुस्साउआणं णिरंतरो बंधो, जहण्णेण वि एगसमयबंधाणुवलंभादो । तिरिक्खगइ-ओरालियदुग-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो, तेउ-वाउकाइयाणं तेउ-वाउकाइय-सत्तमपुढवीणेरइएहितो आगंतूण पंचिंदियतिरिक्ख-तप्पज्जत-जोणिणीसु उप्पण्णाणं सणक्कुमारादिदेव-णेरइएहिंतो तिरिक्खेसुप्पण्णाणं च णिरंतरबंधदसणादो। णवरि सासणे सांतरो चेव, तस्स तेउ-वाउकाइएसु अभावादो सत्तमपुढवीदो तग्गुणेण णिग्गमणाभावादो च । ओरालियदुगस्स
मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदयसे बन्ध होता है।
औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनका उदय नहीं रहता। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका भी खोदय-परोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिको छोड़कर अन्यत्र उसके उदयका अभाव है।
स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी हैं । स्त्रीवेद, मनुष्यगति, चार संस्थान, पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय, इनका सान्तर बन्ध होता है. क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम देखा जाता है । तिर्यगायु और मनुष्यायुका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, जघन्यसे भी इनका एक समय बन्ध नहीं पाया जाता। तिर्यग्गति, औदारिकद्विक, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्र, इनका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेजकायिक व वायुकायिकोंके तथा तेजकायिक, वायुकायिक व सप्तम पृथिवीके नारकियोंमेंसे आकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच और उसके पर्याप्त व योनिमतियों में उत्पन्न हुए जीवोंके, और सनत्कुमारादि देव व नारकियोंमेंसे तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके भी इनका निरन्तर बन्ध देखा जाता है। विशेषता यह है कि सासादन गुणस्थानमें सान्तर ही बन्ध होता है, क्योंकि, वह गुणस्थान तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमें होता नहीं है, तथा सप्तम पृथिवीसे इस गुणस्थानके साथ निर्गमन भी नहीं होता । औदारिकद्विकका
१ काप्रतौ -तिरिक्खसपज्जत्त- ' अ-आप्रत्योः ‘तिरिक्खतसपज्जत्त-' इति पाठः।
२ प्रतिघु ' उप्पण्णाणं ओरालियसरीरअंगोवंग सणक्कुमारादि-' इति पाठः। रु.बं. १६.
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१२२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६६. सांतर-णिरंतरो।
एदासिं पच्चया सव्वगुणेसु पंचट्ठाणियपयडिपच्चएहि तुल्ला । णवरि तिरिक्खमणुस्साउआणं मिच्छाइटिम्हि कम्मइयपच्चओ णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु ओरालियभिस्स-कम्मइयपच्चया णस्थि । च उबिहेसु तिरिक्खेसु सासणे ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया णस्थि, अपज्जत्तकाले तस्साउबंधाभावादो ।
थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिच उक्काणं भिच्छाइट्ठी च उगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं बंधओ । इत्थिवेदं णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, मणुसाउ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीओ मणुसगइसंजुत्तं, तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, औरालियसरीर-च उसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुतं, अप्पसत्य - विहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि देवगदीए विणा तिगइसंजुत्तं बंधति । एदासिं पयडीणं बंधस्स तिरिक्खा सामी । बंधद्धाणं बंधविणठ्ठाणं च सुगमं । थीणगिद्धितियअणताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउबिहो बंधो । सासणे दुविहो, अणादि-धुवा
सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है ।
इन प्रकृतियोंके प्रत्यय सब गुणस्थानों में पंचस्थानिक प्रकृतियोंके समान है। विशेषता केवल यह है कि तिर्यगायु और मनुष्यायुका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें कार्मण प्रत्यय नहीं होता। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियों में औदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्यय नहीं होते। चार प्रकारके तिर्यंचों में सासादन गुणस्थानमें औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्यय नहीं होते, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उसके आयुका बन्ध नहीं होता ।
स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कके मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त और सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बन्धक है । स्त्रीवेदको नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, मनुष्यायु एवं मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको मनुष्यगतिसे संयुक्तः तिर्यगायु, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको तिर्यचगतिसे संयुक्त; औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग और पांच संहननको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त; तथा अप्रशस्तविहायोगात, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको देवगतिक विना तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं। इन प्रकृतियोंके वन्धके तिर्यंच स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबधिचतुष्कका मिथ्यावृष्टि गणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है। सासादन गणस्थान में दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका
१ प्रतिपु' इत्थिवेद-' इति पाठः । २ प्रतिषु — अपज्जत्त- ' इति पाठः । .
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३, ६८.] तिरिक्खगदीए मिच्छत्तादीणं बंधसामित्तं
[ १२३ भावादो । सेसपयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
मिच्छत्त-णqसयवेद-णिरयाउ--णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुवि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त साहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६७ ।।
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ६८ ॥
एदस्स अत्थो वुञ्चदे- मिच्छत्त-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-आदावथावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, मिच्छाइटिं मोत्तूणेदासिं उवरिमेसु उदयाभावादो। णबुंसयवेद-हुंडसंगण-असंवत्तसेवसंघडणाणं बंधवोच्छेदो चेव णोदयस्स, सव्वगुणेसुदयदंसणादो । गिरयाउ-णिरयगइपाओग्गापुवीणं तिरिक्खगदीए उदयाभावादो पुव्वं पच्छा बंधोदयवोच्छेदविचा। णस्थि ।
बन्ध सादि व अधुध होता है, क्योंकि चे अधुववन्धी हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकाशरीरसंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकाँका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ६७॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं ॥ ६८ ।।
इसका अर्थ कहते हैं- मिथ्यात्व, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इतका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको छोड़कर उपरिम गुणस्थानों में इन प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, इनके बन्धका ही व्युच्छेद है, उदयका नहीं; क्योंकि सब गुणस्थानों में इनका उदय देखा जाता है । नारकायु और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका तिर्यग्गतिमें उदय न होनेसे इनके पूर्व या पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेद होनेका विचार नहीं है ।
१ अ-आप्रत्योः ' उदयभावादो' इति पाठः ।
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१२४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ६८. मिच्छत्तस्स सोदएणेव, णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीणं परोदएणेव, सेसाणं सोदय-परोदएहि बंधो । णवरि पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं परोदएण बंधो । पंचिंदियतिरिक्ख-[पजत्त]जोणिणीसु अपज्जत्तस्स परोदएण बंधो । जोणिणीसु णवंसयवेदस्स परोदएण बंधो । मिच्छत्तणिरयाऊणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधस्सुवरमाभावादो। सेसपयडीण बंधो सांतरो, एगसमएण बंधवरमदंसणादो । मिच्छत्त-णQसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं तेवण्ण पच्चया । जोणिणीसु एक्कावण्ण पच्चया । णिरयाउअस्स तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु एक्कावण्ण पच्चया । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु एगूणवंचास पच्चया । मिच्छत्तं चउगइसंजुत्तं, णqसयवेद-हुंडसंठाणाणि तिगइसंजुत्तं, णिरयाउ-णिरयगइणिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीओ णिरयगइसंजुत्तं, एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-आदावथावर-सुहुम-साहारणे तिरिक्खगइसंजुत्तं, असंपत्तसेवट्टसंघडणमपज्जत्तं च तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं मिच्छाइट्ठी बंधंति । एदासिं पयडीणं बंधस्स तिरिक्खा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं
मिथ्यात्वका स्वोदयसे ही; नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदयसे ही; तथा शेष प्रकृतियोंका स्वोदय-परोदयसे ही बन्ध होता है। विशेषता यह है कि पंचेन्द्रियादिक तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति,आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंका परोदयसे बन्ध होता है। पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त और योनिमतियों में अपर्याप्तका परोदयसे बन्ध होता है। योनिमतियोंमें नपंसकवेदका परोदयसे बन्ध होता है। मिथ्यात्व और नारकायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धका विश्राम देखा जाता है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनके तिरेपन प्रत्यय होते हैं । योनिमतियों में इक्यावन प्रत्यय होते हैं । नारकायुके तिर्यंच, पंचन्द्रिय तिर्यंच और पंचोन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तोंमें इक्यावन प्रत्यय होते हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में उनचास प्रत्यय होते हैं ।
मिथ्यादृष्टि तिर्यंच मिथ्यात्वको चारों गतियोंसे संयुक्त, नपुंसकवेद व हुण्डसंस्थानको तीन गतियोंसे संयुक्त; नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको नरकगतिसे संयुक्त; एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण, इनको तिर्यग्गतिसे संयुक्त; तथा असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन और अपर्याप्तको तिर्यग्गात व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। इन प्रकृतियोंके बन्धके तिर्यंच
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३, ७०.] तिरिक्खगदीए अपच्चक्खाणकोहादीणं बंधसामित्त १२५ च सुगमं । मिच्छत्तस्स सादिओ अणादिओ धुवो अद्धयो त्ति चउव्विहो बंधो । सेसाणं सादिअद्भुवो, अद्धवबंधित्तादो ।
अपच्चक्खाणकोध-माण-माया-लोभाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६९ ॥
सुगमं।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अवंधा ॥ ७० ॥
एदेण संगहिदत्थाणं पयासो कीरद-एदासिं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, दोण्हमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि विणासुवलंभादो । सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्ता । णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। पच्चया तिरिक्खाणं पंचट्ठाणियपयडिपच्चएहि तुल्ला । मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणसम्मादिट्ठी तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी देवगइसंजुत्तं
स्वामी है । बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका सादिक, अनादिक, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकारका बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक
इस सूत्रके द्वारा संगृहीत अर्थोंका प्रकाश करते हैं- इन चारों प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें दोनोंका विनाश पाया जाता है । इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वे अधुवोदयी हैं । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं। इनके प्रत्यय तिर्यंचोंके पंचस्थानिक प्रकृतियोंके समान हैं । मिथ्यादृष्टि तिर्यंच इन्हें चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि देवगतिसे संयुक्त
१ प्रतिषु 'पंचट्ठाणाणिय- इति पाठः ।
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१२६] छक्खंडागमें बंधसामित्तविचओ
[ ३, ७१. बंधंति । तिरिक्खा सामी। बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो । सेसगुणेसु तिविहो, धुवाभावादो ।
देवाउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ७१ ॥ सुगमं ।
मिच्छाइट्टी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ७२ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे-बंधोदयाणमेत्थ पुव्वं पच्छा वोच्छेदविचारो णस्थि, तिरिक्खगईए देवाउअस्स उदयाभावादो। परोदएण बंधो, बंधोदयाणमक्कमेण उत्तिविरोहादो । णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइटि-संजदासंजदाणं जहाकमेण एक्कावण्ण-छादालवादाल-सत्तत्तीसपच्चया होति । जोणिणीसु एगूणवंचास-चउवेदालीस-चालीस-पंचतीसपच्चया । सेसं सुगमं । सब्वे देवगइसंजुत्तं बंधति । तिरिक्खा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । देवाउअस्स बंधो सव्वत्थ सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
बांधते हैं । तिर्यंच जीव इनके स्वामी हैं । बन्धाध्वान और वन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध है, क्योंकि, उनमें ध्रुव बन्धका अभाव है।
देवायुका कौन बन्धक और कौन अवन्धक है ? ॥ ७१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं ॥ ७२ ॥
इसका अर्थ कहते हैं- यहां बन्ध और उदयका पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार नहीं है, क्योंकि, तिर्यग्गतिमें देवायुके उदयका अभाव है। देवायुका परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, उसके बन्ध और उदय दोनोंके एक साथ अस्तित्वका विरोध है । बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे बन्धविश्रामका अभाव है। तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंके यथाक्रमसे इक्यावल, छयालीस, ब्यालीस और सैंतीस प्रत्यय होते हैं । योनिमतियोंमें उनचास, चवालीस, चालीस और पैंतीस प्रत्यय होते हैं। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। सब तिर्यंच देवायको देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। तिर्यच स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम है । देवायुका बन्ध सर्वत्र सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी प्रकृति है।
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३, ७४. ] पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु पंचाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं
[ १२७
पंचिंदियतिरिक्खअपजत्ता पंचणाणावरणीय णवदंसणावरणीयसादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्खाउ - मणुस्साउ - तिरिक्खगइ - मणुस्सगइ - एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा - कम्मइयसरीर - छसंडाण - ओरालियसरीरअंगोवंग छ संघडण वण्ण-गंध-रस- फास-तिरिक्खगड़-मणुसगइपाओगाणुपुबी अगुरुगलहुग-उवघाद- परघाद- उस्सास -आदा उज्जीव-दोविहायगइ-तस-यावर बादर-सुहुम-पज्जत्त- पत्ते य-साहारणसरीर-थिराथिर- सुहासुह-सुगभ-[ दुभंग- ] सुस्सर दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति अजसकित्तिणिमिणणीचुच्चा गोद पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? || ७३ ॥
सुमं ।
सव्वे एदे बंधा अबंधा णत्थि ॥ ७४ ॥
थी गिद्धतिय- मणुस्सा उ-मणुस्सगइ - एइंदिय - बीइंदिय - तीइंदिय - चउरिदिंयजादि-हुंड
पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों में पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्दिय, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगे/ पांग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिव मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, प्रत्येक, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, [ दुर्भग ], सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, ऊंचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ७३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
ये सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ ७४ ॥ स्त्यानगृद्धित्रय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
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१२८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ७४. संठाणविरहिदपंचसंठाण-असंपत्तसेवसंघडणविरहिदपंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-परघादुस्सासादावुज्जोव-दोविहायगइ-थावर-सुहुम-पज्जत्त-साहारण-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-उच्चागोद-इत्थि-पुरिसवेदाणमपज्जत्तएसु' उदयाभावादो अवसेसाणं पयडीणमुदयवोच्छेदाभावादो च पुव्वं पच्छा बंधोदयवोच्छेदविचारो णस्थि ।।
पंचणाणावरणीय-च उदंसणावरणीय-मिच्छत्त-णQसयवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-अपज्जत्त-थिराथिर-सुभासुभ-दूभगअणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिण-पंचंतराइय-णीचागादाणं सोदएणेव बंधो । णिद्दा-पयला-सादासाद-सोलसकसाय-छण्णोकसायाणं सोदय-परोदएणेव बंधो, अद्धवोदयत्तादो । ओरालियसरीरहुंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-उवघाद-पत्तेयसरीराणं सोदय-परोदएण बंधो, विग्गहगदीए एदासिमुदयाभावादो । तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवीए वि सोदय-परोदएण बंधो, विग्गहगदीए चेव उदयादो। अण्णपयडीणं परोदएणेव बंधो, एत्थ एदासिमुदयाभावादो।
जाति, हुण्डसंस्थानसे रहित पांच संस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहननसे रहित पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र, स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इनका अपर्याप्तोंमें उदय न होनेसे तथा शेष प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद न होनेसे यहां बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार नहीं है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण, पांच अन्तराय और नीचगोत्र, इनका खोदयसे ही बन्ध होता है। निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय और छह नोकषाय, इनका स्वोदय-परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि ये अनवोदयी प्रकृतियां हैं। औदारिकशरीर, हण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर, इनका खोदयपरोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका भी स्वोदय-परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, उसका विग्रहगतिमें ही उदय रहता है । अन्य प्रकृतियोंका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनके उदयका अभाव है।
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१ प्रतिषु -पुरिसवेदा णqसयपज्जत्तएसु' इति पाठः । २ प्रतिषु ' रासिमुदयाभावादो' इति पाठः ।
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३, ७४.] तिरिवखअपज्जत्तेसु पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं [१२९
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो एगसमएण बंधुवरमाभावादो च । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो, तेउक्काइय-वाउक्काइएहिंतो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तकालं णिरंतरं बंधुवलंभादो, अण्णत्थ सांतरत्तदंसणादो । अवसेसाणं पयडीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो ।
___ एत्थ सव्वकम्माणं बादाल पच्चया, वेउब्विय-वेउब्बियमिस्स-इत्थि पुरिसोरालिय-मणवचिजोगाणमभावादो। णवरि तिरिक्ख-मणुस्साउआणमिगिदालीस पच्चया, कम्मइयकायजोगेण सह चोद्दसण्णं पच्चयाणमभावादो । सेसं सुगमं ।
तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-आदाउज्जोव-थावर-सुहुम-साहारणाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति । मणुस्साउमणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उच्चागोदाणि मणुसगइसंजुत्तं बझंति । कुदो ? साभावियादो । अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बझंति । सव्वासिं पयडीणं बंधस्स
पांच ज्ञानावरणयि, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं, तथा एक समयमें इनका वन्धविश्राम भी नहीं होता। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है, तथा अन्यत्र सान्तर बन्ध देखा जाता है । शेष प्रकृतियोंका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम पाया जाता है।
___ यहां सब कौके व्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, औदारिककाययोग, चार मन और चार वचन योग प्रत्ययोंका अभाव है। विशेषता यह है कि तिर्यगायु और मनुष्यायुके इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, कार्मण काययोगके साथ यहां चौदह प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है।
तियगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायाग्योनुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण, ये प्रकृतियां तिर्यंचगतिसे संयुक्त बंधती हैं । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र प्रकृतियां मनुष्यगतिसे संयुक्त बंधती हैं। इसका कारण स्वभाव ही है। शेष प्रकृति तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बंधती हैं। सब प्रकृतियोंके बन्धके तिर्यंच स्वामी हैं। ... १७.
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१३० ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
तिरिक्खा सामी । बंधद्वाणं बंधविणडाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीयमिच्छत्त-सोलसकसाय-भय- दुगुंछा - तेजा - कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क- अगुरुवलहुव-उवघादणिमिण-पंचतराइयाणं चउव्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो |
मणुसगदीए मणुस - मणुसपज्जत्त मणुसिणीस ओधं यव्वं जाव तित्थयरेति । णवरि विसेसो, बेट्टाणे अपच्चक्खाणावरणीयं जधा पंचिंदियतिरिक्खभंगो ॥ ७५ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे - ओघम्मि जासिं पयडीण जे बंधया परूविदा ते चेव तासिं पडणं बंधया एत्थ वि होंति त्ति ओघमिदि उत्तं । सव्वट्टाणेसु ओघत्ते संपत्ते तणिसेह बेट्ठाणियपयडीणं अपच्चक्खाणावरणीयस्स च पंचिंदियतिरिक्खभंगो त्ति परुविदं । एदेण देसामासिएण सूइदत्थपरूवणं कस्सामा । तं जहा- पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीयजसकित्ति - उच्चागोद-पंचंतराइयाणं गुणगयबंधसामित्तण, बंधोदयाणं पुव्वं पच्छा वोच्छेदविचारेण, सोदय-परोदय-सांतर - णिरंतरबंध विचारणाए, बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सादि-आदि
[ ३, ७५.
-
बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं ।
मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त एवं मनुष्यनियों में तीर्थंकर प्रकृति तक ओघके समान जानना चाहिये । विशेषता इतनी है कि द्विस्थानिक प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है ॥ ७५ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- ओघमें जिन प्रकृतियोंके जो बन्धक कहे गये हैं वे ही उन प्रकृतियों के बन्धक यहां भी हैं, इसीलिये सूत्र में 'ओघके समान' ऐसा कहा है । सब स्थानों में ओघत्वके प्राप्त होनेपर उसके निषेधार्थ 'द्विस्थानिक प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचों के समान है' ऐसा कहा है । इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका गुणस्थानगत बन्धस्वामित्व, बन्ध और उदयका पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार, स्वोदयपरोदय बन्धका विचार, सान्तर - निरन्तर बन्धका विचार, वन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान
१ अ - आप्रत्योः ' बंधद्वाणं बंधविणट्टाणं सादि- '; कापतौ ' बंधद्वाणं बंधविणडाणं च सुगमं सादि ' इति पाठः । मप्रतौ स्वीकृतपाठः ।
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३, ७५.] मणुसगदीए बंधसामित्तपरूपणा
[१३१ विचारेसु वि ओघादो णत्थि भेदो । जत्थत्थि तं परूवेमो- मिच्छाइट्ठिस्स तेवण्ण पच्चया, सासणे अद्वेत्तालीस, सम्मामिच्छादिट्टिम्हि बाएत्तालीस, असंजदसम्मादिट्टिम्हि चोदालीस, वेउब्वियदुगभावादो। मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि सव्वगुणहाणेसु पुरिस-णqसयवेदा, असंजदसम्माइट्टिम्हि ओरालियमिस्स-कम्मइया, अप्पमत्ते आहारदुगं णत्थि । मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणा तिगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं मणुसगइसंजुत्तं च बंधंति ।
णिद्दाणिदा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-मणुसाउतिरिक्खगइ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-चउसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-तिरिक्खगइमणुसगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि त्ति एदाओ एत्थ बेट्ठाणपयडीओ। ओघबेट्टाणपयडीहिंतो जेण मणुस्साउ-मणुसदुग-ओरालियदुगवज्जरिसहसंघडणेहि अधियाओ तेण पंचिंदियतिरिक्खबेट्ठाणभंगो त्ति वुत्तं ।
एत्थ थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-मणुस्साउ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-चउसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणा-- देज्जाणं पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो पच्छा उदओ। अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छि
तथा सादि आदि बन्धके विचारोंमें भी ओघसे कोई भेद नहीं है। जहां भेद है उसे कहते हैंमिथ्याडष्टिके तिरेपन प्रत्यय, सासादनमें अड़तालीस, सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें व्यालीस और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें चवालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिक व वैक्रियिकमिश्र प्रत्यय नहीं होते । मनुष्यनियों में इसी प्रकार प्रत्यय होते हैं । विशेष इतना है कि सब गुणस्थानों में पुरुष व नपुंसक वेद, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र व कार्मण, तथा अप्रमत्त गुणस्थानमें आहारद्विक प्रत्यय नहीं होते। मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त,सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त और उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये यहां द्विस्थानिक प्रकृतियां हैं। ओघद्विस्थान प्रकृतियोंसे चूंकि यहां मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहनन प्रकृतियोंसे अधिक है, अत एव 'पंचेन्द्रिय तिर्यचोंकी द्विस्थान प्रकृतियों के समान प्ररूपणा है' ऐसा कहा है।
___ यहां स्त्यानगृद्धित्रय, स्त्रीवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय, इनका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय । अनन्तानु
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१३२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ७५. ज्जंति, सासणे दोण्णमुच्छेददंसणादो । तिरिक्खाउ-[तिरिक्खगइ-] तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुची-उज्जोवाणं मणुस्सेसुदयाभावादो बंधोदयाणं पुव्वं पच्छा वोच्छेदविचारो णस्थि । णीचागोदस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, बंधे सासणम्मि णढे संते पच्छा संजदासंजदम्मि उदयवोच्छेददंसणादो।
मणुस्साउ-मणुस्सगईओ सोदएणेव बंधंति । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोवाणं परोदएणेव, मणुस्सेसु एदासिमुदयाभावादो । अवसेसाओ पयडीओ सोदय-परोदएण बझंति, अद्धवोदयत्तादो काओ विग्गहगदीए उदयाभावादो का वि तत्थेवुदयादो। · थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो। [मणुस्साउ-] तिरिक्खाउआणं पि णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं सांतर णिरंतरो, सव्वत्थ सांतरस्स एदासिं बंधस्स आणदादि
................
बन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दानों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है । तिर्यगायु, [तिर्यग्गति], तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनका चूंकि मनुष्योंमें उदय होता नहीं है अतः इनके बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका यहां विचार नहीं है । नीचगोत्रका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनमें वन्धके नष्ट हो जानेपर पश्चात् संयतासंयतमें उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। . मनुष्यायु और मनुष्यगात स्वोदयसे ही बंधती हैं । तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं, क्योंकि, मनुष्यों में इनके उदयका अभाव है। शेष प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं तथा किन्हींके विग्रहगतिमें उदयका अभाव है तो किन्हींका वहां ही उदय रहता है।
स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रवबन्धी प्रकृतियां हैं । [मनुष्यायु] और तिर्यगायुका भी निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम नहीं होता । मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी; औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्धके सर्वत्र सान्तर होनेपर भी आनतादिक देवोंमेंसे मनुष्योंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त
१ अ-काप्रत्योः । ओरालियसरीर' इत्येतनास्ति ।
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३, ७५.] मणुसगदीए बंधसामित्तपरूवणा
[१३३ . देवेहितो मणुस्सेसुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तकालं णिरंतरत्तुवलंभादो । अवसेसाओ सांतरं बझंति, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो।
एदासिं पच्चया दोसु वि गुणट्ठाणेसु तिरिक्खबेट्ठाणियपयडिपच्चएहि तुल्ला । थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्कं च मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, इत्थिवेदं दो वि णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, मणुस्साउ-मणुस्सगइ-मणुस्सगइपाओग्गाणुपुव्वीओ मणुसगइसंजुत्तं, ओरालियसरीरचउसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं अप्पसत्थविहायगइदुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि देवगईए विणा मिच्छाइट्ठी तिगइसंजुत्तं, सासणो तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधइ त्ति ।
__ सव्वासिं पयडीणं बंधस्स मणुसा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं सादि-आदिविचारो वि ओघतुल्लो।
णिद्दा-पयलाणं पुव्वंपच्छाबंधोदयवोच्छेद-सोदयपरोदय-सांतरणिरंतरं बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं सादि-आदिबंधपरिक्खा ओघतुल्ला । पच्चया मणुसगईए परूविदपच्चयतुल्ला । मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणसम्मादिट्ठी तिगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं बंधंति ।
काल तक निरन्तरता पायी जाती है। शेष प्रकृतियां सान्तर बंधती हैं, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम देखा जाता है ।
इनके प्रत्यय दोनों ही गुणस्थानों में तिर्यंचोंकी द्विस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययोंके समान हैं। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, स्त्रीवेदको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि दोनों ही नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त; तिर्यगायु,तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको तिर्यग्गतिसे संयुक्त; मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको मनुष्यगतिसे संयुक्त
औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग और पांच संहनन, इनको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त; तथा अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको मिथ्यादृष्टि देवगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त व सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति एवं मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। सब प्रकृतियों के बन्धके मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान बन्धविनष्टस्थान और सादि आदिकका विचार भी ओघके समान है।
निद्रा और प्रचलाका पूर्व या पश्चात् होनेवाला बन्धोदयव्युच्छेद, स्वोदय-परोदयबन्ध, सान्तर-निरन्तर बन्ध, बन्धाध्वान,बन्धविनष्टस्थान और सादि-आदि बन्धकी परीक्षा ओघके समान है। प्रत्यय मनुष्यगतिमें कहे हुए प्रत्ययोंके समान हैं । मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, और शेष गुणस्थानवर्ती देव
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१३४ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ७६. मणुस्सा सामी।
सादावेदणीयपरिक्खा वि मूलोघतुल्ला । णवरि पच्चयभेदो सामिभेदो च णायव्वो। मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सादावेदणीयं णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधंति । एवं सव्वपदेसु पच्चयसंजुत्तसामित्तभेदो चेव । सो वि सुगमो । अण्णत्थ मूलोघं पेच्छिदूण ण कोच्छि भेदो अत्थि त्ति ण परूविज्जदे । णवरि पंचिंदिय-तस-बादराणं बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सोदओ सांतर-णिरंतरो । मणुसपज्जत्तएसु अपज्जत्तबंधो परोदओ । एवं मणुसिणीसु वि वत्तव्यं । णवरि उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदओ बंधो । पुरिस-णवंसयवेदाणं सव्वत्थ परोदओ । इत्थिवेदस्स सोदओ । खवगसेडीए तित्थयरस्स णस्थि बंधो, इत्थिवेदेण सह खवगसेडिमारोहणे संभवाभावादो ।
मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ॥ ७६ ॥
एदं बज्झमाणपयडिसंखाए समाणत्तं पेक्खिय पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो' त्ति • वुत्तं । पज्जवट्ठियणए अवलंबिजमाणे भेदो उवलब्भदे । तं जहा-पंचणाणावरणीय-णवदंसणा
गतिसे संयुक्त बांधते हैं । मनुष्य स्वामी हैं।
__ साप्तावेदनीयकी परीक्षा भी मूलोघके समान है। विशेष यह है कि प्रत्ययभेद व स्वामिभेद जानना चाहिये । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यगग्दृष्टि सातावेदनीयको नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगतिले संयुक्त बांधते हैं। इस प्रकार सब पदों में प्रत्ययसंयुक्त स्वामित्वभेद ही है। वह भी सुगम है । अन्यत्र मूलोघकी अपेक्षा और कुछ भेद नहीं है, इसीलिये उसकी यहां प्ररूपणा नहीं की जाती । विशेषता यह है कि पंचेन्द्रिय, त्रस और बादरका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय और सान्तर निरन्तर होता है। मनुष्य पर्याप्तकोंमें अपर्याप्तका बन्ध परोदयसे होता है । इसी प्रकार मनुष्यनियों में भी कहना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर, इनका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय बन्ध होता है। पुरुषवेद और नपुंसकवेदका सर्वत्र परोदय बन्ध होता है । स्त्रीवेदका स्वोदय बन्ध होता है। क्षपकश्रेणी में तीर्थकरका बन्ध नहीं होता, क्योंकि, स्त्रीवेदके साथ क्षपकश्रेणी चढ़नेकी सम्भावना नहीं है।
मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ॥ ७६ ॥
यह बध्यमान प्रकृतियोंकी [१०९] संख्यासे समानताकी अपेक्षा करके 'पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है' ऐसा कहा गया है। पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करनेपर भेद पाया जाता है । वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता
- .
१ प्रतिषु 'पेक्खिय ओघमंगो' इति पाठः ।
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३, ७६. ]
मणुस अपज्जत्तरसु बंधसा मित्तपरूवणा
[ १३५
सोलसकसाय णवणोकसाय- तिरिक्खाउ - मणुस्साउ तिरिक्खगइ - मणुसगइ एइंदिय - बेइंदियतीइंदिय- चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा- कम्मइयसरीर - छसंठाण ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-वण्ण-गंध-रस- फास- तिरिक्खगइ मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघादपरघाद-उस्सास-आदाउज्जीव- दो विहायगइ-तस - थावर - बादर - सुहुम-पज्जत्त - अपज्जत्त-पत्तेय-साधारणसरीर- [थिरा-]थिर- सुहासुह-सुभग- दुभग-सुस्सर- दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयाणि त्ति एदाओ एत्थ बज्झमाणपयडीओ । एत्थ थीणगिद्धितिय- इत्थि - पुरिसवेद-तिरिक्खाउ- तिरिक्खगइ - एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदियजादि - हुंडसंठाणविरहिदपंचसंठाण- असंपत्तसेवट्टवदिरित्तपंचसंघडण - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि - परघादु - स्सास-आदावुज्जोव-दोविहायगदि - थावर - सुहुम-पज्जत्त-साहारण- सुभग-सुस्सर - दुस्सर-आदेज्ज - जसकित्ति उच्चा गोदाणं उदयाभावादो बंधोदयाणं संतासंताणं सणिकासाभावादो पुव्वं पच्छा बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा ण कीरदे | सेसपयडीणं पि बंधस्सेव एत्थ उदयस्स वोच्छेदाभावादो ण कीरदे |
पंचणाणावरणीय चदुदंसणावरणीय-मिच्छत्त-णवुंसयवेद-मणुस्साउ- मणुसगइ-पंचिंदिय - जादि - तेजा - कम्मइय-वण्णच उक्क-अगुरुअलहुअ-तस - बादर - अपज्जत्त-थिराथिर - सुभासुभ- दुभग
व असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायुं, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयश कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, ऊंच गोत्र और पांच अन्तराय, ये यहां बध्यमान प्रकृतियां हैं। इनमें स्त्यानगृद्धित्रय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान से रहित पांच संस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहननको छोड़कर शेष पांच संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका उदयाभाव होनेसे विद्यमान बन्ध और अविद्यमान उदयमें समानता न होने के कारण पूर्व या पश्चात् होनेवाले बन्धोदयव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं की जाती है। शेष प्रकृतियोंके भी बन्धके समान यहां उदयका व्युच्छेद न होनेसे उक्त परीक्षा नहीं की जाती।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, त्रस,
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१३६]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ अणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिण-णीचागोद-पंचतराइयाणं सोदओ बंधो । णिहा-पयला-सादासादवीसकसाय-ओरालियसरीर-हुंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बि-उवघाद-पत्तेयसरीराणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादो, कासिं च विग्गहगदीए उदयाभावादो एक्किस्से विग्गहगदीए चेव उदयत्तादो। अवसेसाओं' परोदएणेव बझंति ।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवधाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ बंधेण धउब्वियादों । अवसेसाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधस्स विरामदंसणादो । [ तिर्यग्गइ-तिर्यग्गइपाओग्गाणुपुवी-] णीचागोदाणं बंधस्स सांतर-णिरंतरतं किण्ण उच्चदे ? ण, तेउ-वाउक्काइयाणं सत्तमपुढवीणेरइयाणं व मणुसेसुप्पत्तीए अभावादो।
बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है। निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, वीस कषाय, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात और प्रत्येकशरीर, इनका स्वोदय परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं; तथा किन्हींका विग्रहगतिमें उदय नहीं रहता और एकका विग्रहगतिमें ही उदय रहता है। शेष प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपधात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, बन्धकी अपेक्षा ये प्रकृतियां ध्रुव हैं । शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम देखा जाता है।
___ शंका-[तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और ] नीचगोत्रके बन्धमें सान्तरनिरन्तरता क्यों नहीं कहते?
समाधान- नहीं कहते, क्योंकि, तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंकी सातवीं पृथिवीके नारकियोंके समान मनुष्यों में उत्पत्तिका अभाव है।
१ अ-काप्रत्योः · अवसेसट्ठाओ'; आप्रतौ ' अवसेसद्धाओ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'दउब्वियादो' इति पाठः ।
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३, ७७.]
देवदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं
[ १३७
तिरिक्खअपज्जत्ताणं व पच्चया परूवेदव्वा । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ - एइंदिय-बीइंदिय-ती इंदियचउरिंदियजादि-तिरिक्ख गइपाओग्गाणुपुव्वी - आदावुजाव - थावर - सुहुम-साहारणसरीराणि तिरिक्खइसंजुत्तं वज्झति । मणुस्सा उ- मणुस गइ पाओग्गाणुपुव्वी उच्चागोदाणि मणुसगइ संजुत्तं बज्झति । अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्ख- मणुसगइसंजुत्तं बज्झति । मगुस्सा सामी । बंधद्धाणं बंधविणणं सादिआदिपरूवणा च पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तपरूवणाए तुल्ला ।
देवदीप देवे पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय सादासादबारस कसाय- पुरिसवेद-हस्स-रदि- अरदि-सोग-भय- दुगुंछा - मणुसगइपंचिंदियजादि-ओरालिय- तेजा कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण - ओरालियसरीर अंगोवंग- वज्जरिसहसंघडण वण्ण-गंध-रस - फास - मणुसाणुपुव्वि-अगुरुअलहुव उवघाद- परघाद-- उस्सास -पसत्थविहायगदि-तसबादर- पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति - अजसकित्तिणिमिण - उच्चा गोद पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ।। ७७ ।
प्रत्ययोंकी प्ररूपणा तिर्यच अपर्याप्तोंके समान करना चाहिये । तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीरको तिर्यग्गति से संयुक्त बांधते हैं। मनुष्यायु, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। शेष प्रकृतियों को तिर्यग्गति व मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं। मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान, बन्धविनष्टस्थान और सादि आदिकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्येच अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा के समान है ।
देवगतिमें देवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ७७ ॥
७. मं. १८.
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१२८ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
सुगममेदं ।
मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्माहट्टी बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ ७८ ॥
देसामासियसुत्तमेदं, तेणेदेण सूइदत्थपरूवणं कस्सामो- मणुसगइ ओरालियसरीर-अंगोवंगं वज्जरिसहसंघडण मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी अजसकित्तीणमुदयाभावादी बंधादयाणं पुव्वं पच्छा वोच्छेदपरिक्खा ण कीरदे । ण सेसाणं पि, बंधस्सेव उदयस वोच्छेदाभावादो ।
[ ३, ७८.
पंचणाणावरणीय - चउदंसणावरणीय-पंचिदियजादि - तेजा- कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस फास-अगुरुवलहुअ-तस - बादर - पज्जत थिराथिर - सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज-जसकित्ति - णिमिणउच्चागोद-पंचंतराइयाणं सोदएणेव बंधो । णिद्दा- पयला-सादासाद- बारसकसाय- पुरिसवेद-हस्सरदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदएण बंधो अद्भुवोदयत्तादों । समचउरससंठाण
"
यह सूत्र सुगम है ।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ ७८ ॥
यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिये इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं- मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन. मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और अयशकीर्ति, इनके उदयका अभाव होनेसे बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेकी परीक्षा नहीं की जाती है। शेष प्रकृतियों की भी वह परीक्षा नहीं की जाती, क्योंकि, बन्धके समान उनके उदयके व्युच्छेदका अभाव है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदयसे ही बन्ध होता है । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य. रति, अति, शोक, भय और जुगुप्सा, इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ये अनुवोदयी प्रकृतियां हैं । समचतुरस्रसंस्थान, प्रत्येकशरीर और उपघातका स्वोदय
१ काप्रतौ ' ओरालि यसरीरंगोवंग' इति पाठः । २ प्रतिषु ' अद्भुवो अद्भुवोदयतादो' इति पाठः ।
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३, ७८.] - देवगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं पत्तेयसरीर-उवघादाणं सोदय-परोदएण बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावादो। परघादुस्सासपसत्थविहायगदि-सुस्सराणं सोदय परोदएण बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे वि बंधदंसणादो। णवरि सम्मामिच्छाइट्ठिस्स एदासिं सोदएण बंधो। मणुसगइ ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुस्साणुपुवी-अजसकित्तीणं परोदएणेव वंधो, तत्थेदेसिमुदयविरोहादो।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-उस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, देवगदीए बंधविरोहाभावादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोगथिराथिर-सुभासुभ-जसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधविरामुवलंभादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठीसु सांतरो बंधो, एगसमएण बंधविरामदंसणादो । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठीसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पंचिंदियजादि-मणुस्सगइमणुस्साणुपुवी-ओरालियसरीरअंगोवंग-तसाणं मिच्छाइटिम्हि सांतर-णिरंतरो । सासणसम्मादिट्टिसम्मामिच्छादिट्टि-असंजदसम्मादिठ्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्तपयडीणं बंधाभावादो । णवरि
परोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव है । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वर, इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकाल में इनके उदयका अभाव होनेपर भी बन्ध देखा जाता है। विशेषता यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टिके इनका स्वोदयसे बन्ध होता है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी और अयशकीर्ति, इनका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, देवों में इनके उदयका विरोध है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिमें इनके निरन्तर बन्धका विरोध नहीं है । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति,अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशकीर्ति, इनका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि एक समयमें इनके बन्धका विश्राम पाया जाता है । पुरुषवेद, समचतुरस्नसंस्थान, वजर्षभसहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम देखा जाता है। सम्यग्मिथ्याइष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके वन्धका अभाव है । पंचन्द्रिय जाति, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिकशरीरांगोपांग और प्रस, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका निरन्तर बग्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। विशेष इतना है कि मनुष्याद्विकका सासादन गुणस्थानमें
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१४० ]
मणुअदुगस्स सासणम्मि सांतर - निरंतरो ।
मिच्छाइट्ठिस्स बावण्ण, सासणस्स सत्तेत्तालीस, असजद सम्मादिडिस्स तेत्तालीस देवेसु पच्चया; ओघपच्चएसु णवुंसयवेदोरालियदुगाणमभावाद । । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स एक्केत्तालीस पच्चया, ओघपच्चएसु णवुंसयवेदोरालियकाय जोगाणमभावादो । सेसं सुगमं ।
Dristi बंधसामित्तविचओ
एदाओ सव्वपयडीओ सम्मामिच्छादिट्टि - असंजदसम्मादिडिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, तत्थ तिरिक्खगईए वंधाभावादो । मणुसगइ - मणुसाणुपुवी - उच्चागोदाणि मणुसगइसंजुतं, अवसेसाओ पयडीओ मिच्छाइट्टि - सासणसम्माइट्टिणो तिरिक्ख माणुसगइ संजुत्तं बंधति, अविरोहादो। सव्वपयडीणं बंधरस देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणासो च सुगमो | पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुर्गुछा- तेजा - कम्मइयसरीर- वण्ण गंध-रस- फास-अगुरुअलहुअउवघाद णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइडिम्हि चउन्विहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धउध्वियाभावादो' । अवसेसाणं पयडीणं सव्वगुणेसु सादि-अद्भुवो ।
सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है ।
देवों में मिध्यादृष्टिके बावन, सासादनके सैंतालीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके तेतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, यहां ओघप्रत्ययों में नपुंसक वेद और औदारिकद्विकका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिके इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उसके ओघ प्रत्ययों में नपुंसकवेद और औदारिक काययोगका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है ।
इन सब प्रकृतियोंको सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इन गुणस्थानों में तिर्यंचगतिका वन्ध नहीं होता । मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष प्रकृतियोंकों मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति व मनुष्यगतिले संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है ।
सर्व प्रकृतियोंके बन्धके देव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनाश सुगम है । पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्य गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सब गुणस्थानों में सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
इति पाठः ।
३, ७८.
१ अतो विहाभावादी'; आमतौ ' चत्रियाभावादी ; काप्रतौ
6
C
चदुव्विाभावादो
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३, ८०. ]
देवदीए णिद्दाणिद्दादणं बंधसामित्त
णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थीणगिद्धि - अनंताणुबंधिकोध-माणमाया- लोभ- इत्थवेद तिरिक्खाउ - तिरिक्खगइ - चउसंठाण चउसंघडण - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ- दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचा गोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ७९ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्टी सासणसम्माइडी बंधा । एदे बंधा - अवसेसा अबंधा ॥ ८० ॥
अताणुबंधिच उक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्र्ज्जति, सासणम्मि उभयाभावदसाणादो । इत्थवेदस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणम्मि वोच्छिण्णबंधित्थिवेदस्स असंजदसम्मादिट्टिम्हि उदयवोच्छेददंसणादो । अथवा, देवगदीए बंधो चेव वोच्छिज्जदि गोदओ, तदुदयविरे हिगुणाणाभावादो । एदमत्थपदमण्णत्थ' वि जोजेयव्वं । श्रीणगिद्धितिय -
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ७९ ॥
यह सूत्र सुगम है |
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ८० ॥
[ १४१
अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थान में उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । स्त्रीवेदका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेदके बन्धके व्युच्छिन्न हो जाने पर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । अथवा, देवगतिमें बन्ध ही व्युच्छिन्न होता है, उदय नहीं; क्योंकि, देवगतिमें उक्त प्रकृतियोंके उदयके विरोधी गुणस्थानोंका अभाव है। इस अर्थपदकी अन्यत्र भी योजना करना चाहिये ।
१ प्रतिषु ' उभयमाव ' इति पाठः ।
६ प्रतिषु एदमत्थपदमणत्थ ' इति पाठः ।
6
२ प्रतिषु ' -सम्मादिट्ठीहि ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं देवेसुदयाभावादो बंधोदयाणं पुव्वं पच्छा वोच्छेदपरिक्खा ण कीरदे ।
अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेदा सोदय-परोदएण, अवसेसाओ पयडीओ परोदएणेव बझंति । थीणगिद्धित्तिय-अणंताणुबंधिचउक्क-तिरिक्खाउआणं णिरंतरो बंधो। अवसेसाणं सांतरो, एगसमएण बंधुवरभुवलंभादो । कयावि दो-तिषिणसमयादिकालपडिबद्धबंधदसणादो सांतर-णिरंतरबंधो' किण्ण उच्चदे ? ण, एदासु पयडीसु णिरंतरबंधणियमाभावादो' । एदासिं पयडीणं पच्चया देवगइचउट्टाणपयडिपच्चयतुल्ला । णवरि तिरिक्खाउअस्स पुव्विलपच्चएसु वेउब्बियमिस्स कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुची-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, अवसेसाओ पयडीओ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधति, अविरोहादो। देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । थीण
स्त्यानगृद्धित्रय, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका देवों में उदयाभाव होनेसे बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेकी परीक्षा नहीं की जाती।
अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेद स्वोदय-परोदयसे तथा शेष प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं। स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका निरन्तर बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका मान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम पाया जाता है।
शंका-कदाचित् दो तीन समयादि कालसे संबद्ध बन्धके देखे जानेसे सान्तर निरन्तर बन्ध क्यों नहीं कहते ?
समाधान नहीं कहते, क्योंकि इन प्रकृतियों में निरन्तर बन्धके नियमका अभाव है।
इन प्रकृतियोंके प्रत्यय देवगतिकी चतुस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययोंके समान हैं। विशेषता केवल यह है कि तिर्यगायुके पूर्वोक्त प्रत्ययों में वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये।तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनको तिर्यग्गतिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उसमें कोई विरोध नहीं है। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान
१ प्रतिषु ' थोबो' इति पाठः । २ अ-काप्रत्योः ‘णियमामावा' इति पाठः।
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३, ८२.) देवगदीए मिच्छतादीणं बंधसामित्तं
[१४३ गिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं' मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । सासणे दुविहो, अणादिधुवत्ताभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
मिच्छत्त-णQसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ८१ ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ८२ ॥
एदस्स अत्यो वुच्चद -- मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिजंति, मिच्छाइद्विम्हि चेव तदुभयमुवलंभिय उवरि तदणुवलंभादो । णबुंसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण आदाव-थावराणमेत्युदयाभावादो बंधोदयाणं पुवापुचवोच्छेदपरिक्खा ण कीरदे । मिच्छत्तं सोदएण, अण्णाओ पयडीओ परोदएणेव बझंति, तहोवलंभादों । मिच्छत्तं णिरंतरं बज्झइ, धुवबंधित्तादो । अवराओ सांतरं वझंति, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो । एदासिं पच्चया
और वन्धविनष्ट स्थान सुगम है । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका वन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां है ।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर नामकर्मोका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ८१ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष देव अवन्धक है ॥ ८२ ॥
इसका अर्थ कहते हैं- मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों पाये जाते हैं, ऊपर वे नहीं पाये जाते । नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर, इनके उदयका यहां अभाव होनेसे बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेदकी परीक्षा नहीं की जाती। मिथ्यात्व प्रकृति स्वोदयसे और अन्य प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं, क्योंकि, वैसा पाया जाता है। मिथ्यात्व प्रकृति निरन्तर बंधती है, क्योंकि, ध्रुववन्धी है । अन्य प्रकृतियां सान्तर बंधती है, क्योंकि, एक समयमें
१ अ-काप्रयोः 'अणंताणुबंधी ति चउक्काण' इति पाठः ! .. २. प्रतिषु 'तकोवलमादो इंति पाठः !
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१४४] ... . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ८३. देवचउट्ठाणपयडिपच्चयतुल्ला । मिच्छत्त-णउंसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं, एइंदियजादि-आदाव-थावराणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति, साभावियादो । देवा सामी। बंधद्धाणं बंधविणवाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउबिहो, धुवबंधित्तादो। सेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
मणुस्साउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ८३॥ सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ८४ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे-- देवेसु मणुस्साउअस्स उदयाभावादो बंधोदयाणं पुव्वावरवोच्छेदपरिक्खा णस्थि । परोदएण बंधति', मणुस्साउअस्स देवेसु उदयभावविरोहादो । णिरंतरो बंधो, एगसभएण बंधुवरमाभावादो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं जहाकमेण पंचास पंचेत्तालीस [एक्केत्तालीस] पच्चया, सग-सगोघपच्चएसु ओरालियउनका बन्धविश्राम पाया जाता है । इन प्रकृतियोंके प्रत्यय देवोंकी चतुस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययोंके समान हैं । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तस्पाटिकासंहनन, ये तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावर, ये तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंधती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्ध विनष्ट स्थान सुगम हैं। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकार होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । शेष प्रकृतिचोंका बन्ध सादि व अध्रुव हेाता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी है ।
मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अवन्धक है ? ॥ ८३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ८४ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-देवोंमें मनुष्यायुका उदय न होनेसे पूर्व या पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है। मनुष्यायुको परोदयसे बांधते हैं, क्योंकि, देवों में मनुष्यायुके उदयका विरोध है । बन्ध उसका निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयमें बन्धविश्रामका अभाव है। मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके यथाक्रमसे पचास, पैंतालीस [और इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, अपने अपने ओघप्रत्ययोंमें यहां औदारिक, औदारिकमिंध, वैकियिकमिश्र, कार्मण और नपुंसकवेद
१ आ-काप्रयोः बझंति' इति पाठः ।
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[१४५
३, ८६. ]
देवगदीए तित्थयरणामकम्मस्स बंधसामितं ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय-णउंसयवेदपच्चयाणमभावादो । मणुसगइसंजुत्तं । देवा सामी। बंधद्धाणं बंधाभावट्टाणं च सुगमं । सम्मामिच्छत्तगुणेण जीवा किण्ण मरंति ? तत्थाउअस्स बंधाभावादो । मा बंधउ आउअं, पुवमण्णगुणट्ठाणम्हि आउअंबंधिय पच्छा सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जिय तेण गुणेण गूण कालं करेदि ? ण, जेण गुणेणाउबंधो संभवदि तेणेव गुणेण मरदि, ण अण्णगुणेणेत्ति परमगुरुवदेसादो । ण उवसामगेहि अणेयंतो, सम्मत्तगुणेण आउअबंधाविरोहिणा णिस्सरणे विरोहाभावादो । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
तित्थयरणामकम्मस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ८५॥ सुगमं । असंजदसम्माइट्टी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥८६॥
प्रत्ययोंका अभाव है। मनुष्यायुको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधने हैं। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनप्रस्थान सुगम है।
शंका-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके साथ जीव क्यों नहीं मरते ?
समाधान- चूंकि इस गुणस्थानमें आयुके बन्धका अभाव है, अतएव जीव यहां मरण नहीं करते।
शंका-यहां आयुबन्ध भले ही न हो, फिर भी पहिले अन्य गुणस्थानमें आयुको बांधकर और पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्तकर उस गुणस्थानके साथ तो निश्चयतःमरण कर सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस गुणस्थानके साथ आयुवन्ध सम्भव है उसी गुणस्थानके साथ जीव मरता है, अन्य गुणस्थानके साथ नहीं, ऐसा परमगुरुका उपदेश है।
इस नियममें उपशामकों के साथ अनैकान्तिक दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, आयुबन्धके अविरोधी सम्यक्त्वगुणके साथ निकलने में कोई विरोध नहीं है। (देखो जीवस्थान चूलिका ९, सूत्र १३० की टीका)।
मनुष्यायु का बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वह अध्रुववन्धी है। तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ८५ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि देव बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ८६ ॥
१ प्रतिषु 'आउमयंधिय ' इति पाठः ।
२ अप्रती गुणेण्णोणं'; आ-कापत्योः । गुणेणण्णोणं ' इति पाठः । छ.. १९.
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१४६]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ एत्थ बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, उदयाभावादो । तेणेव कारणेण' परोदए बज्झइ । णिरंतरो तित्थयरबंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । दसणविसुज्झदा-लद्धिसंवेगसंपण्णदाअरहताइरिय-बहुसुद-पवयणभत्तीओ तित्थयरकम्मस्स विसेसपच्चया । सेसं सुगमं । मणुसगइसंजुत्तो बंधो । देवा सामी । बंधद्धाणं सुगमं । एत्थ बंधविणासो णस्थि । सादि-अद्धवो बंधो, अणादि-धुवभावेण अवट्टिदकारणाभावादो ।
भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसियदेवाणं देवभंगो। णवरि विसेसो तित्थयरं णथि ॥ ८७ ॥
एदेण सुत्तेण देसामासिएण ' तित्थयरं णत्थि ' त्ति बज्झमाणपयडिभेदो चेव परूविदो पुहमुच्चारणाएं । समचउरससंठाण-उवघाद-परघाद उस्सास-पत्तेयसरीर-पसत्थविहायगदि-सुस्सरणामाओ असंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदएणेव बज्झंति । वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपचया असंजदसम्मादिट्टिम्हि अवणेदव्वा, भवणवासिय वाणवेंतर-जोदिसिएसु सम्मादिट्ठीणमुक्वादा
. यहां तीर्थंकर नामकर्मके बन्धोदयव्युच्छेदका विचार नहीं है, क्योंकि, देवोंमें उसके उदयका अभाव है। इसी कारण वह परोदयसे बंधती है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है। दर्शनविशुद्धता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति, ये तीर्थकर कर्मके विशेष प्रत्यय हैं (जो सूत्र ४. में विस्तारसे कहे जा चुके हैं)। शेष प्रत्यय सुगम हैं। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान सुगम है। यहां बन्धविनाश नहीं है। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, अनादि व ध्रुव रूपसे अवस्थित रहनेके कारणोंका अभाव है।
भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देंवोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है। विशेषता केवल यह है कि इन देवोंके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता ॥ ८७ ॥
इस देशामर्शक सूत्रके द्वारा 'तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता' इस पृथक् उच्चारणासे केवल बध्यमान प्रकृतियोंका भेद ही कहा गया है। समचतुरस्त्रसंस्थान, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येकशरीर, प्रशस्तविहायोगति और सुखर नामकर्म असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदयसे ही बंधते हैं । वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कम करना चाहिये, क्योंकि, भवनवासी, पानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यग्दृष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है। पंचेन्द्रिय जाति
१ अ-कापत्योः 'कालण'; आप्रती कालेणेण ' इति पाठः। २भवणतिए णत्थि तित्थयरं ॥ गो. क. १११. जिणहीणो जोइ-प्रवण-वणे ॥ कर्मग्रन्थ ३, ११. ३ प्रति 'पदमुच्चारणाए ' इति पाठः।
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३,८८.)
सोहम्मीसाणदेवेसु बंधसामित्तं भावादो। पंचिंदिय-तसणामाओ मिच्छादिट्टिम्हि सांतरं बज्झइ, एइंदिय-थावरपडिवक्खपयडीण संभवादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुन्वीओ मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो सांतर बंधंति । ओरालियसरीरअंगोवंग मिच्छाइट्ठिणो सांतरं बंधंति । एसो भेदो संतो वि ण कहिदो। एवंविधं भेदं संतमकहंतस्स कधं सुत्तभावो ण फिट्टदे ? ण एस दोसो, देसामासियसुत्तेसु एवंविहभावाविरोहादो।
सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवाणं देवभंगो ॥ ८८॥
एदस्स अत्थो-जधा देवोघम्मि सव्वपयडीओ परूविदाओ तहा एत्थ वि परुवेदवाओ। एदमप्पणासुत्तं देसामासिय, तेणेदेण सूइदत्थो उच्चदे- पंचिंदिय-तसणामाओ मिच्छाइट्ठी देवोघम्मि सांतर-णिरंतरं बंधंति, सणक्कुमारादिसु एइंदिय-थावरबंधाभावेण णिरतरबंधोवलंभादो। एत्थ पुण सांतरमेव बंधंति, पडिवक्खपयडिभावं' पडुच्च एगसमएण
और अस नामकर्म मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बंधते हैं, क्योंकि, उक्त देवोंके इस गुणस्थानमें एकेन्द्रिय जाति और स्थावर रूप प्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी सम्भावना है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि सान्तर बांधते हैं । औदारिकशरीरांगोपांगको मिथ्यादृष्टि सान्तर बांधते हैं । यद्यपि बध्यमान प्रकृतिभेदके साथ यह भेद भी है, तथापि देशामर्शक होनेसे वह सूत्र में नहीं कहा गया।
शंका-इस प्रकारके भेदके होनेपर भी उसे न कहनेवाले वाक्यका सूत्रत्व क्यों
नहीं नष्ट होता
समाधान--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, देशामर्शक सूत्रोंमें इस प्रकारके स्वरूपका कोई विरोध नहीं है ।
सौधर्म व ईशान कल्पवासी देवोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है ॥ ८८ ॥
इस सूत्रका अर्थ-जिस प्रकार सामान्य देवोंमें सब प्रकृतियोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार यहां भी प्ररूपणा करना चाहिये । यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थको कहते हैं- पंचेन्द्रिय जाति और त्रस नामकर्मको मिथ्यादृष्टि देव देवोघमें सान्तर-निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, सनत्कुमारादि देवों में एकेन्द्रिय
और स्थावर प्रकृतियोंके बन्धका अभाव होनेसे निरन्तर बन्ध पाया जाता है। परन्तु यहां उन्हें सान्तर ही बांधते हैं, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके सद्भावकी अपेक्षा करके
३ प्रतिषु । -पडिभावं' इति पाठः।
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१४८ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचऔ
[३, ८९. बंधुवरमदंसणादो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणो मणुसगइदुगं देवोपम्मि सांतर-णिरंतरं बंधति, सुक्कलेस्सिएसु मणुसगइदुगस्स णिरंतरबंधदंसणादो । एत्थ पुण सांतरं बंधंति, मणुसगइदुगणिरंतरबंधकारणाभावादो । ओरालियसरीरअंगोवंगं देवोधम्मि मिच्छाइट्ठी सांतरणिरंतरं बंधंति, सणक्कुमारादिसु णिरंतरबंधुवलंभादो । एत्थ पुण सांतरमेव, थावरबंधकाले अंगोवंगस्स बंधाभावादो त्ति ।
सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवाणं पढमाए पुढवीए णेरइयाणं भंगो ॥ ८९॥
____णवरि एत्थ पुरिसवेदस्स सोदएण बंधो, अण्णवेदस्सुदयाभावादो । णउंसयवेदस्स पढमाए पुढवीए सोदएण बंधो, एत्य पुण परोदएण । पच्चएसु णउंसयवेदो इत्थिवेदेण सह अवणेदव्यो । सासणसम्माइट्ठिम्हि वे उब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया पक्खिविदव्वा, णेरइयसासणेसु तेसिमभावादो । सदार-सहस्सारदेवेसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो मणुसगइदुगं सांतर-णिरंतरं' बंधति, तत्थतणसुक्कलेस्सिएसु मणुसगइदुगं मोत्तूण तिरिक्खगइदुगस्स
एक समयसे बन्धविश्राम देखा जाता है । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिद्विकको देवोत्रमें सान्तर निरन्तर वांधते हैं, क्योंकि, शुक्ललेश्यावालोंमें मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध देखा जाता है। परन्तु यहां सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगतिद्विकके निरन्तर बन्धके कारणोंका अभाव है। औदारिकशरीरांगोपांगको देवाघमें मिथ्यादृष्टि सान्तर-निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, सनत्कुमारादि देवों में निरन्तर वन्ध पाया जाता है। परन्तु यहां सान्तर ही बांधते हैं, क्योंकि, स्थावरबन्धकालमें आंगोपांगका वन्ध नहीं होता।
सनत्कुमारसे लेकर शतार-सहस्रार तक कल्पवासी देवोंकी प्ररूपणा प्रथम पृथिवीके नारकियोंके समान है ॥ ८९ ॥
विशेष इतना है कि यहां पुरुषवेदका स्वोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, अन्य वेदके उदयका अभाव है। नपुंसकवेदका प्रथम पृथिवीमें स्वोदयसे बन्ध होता है। परन्तु यहां उसका परोदयसे वन्ध होता है। प्रत्ययोंमें नपुंसकवेदको स्त्रीवेदके साथ कम करना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें यहां वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको जोड़ना चाहिये, क्योंकि नारकी सासादनसम्यग्दृष्टियों में उनका अभाव है। शतारसहस्रारकल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिद्विकको सान्तरनिरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, उन कल्पोंके शुक्ललेश्यावाले देवोंमें मनुष्यगतिद्विकको
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१ प्रतिषु ' सांतरं ' इति पाठः ।
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३, ९१.] आणदादिदेवेसु बंधसामित्तं
. [ १४९ बंधाभावादो।
· आणद जाव णवगेवेज्जविमाणवासियदेवेसु पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सादासाद- बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भयदुगुंछा-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रसफास-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९० ॥
सुगममेदं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ ९१॥
एदेण सूइदत्थे भणिस्सामो--- मणुसगइ-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण
छोड़कर निर्यग्गतिद्विकके बन्धका अभाव है।
आनत कल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक तक विमानवासी देवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कपाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ९० ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ ९१॥
इस सूत्रके द्वारा सूचित अर्थोंको कहते हैं-मनुष्यगति, औदारिकशरीरांगोपांग,
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१५० ]
छक्खडागमे बंधसामित्तविचओ
[, st.
मणुस्साणुपुव्वी अजसकित्तीणमुदयाभावादो सेसपयडीणं उदयवोच्छेदाभावादो च बंधोदयाणं पच्छाच्छोच्छेदपरिक्खा ण कीरदे ।
पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय - पुरिसवेद- पंचिंदियजादि तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-तस - बादर - पज्जत्त-थिराथिर - सुभासुभ-सुभग-आदेज्ज-जसकित्तिणिमिणउच्चागोद-पंचं तरायइयाणं सोदणेव बंधो, धुवोदयत्तादो । णिद्दा-पयला-सादासाद-बार सकसायहस्स रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्भुवोदयत्तादो । समचउरससंठाणउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-सुस्सरणामाओ मिच्छाइट्ठि - सासणसम्माइट्ठ-असंजदसम्मादिट्टिणो सोदय- परोदएण बंधंति । सम्मामिच्छाइट्टिणो सोदणेव बंधंति, सिमपज्जत्तकालाभावादो । मणुसगइ ओरालिय सरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरिसहसंघडणमणुस्साणुपुव्वी - अजसकित्तीणं परोदणेव बंधो, देवेसु एदासिं बंधोदयाणमक्कमेण उत्तिविरोहाद |
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय - बारसकसाय-भय- दुगुंछा - मणुसगइ पंचिंदियजादि
वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी और अयशकीर्ति, इनका उदयाभाव होनेसे तथा शेष प्रकृतियों के उदयच्युच्छेदका अभाव होने से यहां बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेकी परीक्षा नहीं की जाती है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पुरुषवेद, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र, और पांच अन्तराय, इनका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, इनका स्वोदय- परोदय से बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वर नामकमको मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वोदय- परोदय से बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव स्वोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि, उनके अपर्याप्तकालका अभाव है । मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी और अयशकीर्तिका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, देवोंमें इन प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके एक साथ अस्तित्वका विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणयि, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति,
१ अप्रतौ पच्काछेद ' इति पाठः ।
'
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आणदादिदेवेसु बंधसामित्तं ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगशाओग्गाणुपुवी-अगुरुअलहुअ-उवधाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ--जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरा, एगसमएण बंधविरामदंसणादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-बजरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणि मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्टिणो सांतरं बंधंति, एगसमएण बंधविरामुवलंभादो । सम्मामिच्छादिवि-असंजदसम्मादिट्ठिणो णिरंतरं बंधति, पडिवक्खपयडीण बंधाभावादो।।
एदासिं पच्चया देवोधपच्चयतुल्ला । णवीर सव्वत्थ इस्थिवेदपच्चओ अवणेदव्यो । सब्वे सव्वाओ पयडीओ मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, अण्णगईण बंधाभावादो । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणदुट्ठाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भयदुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर- वण्ण--गंध-रस फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइद्विम्हि चउव्विहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सव्वगुणट्ठाणेसु सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघाद, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये प्रकृतियां ध्रुवबन्धी है। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनको मिथ्याष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम पाया जाता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन्हें निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, उनके प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
___ इन प्रकृतियोंके प्रत्यय देवोघ प्रत्ययोंके समान हैं । विशेषता केवल इतनी है कि सब जगह स्त्रीवेद प्रत्ययको कम करना चाहिये। उक्त सब देव सब प्रकृतियोंको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। देव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। अन्यत्र तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वां ध्रुवबन्धका . अमाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सब गुणस्थानों में सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि,
घेअधुपपन्थी हैं।
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१५२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ९२. .णिदाणिद्दा--पयलापयला--थीणगिद्धि-अणताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ-इथिवेद-च उसंठाण-चउसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभगदुस्सर-अणादेज्जाणीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९२ ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा
एदस्स अत्थो वुच्चदे---- अणंताणुबंधिच उक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, सासणम्मि तदुभयवोच्छेददंसणादो । अवसेसाणं बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, तासिमेन्थुदयाभावादो। अणंताणुबंधिच उक्स्स सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादो। अवसेसाणं पयडीणं परोदएणेव, एत्थ तासिं बंधेणुदयस्स अवट्ठाणविरोहादो । थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सांतरो, एगसमएण बंधविरामदंसणादो। पच्चयाणं सहस्सारभंगो । सव्वे सव्वाओ पयडीओ मणुसगइसंजुत्तं बंधति । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणवाणं च सुगम । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिच उक्काणं मिच्छादिहिस्स
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ९२ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक
- इसका अर्थ कहते है- अनन्तानुवन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है। शेष प्रकृतियोंके वन्धोदयव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां उनके उदयका अभाव है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं। शेष प्रकृतियोंका बन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, यहां उनके वन्धके साथ उदयके अवस्थानका विरोध है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी है। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्ययप्ररूपणा सहस्रार देवोंके समान है। उक्त सव देव सब प्रकृतियोंको मनुष्यगतिसे संयुक्त वांधते हैं। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और वन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानु
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३, ९५.] आणदादिदेवेसु बंधसामित्तं
[१५३ चउव्विहो बंधो । अण्णत्थ दुविहो, अणादि-धुवाभावत्तादो । सेसाणं पयडीणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९४ ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ९५॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे - मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिजंति, मिच्छाइट्ठिम्हि तदुभयाभावदंसणादो । अवसेसाणं बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, एत्थेयंतेणेदासिमुदयाभावादो। मिच्छत्तं सोदएण बज्झइ । कुदो ? साभावियादो । अवसेसाओ पयडीओ परोदएण । मिच्छत्तं णिरंतरं बज्झइ, धुवबंधित्तादो । अवसेसाओ सांतरमद्धवबंधित्तादो। पच्चया सहस्सारपच्चयतुल्ला । मणुसगइसंजुत्तं बझंति । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो
.................................
थन्धिचतुष्कका मिथ्याष्टिक चारों प्रकारका वन्ध होता है। अन्यत्र दो प्रकारका बन्ध होता है. क्योंकि. वहां अनादि और ध्रव वन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोका सादि व अध्रुव वन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं ।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन नामकर्मोका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ९४ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥९५॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है। शेष प्रकृतियोंके बन्धोदयव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां नियमसे इनके उदयका अभाव है। मिथ्यात्व प्रकृति स्वोदयसे बंधती है। इसका कारण स्वभाव है। शेष प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं । मिथ्यात्व प्रकृति निरन्तर बंधती है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी है। शेष प्रकृतियां सान्तर बंधती है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। प्रत्ययप्ररूपणा सहस्रारदेवोंके प्रत्ययोंके समान है। मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि,
१ प्रतिषु ' अणादिदेवाभारतादो' इति पाउः ।
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१५४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ९६. चउव्विहो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अद्भुवो, अद्भुवबंधित्तादो ।
मणुस्साउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ९६ ॥ सुगम।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्टी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ९७ ॥
एदस्स अत्था-बंधोदयाणं वोच्छेदपरिक्खा एत्थ णत्थि, उदयाभावादो । परोदएण बज्झइ, बंधेणुदयस्स एत्थ अवट्ठाणविरोहादो । णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । मिच्छाइट्ठिस्स एगूणवंचास, सासणस्स चउएत्तालीस, असंजदसम्मादिहिस्स चालीस पच्चया । मणुसगइसंजुत्तं । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो।
तित्थयरणामकम्मस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ९८ ॥ सुगमं ।
ध्रुवबन्धी है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ९६ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ९७ ॥
इसका अर्थ- बन्ध और उदयके व्युच्छेदकी परीक्षा यहां नहीं है, क्योंकि, मनुष्यायुके उदयका देवोंमें अभाव है । वह परोदयसे बंधती है, क्योंकि, यहां उसके बन्धके साथ उदयके अवस्थानका विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है। मिथ्याष्टिके उनचास, सासादनसम्यग्दृष्टिके चवालीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके चालीस प्रत्यय होते हैं। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और वन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी प्रकृति है।
तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥९८॥ यह सूत्र सुगम है।
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३, ९९.] अणुदिसादिदेवेसु बंधसामित्तं
[१५५ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥९९॥
एदस्सत्थो वुच्चदे- बंधोदयाणं वोच्छेदविचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णियासविरोहादो । परोदएण बंधो, सव्वत्थ तित्थयरकम्मबंधोदयाणमक्कमेंण उत्तिविरोहादो । णिरंतरो बंधो, संखेज्जावलियादिकालेण विणा एगसमएण बंधुवरमाभावादो । एदस्स पच्चया देवोघपच्चयतुल्ला । उत्तरोत्तरपच्चया पुण अरहंताइरिय-बहुसुद-पवयणभत्ति-लद्धिसंवेगसंपत्ति-दसणविसुद्धि-पवयणप्पहावणादओ । मणुसगइसंजुत्तो. बंधो । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । सादि अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो।
अणुदिस जाव सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय-सादासाद बारसकसाय--पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय दुगुंछा-मणुस्साउ-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुअलहुअ
असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ९९ ॥
इसका अर्थ कहते हैं- बन्ध और उदयके व्युच्छेदका विचार यहां नहीं है, क्योंकि, सत् और असत् बन्धोदयको समानताका विरोध है । परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, सर्वत्र तीर्थकर कर्मके बन्ध और उदयके एक साथ रहनेका विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, संख्यात आवली आदि कालके विना एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है। इसके प्रत्यय देवोघ प्रत्ययोंके समान हैं। परन्तु इसके उत्तरोत्तर प्रत्यय अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, वहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, लब्धिसंवेगसम्पत्ति, दर्शनविशुद्धि और प्रवचनप्रभावनादिक हैं । मनुष्यगतिसे संयुक्त इसका बन्ध होता है। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं। सादि-अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी प्रकृति है।
अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके विमानवासी देवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श,
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१५६ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, १०१. उवधाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरथिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति णिमिण-तित्थयर उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १००॥
सुगमं । असंजदसम्मादिट्ठी बंधा, अबंधा णत्थि ॥१०१॥
एदस्स अत्था परूविज्जदे---- मणुसाउ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगवज्जरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अजसकित्ति-तित्थयराणं उदयाभावादो अवसेसाणं च पयडीणमुदयवोच्छेदाभावादो 'बंधादो उदयस्स किं पुव्वं किं वा पच्छा वोच्छेदो होदि' त्ति एत्थ परिक्खा णत्थि ।
___ पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पुरिसवेद-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुहासुह-सुभगादेज्ज-जसकित्तिणिमिणुच्चागोद-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । णिद्दा-पयला-सादासाद
मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१०० ॥
यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ १०१ ॥
इसके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं- मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अयशकीर्ति और तीर्थकर, इनके उदयका अभाव होनेसे, तथा शेष प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका अभाव होनेसे 'बन्धसे उदयका क्या पूर्वमें या क्या पश्चात् व्युच्छेद होता है' इस प्रकारकी यहां परीक्षा नहीं है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पुरुषवेद, पंचेद्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, प्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर,
शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका : स्वोदय बना होता है, क्योंकि, ये ग्रहां ध्रुवोदयी हैं। निद्रा, प्रचला, साता च असाता
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३, १०१.) अणुदिसादिदेवेसु बंधसामित्त
[१५७ बारसकसाय-हस्स-रदि-सोग-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादो। परघादुस्सासपसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सोदय-परोदएण बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे वि बंधुवलंभादो । समचउरससंठाणुवघाद-पत्तेयसरीराणं पि सोदय-परोदएण बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधदंसणादो । मणुसाउ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणमणुस्सगइपाओग्गाणुपुवी-अजसकित्ति-तित्थयराणं परोदएण बंधो, एत्थेदासिमुदयाभावादो।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछा-मणुसाउ मणुसगइ. पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बि-अगुरुवलहुव-उवधाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिण-तित्थयरुच्चागोदपंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एदासिमेगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदिसोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमादो।
वेदनीय, बारह, कपाय, हास्य, रति, शोक, भय और जुगुप्साका स्वादय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंक, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति
और सुस्वरका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उदयका अभाष होनेपर भी इनका बन्ध पाया जाता है। समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येकशरीरका भी स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उदयके अभावक होनेपर भी बन्ध देखा जाता है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अयशकीर्ति और तीर्थकरका परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तावहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उञ्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनके एक समयसे बन्धविधामका अभाव है। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंक, एक समयसे इनका बन्धविश्राम है।
१ अ-आपसोः ' बंधुवरमामावादो 'इति पाठः।
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१५८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०२. ___ एत्थ असंजदसम्मादिविम्हि बाएत्तालीस पच्चया, ओघपच्चएसु ओरालियदुगित्थिणqसयवेदपच्चयाणमभावादो। सेसं सुगम । एदासिं पयडीण बंधो मणुसगइसंजुत्तो । देवा सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधविणासो एत्थ णत्थि । पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं पयडीणं सादि-अद्धवो, अधुवबंधित्तादो । - इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिंदियअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ॥ १०२ ॥
एदमप्पणासुत्त देसामासिय, बज्झमाणपयडीणं संखमवेक्खिय अवविदत्तादो । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा- एत्थ ताव बज्झमाणपयडिणिद्देसं कस्सामो । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्खाउ
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यहां असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें ब्यालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमेंसे औदारिकद्विक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है । इन प्रकृतियोंका बन्ध मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है। देव स्वामी हैं। वन्धाध्वान सुगम है । बन्धविनाश यहां है नहीं । पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस,स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, इनके पर्याप्त व अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त तथा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ॥ १०२॥
- यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, बध्यमान प्रकृतियोंकी [१०९] संख्याकी अपेक्षा करके अवस्थित है। इसी कारण इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- यहां पहिले बध्यमान प्रकृतियोंका निर्देश करते हैं । पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनाघरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु,
१ अप्रतौ ' चरिंदियपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिंदियपज्जत्ता अपज्जत्ताणं ', आप्रती । चरिंदियपज्जतापन्नता , काप्रतौ ' चउरिंदियपज्जत्त अपज्जहाणं' इति पाठः ।
१ अप्रतौ ' मुप्पण्णासुतं'; आप्रतौ ‘-मुप्पण्णमुत्तं ' इति पाठः ।
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३, १०२.]
एइंदिएसु बंधसामित्त मणुस्साउ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालियतेजा-कम्मइयसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-वण्ण - गंध-रस-फास-तिरिक्खगइमणुस्सगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदावुजोव-दोविहायगइ-तसथावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापजत पत्तेयसरीर-साहारण-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग-सुस्सरदुस्सर-आदेज्ज-अणादेज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयपयडीओ एत्थ बज्झमाणियाओ । एइंदियमस्सिदूण एदासिं परूवणं कस्सामो- इत्थि-पुरिसवेद-मणुस्साउमणुसगइ-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-अणंतिमपंचसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंगछसंवडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-दोविहायगदि-तस-सुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज-उच्चागोदाणं उदयाभावादो सेसाणमुदयवोच्छेदाभावादो — उदयादो बंधो किं पुव्वं वोच्छिज्जदि किं पच्छा वोच्छिज्जदि ' त्ति विचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णियासविरोहादो ।
पंचणाणावरणीय-च उदंसणावरणीय-मिच्छत्त-णqसयवेद-तिरिक्खाउँ-तिरिक्खगइ--एइंदियजादि-तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास अगुरुगलहुग-थावर-थिराथिर-सुहासुह--दुभग
मनुष्यायु, तिर्यग्गात, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वान्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग,छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दोनों विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच व उच्च गोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां यहां बध्यमान प्रकृतियां हैं । एकेन्द्रिय जीवका आश्रय करके इनकी प्ररूपणा करते हैं-- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, अन्तिम संस्थानको छोड़कर पांच संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, दो विहायोगतियां, प्रस, सुभग, सुखर, दुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनके उदयका अभाव होनेसे, तथा शेष प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका अभाव होनेसे यहां 'उदयसे बन्ध क्या पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या क्या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है' यह विचार नहीं है, क्योंकि, सत् और असत्की समानताका विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गात, एकेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु,
१ अ-काप्रत्योः 'तिरिक्खादि ' इति पाठः ।
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१६० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०२. अणादेज्ज-णिमिण-णीचागोद-पंचतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ एदासिं धुवोदयदंसणादो । सादासाद-सोलसकसाय-छण्णोकसाय-आदावुज्जोव-बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सोदय-परोदओ बंधो, अद्धवोदयत्तादो। ओरालियसरीरहुंडसंठाण-उवघादाणं पि सोदय-परोदओ बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधुवलंभादो । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए वि सोदय-परोदओ, गहिदसरीरेसु उदयाभावे वि बंधदसंणादो । परघादुस्सासाणं पि सोदय-परोदओ बंधो, अपज्जत्तद्धाए उदयाभावे वि बंधदसणादो । अवसेसाणं परोदओ बंधो, एत्थ तासिं सव्वदो उदयाभावादो।।
__ पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । साादासाद-सत्तणोकसाय-मणुसगइ-एइंदियबीइंदिय-तीइंदिय-च उरिदिय-पंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-मणुसगइ
स्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनका ध्रुव उदय देखा जाता है। साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, छह नोकषाय, आताप, उद्योत, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण शरीर, यशकीर्ति और अयशकीर्ति, इनका खोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान और उपघातका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव होनेपर भी बन्ध पाया जाता है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, जिन जीवोंने शरीर ग्रहण करलिया है उनके तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीके उदयका अभाव होनेपर भी बन्ध देखा जाता है। परघात और उच्छ्वासका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उदयाभावके होनेपर भी उनका बन्ध देखा जाता है । शेष प्रकृतियोंका परोदय वन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनके उदयका सर्वदा अभाव है।।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, औदारिक
प्रतिषु · पंचणाणावरणीय-सादासाद- पति पाठः । . ३ प्रतियु 'थायर ' इति पाठः !
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३, १०२.] एइंदिएसु बंधसामित्तं
[१६१ पाओग्गाणुपुवी-आदावुज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदसणादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो, सव्वेईदिएसु सांतरबंधाणमेदासिं तेउ-वाउकाइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं बंधो सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरं ? एइंदिएसुप्पण्णदेवाणमंतोमुहुत्तकालं णिरंतरबंधदसणादो ।
___ एइंदिएसु मिच्छत्तासंजम-कसाव-जोगभेदेण चत्तारि मूलपच्चया। पंचमिच्छत्तपच्चया । कुदो ? पंचमिच्छत्तेहि सह णाणामणुस्साणमेइंदिएसुप्पण्णाणं पंचमिच्छत्तुवलंभादो। एगो एइंदियासंजमो, छप्पाणासंजमा, कसाया सोलस, इत्थि-पुरिसवेदेहि विणा णोकसाया सत्त,
ओरालियदुग-कम्मइयमिदि तिणि जोगा, एदे सव्वे वि अट्ठत्तीस उत्तरपच्चया । णवीर तिरिक्ख-मणुस्साउआणं कम्मइयपच्चएण विणा सतत्तीस पच्चया । एक्कारस अट्ठारस
शरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्र, इनका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सर्व एकेन्द्रियों में सान्तर बन्धवाली इन प्रकृतियोंका तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है । परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर प्रकृतियोंका बन्ध सान्तर निरन्तर होता है।
शंका-इनका निरन्तर वन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए देवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका निरन्तर बन्ध देखा जाता है।
__ एकेन्द्रियों में मिथ्यात्व, असंयम, कपाय और योगके भेदसे चार मूल प्रत्यय होते हैं । उत्तर प्रत्ययों में पांच मिथ्यात्व प्रत्यय, क्योंकि, पांच मिथ्यात्वोंके साथ एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए नाना मनुष्यों के पांच मिथ्यात्व प्रत्यय पाये जाते हैं । एक एकेन्द्रियासंयम, छह प्राणि-असंयम, सोलह कषाय, स्त्री और पुरुष वेदके विना सात नोकषाय, तथा दो औदारिक व कार्मण ये तीन योग, ये सब ही अड़तीस उत्तर प्रत्यय एकेन्द्रियोंमें होते हैं । विशेषता केवल यह है कि तिर्यगायु व मनुष्यायुके कार्मण प्रत्ययके विना सैंतीस प्रत्यय होते हैं । ग्यारह व अठारह एक समय सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट
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१६२ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०२.
एगसमइयजहण्णुक्कस्सपच्चया ।
तिरिक्खाउ-[तिरिक्खगइ-] तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-आदावुज्जोव-थावर-सुहुमसाहारणसरीराणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति । मणुस्साउ-मणुस्सगइ-मणुस्साणुपुवी-उच्चागोदाणि मणुसगइसंजुत्तं बज्झति । अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खगइ-मणुसगइमंजुत्तं बंज्झति, दुगईहि विरोहाभावादो । एइंदिया सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । पंचणाणावरणीयणवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णच उक्क-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं चउविहो बंधो । अवसेसाणं सादि-अद्धवो ।
एवं बादरएइंदियाणं । णवरि बादरं सोदएण वज्झदि । सुहुमस्स परोदओ बंधो । बादरएइंदियपज्जत्ताणं वादरेइंदियभंगो। णवरि पज्जत्तस्स सोदओ, अपज्जत्तस्स परोदओ बंधा। बादरएइंदियअपज्जत्ताणं पि बादरएइंदियभंगो। णवरि थीणगिद्धितिय-परघादुस्सास-आदावुलोवपज्जत्त-जसकित्तीणं परोदओ बंधो। अपज्जत्त-अजसकित्तीणं सोदओ। परघादुस्सास-बादर
प्रत्यय होते हैं। - तिर्यगायु, [तिर्यग्गति,] तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म
और साधारणशरीरको तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, दोनों गतियोंके साथ उनके वन्धका विरोध नहीं है । एकेन्द्रिय जीव स्वामी हैं । वन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद है नहीं। पांच शानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात निर्माण और पांच अन्तराय, इनका चारों प्रकारका वन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अधुव वन्ध होता है।
इसी प्रकार यादर एकेन्द्रिय जीवोंकी भी प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि इनके बादर नामकर्म स्वोदयसे वंधता है। सूक्ष्म प्रकृतिका वन्ध परोदयसे होता है। वादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रियों के समान है। विशेपता केवल इतनी है कि उनके पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदय और अपर्याप्त प्रकृतिका परोदय वन्ध होता है। बादर एकेन्द्रिय अपयाप्त जीवांकी भी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रियोंके समान है। विशष यह है कि स्त्यानगृद्धित्रय, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत. पर्याप्त और यशकीर्तिका उनके परोदय बन्ध होता है । अपर्याप्त और अयशकीर्तिका स्वोदय वन्ध होता है। परघात,
,
१ अग्रतौ — बंधंति ' इति पाठः ।
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३, १०२.]
बीइंदिएसु बंधसामित्तं पज्जत्त-पत्तेयसरीराणमेइंदिएसु सांतर-णिरंतरो बंधो । एत्थ पुण सांतरो चेव, अपज्जत्तेसु देवाणमुप्पत्तीए अभावादो । ओरालियकायजोगपच्चओ णत्थि । सुहुमएइंदियाणं एइंदियभंगो। गवरि परघादुस्सास-बादर पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं सांतरो बंधो, सुहुमेइंदिएसु देवाणमुववादाभावादो । बादर-आदाउज्जोव-जसकित्तीणं परोदओ बंधो। सुहुमेइंदियपज्जताणं [सुहुमेइंदियभंगो। णवरि पज्जत्तस्स सोदओ, अपज्जत्तस्स परोदओ बंधो । सुहुमेइंदियअपज्जत्ताणं ] सुहुमेइंदियपज्जत्तभंगो । णवरि थीणगिद्धितिय-परघादुस्सासपज्जत्ताणं परोदओ बंधो । अपज्जत्तणामस्स सोदओ । पच्चएसु ओरालियकायजोगपच्चओ अवणेदव्वा ।
___ संपधि बीइंदियाणं भणामो- इत्थि-पुरिसवेद-मणुस्साउ-मणुसगइ-एइंदियतीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-अणंतिमपंचसंठाण-पंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीआदाव-पसत्थविहायगदि-थावर-सुहुम-साहारणसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-उच्चागोदाणमुदयाभावादो सेसपयडीणं चोदयवोच्छेदाभावादो बेइंदिएसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि
उच्छास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर, इनका एकेन्द्रियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है । परन्तु यहां उनका सान्तर ही बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकोंमें देवोंकी उत्पत्तिका अभाव है। यहां प्रत्ययों में औदारिक काययोग प्रत्यय नहीं है।
सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रियों के समान है। विशेषता यह है कि परयात, उच्छ्वास, वादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका उनके सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियों में देवोंकी उत्पत्तिका अभाव है। बादर, आताप, उद्योत और यशकीर्तिका परोदय बन्ध होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तोंकी प्ररूपणा [ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। विशेष इतना है कि उनके पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदय और अपर्याप्त प्रकृतिका परोदय बन्ध होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा ] सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है । विशेष इतना है कि स्त्यानगृद्धित्रय, परघात, उच्छ्वास और पर्याप्त प्रकृतियांका परोदय बन्ध होता है। अपर्याप्त नामकर्मका स्वोदय वन्ध होता है। प्रत्ययोंमें औदारिककाययोग प्रत्ययको कम करना चाहिये।
अव द्वीन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा करते हैं- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, अन्तिम संस्थानको छोड़ शेष पांच संस्थान, अन्तिम संहननको छोड़ शेष पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, प्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारणशरीर, सुभंग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनके उदयका अभाव होनेसे, तथा शेष प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका अभाव होनेसे पंचेन्द्रिय
१ अप्रतो ' मुहुमेएइंदियाणि वेइंदियभंगो'; आप्रतौ — सुहुमएइंदियाणि वेइंदियभंगो'; काप्रतौ ' सुहुमेइंदियाणि वेइंदियभंगो' इति पाठः ।
२ प्रतिघु एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-' इति पाठः ।
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१६४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १०२. बज्झमाणपयडीओ बंधमाणसु 'बंधादो उदओ किं पुत्वं किं वा पच्छा वोच्छिण्णो' त्ति विचारो णस्थि ।
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय--मिच्छत्त-णqसयवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइबीइंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-तस-बादर थिराथिर सुभासुभ-दुभग-अणादेज-णिमिण-णीचागोद-पंचंतरायइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ एदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । णिहाणिद्दा-पयलापयला-सादासाद-सोलसकसाय-छणोकसाय-पज्जत्तापज्जत्त-जसअजसकित्तीण सोदय-परोदओ बंधो, उभयथा वि बंधस्स विरोहाभावादो । ओरालियसरीरहुंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-उवघाद-पत्तेयसरीराणं पि सोदय-परोदओ, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधुवलंभादो । तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुवीए वि सोदय- परोदओ बंधो, विग्गहगदीदो अण्णत्थ उदयाभावे [वि बंधदसणादो । परघादुस्सासुजोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणं पि सोदय-परोदओ बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे वि बंधदंसणादो, उज्जोवस्स उज्जोवोदयविरहिदाविरहिदेसु बंधुवलंभादो । इत्थि-पुरिस-मणुस्साउ-मणुसगइ-एइंदिय-तीइंदियं
तिर्यंच अपर्याप्तोंके द्वारा बध्यमान प्रकृतियों को बांधनवाल द्वीन्द्रिय जीवों में 'वन्धसे उदय क्या पूर्वमें या क्या पश्चात् ब्युच्छिन्न होता है यह विचार नहीं है ।
__पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, नपुंसकवद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, द्वीन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय वन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुव उदय देखा जाता है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, छह नोकषाय, पर्याप्त, अपर्याप्त, यशकीर्ति, और अयशकीर्ति, इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है । औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तनृपाटिकासंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर, इनका भी स्वोदय-परोदय वन्ध होता है, क्योंकि विग्रहगतिमें उदयका अभाव होनेपर भी इनका वन्ध पाया जाता है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिको छोड़कर अन्यत्र उसका उदयाभाव होनेपर भी वन्ध देखा जाता है । परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति और दुस्वरका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनका उदयाभाव होनेपर भी वन्ध देखा जाता है, तथा उद्योतका उद्योतके उदयसे रहित और उससे सहित जीवों में उसका वन्ध पाया जाता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति,
मप्रती एइंदिय-बाइंदिय-तीइंदिय-' इति पाठः।
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३, १०२.] बीइंदिएसु बंधसामित्त
[१६५ चउरिंदिय- पंचिंदियजादि-अणंतिमपंचसंठाण-पंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-आदावपसत्थविहायगइ-थावर-सुहुम-साहारणसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं परोदओ बंधो।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। दोण्णमाउआणं णिरंतरो, एगसमएण वोच्छेदाभावादो । सादासाद-सत्तणोकसाय-मणुसगइ-एइंदिय-बाइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियपंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी- परघादुस्सास-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तम-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीरथिराधिर-सुहासुह-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएणेदासिं बंधुवरमदंसणादो । परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणमेइंदिएसु व सांतर-णिरंतरो बंधो किण्ण परुविदो? ण, देवाणमइदिएसु व विगलिंदिएसु उववादाभावादो।
अन्तिम संस्थानको छोड़कर पांच संस्थान, पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, प्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म साधारणशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनका परोदय बन्ध होता है ।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। दो आयुओंका निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धव्युच्छेदका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदय, अनादेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। .
__ शंका-परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका एकेन्द्रिय जीवोंके समान सान्तर निरन्तर वन्ध क्यों नहीं कहा गया ?
। समाधान-एकेन्द्रियों के समान विकलेन्द्रियों में देवोंकी उत्पत्ति न होनेसे यहां उक्त प्रकृतियोंका सान्तर-निरन्तर बन्ध नहीं कहा गया।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १०२.
तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणीचागोदाणं सांतर - निरंतरो बंधो । कथं णिरंतरो ? ण, तेउ वाउकाइएहिंतो बीइंदिएसुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तकालमेदासिं निरंतरबंधुवलंभादो ।
१६६ ]
एदासिं मूलपच्चया चत्तारि । पंच मिच्छत्त, दोइंदियासंजमा, छप्पाणासंजमा, सोलस कसाया, सत्त णोकसाया, चत्तारि जोगा, सव्वेदे बीइंदियस्स' चालीसुत्तरपच्चया । वरि तिरिक्ख मणुस्साउआणं कम्मइयपच्चएण विणा एगूणचालीस पच्चया । एक्कारस अट्ठारस एगसमइयजहण्णुक्कस्सपच्चया ।
तिरिक्खाउ-तिरिक्खगड् एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदियजादि-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वी-आदावुज्जोव थावर - सुहुम-साहारणाणं तिरिक्खगइ संजुत्ता बंधो। मणुस्सा उ-मणुस्सगइमणुस्सगइपाओग्गाणुपुवी - उच्चागोदाणं मणुसगइसंजुत्तो बंधो । सेसाणं पयडीणं तिरिक्ख मणुस्सगइ संजुत्तो बंधो । कुदो ? दोहि गदीहि सह विरोहाभावादो । बंधद्वाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । धुवियाणं चउव्विहो बंधो । अवसेसाणं सादि - अद्भुवो । एवं पज्जत्ताणं । वरि
तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान - यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक जीवों में से द्वीन्द्रियों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । इनके मूल प्रत्यय चार होते हैं। पांच मिथ्यात्व, दो इन्द्रियासंयम, छह प्राणिअसंयम, सोलह कपाय, सात नोकपाय और चार योग, ये सब द्वीन्द्रिय जीवके चालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं । विशेषता केवल इतनी है कि तिर्यगायु व मनुष्यायुके कार्मण प्रत्ययके विना उनतालीस प्रत्यय होते हैं । ग्यारह व अठारह क्रम से एक समय सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्यय होते हैं ।
तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इनका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंध होता है | मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका मनुष्यगति से संयुक्त बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों गतियोंके साथ उनके बन्धका विरोध नहीं है । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धयुच्छेद नहीं है । ध्रुव प्रकृतियोंका चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
इसी प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा है । विशेषता केवल इतनी है कि
२ प्रतिषु ' दुवियाणं ' इति पाठः ।
१ प्रतिषु
-
सम्वेदे वा बीइंदियस्स ' इति पाठः ।
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३, १०२.] तीइंदय-चउरिदिएसु बंधसामित्तं
[ १६७ पज्जत्तणामस्स सोदओ, अपज्जत्तणामस्स परोदओ बंधो । एवमपज्जत्ताण पि वत्तव्वं । णवीर थीणगिद्धितिय-परघादुस्सास-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-पज्जत्त-दुस्सर-जसकित्तीणं परोदओ बंधो। अपज्जत्त-अजसकित्तीण सोदओ। अपज्जत्ताणमट्ठत्तीस पच्चया, ओरालियकायासच्चमोसंवचिजोगाणमभावादो ।
तीइंदियाणं तीइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं च बीइंदिय-बीइंदियपज्जत्तं-बीइंदियअपज्जत्तभंगा। णवरि घाणिदिएण सह तेइंदियपज्जत्ताणमेक्केतालीस पच्चया । अपज्जत्ताणमेगूण चालीस, ओरालियकायासच्चमोसवचिजोगाणमभावादो । तीइंदियणामस्स सोदओ बंधो । अवसेसिंदियणामाणं परोदओ।
___ चरिंदियाणमेवं चेव वत्तव्यं । णवरि चउरिदियजादिबंधो सोदओ । सेसिंदियजादिबंधो परोदओ। बादालीसुत्तरपच्चया, चक्खिदियप्पवेसादो । अपज्जत्ताणं चालीस पच्चया,
उनके पर्याप्त नामकर्मका स्वोदय और अपर्याप्त नामकर्मका परोदय बन्ध होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय अपर्याप्तोंका भी कथन करना चाहिये । विशेष यह है कि स्त्यानगृद्धित्रय, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, पर्याप्त, दुस्वर और यशकीर्तिका परोदय बन्ध होता है । अपर्याप्त और अयशकीर्तिका स्त्रोदय बन्ध होता है । अपर्याप्तोंके अड़तीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, औदारिक काययोग और असत्य मृषा वचनयोगका उनके अभाव है।
. श्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय पर्याप्त और त्रीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है । विशेषता इतनी है कि प्राण इन्द्रियके साथ श्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके इकतालीस प्रत्यय होते हैं। अपर्याप्तोंके उनतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उनके औदारिक काययोग और असत्य मृषा वचनयोगका अभाव है। त्रीन्द्रिय नामकर्मका स्वोदय बन्ध होता है। शेष इन्द्रिय नामकर्मोंका परोदय वन्ध होता है।
चतुरिन्द्रिय जीवोंका भी इसी प्रकार ही कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि उनके चतुरिन्द्रिय जातिका स्वोदय वन्ध होता है। शेष इन्द्रिय जातियोंका बन्ध परोदय होता है । यहां चक्षु इन्द्रियका प्रवेश होनेसे ब्यालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं । अपर्याप्तोंके
१ आपतो ओरालियकायसच्चमोस.' इति पाठः।
२ प्रतिषु तीइंदियाणं तीइंदियपज्जत्ताणं तीइंदियअपज्जत्ताणं चरिंदिय-बीइंदियपज्जत्तमप्रती 'तीइंदियाणं तीइंदियपजतापज्जताणं च बीइंदियपच्चत्त- ' इति पाठः ।
३ प्रतिषु — ओरालियकायसच्चमोस' इति पाठः ।
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१६८ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १०२. ओरालियकायासच्चमोसवचिजोगाणमभावादो ।
__पंचिंदियअपज्जत्ताणं भणिस्सामो- एत्थ बज्झमाणपयडीओ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेहि बज्झमाणाओ चेव, ण अण्णाओ । एत्थ एदासिं उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णस्थि, संतासंताणं बंधोदयाणमेत्थ वोच्छेदाभावादो ।
पंचणाणावरणीय-च उदंसणावरणीय-मिच्छत्त-णQसयवेद-पंचिंदियजादि-तेजा- कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-अपज्जत्त-थिराथिर-सुहासुह-दुभग-अणादेज्जअजसकित्ति-णिमिण-णीचागोद-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो। णिद्दा पयला-सादा. साद-सोलसकसाय-छणोकसाय-तिरिक्खाउ--मणुस्साउ--तिरिक्खगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीण सोदय-परोदओ बंधो; उदएण विणा वि, संते वि उदए बंधुवलंभादो । ओरालियसरीर-हुंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवसंघडण-उवघाद पत्तेयसरीराणं सोदय-परोदओ बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावे वि अण्णत्थ उदए संते वि बंधदसणादो । थीणगिद्धितिय-इत्थिपुरिसवेद-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचसंठाण-पंचसंघडण-परघादुस्सास-आदावुओवदोविहायगइ-थावर-सुहुम-पज्जत्त-साहारणसरीर-सुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-उच्चा
चालीस प्रत्यय होते है, क्योंकि, उनके औदारिक काययोग और असत्य मृपा वचनयोगका अभाव है। .
पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा करते हैं- यहां बध्यमान प्रकृतियां पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों द्वारा बांधी जानेवाली ही हैं, अन्य नहीं है । यहां 'इनका उदयसे बन्ध पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है' यह विचार नहीं है, क्योंकि, सत् और असत् बन्धोदयके व्युच्छेदका यहां अभाव है।
पांच शानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, छह नोकषाय, तिर्यगाय, मनुष्याय और तिर्यग्गति व मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, इनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उदयके विना भी, तथा उदयके होने पर भी इनका बन्ध पाया जाता है। औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, उपघात और प्रत्येकशरीरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उदयाभावके होनेपर भी, तथा अन्यत्र उदयके होते हुए भी इनका बन्ध देखा जाता है। स्त्यानगृद्धित्रय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, पांच संस्थान, पांच संहनन, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारणशरीर, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका परोदयसे बन्ध
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३, १०२.] पंचिंदियअपज्जत्तरसु बंधसामित्तं
[ १६९ गोदाणं परोदएण बंधो, एदासिमेत्थ उदयविरोहादो।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय- दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ एदासिं धुवबंधित्तादो। सादासाद-सत्तणोकसाय-मणुसगइ-एइंदियबीइंदिय-तीइंदिय-च उरिदिय-पंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-मणुसगइ. पाओग्गाणुपुबी-परघादुस्सास-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तपत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्तिअजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएणेदासिं बंधुवरमदंसणादो । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधे। । कधं णिरंतरो ? ण, तेउ-वाउकाइएहितो पंचिंदियअपज्जत्तएसुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तकालमेदासिं णिरंतरबंधुवलंभादो ।
पंचिंदियअपज्जत्ताणमेदाओ पयडीओ बंधमाणाणं' पंच मिच्छत्ताणि, बारस असंजम,
होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर वन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमेंसे पंचन्द्रिय अपर्याप्तोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
इन प्रकृतियों को बांधनेवाले पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके पांच मिथ्यात्व, बारह
१ प्रतिषु — बंधणाणं ' इति पाठः ।
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१७०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०३. सोलस कसाय, सत्त णोकसाय दोण्णि जोग त्ति बादालीस पच्चया होति । तिरिक्ख-मणुस्साउआणं एक्केतालीस पच्चया, कम्मइयपच्चयाभावादो । सेसं सुगमं ।।
तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी-आदाउज्जोव-थावर-सुहुम-साहारणसरीराणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । मणुस्साउमणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-उच्चागोदाणं मणुसगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं बंधो तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो । पंचिंदियअपज्जत्ता सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं चउविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अद्धवो।
पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १०३॥
एदं पुच्छासुत्तं देसामासिय, तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे । तं जहा - किं
असंयम, सोलह कषाय, सात नोकपाय और दो योग, इस प्रकार ब्यालीस प्रत्यय होते हैं। तिर्यगायु और मनुष्यायुके इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उनके कार्मण प्रत्ययका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है।
तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण शरीर, इनका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मनुष्याय, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानपूर्वी और उच्चगोत्रका मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंका बन्ध तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वामी हैं । वन्धाध्वान सुगम है। बन्धव्युच्छेद यहां है नहीं। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका चार प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी हैं । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१०३॥
यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा
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३, १०३. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्तं
[१७१ मिच्छाइट्टी बंधओ किं सासणो बंधओ किं सम्मामिच्छाइट्ठी बंधओ किमसंजदसम्माइट्ठी बंधओ किं संजदासंजदो किं पमत्तो किमपमत्तो किमपुवो किमणियट्टी किं सुहुमसांपराइयओ किमुवसंतकसाओ किं खीणकसाओ किं सजोगिजिणो किमजोगिभडारओ बंधओ त्ति एवमेसो एगसंजोगो । संपधि एत्थ दुसंजोगादीहि अक्खसंचारं करिय सोलहसहस्स-तिण्णिसय-तेयासीदि-पण्णभंगा उप्पाएयव्वा । किं पुव्वमेदासिं बंधो वोच्छिज्जदि किमुदओ किं दो वि समं वोच्छिज्जंति एवमेत्थ तिण्णि भंगा । किं सोदएण बंधो किं परोदएण किं सोदय-परोदएण एत्थ वि तिण्णि भंगा। किं सांतरो बंधो किं णिरंतरो [किं] सांतर-णिरंतरो त्ति एत्थ वि तिण्णेव भंगा । एदासिं किं मिच्छत्तपच्चओ बंधो किमसंजमपच्चओ किं कसायपच्चओ किं जोगपच्चओ बंधो त्ति पण्णारस मूलपच्चयपणहभंगा' हवंति । एयंत-विवरीय-मूढ-संदेहअण्णाणमिच्छत्त-चक्खु-सोद-घाण-जिब्भा-पास-मण-पुढवीकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिकाइय-तसकाइयासंजम-सोलसकसाय-णवणोकसाय-पण्णारसजोगपच्चए हविय
करते हैं । वह इस प्रकार है- क्या मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या संयतासंयत, क्या प्रमत्त, क्या अप्रमत्त, क्या अपूर्वकरण, क्या अनिवृत्तिकरण, क्या सूक्ष्मसाम्परायिक, क्या उपशान्तकषाय, क्या क्षीणकषाय, क्या सयोगी जिन, या क्या अयोगी भट्टारक बन्धक हैं, इस प्रकार ये एकसंयोगी भंग है। अब यहां द्विसंयोगादिकोंके द्वारा अक्षसंचार करके सोलह हजार तीन सौ तेरासी प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये । क्या पूर्वमें इनका बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय, या क्या दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, इस प्रकार यहां तीन भंग होते हैं। क्या स्वोदयसे बन्ध होता है, क्या परोदयसे या क्या स्वोदय-परोदयसे, इस प्रकार यहां भी तीन भंग होते हैं। क्या सान्तर बन्ध होता है, क्या निरन्तर बन्ध होता है, या क्या सान्तर निरन्तर, इस प्रकार यहां भी तीन ही भंग होते हैं।
इनका बन्ध क्या मिथ्यात्वप्रत्यय है, क्या असंयमप्रत्यय है, क्या कषायप्रत्यय है, या क्या योगप्रत्यय बन्ध है, इस प्रकार पन्द्रह मूल-प्रत्यय-निमित्तक प्रश्नभंग होते हैं। एकान्त, विपरीत, मूढ़ [ विनय ], सन्देह और अज्ञान रूप पांच मिथ्यात्व; चक्षु, श्रोत्र, प्राण, जिह्वा, स्पर्श, मन, पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और उसकायिक, इनके निमित्तसे होनेवाले बारह असंयम; सोलह कषाय, नौ
१ अ-काप्रयोः 'पंचण्हभंगा'; आप्रतौ '-पंचण्हं भंगा' इति पाठः।
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१७२)
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०४. चोद्दससदएक्केतालीसकोडाकोडी-पण्णारसलक्ख-अट्ठारससहस्स-अट्ठसय-सत्तकोडी'-अट्ठवंचासलक्ख-वंचवंचाससहस्स-अट्ठसय-एक्कहत्तरिउत्तरपच्चयपण्णभंगा' उप्पाएदव्वा १४४११५. १८८०७५८५५८७१। किं णिरयगइसंजुत्तं बझंति किं तिरिक्खगइसंजुत्तं किं मणुस्सगइसंजुत्तं [किं देवगइसंजुत्तं] इदि एत्थ पण्णारस पण्हभंगा उप्पाएदव्वा । अद्धाणभंगपमाणं सुगमं । किमप्पिदगुणट्ठाणस्सादिए मज्झे अंते बंधो वोच्छिज्जदि त्ति एक्केक्कम्हि गुणट्ठाणे तिण्णि तिण्णि भंगा उप्पाएयव्वा । सव्वबंधवोच्छेदपण्हसमासो बाएत्तालीस । किं सादिओ बंधो किमणादिओ किं धुवो किमद्धवो त्ति एत्थ पण्णारस पण्हभंगा उप्पाएयव्वा ।
मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १०४ ॥
___एदस्स अत्थो उच्चदे-पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचतराइयाणं पुव्वं बंधो
नोकषाय और पन्द्रह योग, इन प्रत्ययोंको स्थापित कर चौदह सौ इकतालीस कोडाकोड़ी, पन्द्रह लाख, अठारह हजार, आठ सौ सात करोड़; अट्ठावन लाख, पचवन हजार, आठ सौ इकत्तर उत्तर प्रत्यय निमित्तक प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये। १४४११५१८८०७५८५५८७१ ।
ये क्या नरकगतिसे संयुक्त बंधते हैं, क्या तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंधते हैं, क्या मनुष्यगतिसे संयुक्त बंधते हैं, [या क्या देवगतिसे संयुक्त बंधते हैं, ] इस प्रकार यहां पन्द्रह प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये। वन्धाध्वानका भंगप्रमाण सुगम है। क्या विवक्षित गुणस्थानके आदिमें, मध्यमें या अन्तमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, इस प्रकार एक एक गुणस्थानमें तीन तीन भंग उत्पन्न कराना चाहिये । बन्धव्युच्छेदके प्रश्नविषयक सर्व भंगोंका योग ब्यालीस होता है । क्या सादि, क्या अनादि, क्या ध्रुव और क्या अचव बन्ध होता है, इस प्रकार यहां पन्द्रह प्रश्नभंग उत्पन्न कराना चाहिये ।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १०४ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच
१ प्रतिषु सत्त-सत्तकोडी' इति पाठः। २ प्रतिषु ' पच्चया पण्णभंगा' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः । किमप्पिद्गुण-'; काप्रती किमपिद्गुण.' इति पाठः।
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३, १०४.1 पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्तं पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सुहुमसांपराइयचरिमसमयम्हि णट्टबंधाणमेदासिं खीणकसायचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदुवलंभादो। जसकित्तीए उच्चागोदस्स य पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सुहुमसांपराइयचरिमसमयम्मि णट्टबंधाणं अजोगिचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदुवलंभादो।
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो। जसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति सोदय-परोदएण बंधो, एदेसु अजसकित्तीए वि उदयदंसणादो । उवरि सोदएणेव, पडिवक्खुदयाभावादो । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदो [त्ति] उच्चागोदस्स सोदय परोदएण बंधो, एदेसु णीचागोदस्स वि उदयदंसणादो । उवरि सोदओ, पडिवक्खुदयाभावादो ।
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, सव्वगुणट्ठाणेसु वि एगसमएण बंधवोच्छेदाभावादो । जसकित्तीए सांतर-णिरंतरो बंधो, मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंघो, एदेसु पविक्खपयडिबंधदंसणादो; उवरि णिरंतरो, पडिवक्ख
अन्तरायका पूर्व में बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्धके नष्ट हो जानेपर क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें उनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है। यशकीर्ति और उच्चगोत्रका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्धके नष्ट हो जानेपर अयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें इनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है । यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें अयशकीर्तिका भी उदय देखा जाता है। ऊपर इसका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अयशकीर्तिके उदयका अभाव है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक उच्चगोत्रका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में नीचगोत्रका भी उदय देखा जाता है । उपरिम गुणस्थानोंमें उसका स्वोदयसे बन्ध होता है, क्योकि, वहां नीचगोत्रके उदयका अभाव है।
___ पांच शानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सब गुणस्थानोंमें ही एक समयसे इनके बन्धव्युच्छेदका अभाव है। यशकीर्तिका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, मिथ्याष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक इनमें प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध देखे जानेसे सान्तर बन्ध होता है और इससे ऊपर
१ अप्रतौ । समयम्मि गट्ठबंधाणं उदय-' इति पाठः ।
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१७४ ] . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०५. पयडीए बंधाभावादो । उच्चागोदस्स मिच्छाइटि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो । असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु, संखेज्जवासाउअसुहतिलेस्सिएसु णिरंतरबंधदसणादो । उवरिमगुणेसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो । पच्चयाणं मूलोधभंगो । गइसंजुत्तादि उवरि जाणिय वत्तव्वं ।
__णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडणतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-- अणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १०५॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १०६॥
प्रतिपक्ष प्रकृतिके वन्धका अभाव होनेसे उसका निरन्तर बन्ध होता है । उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्योंमें, तथा संख्यातवर्षायुष्क तीन शुभ लेश्याघालोंमें उसका निरन्तर बन्ध देखा जाता है। उपरिम गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। प्रत्ययोंकी प्ररूपणा मूलोघके समान है। गतिसंयुक्तादि उपरिम पृच्छाओंके विषयमें जानकर कहना चाहिये ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १०५॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं
१ प्रतिषु ण संखेज्ज-' इति पाठः ।
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३, १०६.] पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्तं
[१७५ एदस्स अत्थो वुच्चदे-थीणगिद्धितियस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणसम्माइट्ठि-पमत्तसंजदेसु जहासंखाए बंधोदयवोच्छेददंसणादो । अणंताणुबंधिचउक्कस्स दो वि समं वोच्छिज्जंति, सासणे तदुभयाभावदसणादो। इत्थिवेदस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणाणियट्ठीसु जहासंखाए बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । तिरिक्खाउतिरिक्खगइ-उज्जोवणीचागोदाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणसम्मादिहिसजदासजदेसु तेसिं दोण्णं वोच्छेदुवलंभादो । चउसंठाणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासण-सजोगीसु तेसिं दोण्णं वोच्छेदुवलंभादो । एवं चदुसंघडणाणं पि वत्तव्वं, सासणे फिटबंधाणमप्पमत्तुवसंतकसाएसु पढम-बिदियसंघडणदुगोदयवोच्छेददंसणादो। एवं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-दुभग-अणादेज्जाणं वत्तव्वं सासण-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो । एवमप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणं वत्तव्वं, सासण-सजोगीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो।
__इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्त्यानगृद्धित्रयका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें यथाक्रमसे इनके वन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । स्त्रीवेदका पूर्वमें वन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, 'सासादन और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानोंमें यथाक्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति, उद्योत और नीचगोत्र, इनका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में क्रमशः उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। चार संस्थानोंका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादन और सयोगकेवली गुणस्थानोंमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है । इसी प्रकार चार संहननोंके भी पूर्व पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेदको कहना चाहिये, क्योंकि, सासादन गुणस्थान में बन्धके नष्ट हो जानेपर अप्रमत्त व उपशान्तकषाय गुणस्थानोंमें क्रमसे उक्त चार संहननोंके प्रथम व द्वितीय युगलके उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, दुर्भग और अनादेयके भी कहना चाहिये, क्योंकि, सासादन व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः इनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । इसी प्रकार अप्रशस्तविहायोगति
और दुस्वरके भी कहना चाहिये, क्योंकि, सासादन और सयोगकेवली गुणस्थानों में इनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है ।
१ प्रतिषु तदुभयभाव-' इति पाठः।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०६. थीणगिद्धितियादीणं सव्वासिं पयडीण बंधो सोदय-परोदओ, उभयथा वि विरोहाभावादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्क-तिरिक्खाउआणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंध।। कधं णिरंतरो ? ण, तेउ-वाउक्काइयचरपंचिंदियमिच्छाइट्ठीसु सत्तमपुढवीमिच्छाइटि-सासणसम्माइट्टिणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । सेसाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पच्चया ओघपच्चयतुल्ला । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवाणि दो वि तिरिक्खगइसंजुत्तं, इत्थिवेदं णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, चउसंठाण चउसंघडणाणि दो वि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि मिच्छाइट्ठी तिगइसंजुत्तं बंधइ देवगईए विणा, सासणो तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं । सेसाओ पयडीओ मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं सासणो तिगइसंजुत्तं । सेसं चिंतिय वत्तव्वं ।
स्त्यानगृद्धित्रय आदिक सब प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी उनके बन्धका विरोध नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है । तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर अन्ध होता है।
शंका----निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, तेजकायिक व वायुकायिक जीबोंमेंसे आकर पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियों में उत्पन्न हुए जीवों तथा सप्तम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंमें उक्त प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धका विश्राम देखा जाता है। प्रत्ययोंकी प्ररूपणा ओघप्रत्ययोंके समान है । तिर्यगायु, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको दोनों ही गुणस्थानवर्ती जीव तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । स्त्रीवेदको नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । चार संस्थान और चार संहननको दोनों ही तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको मिथ्यादृष्टि देवगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, तथा सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त और सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं। शेष विचार कर कहना चाहिये।
१ प्रतिषु ‘णिरंतरो बंधुवलंभादो' इति पाठः ।
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पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तरसु बंधसा मित्तं
णिद्दा - पलाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १०७ ॥
सुगमं ।
१, १०९. ]
मिच्छाइट्टिपहुडि जाव अपुव्वकरणपविट्ठसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणसंजदद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १०८ ॥
एदस्स अत्थो उच्चदे - बंधो एदासिं पुत्रं वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, अपुव्वखीणकसासु कमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो । सोदय- परोदएण सव्वगुणट्ठाणेसु बंघो, अद्धुवोदयत्तादो । णिरंतरो, ध्रुवबंधित्तादो । पच्चया सव्वगुणडाणे ओघपच्चयतुल्ला । मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठी असंजद सम्माइट्ठी दुगइसंजुत्तं, सेसा देवगइ संजुत्तं । गइसामित्तद्धाण- बंधवोच्छेदट्ठाणाणि सुगमाणि । मिच्छाइट्ठिस्स चउविवो बंधो । सेसेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो ।
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १०९ ॥
[ १७७
निद्रा और प्रचलाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १०७ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्टशुद्धिसंयतों में उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरण संयतकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्धव्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १०८ ॥
।
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- इनका बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है और उदय पश्चात्, क्योंकि, अपूर्वकरण व क्षीणकषाय गुणस्थानोंमें क्रमसे इनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । सब गुणस्थानोंमें इनका बन्ध स्वोदय-परोदयसे होता है, क्योंकि, वे अधुवोदयी हैं । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं । प्रत्यय सब गुणस्थानोंमें ओघप्रत्ययों के समान हैं । मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियों से संयुक्त, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त, तथा शेष गुणस्थानवर्ती देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । गतिस्वामित्व, अध्वान और बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम हैं । मिथ्यादृष्टिके चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है ।
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है १ ॥ १०९ ॥
छ. नं. २३.
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१७८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ११०. सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा । सजोगिकेवलिअदाए चरिमसमयं गंतूण बंधों वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ११० ॥
एदस्स अत्थो उच्चदे- बंधो पुव्वं पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, सजोगिकेवलिअजोगिकेवलीसु जहाकमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो । सोदय-परोदएण बंधो, सव्वगुणट्ठाणेसु अद्धवोदयत्तादो। मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो। पच्चया सव्वगुणट्ठाणेसु ओघपच्चयतुल्ला । मिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठिणो तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए सह सादबंधाभावादो । सेसं सव्वमोघतुल्लं।
असादावेदणीय-अरदि-सोग-अथिर-असुह-अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ११ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं। सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्धव्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ११० ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- सातावेदनीयका बन्ध पूर्वमें और उदय पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। स्वोदय परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वह सब गुणस्थानोंमें अध्रुवोदयी है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां एक समयसे उसका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रमत्तसंयतसे ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सब गुणस्थानों में ओघप्रत्ययोंके समान हैं। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, नरकगतिके साथ सातावेदनीयका बन्ध नहीं होता। शेष सब प्ररूपणा ओघके समान है।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १११ ॥
१ प्रतिषु — बंधो.' इति पाठः । २ अ-काप्रत्योः बंधा' इति पाठः ।
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३, ११२.] पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्त
[१७९ . [सुगमं ।]
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ११२ ॥
असादावेदणीयस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, पमत्त-अजोगिकवलीसु जहाकमेण बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । एवमरदि-सोगाणं वत्तव्वं, पमत्तापुवकरणेसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो । एवं चेव अथिर-असुहाण वत्तव्वं, पमत्त-सजोगिकेवलीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। अजसकित्तीए पुवमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिण्णा, पमत्तसंजद-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो ।
असादावेदणीय-अरदि-सोगाणं सोदय-परोदएण सव्वगुणट्ठाणेसु बंधो, परावत्तणोदयत्तादो । अथिरासुभाणं सव्वत्थ सोदएण बंधो, धुवोदयत्तादो । अजसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टि त्ति सोदय-परोदएण बंधो, एदेसु पडिवक्खोदएण वि बंधुवलंभादो ।
[यह सूत्र सुगम है । ]
मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ११२ ॥
असातावेदनीयका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय ब्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्तसंयत और अयोगकेवली गुणस्थानोंमें यथाक्रमसे उसके बन्ध और उद पुच्छेद पाया जाता है । इसी प्रकार अरति और शोकके कहना चाहिये, क्योंकि, प्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानों में क्रमशः इनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। इसी प्रकार ही अस्थिर और अशुभके भी कहना चाहिये, क्योंकि, प्रमत्त और सयोगकेवली गुणस्थानों में उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। अयशकीर्तिका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्तसंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है।
असातावेदनीय, अरति और शोकका सब गुणस्थानों में स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, इनका उदय परिवर्तनशील है। अस्थिर और अशुभका सर्वत्र स्वोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी हैं। अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयके साथ भी उसका बन्ध पाया जाता है । इसके ऊपर परोद्यसे
१ प्रतिषु 'सव्व ' इति पाठः।
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१८..]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ११३. उवरि परोदएण, जसकित्तीए चेव तत्थोदयदंसणादो । एदासिं छण्हं पयडीणं सांतरो बंधो, दो-तिण्णिसमयादिकालपडिबद्धबंधणियमाभावादो। पच्चया सुगमा । एदाओ छप्पयडीओ मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दुगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधंति । उतरि ओघभंगो ।
मिच्छत्त-णqसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-णिरयाणुपुवीआदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ११३॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ११४॥ 'एदे बंधा ' त्ति णिद्देसो अणत्थओ, अवगदट्ठपरूवणादो। ण एस दोसो,
बन्ध होता है, क्योंकि, वहां यशकीर्तिका ही उदय देखा जाता है। इन छह प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, दो-तीन समयादि रूप कालसे सम्बद्ध इनके बन्धके नियमका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । इन छह प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि चार गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि दो गतियोंसे संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। उपरिम प्ररूपणा ओघके समान है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नरकानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ?
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ११४ ॥
शंका-'ये बन्धक हैं' यह निर्देश अनर्थक है, क्योंकि, वह ज्ञात अर्थका प्ररूपण करता है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मेधावर्जित अर्थात् मूर्ख जनोंके
१ प्रतिषु ' तत्तोदय' इति पाठः ।
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२, ११४.]
पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तरसु बंधसामित्तं
[ १८१
मेहावज्जियजणाणुग्गहङ्कं तण्णिद्देसादो । मिच्छत्त - अपज्जत्ताणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, मिच्छाइट्ठिम्हि चेव तदुभयवोच्छेददंसणादो । एइंदिय - बीइंदिय - तीइंदिय - चउरिदिंयजादिआदाव - थावर-सुहुम-साहारणाणमेस विचारो णत्थि, पंचिंदिएसु तेसिमुदयाभावाद । णवरि पंचिंदियपज्जत्तएस अपज्जत्तस्स वि एसो विचारो णत्थि त्ति वत्तव्वं । णवुंसयवेदस्स पुब्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, मिच्छाइट्टि - अणियट्टिगुणेसु' बंधोदयवोच्छेददंसणादो | एवं णिरयाउ - निरयगइ - णिरयाणुपुव्वीणं वत्तव्वं, मिच्छादिष्ट्ठि-असंजदसमादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो | एवं हुंडठाणस्स वत्तव्वं, मिच्छाइट्टि - सजेोगिकेवलीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो ! एवमसंपत्तसेवट्टसंघडणस्स वि वत्तव्वं, मिच्छाइड - अप्पमत्तेसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो ।
मिच्छत्तस्स सोदएण बंधो, धुवोदयत्तादों । णवुंसयवेद - अपज्जत्ताणं सोदय-परोदओ, अद्भुवोदयत्तादो। णवरि पंचिंदियपज्जत्तएस अपज्जत्तस्स परोदओ बंधो, तत्थ तदुदयाभावादो ।
अनुग्रह के लिये वह निर्देश किया गया है ।
मिथ्यात्व और अपर्याप्तका बन्ध व उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही उन दोनों का व्युच्छेद देखा जाता है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण, इन प्रकृतियोंके यह विचार नहीं है, क्योंकि, पंचेन्द्रिय जीवोंमें उनके उदयका अभाव है । विशेष इतना है कि पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में अपर्याप्त प्रकृतिके भी यह विचार नहीं हैं, ऐसा कहना चाहिये । नपुंसकवेदका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, मिध्यादृष्टि और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानोंमें क्रमशः उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । इसी प्रकार नारकायु, नरकगति और नरकानुपूर्वीके कहना चाहिये, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे इनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। इसी प्रकार हुण्डसंस्थान के भी कहना चाहिये, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और सयोगकेवली गुणस्थानोंमें इसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । इसी प्रकार असंप्राप्तसृपाटिका संहननके भी कहना चाहिये, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और अप्रमत्त गुणस्थानों में इसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है ।
मिध्यात्वका स्वोदय से बन्ध होता है, क्योंकि वह भ्रुवोदयी है । नपुंसकवेद और अपर्याप्तका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे अभ्रुवोदयी हैं। विशेष इतना है कि पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें अपर्याप्तका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्तके
१ आमतौ‘- अणियट्टिगुणट्टाणेसु ' इति पाठः । २ अ आपत्योः ' धुवोदयादो' इति पाठः ।
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१८) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
। ३,११५. हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं सोदय-परोदओ बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधदसंणादो सव्वेसिं तदुदयणियमाभावादो वा । णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदियचउरिदियजादि-णिरयाणुपुव्वी-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं परोदओ बंधो, पंचिंदिएसु एदासिमुदयविरोहादो उदएण सह बंधस्स उत्तिविरोहादो।
मिच्छत्त-णिरयाउआणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सेसाणं पयडीणं सांतरो, णिरंतरबंधे णियमाभावादो । पच्चया सुगमा । मिच्छत्तं चउगइसंजुत्तं, णउंसयवेदहुंडसंठाणाणि तिगइसंजुत्तं, अपज्जत्तासंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बझंति । णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयाणुपुवीओ णिरयगइसंजुत्तं, सेसाओ सव्वपयडीओ तिरिक्खगइसंजुत्तं । सेसमोघं ।
अपच्चक्खाणावरणीयकोध-माण-माया-लोभ-मणुसगइ-ओरा. लियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणामाणं को बंधो को अबंधो?॥११५॥
सुगम ।
......................
उदयका अभाव है। हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उनका उदयाभाव होनेपर भी बन्ध देखा जाता है, अथवा सब पंचेन्द्रियोंके उनके उदयका नियम भी नहीं है । नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,न्द्रिय, चतुरिन्द्रय जाति, नरकानुपूवा, आताप, स्थावर, सूक्ष्म आर साधा इनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, पंचेन्द्रियोंमें इनके उदयका विरोध होनेसे उदयके साथ उनके बन्धके कथनका विरोध है।
मिथ्यात्व और नारकायुका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, निरन्तर बन्धमें नियमका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । मिथ्यात्वको चारों गतियोंसे संयुक्त,नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानको देवगति विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा अपर्याप्त और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । नारकायु, नरकगति और नरकानुपूर्वीको नरकगतिसे संयक्त. तथा शेष सब प्रकृतियोंको तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष प्ररूपणा ओघके समान है।
अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ११५ ॥
यह सूत्र सुगम है। १ आ-काप्रत्योः । णिरंतरबंधो' इति पाठः ।
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३, ११६.] पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तरसु बंधसामित्तं
[१८३ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ११६ ॥
मणुस्साणुपुवी-अपच्चक्खाणचउक्काणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि तदुभयाभावदंसणादो । मणुसगईए पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, असंजदसम्मादिट्ठि-अजोगिकेवलीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगवज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणमेवं चेव वत्तव्वं, असंजदसम्मादिहि-सजोगीसु बंधोदय. वोच्छेदुवलंभादो। अपच्चक्खाणच उक्कादीणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादों । अपच्चक्खाणचउक्कस्स बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतर-णिरंतरो, तिरिक्खमणुस्सेसु सांतरस्स आणदादिदेवेसु णिरंतरत्तुवलंभादो । सम्मामिच्छादिट्टि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, एगसमएण तत्थ बंधुवरमाभावादो। वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणस्स मिच्छाइटि
__ मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं । ये बन्धक है, शेष अबन्धक हैं ॥ ११६॥
मनुष्यानुपूर्वी और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्यच्छिन्न होते हैं, क्योंकि. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । मनुष्यगतिका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमशः उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके भी इसी प्रकार ही कहना चाहिये, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है।
अप्रत्याख्यावरणचतुष्कादिकोंका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर और औदारिक. शरीरांगोपांगका वन्ध मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, वह तिर्यंच व मनुष्योंमें सान्तर होकर भी आनतादि देवोंमें निरन्तर पाया जाता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध
१ प्रतिषु ' -सम्मादिट्ठीहि ' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'णिरंतरुवलंभादो' इति पाठः ।
२ प्रतिषु 'बंधोदयत्तादो' इति पाठः। ४ प्रतिषु । संघडणाणं' इति पाठः। .
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१८४३ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ११७. सासणेसु सांतरो बंधो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पञ्चया सुगमा । उवरि मूलोघभंगो । . पच्चक्खाणावरणकोध-माण-माया-लोभाणं को बंधो को अबंधो? ॥ ११७॥
सुगमं ।
मिच्छादिटिप्पडि जाव संजदासजदा बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ११८ ॥
एदं. पि सुगमं । पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ११९ ॥
सुगमं ।
मिच्छादिहिप्पहुडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठउवसमा खवा बंधा । अणियट्टिवादरद्धाए सेसे संखेज्जाभागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १२० ॥
होता है । ऊपर उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । उपरिम प्ररूपणा मूलोघके समान है।
प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक व कौन अबन्धक
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक है, शेष अबन्धक हैं ॥११८॥
यह सूत्र भी सुगम है। पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ११९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरणबादरकालके शेषमें संख्यात बहुभागोंके वीत जानेपर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १२० ॥
१ प्रतिषु · संखेज्जेसु भागे' इति पाठः ।
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१, १२५. ] पंचिंदिय-पंचिंदियाग्जत्तएसु बंधसामित्तं
[१८५ एदं पि सुगमं । माण-माया-संजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १२१ ॥
सुगम ।
मिच्छादिहिप्पहुडि जाव अणियट्टी उवसमा खवा बंधा। अणियट्टिबादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १२२ ॥
सुगमं । • लोभसंजलणस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १२३ ॥
सुगमं ।
मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अणियट्टी उवसमा खवा बंधा । अणियट्टिबादरद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १२४ ॥
यह सूत्र भी सुगम है। संज्वलन मान और मायाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १२१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। अनिवृत्तिबादरकालके शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १२२ ॥
यह सूत्र सुगम है। संज्वलन लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १२३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरणबादरकालके अन्तिम समयमें जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १२४ ॥
...२४.
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१८६ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १२५. सुगमं । हस्स-रदि-भय-दुगंछाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १२५ ॥ सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपविट्ठउवसमा खवा बंधा। अपुवकरणद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १२६ ॥
एदं पि सुगमं । मणुस्साउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १२७ ॥ . . सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १२८ ॥
सुगमं ।
यह सूत्र सुगम है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१२५॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके अन्तिम समयमें जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेप अबन्धक हैं ॥ १२६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है। मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १२७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १२८॥
यह सूत्र सुगम है।
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३, १३१.] पंचिंदिय-पंचिदियपजत्तरसु बंधसामित्तं [१८७
देवाउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १२९ ॥ सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा बंधा। अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १३०॥
सुगमं ।
देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्बिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास--देवगइपाओग्गाणुपुब्बी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तसबादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १३१ ॥
सुगमं ।
देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १२९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं । अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १३० ॥
यह सूत्र सुगम है।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघाद, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण नामकर्म, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१३१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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१८८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १३२. मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपइहउवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १३२ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे- देवगइ-वेउब्वियसरीर-अंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुचीणं पुब्बमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिण्णो, अपुवकरणासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्त-सुभग-आदेज्जाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, अपुवकरणाजोगीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । तेजा-कम्मइय-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुस्सरणिमिणणामाणमेवं चेव वत्तव्वं, अपुवकरण-सजोगीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो ।
देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं परोदओ बंधो, उदए संते एदासिं बंधविराहादा । पंचिंदिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-तस-बादर-पज्जत्त-थिर-सुह-णिमिणाणं सोदएणेव बंधो, धुवोदयत्तादो। परघादुस्सास
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १३२ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग और आदेय, इनका पूर्वमें यन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और अयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमसे इनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर और निर्माण नामकर्म, इनके भी बन्ध व उदयका व्युच्छद इसी प्रकार कहना चाहिये, क्योकि, अपूर्वकरण और सयोगकेवली गुणस्थानों में इनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है।
देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उदयके होनेपर इनके बन्धका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माण नामकर्मका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं। परघात,
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३, १३२.
पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्तं पसत्थविहायगइ-सुस्सर-आदेज्जाणं सोदय-परोदओ बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे पि बंधुवलंभादो, पसत्थविहायगह-सुस्सराणमद्धवोदयत्तदसणादो, आदेज्जस्स मिच्छाइट्टिप्पहुडिजाव असंजदसम्मादिहि त्ति उदयस्स भयणिज्जत्तुवलंभादो, उवरि सव्वत्थ धुवोदयत्तदंसणादो च । समचउरससंठाणुवघाद-पत्तेयसरीराणमेवं चेव वत्तव्वं, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधुवलंभादो, समचउरससंठाणोदयस्स भयणिज्जत्तदंसणादो च । एवं सुभगपज्जत्ताणं पि वत्तवं, पंचिंदिएसु पडिवक्खपयडीए उदयदसणादो । णवरि पंचिंदियपज्जत्तएम पज्जत्तस्स सोदएणेव बंधो, तत्थ पडिवक्खपयडीए उदयाभावादो । एवमेदं मिच्छाइट्ठीणं परूविदं । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमेवं चेव परूवेदव्वं । णवरि पज्जत्तस्स सोदए. णेव' बंधो । एवं सम्मामिच्छादिट्टिआदि उवरिमगुणट्ठाणाणं पि वत्तव्यं । णवरि उवघाद-परघादउस्सास पज्जत्त-पत्तयसरीराणं पि सोदएणेव बंधो, तत्थ अपज्जत्तकालाभावादो ।
तेजा-कम्मइय-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिणाणं सव्वगुणट्ठाणेसु
उच्छ्वास, प्रशस्तविहाय गति, सुस्वर और आदेय, इनका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उदयके न होनेपर भी इनका बन्ध पाया जाता है, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वर प्रकृतियोंका अधुवोदय देखा जाता है, तथा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक आदेयका उदय भजनीय अर्थात् विकल्पसे पाया जाता है, और इससे ऊपर सर्वत्र धुवोदय देखा जाता है । समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येकशरीरके भी इसी प्रकार कहना चाहिये, क्योंकि, विग्रहगतिमें उदयके न होनेपर भी बन्ध पाया जाता है, तथा समचतुरस्रसंस्थानका उदय भजनीय देखा जाता है। इसी प्रकार सुभग और पर्याप्तके भी कहना चाहिये, क्योंकि, पंचेन्द्रियों में प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय देखा जाता है। विशेष इतना है कि पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है। इस प्रकार यह मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा हुई । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार करना चाहिये । विशेषता यह है कि पर्याप्तका स्वोदयसे ही बन्ध होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि उपरिम गुणस्थानोंके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उपघात, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका भी स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, उन गुणस्थानोंमें अपर्याप्तकालका अभाव है।
तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, और
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१ प्रतिषु ‘पज्जतरसोदएणेव ' इति पाठः ।
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१९.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १३२. णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पंचिंदियजादीए मिच्छाइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो ? ण, सणक्कुमारादिदेवेसु णेरइएसु असंखेज्जवासाउअ-सुहतिलेस्सियतिरिक्ख मणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणादीसु णिरंतरो बंधो, तत्थ एइंदियजादिआदीणं बंधाभावादो । एवं परधादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं पि वत्तव्यं, भेदाभावादो । समचउरससंठाणपसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जाणं मिच्छाइटि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो बंधो । क, णिरंतरो ? ण, असंखेज्जवासाउएसु एदासिं णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । थिर-सुभाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो, पडिवक्खपयडीए बंधसंभवादो । उवरि णिरंतरो। देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगदेवगइपाओग्गाणुपुब्बीणं मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, सुहतिलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंशुवलंभादो । उवरि णिरंतरो । पच्चया सुगमा । सेसं ओघभंगो ।
निर्माण, इनका सब गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, धृवबन्धी हैं। पंचेन्द्रिय जानिका मिथ्यादृष्टियों में सान्तर निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका--निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान--यह ठीक नहीं, क्योंकि, सानत्कुमारादि देव, नारकी, असंख्यातवर्षा युष्क और शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्योंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि आदि उपरिम गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में एकेन्द्रियजाति आदिकोंका बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरके भी कहना चाहिये, क्योंकि, इनके कोई विशेषता नहीं है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- यह ठीक नहीं, क्योंकि. असंख्यातवर्षायुषकोंमें इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
उपरिम गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धका वहां अभाव है । स्थिर और शुभका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध सम्भव है। इससे ऊपर निरन्तर बन्ध होता है । देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्योंमें निरन्तर वन्ध पाया जाता है। इससे ऊपर निरन्तर बन्ध होता है । प्रत्यय सुगम हैं । शेष प्ररूपणा ओघके समान है।
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पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्त आहारसरीर-आहारअंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १३३॥
सुगमं ।
अप्पमत्तसंजदा अपुवकरणपट्टउवसमा खवा बंधा । अपुब. करणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १३४ ॥
सुगमं । तित्थयरणामाए को बंधो को अबंधो ? ॥ १३५ ॥ सुगम ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपइट्ठउवसमा खवा बंधा। अपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतॄण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १३६ ॥
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मीका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १३३॥
यह सूत्र सुगम है।
अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अवन्धक हैं ॥ १३४ ॥
यह सूत्र सुगम है। तीर्थंकर नामर्कमका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १३५ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं। अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १३६ ॥
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१९२]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ एदं पि सुगमं ।
कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-वणफदिकाइय-णिगोदजीव-बादर-सुहुम पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ताणं च पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ॥ १३७ ॥
___ एदमप्पणासुत्तं देसामासियं, तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे -- तत्थ ताव पुढविकाइयाणं भण्णमाणे पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसायणवणोकसाय-तिरिक्खाउ-मणुस्साउ-तिरिक्खगइ-मणुस्सगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा - कम्मइयसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडणवण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सासआदावुनोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिरसुहासुह-सुभग-[ दुभग-] सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणणीचुच्चागोद-पंचतराइयपयडीओ पुढविकाइएहि बज्झमाणाओ ठवेदव्वा । एत्थ बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, तदुभयवोच्छेदाभावादो ।
यह सूत्र भी सुगम है।
कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक और निगोद जीव बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंकी परूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ॥ १३७ ॥
यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, अत एव इससे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं-उनमें पहले पृथिवीकायिक जीवोंकी प्ररूपणा करते समय पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय,
, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गति व मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, [दुर्भग,] सुखर, दुखर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, ऊंचगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां पृथिवीकायिक जीवों द्वारा बध्यमान स्थापित करना चाहिये । यहां बन्ध और उदयके व्युच्छेदका विचार नहीं है, क्योंकि, दोनोंके व्युच्छेदका यहां अभाव है।
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३, १३७.] पुढविकाइयादिसु बंधसामित्त
[१९३ पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय - मिच्छत्त-णउंसयवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइएइंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-थावर-थिराथिर-सुहासुहदुभग-अणादेज्ज-णिमिण-णीचागाद-पंचतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ एदासिं धुवोदयत्तादो । इत्थि-पुरिसवेद-मणुस्साउ-मणुस्सगइ-बीइंदिय-तीइंदिय-चउंरिदिय-पंचिंदियजादि-पंचसंठाणओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-साहारण-दोविहायगइ-तस-सुभगसुस्सर-दुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं परोदओ बंधो, एदासिमेत्थ उदयविरोहादो । पंचदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-छणोकसाय-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सोदय परोदओ बंधो, अद्धवोदयत्तादो। ओरालियसरीर-हुंडसंठाण-उवघाद-पत्तेयसरीर-आदावुज्जोवाणं पि सोदय-परोदओ, विग्गहगदीए उदयाभावादो अद्धवोदयत्तादो च । परघादुस्सासाणं पि सोदय-परोदओ बंधो, एदासिमुदयाणुदयसहिदपज्जत्तापज्जत्तद्धासु बंधदसणादो । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए सोदय-परोदओ बंधो, सोदयाणुदयविग्गहाविग्गहगदीसु बंधुवलंभादो।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणु
पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये प्रकृतियां ध्रुवोदयी हैं। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, पांच संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, साधारणशरीर, दो विहायोगतियां, त्रस, सुभग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनका परोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका विरोध है । पांच दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, छह नोकषाय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी हैं । औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान उपघात, प्रत्येकशरीर, आताप, और उद्योतका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव है, तथा ये अध्रुवोदयी भी हैं। परघात और उच्छ्वासका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, क्रमशः इनके उदय और अनुदय सहित पर्याप्त व अपर्याप्त कालोंमें उनका बन्ध देखा जाता है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, क्रमशः अपने उदय व अनुदय सहित विग्रह व अविग्रह गतियों में उसका बन्ध पाया जाता है।
___पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, छ.बं. २५.
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१९४]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १३७.
स्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभारादो धुवबंधित्तादो च । सादासाद-सत्तणोकसायमणुसगइ-एइंदिय-बीइंदिए-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंगछसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-दुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदसणादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बीणीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो । कध-णिरंतरो ? ण, तेउ-बाउकाइएहिंतो पुढविकाइएसुप्पण्णाणं णिस्तरबंधुवलंभादो । परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं पि सांतर-णिरंतरो बंधो। कधं णिरंतरो ? ण, देवाण पुढविकाइएसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संते णिरंतरबंधुवलंभादो।
___ एदेसिं पच्चया एइंदियपच्चएहि समा । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदिय-बीइंदिय
तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके वन्धविश्रामका अभाव है, तथा ये ध्रुवबन्धी भी हैं। साता व असाता वेदनीय, सात नोकपाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुप्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, सुक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । तिर्यगति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर वन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, तेज व वायु कायिकोंमेसे पृथिवीकायिकों में उत्पन्न हुए जीवोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
परघात, उच्छ्वास, वादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका भी सान्तर निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान—यह ठीक नहीं, क्योंकि, पृथिवीकायिकोंमें उत्पन्न हुए देवोंके अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
इन प्रकृतियोंके प्रत्यय एकेन्द्रियप्रत्ययोंके समान हैं। तिर्यगायु, तिर्यग्गति,
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३, १३७.] पुढविकाइयादिसु बंधसामित्तं
[ १९५ तीइंदिय-चरिंदियजादि-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-आदावुजोव-थावर-सुहुम-साहारपासरीराणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति । मणुसाउ-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उच्चागोदाणि मणुसगइसंजुत्तं बझंति । सेसाओ पयडीओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं । तिरिक्खा सामी । बंधद्वाणं सुगमं । एत्थ बंधवोच्छेदो णत्थि । धुवबंधीणं चउविहो बंधो । सेसाणं सादि-अद्धवो ।
बादरपुढविकाइयाणमेवं चेव वत्तव्यं । णवरि बादरस्स सोदएण बंधो, सुहुमस्स परोदएण । बादरपुढविकाइयपज्जत्ताणं पि एवं चेव वत्तव्वं । णवरि पज्जत्तस्स सोदओ, अपज्जत्तस्स परोदओ बंधो। बादरपुढविकाइयअपज्जत्ताणं पि बादरपुढविकाइयभंगो । णवरि पज्जत्त-थीणगिद्धित्तिय परघादुस्सास-आदाबुज्जोव-जसकित्तीणं परोदओ, अपज्जत्त-अजसकित्तीर्ण सोदओ बंधो । परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं सांतरो बंधो, अपज्जत्तएसु देवाणमुववादाभावाद। । पच्चया सत्तत्तीस, ओरालियकायजोगपच्चयस्साभावादो ।
सुहुमपुढविकाइयाणं पुढविकाइयभंगो। णवरि बादर-आदाउज्जोव-जसकित्तीणं परोदओ, सुहुम-अजसकित्तीणं सोदओ बंधो । परवादुस्सास-बादर-पज्जत-पत्तेयसरीराणं सांतरो
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और सधारणशरीर, इनको तिर्यग्गतिसे संयुक्त वांधते हैं। मनुप्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको मनुप्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। शेष प्रकृतियोंको मनुष्य व तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं ! तिथंच स्वामी हैं । वन्धाध्वान सुगम है । यहां बन्धव्युच्छेद है नहीं। ध्रुववन्धी प्रकृतियोंका चारों प्रकारका वन्ध होता है । शेप प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
बादर पृथिवीकायिकोंकी भी इसी प्रकार प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि बादरका स्वोदय और सूक्ष्मका परोदयले बन्ध होता है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंकी भी इसी प्रकार प्ररूपणा करना चाहिये। विशेषता इतनी है कि पर्याप्तका स्वोदय और अपर्याप्तका परोदय वन्ध होता है। वादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंकी भी प्ररूपणा बादर पृथिवीकायिकोंके समान है । विशेषता यह है कि पर्याप्त, स्त्यानगृद्धित्रय, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत और पशकीर्तिका परोदय; तथा अपर्याप्त और अयशकीर्तिका स्वोदय वन्ध होता है। परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तोंमें देवोंकी उत्पत्ति नहीं होती । प्रत्यय सैंतीस होते हैं, क्योंकि, उनके औदारिककाययोग प्रत्ययका अभाव है।
सूक्ष्म पृथिवीकायिकोंकी प्ररूपणा पृथिवीकायिकोंके समान है। विशेष यह है कि बादर, आताप, उद्योत और यशकीर्तिका परोदय; तथा सूक्ष्म और अयशकीर्तिका स्वोदय बन्ध होता है । परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका सान्तर
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१९६] छक्खंडागमै अंधसामित्तविचओ
[३, १३७. बंधो, सुहुमेइंदिएसु देवाणमुववादाभावादो णिरंतरबंधाभावा । सुहुमपुढविकाइयपज्जत्ताणमेवं चेव वत्तव्वं । णवीर पज्जत्तस्स सोदओ, अपज्जत्तस्स परोदओ बंधो । सुहुमपुढविकाइयअपज्जत्ताणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि अपज्जत्तस्स सोदओ, पज्जत्त-थीणगिद्धित्तिय-परघादुस्सासाणं परोदओ बंधो। सव्वआउकाइयाणं जहापच्चासण्णपुढविकाइयभंगो । णवरि आदावस्स परोदओ बंधो, पुढविकाइए मोत्तूण अण्णत्थ आदावस्सुदयाभावादो।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त--सोलसकसाय- णवणोकसायतिरिक्खाउ-मणुस्साउ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-पंचजादि-ओरालिय-तेजा--कम्मइयसरीर--छसंठाणओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-वण्णचउक्क-तिरिक्खगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुवलहुवचउक्क-आदावुज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयपयडीओ ठविय वण'फदिकाइयाणं परूवणा कीरदेबंधोदयाणं पुवापुवकालगयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, बंधोदयाणमेत्थ वोच्छेदाभावादो ।
धन्ध होता है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियों में देवोंकी उत्पत्ति न होनेसे वहां निरन्तर बन्धका अभाव है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तोंकी इसी प्रकार ही प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि पर्याप्तका स्वोदय और अपर्याप्तका परोदय वन्ध होता है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंकी भी इसी प्रकार ही प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि अपर्याप्तका स्वोदय और पर्याप्त, स्त्यानगृद्धित्रय, परघात व उच्छ्वासका परोदय बन्ध होता है। सब अप्कायिक जीवोंकी प्ररूपणा अपनी अपनी प्रत्यासत्तिके अनुसार प्रथिवीकायिकोंके समान है। विशेषता यह है कि आतापका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, पृथिवीकायिकोको छोड़कर अन्यत्र आताप कर्मका उदय नहीं होता।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पांच जातियां औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, वर्णादिक चार, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंको स्थापित कर वनस्पतिकायिकोंकी प्ररूपणा करते हैं- बन्ध और उदयके पूर्व व अपूर्व कालगत व्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां वन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है।
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३, १३७.]
पुढविकाइयादिसु बंधसामित्त पंचणाणावरणीय- चउदंसणावरणीय-मिच्छत्त-णवुसयवेद--तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइएइंदियजादि-तेजा--कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुव--थावर-थिराथिर-सुहासुह-दुभगअणादेज्ज-णिमिण-गीचागोद-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, अत्थगईए धुवोदयत्तादो । इत्थिपुरिसवेद-मणुसाउ-मणुसगइ-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरािंदिय-पंचिंदियजादि-पंचसंठाण--ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-आदाव-दोविहायगइ-तस-सुभग-सुस्सर दुस्सरआदेज्जुच्चागोदाणं परोदओ बंधो। पंचदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-छण्णोकसायहुंडसंठाण-ओरालियसरीर-तिरिक्खाणुपुब्बी-उवघाद-परघादुस्सासुज्जोव-बादर--सुहुम--पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सोदय-परोदओ बंधो ।
पंचणाणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुसाउ-ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो । सादासादसत्तणोकसाय--मणुस्सगइ--एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-आदावुज्जोव--दोविहायगदि-तस-थावरसुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थावर, स्थिर, आस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अर्थापत्तिसे ये प्रकृतियां ध्रुवोदयी हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, पांच संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, दो विहायोगतियां, त्रस सुभग, सुस्वर दुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनका परोदय बन्ध होता है। पांच दर्शनावरणीय साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, छह नोकषाय, हुंडसंस्थान,
औदारिकशरीर, तिर्यगानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका स्वोदयपरोदय बन्ध होता है।
पांच ज्ञानावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है। साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान,
दारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका
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१९८१ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १३७. जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो । कुदो ? तेउ-वाउकाइएहिंतो वणप्फदिकाइएसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संतो' णिरंतरबंधुवलंभादो । परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं सांतर-णिरंतरो बंधो। कधं णिरंतरो ? ण, देवेहिंतो वणप्फदिकाइएसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संतो णिरंतर-बंधुवलंभादो । पच्चया सुगमा । गइसंजुत्तादिउवरिमेइंदियपरूवणातुल्ला ।
एवं बादरवणप्फदिकाइयाणं च वत्तव्यं । णवरि बादरस्स सोदओ बंधो, सुहमस्स परोदओ। बादर-[वण'फदि-] पज्जत्ताणं बादरवणप्फदिभंगो । णवरि पज्जत्तस्स सोदओ, अपजत्तस्स परोदओ बंधो । बादरवणप्फदिअपजत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगा । सुहुमवण'फदिपजत्तापज्जत्ताणं सुहमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो । तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। णवरि बीइंदियतीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियाणं सोदय-परोदओ बंधो। णिगोदजीवाणं तेसिं वादर-सुहुम
सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनका एक समयसे वन्धविश्राम पाया जाता है । तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेज व वायु कायिकोंमेंसे वनस्पतिकायिकोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहुर्त तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है । परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, देवों से वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहर्त तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
प्रत्यय सुगम हैं । गतिसंयुक्तता आदि उपरिम प्ररूपणा एकेन्द्रिय प्ररूपणाके समान है।
इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिकोंके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि बादरका स्वोदय बन्ध होता है और सूक्ष्मका परोदय । वादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंकी प्ररूपणा वादर वनस्पतिकायिकोंके समान है। विशेषता यह है कि पयोप्तका स्वादय और अपयोप्तका परोदय बन्ध होता है । बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्तोंके समान है। त्रस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। विशेषता यह है कि द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। निगोद जीव व
१ प्रतिषु । मुहुत्तो' इति पाठः । २ अप्रती व काव्वं ', आप्रती · वतन्वं ' इति पाठः । ३ अप्रतौ — सहुमेहंदियपज्जत्तभंगो' इति पाठः। ४ प्रतिषु ' तस.' इति पाठः ।
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३, १३८.]
तेउ बाउकाइएसु बंधसामित्तं पज्जत्तापज्जत्ताणं वणप्फदिकाइयभंगो । णवरि पत्तयसरीरस्स परोदओ सांतरा बंधो । तसबादर पज्जत्त-परघादुस्सासाणं बंधो सांतरो। साहारणसरीरस्स सोदय-परोदओ। बादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीरपज्जत्तापज्जत्ताणं पि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि साहारणसरीरस्स परोदओ बंधो, पत्तेयसरीरस्स सोदय-परोदओ बंधो ।
तेउकाइय-वाउकाइय-बादर सुहुम-पजत्तापजाणं सो चेव भंगो। णवरि विसेसो मणुस्साउ-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उच्चागोदं णत्थि ॥१३८ ॥
एदमप्पणासुत्तं देसामासिय, तेणेदेण सूइदत्यपरूवणा कीरदे- परघादुस्सास-बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीराणं सांतरो बंधो, देवाणं तेउ-वाउकाइएसु उववादाभावादो । तिरक्खगइतिरिक्खाणुपुव्वी-णीचागोदाणं णिरंतरो बंधो सोदओ चेव । णवरि तिरिक्खाणुपुबीए बंधो सोदय-परोदओ। आदाउज्जोवाणं परोदओ बंधो । होदु णाम वाउकाइएसु आदावुज्जीवाण
उसके वादर सूक्ष्म पर्याप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा वनस्पतिकायिकोंके समान है । विशेष यह है कि प्रत्येकशरीरका परोदय व सान्तर वन्ध होता है। प्रस, बादर, पर्याप्त, परघात और उच्छ्वासका सान्तर वन्ध होता है। साधारणशरीरका स्वोदय परोदय बन्ध होता है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त व अपर्याप्तोंके भी इसी प्रकार ही कहना चाहिये । विशेषता यह है कि साधारणशरीरका परोदय बन्ध होता है । प्रत्येकशरीरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है ।
तेजकायिक और वाउकायिक बादर सूक्ष्म पर्याप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है । विशेषता केवल यह है कि मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र प्रकृतियां इनके नहीं हैं ॥ १३८ ॥
__ यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, इसीलिये इससे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं- परयात, उच्छ्वास,बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, देवोंकी तेजकायिक ओर वायुकायिक जीवों में उत्पत्ति नहीं होती । तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध निरन्तर व स्वोदय ही होता है। विशेषता यह है कि तिर्यगानुपूर्वीका बन्ध खोदय-परोदय होता है। आताप और उद्योतका परोदय बन्ध होता है।
शंका-वायु कायिक जीवोंमें आताप और उद्योतका अभाव भले ही हो, क्योंकि,
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२०० ]
छक्खंडागमे बंबसामित्तविचओ
[ ३, १३९.
मुदयाभावो', तत्थ तदणुवलंभादो | ण ते उकाइएसु तदभावो, पच्चखेणुवलंभमाणत्तादो ? एत्थ परिहारो बुच्चदे - ण ताव तेउकाइएस आदाओं अस्थि, उण्हष्पहार तत्थाभावादो । उम्हि वि उण्हत्तमुवलंभइ च्चे उवलब्भउ णाम, [ण ] तस्स आदावववएसो, किंतु तेजासण्णा; “मूलोष्णवती प्रभा तेजः, सर्वांगव्याप्युष्णवती प्रभा आतापः, उष्णरहिता प्रभोद्योतः ", " इति तिन्हं भेदोवलंभादो । तम्हा ण उन्जोवो वि तत्थत्थि, मूलुण्हुज्जोवस्स तेजववसादो । एत्तिओ चेव भेदो, ण अण्णत्थ कत्थ वि । णवरि सव्वासि पयडी तिरिक्सगइसंजुत्तो बंधो ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ताणमोघं णेदव्वं जाव तित्थयरे ति
॥ १३९ ॥
एवं सामासिवप्पणासुत्तं, तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे -- बीइंदिय-तीइंदिय
उनमें वह पाया नहीं जाता । किन्तु तेजकायिक जीवोंमें उन दोनों का उदयाभाव सम्भव नहीं है, क्योंकि, यहां उनका उदद्य प्रत्यक्ष से देखा जाता है ।
समाधान - यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं- तेजकायिक जीवोंमें आतापका उदय नहीं है, क्योंकि, वहां उष्ण प्रभाका अभाव है ।
शंका - तेजकायमें भी तो उष्णता पायी जाती है, फिर वहां आतापका उदय क्यों न माना जाय ?
समाधान — तेजकाय में भले ही उष्णता पायी जाती हो, परन्तु उसका नाम आताप [ नहीं ] हो सकता, किन्तु 'तेज' संज्ञा होगी; क्योंकि, मूलमें उष्णवती प्रभाका नाम तेज, सर्वागव्यापी उष्णवर्ती प्रभाका नाम आताप, और उष्णता रहित प्रभाका नाम उद्योत है, इस प्रकार तीनोंके भेद पाया जाता है ।
इसी कारण वहां उद्योत भी नहीं है, क्योंकि, मूलोष्ण उद्योतका नाम तेज है [ न कि उद्योत ] | केवल इतना ही भेद है, और कहीं भी कुछ मेद नहीं है । विशेष इतना है कि सब प्रकृतियोंका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है ।
कायिक पर्याप्तोंके तीर्थंकर प्रकृति तक ओघ के समान
कायिक और ले जाना चाहिये ॥ १३९ ॥
यह देशामर्शक अर्पणासूत्र है, इसलिये इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते
१ प्रतिषु ' - मुदयाभावादो' इति पाठः ।
२ मूलण्हपहा अग्गी आदात्रो होदि उन्हसहियपहा । आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोओ ॥ गो. क्र. ३३० ३ अ - आमत्योः ' -gप्पण्णामुत्तं ' इति पाठः ।
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[२०१
३, १४०.
जोगमग्गणाए बंधसामित्तं चरिंदिय-पंचिंदियाणं सोदय-परोदओ बंधो । तस-बादराणं सोदओ चेव । एइंदिय-थावरसुहुम-साहारणादावाणं परोदओ चेव बंधो । अवसेसाणं पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ताणं उत्तिविहाणेण वत्तव्वं ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगीसु ओघं णेयव्वं जाव तित्थयरेत्ति ॥ १४ ॥
___ ओघम्मि उत्तसत्तारसण्हं सुत्ताणमत्थो ससुत्तो एत्थ णिरवयवो वत्तव्वो, भेदाभावादो। णवरि पच्चयगदो भेदो अत्थि तं परवेमो- मणजोगे णिरुद्ध छाएत्तालीस एक्केत्तालीस सत्ततीस [सत्ततीस ] बत्तीस उणवीस सत्तारस सत्तारस एक्कारस दस णव अट्ट सत्त छ पंच [पंच चत्तारि चत्तारि ] दोणि मिच्छाइटिप्पहुडिसव्वगुणट्ठाणाणं जहाकमेण एदे पच्चया होति । अण्णो वि विसेसो मणजोगे णिरुद्ध संते अत्थि- चदुजादि चत्तारिआणुपुवीआदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं परोदएण', उवघाद-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-पंचिंदियजादीणं सोदएण बंधो त्ति वत्तव्वं । एवं चेव चदुण्हं मणजोगाणं परूवणा
हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । प्रस और बादरका स्वोदय ही बन्ध होता है। एकेन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और आतापका परोदय ही बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंके पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंकी प्ररूपणाके अनुसार कहना चाहिये।
__ योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी और काययोगियोंमें तीर्थकर प्रकृति तक आपके समान जानना चाहिये ।। १४०॥
ओघमें कहे हुए सत्तरह (५ वें सूत्रसे ३८ में सूत्र तक १७+१७=३४) सूत्रोंका अर्थ ससूत्र यहां संपूर्ण कहना चाहिये, क्योंकि, ओघसे यहां विशेषताका अभाव है। विशेष यह है कि प्रत्ययगत जो कुछ भेद है उसे यहां कहते हैं-मनोयोगके निरूद्ध होने अर्थात् उसके आश्रित व्याख्यान करनेपर छयालीस, इकतालीस, सैंतीस,[सैंतीस] बत्तीस, उन्नीस, सत्तरह, सत्तरह, ग्यारह, दश, नौ, आठ, सात, छह, पांच, [पांच, चार, चार] और दो, इस प्रकार ये क्रमसे मिथ्यादृष्टि आदि सब गुणस्थानोंके प्रत्यय होते हैं। मनोयोगके निरुद्ध होनेपर और भी विशेषता है- चार जातियां, चार आनुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनका परोदयसे तथा उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और पंचेन्द्रिय जातिका खोदयसे बन्ध होता है, ऐसा कहना चाहिये । इसी प्रकार ही चार मनोयोगोंकी प्ररूपणा करना चाहिये।
१ प्रतिषु सत्तारस' इति पाठः। २ मण-वयणसत्तगे ण हि ताविगिविगलं च थावराणुचओ ॥ गो. क. ३१०.
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२०२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १४१. कायव्वा । णवरि एक्कम्हि मणजोगे णिरुद्ध अवसेससव्वजोगा मूलोधुत्तरपच्चएसु अवणेदव्वा । अवसेसा णिरुद्धमणजोगीणं पच्चया होति । णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि विसेसो ।
वचिजोगीणमेवं चेव वत्तव्वं, सांतर-णिरंतर-सोदय-परोदय-सामित्तपच्चयादीहि मणजोगीहिंतो वचिजोगणिं भेदाभावादो । णवीर बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियाणं सोदय-परोदओ बंधो त्ति वत्तव्यं । असच्च-मोसवचिजोगीणं वचिजोगिभंगो। णवरि सव्वगुणाणं उत्तरपच्चएसु असच्च-मोसवचिजोगं मोत्तूण सेससव्वजोगा अवणेदव्वा । सच्च-मोस-सच्चमोसवचिजोगीणं सच्च-मोस-सच्चमोसमणजोगिभंगो, विसेसाभावादो।
कायजोगीण पि ओघभंगो चेव । णवरि सव्वगुणट्ठाणाणमोधपच्चएसु मण-वचिजोगट्ठ. पच्चया अवणेदव्या । सजोगिपच्चएसु दोदोमण-वचिजोगपच्चया अवणेदव्या । णत्थि अण्णत्थ विसेसो । ओघम्मि पुव्वुत्तसत्तारससुत्तेसु चउत्थसुत्तम्मि भेदपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १४१ ॥
विशेषता यह है कि एक मनोयोगके निरुद्ध होनेपर शेष सब योगोंको मूलोघ उत्तर प्रत्ययोंमेंसे कम करना चाहिये । इस प्रकार शेष रहे निरुद्धमनोयोगियोंके प्रत्यय होते हैं। अन्यत्र और कहीं विशेषता नहीं है।
वचनयोगियोंके भी इसी प्रकार ही कहना चाहिये, क्योंकि सान्तर निरन्तर, स्वोदय-परोदय, स्वामित्व और प्रत्ययादिकोंकी अपेक्षा मनोयोगियोंसे वचनयोगियोंके कोई भेद नहीं है । विशेष इतना है कि द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जातिका स्वोदय-परोदय वन्ध होता है, ऐसा कहना चाहिये । असत्यमृषावचनयोगियोंकी प्ररूपणा वचनयोगियोंके समान है। विशेषता यह है कि सब गुणस्थानोंके उत्तर प्रत्ययोंमेंसे असत्यमृषावचनयोगको छोड़कर शेष सब योगोंको कम करना चाहिये । सत्य, मृषा और सत्यमृषा वचनयोगियोंकी प्ररूपणा सत्य, मृषा और सत्यमृषा वचनयोगियोंके समान है, क्योंकि, कोई विशेषता नहीं है।
काययोगियोंकी भी प्ररूपणा ओघके समान ही है। विशेष इतना है कि सब गुणस्थानोंके ओघ प्रत्ययोंमेंसे चार मनोयोग और चार वचनयोग, इस प्रकार आठ प्रत्ययोंको कम करना चाहिये। अन्यत्र विशेषता नहीं है। ओघमें पूर्वोक्त सत्तरह सूत्रों से चतुर्थ सूत्रमें भेद प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
साता वेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं है ॥ १४१ ॥
१ प्रतिषु ‘पुब्विवृत्त- ' इति पाठः ।
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३, १४२.] जोगमगणाएं बंधसामित्त
[२०६ ओघम्मि ' अवसेसा अबंधा ' ति उत्तं । एत्थ पुण ' अबंधा णथि ' त्ति वत्तव्वं, जोगप्पणादो । ण च सजोगेसु अजोगा होति, विप्पडिसेहादो । जदि एत्तियमेत्तो चेव भेदो तो एत्तियस्सेव णिदेसो किण्ण कदो ? ण एस दोसो, थूलबुद्धीणं' पि सुहग्गहणई तधोवदेसादो।
ओरालियकायजोगीणं मणुसगइभंगो ॥ १४२ ॥
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं बंधोदयवोच्छेदे मणुसगदीदो णत्थि विसेसो, विसेसकारणाभावादो । जसकित्ति-उच्चागोदेसु विसेसो अस्थि, तेसिमेत्थुदयवोच्छेदाभावादो । मणुसगदीए पुण उदयवोच्छेदो अत्थि, अजोगिचरिमसमर मणुसगदीए सह एदासिमुदयवोच्छेददंसणादो । सोदय-परोदय-सांतर-णिरंतरपरिक्खासु णत्थि भेदो, भेदकारणाणुवलंभादो। पच्चएसु अत्थि भेदो, ओरालियमिस्स-कम्मइय-वेउब्वियदुग-चदुमणवचिपच्चएहि विणा मिच्छाइद्विम्हिं सासणे च जहाकमेण तेदालीस अट्ठत्तीसपच्चयदंसणादो,
ओघमें 'अवशेष अवन्धक है' ऐसा कहा गया है। परन्तु यहां 'अबन्धक कोई नहीं है ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि, यहां योगकी प्रधानता है। और सयोगियों में अयोगी होते नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध है।
शंका- यदि केवल इतनी मात्र ही विशेषता थी तो इतनेका ही निर्देश क्यों नहीं किया?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, स्थूलवुद्धि शिष्योंके भी सुखपूर्वक ग्रहण हो, एतदर्थ उक्त प्रकार उपदेश किया गया है ।
औदारिककाययोगियोंकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है १४२ ॥
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इन प्रकृतियोंके बन्धोदयव्युच्छेद में मनुष्यगतिसे कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि, विशेष कारणोंका यहां अभाव है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रमें विशेषता है, क्योंकि, यहां उनके उदयव्युच्छेदका अभाव है। परन्तु मनुष्यगतिमें इनका उदयव्युच्छेद है, क्योंकि, अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें मनुष्यगतिके साथ इनका उदयब्युच्छेद देखा जाता है। स्वोदय-परोदय और सान्तर-निरन्तर बन्ध की परीक्षामें कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि, यहां विशेषताके उत्पादक कारणों का अभाव है । प्रत्ययों में विशेषता है, क्योंकि औदारिकमिश्र, कार्मण, वैक्रियिकद्विक, चार मनोयोग और चार वचनयोग प्रत्ययोंके विना मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानमें यथाक्रमसे तेतालीस और अड़तीस प्रत्यय देखे
१ प्रतिषु ण एस दोसो एदस्स सुत्तस्स एदम्मि उद्देस विसेसो अस्थि थूलबंधीणं । इति पाठः।
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२०४]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १४२. सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु चोत्तीसपच्चयदंसणादो, उवरिमगुणट्ठाणपच्चएसु वि ओरालियकायजोगं मोत्तूण सेसजोगपच्चयाणमभावादो । उवरिपरिक्खासु वि णत्थि विसेसो । णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासजदा तिरिक्खगइमणुसगइमहिट्ठिदा सामि त्ति वत्तव्वं । एसो पढमसुत्तट्ठियभेदो। एत्थ उत्तपच्चय-गइ. गयसामित्तभेओ सव्वसुत्तेसु दट्ठव्वो। णवरि बिट्ठाणियपयडीसु तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुची-उज्जोवाणं बंधो मणुसगईए परोदओ, एत्थ पुण सोदय-परोदओ त्ति वत्तव्वं । णवरि तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुबीए परोदओ चेव बंधो, ओरालियकायजोगे तिस्से उदयाभावादो । तिरिक्खगइ- तिरिक्खाणुपुवीणं मणुसगईए सांतरो बंधो, एत्थ पुण सांतर-णिस्तरो । एवं चेव णीचागोदस्स वि वत्तव्वं । मणुसाउ-मणुसगईणं मणुसगईए सोदओ बंधो, एत्थ पुण सोदय-परोदओ।[ओरालियसरीरंगोवंग-] मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं सांतर-णिरंतरो मणुसगईए बंधो, एत्थ पुण सांतरो । मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीए मणुसगईए सोदय-परोदओ, एत्थ पुण परोदओ। ओरालियसरीरस्स मणुसगईए सोदय-परोदओ बंधो, एत्थ पुण सोदओ । ओरालियसरीरस्स मणुसगईए सांतर-णिरंतरी, एत्थ वि सांतर-णिरंतरो
सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें चौंतीस प्रत्यय देखे जाते हैं, तथा उपरिम गुणस्थान प्रत्ययोंमें भी औदारिककाययोगको छोड़कर शेष योग प्रत्ययोंका अभाव है। उपरिम परीक्षाओंमें भी कोई विशेषता नहीं है। केवल इतना विशेष है कि मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यग्गति व मनुष्यगतिके आश्रित होकर स्वामी हैं, ऐसा कहना चाहिये। यह प्रथम सूत्रस्थित भेद है। यहां पूर्वोक्त प्रत्यय और गतिगत स्वामित्वका भेद सब सूत्रों में देखना चाहिये । विशेष इतना है कि द्विस्थानिक प्रकृतियोंमें तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतका बन्ध मनुष्यगतिमें परोदय होता है; परन्तु यहां इनका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, ऐसा कहना चाहिये । विशेषता यह है कि तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय ही बन्ध होता है. क्योंकि, औदारिककाययोगमें उसके उदयका अभाव है। तिर्यग्गति और तिर्यगानुपूर्वीका मनुष्यगतिमें सान्तर बन्ध होता है, किन्तु यहां उनका बन्ध सान्तरनिरन्तर होता है। इसी प्रकार ही नीचगोत्रके भी कहना चाहिये । मनुष्यायु और मनुष्यगतिका मनुष्यगतिमें स्वोदय बन्ध होता है, परन्तु यहां स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। [औदारिकशरीरांगोपांग ] और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध मनुष्यगतिमें सान्तर-निरन्तर होता है, परन्तु यहां सान्तर होता है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, परन्तु यहां परोदय बन्ध होता है । औदारिकशरीरका मनुष्यगतिमें स्वोदय-परोदय बन्ध है, परन्तु यहां स्वोदय बन्ध होता है। भौदारिकशरीरका मनुष्यगतिमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, यहां भी सान्तर निरन्तर
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३, १४३.] जोगमगणाए बंधसामित्तं
[ ३०५ चेव । एसो बेट्टाणिसुत्तट्ठियभेदो ।
एइंदिय-बीइंदिय--तीइंदिय-चउरिदिय पंचिंदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं मणुसगईए परोदओ बंधो, एत्थ पुण सोदय-परोदओ। अपज्जत्तस्स मणुसगईए सोदय-परोदओ, एत्थ पुण परोदओ । एसो एगट्ठाणियसुत्तट्ठियभेदो ।
संपधिय अण्णसुत्तेसु भेदाभावादो ताणि मोत्तूण अट्ठट्ठाणियसुत्तट्ठियभेदो उच्चदेमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु उवघाद-परघाद-उस्सास-अपज्जत्ताणं मणुसगईए सोदय-परोदओ, एत्थ पुण सोदओ चेव । पंचिंदियजादि-तस-बादराणं मणुसगईए सोदओ, एत्थ पुण सोदय-परोदओ । जेणेद देसामासियमप्पणासुत्तं तेणेदे सव्वविससा एत्थुवलब्भंति । अण्णं पि भेददंसणट्टमुवरिमसुत्तं भणदि
णवीर विसेसो सादावेदणीयस्स मणजोगिभंगो ॥ १४३ ॥ ओरालियकायजोगीसु अबंधगाभावादो ।
ओरालियमिस्सकायजोगीसु पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीयअसादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय
ही होता है । यह द्विस्थानिक सूत्रस्थित भेद है।
____एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका मनुष्यगतिमें परोदय बन्ध होता है, परन्तु यहां स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। अपर्याप्तका मनुष्यगतिमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, परन्तु यहां परोदय बन्ध होता है । यह एकस्थानिक सूत्रस्थित भेद है।
इस समय अन्य सूत्रों में भेद न होनेसे उन्हें छोड़कर अष्टस्थानिक सूत्रस्थित भेदको कहते हैं- मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उपघात, परघात, उच्छ्वास और अपर्याप्तका मनुष्यगतिमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, परन्तु यहां स्वोदय ही होता है। पंचेन्द्रिय जाति, प्रस और बादरका मनुष्यगतिमें स्वोदय बन्ध होता है, परन्तु यहां स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। चूंकि यह अपर्णासूत्र देशामर्शक है, अत एव ये सब विशेषतायें यहां पायी जाती हैं । अन्य भी भेद दिखलानके लिये उपरिम सूत्र कहते हैं
विशेषता यह है कि साता वेदनीयकी प्ररूपणा मनोयोगियोंके समान है ॥ १४३॥ क्योंकि, औदारिककाययोगियों में साता वेदनीयके अवन्धकोंका अभाव है।
औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असाता वेदनीय, मारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस
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२०६]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, १४४. दुगंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-चण्ण-गंधरस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तसबादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्जजसकित्ति-णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥१४४॥
सुगम ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १४५॥
परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणमेत्थुदयाभावादो बंधोदयाणं पुवावरकालसंबंधिवोच्छेदविचारो णत्थि । अवसेसाणं पयडीणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, असंजदसम्मादिविम्हि तदुभयाभावदंसणादो ।
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवधाद-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो ।
व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १४४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १४५ ॥
परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका यहां उदयाभाव होनेसे बन्ध व उदयके पूर्व और अपर काल सम्बधी व्युच्छेदका विचार नहीं है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरूलघु, उपघात, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका खोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं । निद्रा, प्रचला, बारह कषाय,
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३, १४५. ]
जगमगणाए बंधसामित्तं
[२०७
णिद्दा - पयला - बारसकसाय - हस्स - - रदि - अरदि - सोग-भय- दुगंच्छा-असादावेदणीय उच्चागोदाणं सोदय - परोदओ बंधो । कधमुच्चागोदबंधो सम्मादिडीसु परोदओ ? ण, तिरिक्खेसु पुत्र्वा उवबंधवसेणुप्पण्णखइय सम्मादिट्ठीस परोदणुच्चागोदस्स बंधुवलंभादो । पुरिसवेद - समचउरससंठाण- सुभगादेज्ज-जस कित्तीणं मिच्छाइट्ठि - सासणेसु सोदय - परोदओ । असंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदओ । पंचिंदियजादि-तस - बादर · पज्जत्त- पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदय-परोदएण बंधो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदएण । परघादुस्सास -पसत्थविहायगइ- अप्पसत्थविहायगइ- सुस्सराणं तिसु वि गुणट्ठाणेसु परोदएण बंधो । अजसकित्तीए मिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु सोदय - परोदएण बंधो, असंजदसम्मादिडीसु परोदएण |
पंचणाणावरणीय--छदंसणावरणीय - बारसकसाय--भय- दुगुंछा तेजा - कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद - णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो । असाद - हस्स-रदिअरदि-सोग-जसकित्ति-अजसकित्ति-थिराथिर-सुभासुभाणं सांतरा बंधो, तिसु वि गुणट्ठाणेसु एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-सुभगादेज-उच्चागोद-पसत्थविहाय
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, असातावेदनीय और उच्चगोत्रका स्वोदयपरोदय बन्ध होता है ।
शंका-सम्यग्दृष्टियों में उच्चगोत्रका परोदय बन्ध कैसे होता है ?
समाधान — यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, पूर्व आयुबन्धके वशसे तिर्यचॉमें उत्पन्न हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में परोदयसे उच्चगोत्रका बन्ध पाया जाता है ।
पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, सुभग, आदेय और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में खोदय-परोदय बन्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका स्वोदय बन्ध होता है । पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में स्वोदय - परोदय से बन्ध होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्वोदय से बन्ध होता है । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति और सुस्वरका तीनों ही गुणस्थानों में परोदय से बन्ध होता है । अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदयसे और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में परोदयसे बन्ध होता है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर वन्ध होता है, । असाता वेदनीय, हास्य, रति, अति, शोक, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तीनों ही गुणस्थानों में इनका एक समयसे बन्धविश्राम देखा जाता है । पुरुषवेद, समचतुरनसंस्थान, सुभग, आदेय, उच्चगोत्र, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका मिथ्यादृष्टि व
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२०८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १४५. गइ-सुस्सराणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो बंधो, असंजदसम्मादिविम्हि णिरंतरो । पंर्चिदिय-तस बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-परघादुस्सासाणं मिच्छाइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो बंधो । कधं णिरंतरो ? तिरिक्ख-मणुस्सुप्पण्णसणक्कुमारादिदेवाणं णेरइयाणं च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो।
मिच्छाइट्ठिस्स तेदालीस पच्चया, ओघपच्चएसु ओरालियमिस्सकायजोगवदिरित्तबारसजोगाणमभावादो। सासणस्स अद्वतीस, असंजदसम्माइट्ठिस्स बत्तीस पच्चया; तेसिं चेव जोगाणमभावादो असंजदसम्मादिट्ठीसु त्थी-णqसयवेदेहि सह बारसजोगाभावादो । एदाओ सव्वपयडीओ असंजदसम्मादिट्ठिणो देवगइसंजुत्तं बंधंति । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो उच्चागोदं मणुसगइसंजुत्तं, सेसाओ सव्वपयडीओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बंधंति । देव-णिरयगईओ मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणो किण्ण बंधंति ? ण, अपज्जत्तद्धाए तासिं बंधामावादो।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध होता है, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें निरन्तर बन्ध होता है। पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, परघात और उच्छ्वासका मिथ्यादृष्टियों में सान्तर निरन्तर वन्ध होता है ।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए सानत्कुमारादि देवों और नारकियोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है।
मिथ्यादृष्टिके तेतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघ प्रत्ययों से उसके औदारिकमिश्र काययोगको छोड़कर अन्य बारह योगोंका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टिके अड़तीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके बत्तीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उन्हीं योगोंका यहां भी अभाव है, चूंकि असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्त्री और नसक वेदोंके साथ बारह योगोंका अभाव है। इन सब प्रकृतियोंको असंयतसम्यग्दृष्टि देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि उच्चगोत्रको मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा शेष सब प्रकृतियोंको तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं ।
शंका-देवगति व नरकगतिको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि क्यों नहीं बांधते?
समाधान नहीं बांधते, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें उनका बन्ध नहीं होता।
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जोगमगणाए बंधसामित्तं
[ २०९
तिरिक्ख- मणुस्सा सामी । बंधद्धाणं बंधविणडाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय- बारसकसाय -भय- दुर्गुछा - तेजा - कम्मइय-वण्णच उक्क अगुरुवलहुव-उवघादणिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्टिम्हि' चउच्विहो बंधो। सेसेसु तिविहो, ध्रुवबंधाभावादो । अवसेसाणं सव्वपयडीणं तिसु वि गुणहाणेसु बंधो सादि-अद्भुवो ।
३,१४७.]
णिद्दाणिद्दा - पयलापयला- थीणगिद्धि - अणंताणुबंधिकोध-माणमाया- लोभ- इत्थि वेद-तिरिक्खगड़-मणुसगइ ओरालियसरीर- चउसठाणओरालियसरीर अंगोवंग-पंच संघडण तिरिक्खगड़-मणुसगइपाओग्गाणुपु०वी-उज्जोव - अप्पसत्थविहायगइ - दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज - णीचा गोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १४६ ॥
सुमं ।
मिच्छाइडी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अवधा ॥ १४७ ॥
तिर्यच व मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष दो गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष सब प्रकृतियोंका बन्ध तीनों ही गुणस्थानों में सादि व अध्रुव होता है ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गति, मनुष्यगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १४६ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १४७ ॥
१ प्रतिषु मिच्छाइट्ठीहि ' इति पाठः ।
छ. बं. २७.
२ प्रतिपु ' आदेज्ज' इति पाठः ।
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२१.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १४७. एदस्स अत्थो उच्चदे- अणंताणुबंधिचउक्क-त्थीवेद-चउसंठाण-पंचसंघडण-दुभगअणादेज्ज-णीचागोदाणं बंधोदया सासणसम्माइट्ठिम्हि समं वोच्छिज्जति, ण मिच्छाइट्ठिम्हि; अणुवलंभादो । अवसेसाणं पयडीणमेत्थुदयबोच्छेदो णत्थि, उवरि तदुवलंभादो । केवलो एत्थ बंधवोच्छेदो चेव, तस्स दंसणादो ।
थीणगिद्धितिय-तिरिक्खगइ मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणं परोदओ बंधो, अपज्जत्तएसु एदासिमुदयाभावादो । ओरालियसरीरस्स सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । ओरालियसरीरअंगोवंगस्स मिच्छाइद्विम्हि सोदय-परोदओ बंधो, सासणे सोदओ । अणंताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-चउसंठाण-पंचसंघडण-दुभगअणादेज्ज-णीचागोदाणं दोसु वि गुणट्ठाणेसु सोदय-परोदओ बंधो, अद्धवोदयत्तादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्क-ओरालियसरीराणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । इत्थिवेद-चउसंठाण-पंचसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, चार संस्थान, पांच संहनन, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका बन्ध व उदय दोनों सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नहीं. क्योंकि. वहां इनका व्युच्छेद पाया नहीं जाता। शेष प्रकृतियोंका यहां उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर उनका उदय पाया जाता है । उनका यहां केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, वह यहां देखनेमें आता है।
स्त्यानगृद्धित्रय, तिर्यग्गति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त. विहायोगति और दुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तोंमें इनके उदयका अभाव है । औदारिकशरीरका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां वह ध्रुवोदयी है। औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, सासादनमें स्वोदय बन्ध होता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, चार संस्थान, पांच संहनन, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका दोनों ही गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी हैं । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और औदारिकशरीरका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी हैं। स्त्रीवेद, चार संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, और अनादेयका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्याडषि
१ आप्रतौ ' चउक्किन्थी-' इति पाठः । २ प्रतिषु तत्थ- ' इति पाठः।
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३, १४७.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २११ मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो ? ण, तेउ-वाउकाइएसु सत्तमपुढवीए' तिरिक्खेसुप्पण्णणेरइएसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिडिम्हि सांतरो, तत्थ तेसिमुववादाभावादो। [मणुसगइ-] मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं सांतर-णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? आणदादिदेवेसु मणुसेसुप्पण्णेसु दुविहगुणेसु मुहुत्तस्संतो णिरंतरबंधुवलंभादो ।
ओरालियसरीरअंगोवंगस्स मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो सांतर-णिरंतरो। कधं णिरंतरो ? ण, सणक्कुमारादिदेव-णेरइएसु तिरिक्ख-मणुस्सुप्पण्णेसु अंतोमुहुत्तं णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिट्ठिम्हि णिरंतरो ।
मिच्छाइट्ठिम्हि तेदालीस, सासणे अद्रुतीसुत्तरपच्चया । सेसं सुगमं । तिरिक्खगइ[तिरिक्खगइ.]पाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्त। [मणुसगइ-]मणुसगइपाओग्गाणु
गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि, तेज ध वायुकायिकोंमें तथा तिर्यंचों में उत्पन्न हुए सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
__ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनके उत्पादका अभाव है । [मनुष्यगति और ] मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, मनुष्योंमें उत्पन्न हुए आनतादिक देवोंमें दोनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है। औदारिकशरीरांगोपांगका बन्ध मिथ्यावृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए सानत्कुमारादि देव और नारकियों में अन्तर्मुहर्त तक उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उसका निरन्तर बन्ध होता है।
मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें तेतालीस और सासादन गुणस्थानमें अड़तीस उत्तर प्रत्यय होते हैं। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। [तिर्यग्गति], तिर्यगतिप्रायोग्यानुर्वी और उद्योतका तिर्यग्गतिसे संयुक्त, [मनुष्यगति] और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसे संयुक्त,
१ प्रतिषु 'मिग्छाइटिं वा' इति पाठः ।
२ प्रतिषु
सत्तमपुटवी' इति पाठः।
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२१२]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १४८. पुवीणं मणुसगइसंजुत्तो, सेसाणं तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो बंधो । तिरिक्ख-मणुसमिच्छाइटिसासणसम्मादिट्टिणो सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । थीणगिद्वितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउब्विहो । सासणे दुविहो, अणादि-धुवत्ताभावादो । सेसाणं पयडीणं सुव्वत्थ सादि-अद्धवो ।
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १४८ ॥ सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्टी असंजदसम्माइट्ठी सजोगिकेवली बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १४९॥
सादावेदणीयस्स बंधादो उदओ पुव्वं पच्छा [वा] वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, चदुसु गुणहाणेसु तदुभयवोच्छेदाणुवलंभादो । मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्टि-सजोगीसु बंधो सोदय-परोदओ, परावत्तण्णुदयत्तादो । मिच्छाइट्टि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतरो, गममाण बंधुवरमदंसणादो। सजोगीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए
तथा शेष प्रकृतियोंका तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। तिर्यंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। बन्धाध्वान और वन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचनुष्कका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका होता है। सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र सादि और अध्रुव होता है।
साता वेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १४८ ॥
यह सूत्र सुगम है। - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली बन्धक हैं । ये बन्धक है, अबन्धक नहीं है ॥ १४९ ॥
साता वेदनीयका उदय वन्धसे पूर्व में या पश्चात् ब्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, चारों गुणस्थानोंमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया नहीं जाता। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां परिवर्तित होकर अन्यका भी उदय होता है। मिथ्यादृाष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में साता वेदनीयका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि एक समयसे यहां उसका वन्धविश्राम देखा जाता है। सयोगकेवलियोंमें निरन्तर
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३, १५१.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[२१३ बंधाभावादो । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु जहाकमेण तेदालीस-अट्ठत्तीसबत्तीसपच्चया । सजोगिम्हि एक्को चेव ओरालियमिस्सकायजोगपच्चओ । सेसं सुगमं । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजुत्तं, असंजदसम्मादिट्ठिणो देवगइसंजुत्तं, सजोगिजिणा अगइसंजुत्तं बंधंति । तिरिक्ख-मणुसगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिविणो मणुसगइसजोगिजिणा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । सादावेदणीयस्स बंधो सव्वत्थ सादि-अद्भुवो, अद्धवबंधित्तादो ।
मिच्छत्त-णउंसयवेद-तिरिक्खाउ-मणुसाउ-चदुजादि हुंडसंठाणअसंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १५० ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १५१ ॥ एदस्स अत्यो वुच्चदे- बंधोदयाणमेत्थ वोच्छेदो णस्थि, उवलंभादो । अधवा,
बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें यथाक्रमसे तेतालीस, अड़तीस और बत्तीस प्रत्यय होते हैं । सयोगकेवली गुणस्थानमें एक ही औदारिकमिश्रकाययोग प्रत्यय होता है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि दो गतियों से संयुक्त, असंयतसम्यग्दृष्टि देवगतिसे संयुक्त, और सयोगी जिन अगतिसंयुक्त बांधते हैं । तिर्यगति व मनुष्यगतिके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; तथा मनुष्यगतिके सयोगी जिन स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं। साता बेदनीयका बन्ध सर्वत्र सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिर्यगायु, मनुष्यायु, चार जातियां, हुंडसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १५० ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक है, शेष अबन्धक हैं ॥ १५१ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- बन्ध और उदयका यहां व्युच्छेद नहीं हैं, क्योंकि,
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२१४ ]
छक्खडागमै बंधसामित्तविचओ
[ ३, १५२.
मिच्छत्त-चदुजादि-थावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणमेत्थ बंधोदया समं वोच्छिण्णा, अवसाणं पयडीणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो । आदावस्स एत्थ उदओ णत्थि चेव । मिच्छत्तस्स सोदओ बंधो । आदावस्य परोदओ, अपज्जत्तकाले आदावस्सुदयाभावादो | उंसयवेद-तिरिक्ख-मणुसाउ-चदुजादि - हुंड संठण असंपत्तसेवट्टसंघडण थावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं सोदय-परोदओ बंधो । मिच्छत्त-तिरिक्ख - मणुसाउआणं बंधी णिरंतरो । अवसेसाणं सांतरो, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो | पच्चया सुगमा । तिरिक्खाउ - चदुजादि -आदाव - थावरसुहुम-साहारणाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो, मणुसाउअस्स मणुसगइसंजुत्तो, सेसाणं तिरिक्ख- मणुस - इसंजुतो बंधो । दुगइमिच्छाइट्ठी सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चदुविंहो बंधो, धुवबंधित्तादो | सेसाणं सादि-अद्भुवो ।
देवगs - उब्वियसरीर- वे उव्यियसरीर अंगोवंग- देवगड़पाओग्गाणुपुव्वी तित्थयरणामाणं को बंधो को अबंधो ? १५२ ॥
सुमं ।
दोनों पाये जाते हैं। अथवा मिथ्यात्व, चार जातियां, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर, इनका बन्ध और उदय दोनों यहां साथमें व्युच्छिन्न होते हैं। शेष प्रकृतियों का पूर्व में बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है । आताप प्रकृतिका उदय यहां है ही नहीं । मिथ्यात्व प्रकृतिका स्वोदय बन्ध होता है । आतापका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें आता पके उदयका अभाव है । नपुंसकवेद, तिर्यगायु, मनुष्यायु, चार जातियां, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । मिथ्यात्व, तिर्यगायु और मनुष्यायुका बन्ध निरन्तर होता है। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं । तिर्यगायु, चार जातियां, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण, इनका तिर्यग्गतिसे संयुक्त, मनुष्यायुका मनुष्यगति से संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंका तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । तिर्यच व मनुष्य दो गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है ।
देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १५२ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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३, १५४.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[२१५ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा॥१५३॥
एदस्सत्थो वुच्चदे - एत्थ बंधो उदओ वा पुव्वं पच्छा वा वोच्छिज्जदि त्ति परिक्खा णत्थि, उदयाभावादो । णवरि तित्थयरस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि । एदाओ पंच वि पयडीओ परोदएण बझंति, ओरालियमिस्सकायजोगम्मि एदासिमुदयविरोहादो। णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । असंजदसम्मादिद्विम्हि एदासिं बंधस्स बत्तीसुत्तरपच्चया, ओघपच्चएसु बारसजोगित्थि-णबुसयवेदाणमभावादो । सेसं सुगमं । चउण्हं पयडीणं तिरिक्ख-मणुसगइ-असंजदसम्मादिट्ठी सामी । तित्थयरस्स मणुसा चेव, तिरिक्खेसु उप्पण्णाणं तत्थुप्पत्तिपाओग्गसम्माइट्ठीण तित्थयरस्स बंधाभावादो । गइसंजुत्तत्तमभणिय किमिदि सामित्तं परूविदं ? ण, देवगइसंजुत्तं बझंति त्ति अणुत्तसिद्धीदो । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो।
वेउब्वियकायजोगीणं देवगईए' भंगो ॥ १५४ ॥
असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥१५३ ॥
इसका अर्थ कहते हैं- यहां बन्ध व उदय पूर्वमें अथवा पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह परीक्षा नहीं है। क्योंकि, यहां उन प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। विशेष इतना है कि तीर्थकर प्रकृतिका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है। ये पांचों ही प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगमें इनके उदयका विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका यहां अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनके बन्धके बत्तीस उत्तर प्रत्यय है, क्योंकि, ओघप्रत्ययों से बारह योग, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। चार प्रकृतियोंके तिर्यच व मनष्यगतिके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी तीर्थकरप्रकृतिके मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुए वहां उत्पत्तिके योग्य सम्यग्दृष्टियोंके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता।
शंका-गतिसंयुक्तताको न कहकर स्वामित्वकी प्ररूपणा क्यों की गयी है ?
समाधान—चूंकि उक्त प्रकृतियां देवगतिसे संयुक्त बंधती हैं, यह विना कहे ही सिद्ध है, अतः गतिसंयोगकी प्ररूपणा नहीं की।
बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं।
वैक्रियिककाययोगियोंकी प्ररूपणा देवगतिके समान है ॥ १५४ ॥
१ प्रतिषु ' देवगईणं ' इति पाठः।
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२१६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १५४. एदमप्पणासुत्तं देसामासिय, तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे- पंचणाणावरणीयछदसणावरणीय सादासाद-बारसकसाय पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छा-मणुसगइपंचिंदियजादि-ओरालिय तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्णचउक्क-मणुसाणुपुवी-अगुरुअलहुअचउक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-थिराथिरसुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचतराइयपयडीओ एत्थ चदुसु गुणट्ठाणेसु बंधपाओग्गाओ । एत्थ पुव्वं बंधो उदओ वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अजसगित्तीणमुदयाभावादो सेसाणं पयडीणमुदयवोच्छेदाभावादो च ।
'पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुअलहुअ-उवधाद-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुहणिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, वेउव्वियकायजोगम्हि एदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । णवरि सम्मामिच्छाइडिं मोत्तूण अण्णत्थ उस्सासस्स' सोदय-परोदओ बंधो, सरीरपज्जत्तीए
___ यह अर्पणासूत्र देशामर्शक हैं, इसलिये इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते है- पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्णादिक चार, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, त्रस आदिक चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां यहां चार गुणस्थानोंमें बन्धके योग्य हैं। यहां पूर्वमें बन्ध या उदय व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और अयशकीर्ति, इनका उदयाभाव तथा शेष प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वैक्रियिककाययोगमें इनका ध्रुवोदय देखा जाता है। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टिको छोड़कर अन्यत्र उच्छ्वासका स्वोदय-परोदय बन्ध
... १ प्रतिषु ' उस्सास' इति पाठः ..
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३, १५४.] · जोगमगणाए बंधसामित
[२१७ पज्जत्तस्स अंतोमुहुत्तं गंतूण आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासस्सोदयदंसणादो। णिहा-पयला-सादासाद बारसकसाय-सत्तणोकसाय-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो, असुहाणं णरइएसु उदयदंसणादो । मणुसगइ-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीण परोदओ बंधो, वेउव्वियकायजोगम्मि एदासिमुदयविरोहादो ।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-ओरालिय-तेजा कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास- अगुरुवलहुव-उवघाद -परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-- णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोगथिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो । सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर
होता है, क्योंकि, शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त जाकर आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उच्छ्वासका उदय देखा जाता है । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियों में अशुभ प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है। मनुष्यगति, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वैक्रियिककाययोगमें इनके उदयका विरोध है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, वारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। सम्यग्मिथ्यादृाष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, यहां प्रतिपक्ष प्रक्रतियोंके बन्धका अभाव है। पंचन्द्रिय ...२८.
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२१८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १५४. अंगोवंग-तसणामाण मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? ण, णेरइएसु सणक्कुमारादिदेवेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीण मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो ? ण, आणदादिदेवेसु णिरंतरवंधुवलंभादो । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो।
मिच्छाइट्ठी एदाओ पयडीओ तेदालीसपच्चएहि, सासणो अद्वतीसपच्चएहि, सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्टिणो चोत्तीसपच्चएहि बंधति, मूलोघपच्चएसु बारसजोगपच्चयाभावादो । सेसं सुगमं ।
मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उच्चागोदाणि मिच्छाइटि-सासणसम्माइटिसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुतं । अवसेससवपयडीओ मिच्छाइटि
जाति, औदारिकशरीरांगोपांग और त्रस नामकर्मका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि नारकियों और सनत्कुमारादि देवों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि आनतादि देवोंमें उनका निरन्तर बन्ध देखा जाता है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
मिथ्यादृष्टि इन प्रकृतियोंको तेतालीस प्रत्ययोसे, सासादनसम्यग्दृष्टि अड़तीस प्रत्ययोंसे, तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि चौतीस प्रत्ययोंसे बांधते हैं; क्योंकि, मूलोघ प्रत्ययोंमें बारह योग प्रत्ययोंका यहां अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है।
मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि, सासादन- . सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृाष्ट्र और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष
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३, १५४.] जोगमगणाए बंधसामित्तं
___ [२१९ सासणसम्मादिट्ठिणो तिरिक्ख मणुसगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधति ।
देव-णेरड्या सामी। बंधद्धाणं सुगमं । बंधविणासो णात्थ । पंचणाणावरणीयछदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइय-वण्णचउक्क-अगुरुअलहुअ-उवघादणिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउबिहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवबंधित्ताभावादो। सेससव्वपयडीओ सव्वत्थ सादि-अद्धवाओ ।
थीणगिद्धित्तिय-अणंताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाणचउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणि बेठ्ठाणियपयडीओ । एदासु अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, सासणम्मि तदुभयाभावंदंसणादो । इत्थिवेद अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो । अवसेसाणं ऐसा परिक्खा णत्थि, उदयाभावादो ।
सब प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति एवं मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं ।
देव और नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धविनाश है नहीं। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। अन्य गुणस्थानोंमें उनका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष सब प्रकृतियां सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्धवाली हैं।
स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये द्विस्थानिक प्रकृतियां हैं। इनमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है। स्त्रीवेद, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्रमशः इनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। शेष प्रकृतियोंके यह परीक्षा नहीं है, क्योंकि, उनका उदयाभाव है।
१ प्रतिषु तदुभयभाव.' इति पाठः ।
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२२.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १५४. अणंताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो, वेउब्वियकायजोगम्मि पडिवक्खुदयदंसणादो । अवसेसाणं पयडीणं परोदओ बंधो, तासिमेत्युदयविरोहादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कतिरिक्खाउआणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो । कधं णिरंतरो ? ण, सत्तमपुढविणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधो सांतरो, एगसमएण बंधुवरमदसणादो । पच्चया सुगमा। तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, सेससव्वपयडीओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बंधंति । देव-णरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । सत्तण्हं धुवपयडीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । सासणे दुविहो बंधो।
मिच्छत्त-णqसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवसंघडण-आदाव-थावरपयडीओ मिच्छाइट्ठिणा बज्झमाणियाओ । एत्थ मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जति,
अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वैक्रियिककाययोगमें इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है। शेष प्रकृतियोंका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि यहां उनके उदयका विरोध है। स्त्यानग्रद्धित्रय, अनन्तानबन्धिचतष्क और तिर्यगायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है |
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान -यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
शेष प्रकृतियोंका वन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनका बन्धविश्राम देखा जाता है । प्रत्यय सुगम हैं । तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको तिर्यग्गतिसे संयुक्त, तथा शेष सब प्रकृतियोंको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । देव व नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं ! सात ध्रुवप्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादनमें दो प्रकारका बन्ध होता है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर, ये मिथ्यादृष्टिके द्वारा बध्यमान प्रकृतियां हैं। यहां मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, उपरिम
१ अप्रतौ — बंधुवरमानाभावादो' इति पाठः ।
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३, १५४.1 जोगमगणाए बंधसामित्त
(२२१ उवरिमगुणेसु तदुभयाणुवलंभादो । णQसयवेद-हुंडसंठाणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु तदुभयाभावदंसणादो । सेसासु एसो विचारो णत्थि, उदयाभावादो । मिच्छत्तस्स सोदएण, णqसयवेद-हुंडसंठाणाणं सोदय-परोदओ, अवसेसाणं परोदओ बंधो । मिच्छत्तस्स बंधो गिरंतरो, अवसेसाणं सांतरो । पच्चया सुगमा । णवरि एइंदियजादि-आदाव-थावराणं णqसयवेदपच्चओ अवणेदव्यो, णेरइएसु एदासिं बंधाभावादो । मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति । एइंदियजादि-आदाव-थावराणं बंधस्स देवा सामी, अवसेसाणं बंधस्स देव-णेरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउव्विहा बंधो, अवसेसाणं सादि-अद्धवो ।
___ मणुसाउअस्स बंधो उदयादो' पुव्वं पच्छा वा वोच्छिजदि त्तिणत्थि [विचारो], संतासंताण सण्णियासविरोहादो। परोदओ बंधो, वेउब्वियकायजोगम्मि मणुसाउअस्स उदयविरोहादो। णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं
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गुणस्थानों में वे दोनों पाये नहीं जाते । नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्रमसे उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । शेष प्रकृतियों में यह विचार नहीं है, क्योंकि, उनका उदयाभाव है । मिथ्यात्वका स्वोदयसे, नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका स्वोदयपरोदयसे, तथा शेष प्रकृतियोंका परोदयसे बन्ध होता है। मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर और शेष प्रकृतियोंका सान्तर होता है । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावरके प्रत्ययोंमें नपुंसकवेद प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, नारकियोंमें इनके बन्धका अभाव है । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त; तथा शेष प्रकृतियां तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंधती हैं । एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावरके बन्धके देव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धके देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका, तथा शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव होता है।
मनुष्यायुका बन्ध उदयसे पूर्व या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं हैं, क्योंकि, सत् (बन्ध) और असत् (उदय) की तुलनाका विरोध है। परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वैक्रियिककाययोगमें मनुष्यायुके उदयका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इसके बन्धविश्रामका अभाव है। मिथ्याष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयत
१ अप्रतौ ' बंधोदयादो' इति पाठः ।
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२२२ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १५५. तेदालीस-अट्ठत्तीस-चोत्तीसपच्चया । मणुसगइसंजुत्तं । देव-णेरइया सामी । अद्धाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिहि त्ति। बंधविणासो णत्थि। सादि-अद्धवो बंधो।
तित्थयरस्स बंधोदयवोच्छेदसण्णियासो णत्थि, संतासंताणं सण्णियासविरोहादो । परोदओ बंधो, मणुसगई मोत्तूणण्णत्थुदयाभावादो।णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। पच्चया सुगमा । मणुसगइसंजुत्तं । देव-णेरइया सामी । असंजदसम्मादिट्ठी अद्धाणं । बंधविणासो णत्थि । सादि-अद्भुवो बंधो।
वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं देवगइभंगों ॥ १५५॥
एदस्स देसामासियअप्पणासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा --- पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछं-मणुसगइपंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्णचउक्क-मणुस्साणुपुब्वि-अगुरुवलहुव-उवधाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ.
सम्यग्दृष्टिके क्रमसे तेतालीस, अड़तीस व चौंतीस प्रत्यय होते हैं। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देव व नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि तक है । बन्धविनाश है नहीं। सादि व अध्रुव बन्ध होता है। - तीर्थकरप्रकृतिके बन्ध व उदयके व्युच्छेदकी सदृशता नहीं है, क्योंकि, सत् और असत्की तुलनाका विरोध है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, मनुष्यगतिको छोड़कर दूसरी जगह तीर्थकरप्रकृतिके उदयका अभाव है । निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्वान असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है । बन्धविनाश है नहीं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा देवगतिके समान है ॥ १५५ ॥
इस देशामर्शक अर्पणासूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्णादिक चार, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस,
................
१ अ-आप्रत्योः · देवगईण मंगो' इति पाठः । २ अप्रतौ ' दुगुंछाणं' इति पाठः । ३ प्रतिषु ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग' इति पाठः ।
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३, १५५.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[२२३ तस-बादर-पज्जत-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण-उच्चागोद पंचतराइयपयडीओ तीहि गुणट्ठाणेहि बज्झमाणियाओ द्वविय परूवणा कीरदे- बंधोदय-वोच्छेदविचारो णत्थि, बंधेणुदएणुभएहि वा विरहिदगुणट्ठाणाणमुवरि अणुवलंभादो।
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास अगुरुवलहुव उवघाद-तस बादर-पज्जत्त पत्तेयसरीर थिराथिर सुहासुह णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । णिद्दा-पयला-सादासाद-बारसकसाय-छणोकसाय-पुरिसवेदाणं बंधो सोदय-परोदओ, उभयथा वि बंधविरोहाभावादो। समचउरससंठाण-सुभगादेज्जजसकित्ति-उच्चागोदाणं बंधो भिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ । सासणे सोदओ, अपज्जत्तद्वाए णेरइएसु सासणाणमभावादो । मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुस्साणुपुग्वि-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं परोदओ बंधो, एत्थ एदासिमुदयविरोहादो । अजसकित्तीए मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय
बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इन तीन गुणस्थानवर्ती वैक्रियिककाययोगियोंके द्वारा बध्यमान प्रकृतियोंको स्थापित कर प्ररूपणा करते हैं- इनके बन्ध व उदयके व्युच्छेदका विचार यहां नहीं है, क्योंकि बन्ध, उदय या दोनोंसे रहित गुणस्थान ऊपर पाये नहीं जाते।
___ पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्दियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, छह नोकषाय और पुरुषवेदका वन्ध स्वोदय परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धविरोधका अभाव है। समचतुरस्नसंस्थान, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्रका बन्ध मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है। सासादन गुणस्थानमें स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें नारकियों में सासादन गुणस्थानका अभाव है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगात और सुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका विरोध है। अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता
For Private & Personal use only
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१२४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
परोदओ । सासणे परोदओ, देवगदीए तिस्से उदयाभावाद। ।
पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय बारसकसाय भय - दुगुंछा ओरालिय तेजा कम्मइयसरीरवण्ण-गंध--रस-फास-अगुरुअलहुअ -- उवघाद--परघादुस्सास -- बादर - पज्जत्त--पत्तेयसरी रणिमिणपंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादासाद-हस्स-रदि - [अरदि-] सोग-थिराथिरसुहासुह- जसकित्ति - अजसकित्तीणं सांतरा बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पुरिसवेद - समचउरससंठाण वज्जरिसहसंघडण -पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्वर-आदेज्जुच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठिसास सम्मादिट्ठी बंधो सांतरा । असंजदसम्म । दिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो | पंचिंदियजादि - ओरालियसरीरअंगोवंग - तसणामाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर - णिरंतरो | कथं णिरंतरो ? ण, सणक्कुमारादिदेवेसु णेरइएसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावाद | मणुसगइ - मणुसाणुपुव्वीणं
[३, १५५.
है । सासादन गुणस्थानमें परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिमें उसके उदयका अभाव है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध. रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी हैं। साता व असातावेदनीय, हास्य, रति, [अरति], शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समय से इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीरांगोपांग और त्रस नामकर्मका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है ।
शंका — निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
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समाधान – नहीं, क्योंकि सनत्कुमारादि देवों और नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । मनुष्यगति और मनुष्यगति
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३, १५५. जोगमगणाए बंधसामित्तं
[२२५ मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु' सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो ? ण, आणदादिदेवेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो।
मिच्छाइट्ठिस्स तेदालीस पच्चया, ओघपच्चएसु चदुमण-वचि-कायजोगपच्चयाणमभावादो। सासणस्स सत्तत्तीसुत्तरपञ्चया, मिच्छाइट्ठिपच्चएसु पंचमिच्छत्त-णqसयवेदाणमभावादो। असंजदसम्मादिट्ठीसु तेत्तीस पच्चया, मिच्छाइट्ठिपच्चएसु पंचमिच्छत्ताणताणुबंधिचउक्किस्थिवेदाणमभावादो । सेसं सुगमं ।
मणुसगइ-मणुसाणुपुव्वी-उच्चागोदाणं मणुसगइसंजुत्तो, अवसेसाणं पयडीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो, असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो । मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो देव-णेरइया सामी । सासणसम्मादिट्ठिणो देवा चेव सामी ।
प्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है । समाधान-नहीं, क्योंकि, आनतादिक देवों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
असंयतसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
मिथ्यादृष्टिके तेतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमें यहां चार मनोयोग, चार वचनयोग और चार काययोगप्रत्ययोंका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टिके सैंतीस उत्तर प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिके प्रत्ययों से यहां पांच मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में तेतीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टिके प्रत्ययों से यहां पांच मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेद प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है।
__ मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका बन्ध मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त, और असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है । मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव व नारकी स्वामी हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि देव ही स्वामी हैं । बन्धा
१ अप्रतौ — सासणसम्मादिट्ठीहि ' इति पाठः ।
..बं. २९.
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२२६ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १५५. बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णस्थि । बंधेण धुवपयडीणं' मिच्छाइट्ठिम्हि चउब्विहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो। सेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अदुवो, अद्धवबंधित्तादो ।
थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-तिरिक्खगइ-च उसंठाण-चउसंघडणतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज - णीचागोदाणं परूवणा कीरदे- अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेदाणं बंधोदया समं वोच्छिज्जति सासणगुणट्टाणे, ण अण्णत्थ; मिच्छाइट्ठिम्हि तदणुवलंभादो। दुभग-अणादेज्ज-णीचागोदाण पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, उवरिमअसंजदसम्मादिहिगुणम्मि बंधेण विणा उदयस्सेव दंसणादो । अवसेसाणमेसो विचारो णस्थि, बंधस्सेकस्सेवुवलंभादो ।
अणंताणुबंधिचउक्किस्थिवेदाणं बंधो सोदय-परोदओ, उभयथावि अविरोहादो । दुभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदय-परोदओ । सासणे परोदओ, णरइएसु अपज्जत्तद्धाए तदभावादो। सेससोलसपयडीओ परोदएणेव बझंति, तासिमेत्थुदयविरोहादो।
ध्वान सुगम है। बन्धव्युच्छेद नहीं है। बन्धसे ध्रुवप्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। अन्य गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका वन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि ब अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी प्ररूपणा करते हैं- अनन्तानुवन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका बन्ध व उदय दोनों सासादन गुणस्थानमें साथ व्युच्छिन्न होते है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि मिथ्याष्टि गुणस्थानमें उनके विच्छेदका अभाव है। दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, उपरिम असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वन्धके विना केवल उदय ही देखा जाता है। शेष प्रकृतियोंके यह विचार नहीं है, क्योंकि, उनका केवल एक बन्ध ही यहां पाया जाता है ।
अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारसे कोई विरोध नहीं है। दर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें परोदय वन्ध होता है, क्योंकि, नारकियोंमें अपर्याप्तकालमें सासादन गुणस्थानका अभाव है। शेष सोलह प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं, क्योंकि, यहां उनके उदयका विरोध है।
१ अप्रतौ — बंधणवपयडीणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'धुवभावादो' इति पाठः ।
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३, १५५.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २२० __ थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । इत्थिवेदचउसंठाण-चउसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्जाणं सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधदंसणादो । तिरिक्खगइ तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो। कंचं णिरंतरो ? सत्तमपुढविणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणे सांतरो, अपज्जतद्वाए सत्तमपुढविट्ठियसासणाणुवलंभादो ।
पच्चया सुगमा। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, अवसेसाओ तिरिक्ख-मणुस्सगइसंजुत्तं बंधति । मिच्छाइट्ठिदेव-णेरइया, सासणा देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणठ्ठट्ठाणं च सुगमं । सत्तण्हं धुवबंधपयडीणं मिच्छाइटिम्हि बंधो चउव्विहो । सासणे दुविहो, अणादि-धुवाभावाद। । सेसाणं सम्वत्थ सादि-अद्धवो ।
मिच्छत-णबुसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावराणं परूवणं कस्सामा - मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, उवरि तदुभयाणुवलंभादो । णवंसय
स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुवन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुववन्धी है । स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध देखा जाता है। तिर्यग्गति,तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान-क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सासादन गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें सप्तम पृथिवीस्थ सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंका अभाव है।
प्रत्यय सुगम हैं । तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायाग्योनुपूर्वी और उद्योतको तिर्यग्गतिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । मिथ्याष्टि देव व नारकी, तथा सासादनसम्यग्दृष्टि देव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्ठस्थान सुगम हैं। सात ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि व ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं-मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों [मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ] साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि,मिथ्यात्व गुणस्थानसे ऊपर
१ प्रतिषु तदुदयाशुवलंभादो' इति पाठः ।
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२२८ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १५५.
वेद-हुंडसंठाणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, मिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिट्ठीसु कमेण बंधोदयवच्छेददंसणादो । अवसेसासु एसो विचारो णत्थि, बंधस्सेकस्सेव दंसणादो ।
मिच्छत्तस्स सोदण, णवुंसयवेद-हुंडसंठाणाणं' सोदय - परोदरण, अवसेसाणं परोदएण बंधो । मिच्छत्तस्स णिरंतरो । अवसेसाणं पयडीणं सांतरो, बंधगद्धगयसंखाणियमाणुवलंभादो । पच्चया सुगमा । णवरि एइंदिय - आदाव - थावराणं णवुंसयवेदपच्चओ णत्थि त्ति दुग्गममेयं संभरेदव्वं । एदंदियजादि - आदाव थावराणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, सेसाओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बज्झति । एइंदिय-आदाव - थावराणं देवा सामी । सेसाणं देव णेरइया । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउव्विहो । सेसाणं सादि - अद्भुवा ।
तित्थयरस्स बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, बंधअइक्कियादो । परोदओ बंधो, सजोगिभडास्यं मोत्तूण तित्थयरस्सण्णत्थुदयाभावादो । णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमा
वे दोनों पाये नहीं जाते । नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । शेष प्रकृतियों में यह विचार नहीं है, क्योंकि, उनका केवल एक बन्ध ही देखा जाता है ।
मिथ्यात्वका स्वोदयसे, नपुंसकवेद व हुण्डसंस्थानका स्वोदय- परोदय से, तथा शेष प्रकृतियोंका परोदयसे बन्ध होता है । मिथ्यात्वका निरन्तर बन्ध होता है । शेष प्रकृतियाँका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि बन्धककालमें उनकी संख्याका नियम पाया नहीं जाता । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावरका नपुंसक वेद प्रत्यय नहीं है, इस दुर्गम बातका स्मरण रखना चाहिये । एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावर प्रकृतियां तिर्यग्गति से संयुक्त और शेष प्रकृतियां तिर्यग्गति व मनुष्यगति से संयुक्त बंधती हैं। एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावर प्रकृतियोंके देव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके देव व नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका गन्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
तीर्थंकर प्रकृति बन्ध व उदयके व्युच्छेदका विचार नहीं है, क्योंकि, उसका एक बन्ध ही होता है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, सयोगी भट्टारकको छोड़कर अन्यत्र तीर्थंकर प्रकृति के उदयका अभाव है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे
१ अप्रतौ 'मित्तस्स णवंसयवेद सोदएण इंडसठाणाणं ' इति पाठः ।
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३, १५७.1 जोगमागणाए बंधसामित्त
[ २२९ भावादो । पच्चया सुगमा । मणुसगइसंजुत्तो बंधो । देव-णेरइयअसंजदसम्मादिट्ठी सामी । बंधद्धाणं बंधविणवाण च सुगमं । सादि-अद्धओ बंधो । पयडिबंधगयविसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
__णवरि विसेसो बेट्टाणियासु तिरिक्खाउअं णत्थि मणुस्साउअं णत्थि ॥१५६॥ ___ कुदो १ देव-णेरइयाणमपज्जत्तद्धाए आउवबंधविरोहादो।
आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पंचणाणावरणीयछदसणावरणीय-सादासाद-चदुसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय-दुगंछा देवाउ-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्बिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्बियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहाय-- गइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सरआदेज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १५७ ॥
बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम है । मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देव व नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है । प्रकृतिबन्धगत विशेषके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
विशेषता केवल इतनी है कि द्विस्थानिक प्रकृतियोंमें तिर्यगायु नहीं है और मनुष्यायु नहीं है ॥ १५६ ॥
इसका कारण यह है कि देव व नारकियोंके अपर्याप्तकालमें आयुबन्धका विरोध है।
आहारकाययोगी और आहारमिश्रकाययोगियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभम, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चमोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१५७॥
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२३.1
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १५८.
सुगमं ।
पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १५८ ॥
एदस्सत्यो उच्चदे - एत्थ बंधो उदओ वा पुव्वं वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, एक्कगुणट्ठाणम्मि पुव्वावरभावाभावादो। पंचणाणावरणीय-चउर्दसणावरणीय-पुरिसवेदपंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुवच उक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसाकत्ति-णिमिण-उच्चागोदपंचंतराइयाणं सोदओ बंधो । णिद्दा-पयला-सादासाद-चदुसंजलण-छण्णोकसायाणं सोदय-परोदओ बंघो, उभयथावि बंधविरोहाभावादो । देवाउ-देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियसरीरंगोवंगदेवगइपाओग्गाणुपुवी-अजसकित्ति-तित्थयराणं परोदओ बंधो, आहारकायजोगीसु एदासिमुदयविरोहादो।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-चदुसंजलण-पुरिसवेद-भय-दुगुंछा-देवाउ-देवगइपंचिंदियजादि-वेउव्विय तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्णचउक्कदेवगइपाओग्गाणुपुब्बि-अगुरुवलहुवचउक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-सुभग-सुस्सर-आदेज
यह सूत्र सुगम है। प्रमत्तसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ १५८ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- यहां बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या उदय, यह विचार नहीं है; क्योंकि, एक गुणस्थानमें पूर्वापरभावका अभाव होता है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पुरुषवेद, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णादिक चार, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, त्रसादिक चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है। निद्रा.प्रचला, साता व असाता वेदनीय, चार संज्वलन और छह नौ कषायोंका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारसे बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है। देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अयशकीर्ति और तीर्थकरका परोदय बन्ध होता हैं, क्योंकि, आहारकाययोगियोंमें इनके उदयका विरोध है।
पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्णादिक चार, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, प्रसादिक चार, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र
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[ २३१
जोगमगणार बंधसामित्तं
बंधो,
णिमिण-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं-णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर - सुहासुह-जसकित्ति अजसकित्तीणं सांतरा एसमएण बंधुवरमदंसणादो ।
३, १५८. ]
बारस
चदुसंजल - पुरिसवेद-हस्स-रदि - अरदि - सोग-भय-दुर्गुछा - आहार काय जोगेहि पच्च एहि एदाओ पयडीओ वज्झति । सेसं सुगमं । एदासिं बंधो देवगदिसंजुत्तो । मणुसा सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । धुवबंधपयडीणं तिविहो बंधो, धुवाभावाद । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो ।
एवमाहार मिस्स काय जोगीणं पि वत्तव्वं । वरि परघादुस्सास - पसत्थविहायगइदुस्सराणं परोदओ बंधो । पुव्वमोरालियसरीरस्स उदए संते एदासिं संतोदयाणं कधमेत्थ अकारणेण उदयवोच्छेदो होज्ज ? ण, ओरालियसरीरोद एणोदइलाणं तदुदयाभावेणेदासिमुदयाभावस्स इयत्ता दो । पच्चएस आहारकायजोगमवणेदूण आहार मिस्सकायजोगो पक्खिविदव्वो । एत्तिओ चेव भेदो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि ।
और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समय से इनका बन्धविश्राम देखा जाता है ।
ये प्रकृतियां चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और आहारकाययोग, इन वारह प्रत्ययोंसे बंधती हैं। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है । इनका बन्ध देवगति से संयुक्त होता है । मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है | ध्रुवप्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
इसी प्रकार आहारमिश्रकाययोगियोंके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि इनके परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और दुस्वरका परोदय बन्ध होता है । शंका- चूंकि पूर्व में औदारिकशरीर के उदयके होनेपर इनका उदय था, अतएव अब यहां उनका निष्कारण उदयव्युच्छेद क्यों हो जाता है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, औदारिकशरीर के उदयके साथ उदयको प्राप्त होनेवाली इन प्रकृतियोंका उसके उदयका अभाव होनेसे उदयाभाव न्याययुक्त है ।
प्रत्ययों में आहारकाययोगको कम करके आहारमिश्रकाययोगको जोड़ना चाहिये । केवल इतना ही भेद है, और कहीं कुछ भेद नहीं है ।
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२३२]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १५९. _____ कम्मइयकायजोगीसु पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-असादा. वेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछामणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा--कम्मइयसरीर--समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फासमणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर--सुहासुह-सुभग-- सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १५९ ॥
सुगम ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १६० ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे- एत्थ बंधो उदओ वा पुव्वं वोच्छिण्णो त्ति णत्थि विचारो, एत्थ ओरालियदुग-समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ
__ कार्मणकाययोगियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, . वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १५९॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १६० ॥
इसका अर्थ कहते हैं- यहां बन्ध या उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, यहां औदारिकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, उपघात,
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३, १६०.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २३३ पत्तेयसरीर-सुस्सराणमेयंतेण उदयाभावादो, सेसाणमुदयसंभवादो च । पंचणाणावरणीयचउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिणपंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थतणसव्वगुणट्ठाणेसु णियमेणुदयदंसणादो । णिद्दा-पयलाअसादावेदणीय-बारसकसाय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पुरिसवेद-सुभगादेज्ज-जसकित्तिउच्चागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ बंधो, उभयथा वि बंधविरोहाभावादो। असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ, मणुस्सअसंजदसम्मादिट्ठीणं मणुवदुगस्स बंधविरोहादो । पंचिंदिय-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्टिम्हि सोदय-परोदओ बंधो, पडिवक्खुदयसंभवादो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदओ, विगलिंदिएसु एदेसिं दोणं गुणट्ठाणाणं अभावादो । ओरालियसरीरसमचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-सुस्सराणं परोदओ बंधो, विग्गहगदीए एदासिमुदयाभावादो।
पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुछा-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ
परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वरका नियमसे उदयाभाव है, तथा शेष प्रकृतियोंके उदयकी सम्भावना है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां सब गुणस्थानोंमें इनका नियमसे उदय देखा जाता है । निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, बारह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्रका, स्वोदय परोदय बन्ध होता है। मनुष्यगति व मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे ही बन्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके मनुष्यद्विकके बन्धका विरोध है । पंचेन्दियजाति, त्रस, बादर और पर्याप्तका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उदय सम्भव है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्हाष्टियोंमें स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विकलेंद्रियों में इन दोनों गुणस्थानोंका अभाव है। औदारिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव है।
__ पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच छ. बं. ३०.
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२३४ ]
छक्खंडागमे बंधसांमित्तविचओ
[ ३, १६०.
धुवबंधित्तादो । असादावेदणीय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर - सुहासुह- जसर्कित्ति अजस कित्तीर्ण सांत बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो | पुरिसवेद - समचउरससंठाण - वज्जरिसहसंघडणपसत्थविहाय गइ - सुस्सर-सुभगादेज्ज - उच्चागादाणं मिच्छाइट्टि सासणेसु सांतरा बंधो । असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीण बंधाभावाद । [ मणुसगइ - ] मणुसगइपाओग्गाणुपुत्रीणं मिच्छाइट्टि सासणेसु बंधो सांतर - णिरंतरी । कथं णिरंतरो ? ण, आणदादिदेवेहिंतो विग्गहगदीए मणुसे सुप्पण्णाणं मणुसगइदुगस्स निरंतर बंधुवलंभादो | असंजदसम्मादिसु णिरंतरो बंधो, विग्गहगदीए मणुवदुगबंधपाओग्गसम्मादिट्टीणमण्णगइ दुगस्स बंधाभावादो । पंचिंदिय-ओरालियसरीर अंगोवंग-तस - बादर-पज्जत्त-परधादुस्सास-पत्तेयसरीराणं बंधो मच्छड्डीसु सांतर-णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? ण, सणक्कुमारादिदेव - णेरइएहिंतो तिरिक्ख-मणुस्से सुप्पण्णाणं
अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका साम्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुस्वर, सुभग, आदेय ओर उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर बन्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टियौमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । [ मनुष्यगति ] और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका — निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, आनतादिक देवोंमेंसे मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके विग्रहगति में मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
असंयतसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगति में मनुष्यद्विकके बन्धके योग्य सम्यग्दृष्टियोंके अन्य दो गतियोंके वन्धका अभाव है। पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीरांगोपांग, बस, बादर, पर्याप्त, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका बन्ध मिथ्यादृष्टियोंमें सान्तर - निरन्तर होता है ।
शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव व नारकियोंमेंसे तिर्यों व
१ प्रतिषु ' मणुसे सुचवण्णाणं ' इति पाठः ।
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[२३५
३, १६०.]
जोगमगणाए बंधसामित्तं णिरंतरबंधुवलंभादो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, तत्थ पडिवश्वपयडीणं बंधाभावादो।
मिच्छाइट्ठीसु तेदालीसुत्तरपच्चया, ओघपच्चएसु कम्मइयकायजोगं मोत्तूण सेसबारसजोगपच्चयाणमभावादो। तत्थ पंचमिच्छत्तेसु अवणिदेसु अट्ठत्तीस सासणसम्मादिट्टिपच्चया । तत्थ अणताणुबंधिचउक्कित्थिवेदेसु अवणिदेसु तेत्तीस असंजदसम्मादिट्ठिपच्चया होति । सेसं सुगमं ।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-असादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदिअरदि-सोग-भय दुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुवलहुअ-उववाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिरसुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्ठी सासणो' च तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, एदेसिमपज्जत्तकाले णिरय-देवगईणं बंधाभावादो । असंजदसम्मादिट्ठिणो देव-मणुसगइसंजुतं बंधति, तेसिं णिरय-तिरिक्खगईणं बंधाभावादो । मणुसगइ
मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सासाइनसभ्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके वन्धका अभाव है।
__ मिथ्याटियों में तेतालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमें कार्मणकाययोगको छोड़कर शेष बारह योगप्रत्ययोंका अभाव है। उनमेंसे पांच मिथ्यात्वोंको कम करनेपर अड़तीस सासादनसम्यग्दृष्टियोंके प्रत्यय होते हैं। उनमेंसे अनन्तानुवन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदको कम करने पर तेतीस असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रत्यय होते हैं । शेष प्ररूपण सुगम है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर,
नसंस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति एवं मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनके अपर्याप्तकालमें नरक व देव गतियोंके वन्धका अभाव है । असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव
१ अप्रतौ - मिच्छाइडिंसासणे च ' इति पाठः ।
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२३६ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १६०.
मणुसग पाओग्गाणुपुवीओ सब्वे मणुसगइसंजुत्तं बंधति, साभावियादो । ओरालियसरीरओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरि सहसंघडणाणि मिच्छादिङ- सासणसम्मादिट्टिणो तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधति, एदासिमण्णगईहि सह विरोहादो । उच्चागोदं मिच्छादिट्ठि- सासणसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तमेदेसिमपज्जत्तकाले उच्चागोदाविणाभाविदेवगईए बंधाभावादो | असंजदसम्मादिट्टिणो देव मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, तस्सुभयत्थ बंधसंभवदंसणादो |
माणुसगइ - मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालिय सरीर-ओरालिय सरीर अंगोवंग- वज्जरिसहसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्टि - तिगइसासणसम्माइट्ठि देवणेरइयअसंजद सम्माट्ठो सामी । अवसेसाणं पयडीणं चउगइमिच्छाइट्ठि - असंजदसम्माइट्टिणी तिगइसासणसम्माइट्टिणो च सामी । धद्धाणं सुगमं । एदेसिमेत्थ बंधविणासो णत्थि । पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क - अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्टिम्हि चउव्विहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवबंधाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सव्वत्थ सादि-अद्भुवो अद्भुवबंधित्तादो ।
है | मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सब मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वाभाविक है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननको मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दा तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त तथा असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनका अन्य गतियों के साथ विरोध है । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनके अपर्याप्तकालमें उच्चगोत्रकी अविनाभाविनी देवगतिके वन्धका अभाव है । असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त वांधते हैं, क्योंकि, उच्चगोत्रके बन्धकी सम्भावना उक्त दोनों गतियोंके साथ देखी जाती है ।
मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, तीन गतियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि, तथा देव व नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियों के चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि, तथा तीन गतियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । वन्धाध्वान सुगम है । इनका यहां बन्धविनाश नहीं है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्यत्र तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुवबन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र आदि व अनुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
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३, १६२.] जोगमग्गणाए बंधसामित्त
। २३७ णिहाणिदा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १६१ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १६२॥
एदस्सत्थो वुच्चदे- अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेदाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, सासणसम्मादिविम्हि तदुभयाभावदंसणादो । एवमण्णपयडीणं जाणिय वत्तव्वं ।
थीणगिद्धितिय-चउसंठाण-चउसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणं परोदओ बंधो, विग्गहगदीए एदासिमुदयाभावादो । अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-दुभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो, एदासिमेत्थ
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १६१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अवन्धक हैं ॥ १६२॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका बन्ध व उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंका पूर्व या पश्चात् होनेवाला बन्ध व उदयका व्युच्छेद जानकर कहना चाहिये।
स्त्यानगृद्धित्रय, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति और दुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव है। अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्र, इनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयके
१ प्रतिषु 'पंचसंघडण' इति पाठः ।
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२३८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १६३. उदयणियमाभावादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं मिच्छाइद्विम्हि सांतर-णिरंतरो बंधो । क, णिरंतरो ? सत्तमपुढविणेरइएहितो तेउ-वाउक्काइएहिंतो च कयविग्गहाणं णिरंतरबंधदसणादो। सासणसम्माइट्ठिम्हि सांतरो, तत्तो विणिग्गयसासणसम्माइट्ठीणं संभवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सव्वत्थ सांतरो बंधो, अणियमेण बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तमवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधीत । चउगइमिच्छाइट्ठी तिगइसासणसम्मादिट्ठिणो च सामी । बंधद्धाणं बंधविणहाणं च सुगमं । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउविहो बंधो। सासणे दुविहो, अणाइ-धुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सव्वत्थ बंधो सादिअद्धवो ।
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १६३ ॥ सुगमं ।
नियमका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुकका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुववन्धी हैं। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियों और तेजकायिक व वायुकायिकोंमेंसे विग्रहको करनेवाले जीवोंके निरन्तर बन्ध देखा जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहांसे निकले हुए सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी सम्भावना नहीं है । शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सान्तर बन्ध होता है, क्योंके, अनियमसे उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्यय सुगम है।
तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको तिर्यग्गतिसे संयुक्त; तथा शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि और तीन गतियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान
हैं। स्त्यानग्रद्धित्रय और अनन्तानबन्धिचतष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि व ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १६३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
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३, १६५. ]
जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २३९
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माहट्टी असंजदसम्माइट्ठी सजोगिकेवली बंधा । एदे बंधा अबंधा णत्थि ।। १६४ ॥
सादावेदणीयस्स बंधो उदओ वा पुव्वं वोच्छिण्णो किं पच्छा वोच्छिण्णो त्ति एत्थ परिक्खा णत्थि, तदुभयवोच्छेदाभावादो । सोदय-परोदओ बंधो अद्भुवोदयत्तादो । सजोगिकेवलिम्हि णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो । अण्णत्थ सांतरा । पच्चया सुगमा । णवरि सजोगिकेवलिम्हि कम्मइयकाय जोगपच्चओ एक्को चेव । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माडितिरिक्ख मणुसगइसंजुत्तं असंजदसम्मादिट्टिणो देव - मणुसगइसंजुत्तं बंधति । सजोगिकेवली अगसंजुतं । चउगमिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिट्टिणो तिगइसासणसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसजोगिकेवलिणो च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । एत्थ बंधवोच्छेदो णत्थि । सादिअद्भुवो बंधो, परियत्तमाणबंधादो ।
मिच्छत्त-णवुंसयवेद-चउजादि- हुंड संठाण - असंपत्तसेवट्टसंघडण - आदाव थावर- सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंध ? || १६५ ॥
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ १६४ ॥
सातावेदनीयका बन्ध अथवा उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या क्या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, इसकी यहां परीक्षा नहीं है, क्योंकि, उन दोनोंके व्युच्छेदका यहां अभाव है । स्वोदय- परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवोदयी प्रकृति है । सयोगकेवल गुणस्थान में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । अन्यत्र सान्तर बन्ध होता है । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि सयोगकेवली गुणस्थान में एक ही कार्मणकाययोग प्रत्यय है । मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति व मनुष्यगति से संयुक्त, तथा असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बांधते हैं । सयोगकेवली गतिसंयोग से रहित बांधते हैं । चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि, तीन गतियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि, तथा मनुष्यगतिके सयोगकेवली स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । यहां बन्धव्युच्छेद नहीं है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, उसका बन्ध परिवर्तनशील है ।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, चार जातियां, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मका कौन बन्धक व कौन अबन्धक है ? ॥ १६५ ॥
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२४०]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १६६.
सुगमं ।
मिच्छाइट्टी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १६६ ॥
एत्थ पुव्वं पच्छा वा बंधो वोच्छिण्णो' त्ति विचारो णत्थि, एक्कगुणट्ठाणम्मि तदसंभवादो । मिच्छत्तस्स सोदओ बंधो, अण्णहा बंधाणुवलंभादो । णqसयवेद-चउजादि-थावरसुहुम-अपज्जत्तणामाणं बंधो सोदय-परोदओ, विग्गहगदीए उदयणियमाभावादो । हुंडसंठाणअसंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-साहारणसरीरणामाणं परोदओ बंधो, विग्गहगदीए णियमेणेदासिं उदयाभावादो । मिच्छत्तस्स बंधो णिरंतरो । अवसेसाणं पयडीणं सांतरो, अणियमेण एगसमयबंधदसणादो। पच्चया सुगमा । मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-अपज्जत्ताणं तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो, चदुजादि-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो, अण्णगईहि सह एदासिं बंधविरोहादो। मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठी सामी, चउगइउदएण सह एदासिं बंधस्स विरोहाभावादो । एइंदिय
यह सूत्र सुगम है। . मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १६६ ॥
यहां उदयसे पूर्व में अथवा पीछे बन्धव्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें वह सम्भव ही नहीं है । मिथ्यात्वका स्वोदय बन्ध होता है; क्योंकि, अपने उदयके विना उसका बन्ध पाया नहीं जाता। नपुंसकवेद, चार जातियां, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्त नामकर्मका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें
यका नियम नहीं है। हण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और साधारणशरीर नामकर्मका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें मियमसे इनके उदयका अभाव है।
मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर होता है। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनका अनियमसे एक समय बन्ध देखा जाता है। प्रत्यय सुगम हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन और अपर्याप्तका तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त तथा चार जातियां, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ इनके बन्धका विरोध है। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, चारों गतियोंके उदयके साथ इनके बन्धका
१ काप्रतौ ' पच्छा वा वोच्छिण्णो' इति पाठः ।
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३, १६८.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[२४१ आदाव-थावराणं तिगइमिच्छाइट्टी सामी, णिरयगइमिच्छाइट्ठिम्हि तासिं बंधाभावादो। बीइंदियतीइंदिय-चउरिदिय-सुहम-अपज्जत्त-साहारणाणं तिरिक्ष मणुसगइमिच्छाइट्ठी सामी, देव-णेरइएसु एदासिं बंधाभावादो । बंधद्धाणं बंधविणवाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउविहो । सेसाणं सादि-अद्धवो ।
देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवि-तित्थयरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १६७ ॥
सुगमं । असंजदसम्मादिही बंधा। एदे बंधा, अवेससा अबंधा ॥१६८॥
किं बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति एत्थ विचारो णत्थि, एक्कम्हि तदसंभवादो। एदासिं पंचण्हं पि परोदओ बंधो, सोदएण सह सगबंधस्स विरोहादो। णिरंतरो बंधो, णियमेणाणेगसमयबंधदंसणादो । विग्गहगदीए दोण्हं समयाणं कधमणेगववएसो ? ण, एगं मोत्तणुवरिमसव्वसंखाए अणेगसद्दपवुत्तीदो । पच्चया सुगमा । णवरि णसयवेदपच्चओ
विरोध नहीं है । एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उनके बन्धका अभाव है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके तिर्यग्गति व मनुष्यगतिके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, देव व नारकियोंमें इनके बन्धका अभाव है। बन्धावान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १६७ ॥
यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अवन्धक हैं ॥ १६८॥
क्या बन्ध उदयसे पूर्व में या पश्चात व्यच्छिन्न होता है. यह विचार यहां नहीं है. क्योंकि, एक गुणस्थानमें उक्त विचार सम्भव नहीं है । इन पांचों प्रकृतियोंका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके अपने उदयके साथ वन्ध होने का विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, नियमसे इनका अनेक समय तक बन्ध देखा जाता है।
शंका-विग्रहगतिमें दो समयोंका नाम अनेक समय कैसे हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, एकको छोड़कर ऊपरकी सब संख्यामें ' अनेक' शब्दकी प्रवृत्ति है।
__ प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि यहां नपुंसकवेद प्रत्यय नहीं है, क्योंकि,
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२१२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १६९. णत्थि, विग्गहगदीए वट्टमाणणेरइयअसंजदसम्मादिट्ठीसु वेउब्वियचउक्कस्स बंधाभावादो । तित्थयरस्स पुण ते चेव तेत्तीस पच्चया, तत्थ णसयवेदपच्चयदंसगादो । वेउबियचउक्कस्स देवगइसंजुत्तो, तित्थयरस्स देव-मगुसगइसंजुत्तो बंधो । वेउब्बियच उक्कबंधस्स तिरिक्खमणुसअसंजदसम्मादिट्ठी सामी । तित्थयरस्स तिगइअसंजदसम्मादिट्ठी सामी, तिरिक्खगइअसजदसम्मादिट्ठीसु तित्थयरबंधाभावादो । बंधद्धाणं बंधवोच्छेदट्ठाणं च सुगमं ।। एदासिं बंधी सादि-अद्धवो, धुवबंधित्ताभावादो । . वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेद-णqसयवेदएसु पंचणाणावरणीयचउदंसणावरणीय-सादावेदणीय-चदुसंजलण-पुरिसवेद-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १६९ ॥
सुगम ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टिउवसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १७०॥
विग्रहगात में वर्तमान नारकी असंयतसम्यग्दृष्टियों में वैक्रियिकचतुष्कके बन्धका अभाव है। किन्तु तीर्थकर प्रकृतिके वे ही तेतीस प्रत्यय है, क्योंकि, उनमें नपुंसकवेद प्रत्यय देखा जाता है। वैक्रियिकचतुष्कका देवगतिसे संयुक्त और तीर्थकर प्रकृतिका देव एवं मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। वैक्रियिकचतुष्कके बन्धके तिर्यंच व मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि खामी हैं । तीर्थकर प्रकृतिके तीन गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यग्गतिके असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें तीर्थकरके बन्धका अभाव है। वन्धाध्वान और बन्धव्युच्छित्तिस्थान सुगम हैं । इनका बन्ध सादि और अध्रुव होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी नहीं हैं।
वेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१६९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ १७०॥
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[ २४३
३, १७०.]
वेदमग्गणाए बंधसामित्त इत्थिवेदस्स ताव वुच्चदे- एत्थ उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, पुरिसवेदस्स एयंतेणुदयाभावादो सेसाणं च पयडीणं बंधोदयवोच्छेदाभावादो ।
पंचणाणावरणीय-चउर्दसणावरणीय-पंचंतराइयाणं च सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । पुरिसवेदस्स परोदओ बंधो, इथिवेदे उदिण्णे पुरिसवेदस्सुदयाभावादो। सादावेदणीयचदुसंजलणाणं सोदय-परोदओ बंधो, उदएण परावत्तणपयडित्तादो । जसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टि ति सोदय-परोदओ, एदेसु पडिवक्खुदयसंभवादो । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खपयडीए उदयाभावादो । उच्चागोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासजदा त्ति बंधो सोदय-परोदओ, एदेसु णीचागोदुदयसंभवादो । उवरि सोदओ चेव, णीचागोदस्सुदयाभावादो।
पंचणाणावरणीय च उदंसणावरणीय-चउसंजलण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सादावेदणीय-जसकित्तीणं मिच्छादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडीए बंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खत्तादो । पुरिसवेदुच्चागोदाणं
पहले स्त्रोवेदीके विषय में कहते हैं- यहां उदयसे बन्ध पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, नियमसे वहां पुरुषवेदके उदयका अभाव है, तथा शेष प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । पुरुषवेदका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्त्रीवेदका उदय होनेपर पुरुषवेदके उदयका अभाव है। सातावेदनीय और चार संज्वलनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उदयकी अपेक्षा ये प्रकृतियां परिवर्तनशील हैं। यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय सम्भव है । उपरिम गुणस्थानों में उसका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है । उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें नीचगोत्रका उदय सम्भव है । संयतासंयतसे ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नीचगोत्रके उदयका अभाव है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । सातावेदनीय और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है । ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। पुरुषवेद और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि एवं
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२४४ ]
छडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १७०.
1
मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठीसु सांतर - णिरंतरो बंधा । कथं णिरंतरो ? ण, पम्म सुक्कलेस्सिएस तिरिक्ख- मणुस्से पुरिसवेदुच्चागोदाणं णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपडणं बंघाभावादो ।
सव्वगुणडाणाणमोघपच्चएस पुरिस - णवंसयवेदेसु अवणिदेसु अवसेसा एत्थ एदासिं पच्चया होंति । णवरि पमत्तसंजदेसु आहार - आहारमिस्सकाय जोगपच्चया अवणेदव्वा, इत्थवेदोदइल्लाणं तदसंभवादो । असंजदसम्मादिट्ठीसु ओरालिय- वेउग्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगपच्चया अवणेदव्वा, तत्थ असंजदसम्मादिडीणमपज्जत्तकालाभावादो | सेसं सुगमं ।
पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय चदुसंजलण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं । सासणसम्माइट्ठी तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्टिणो देव- मणुसग संजुत्तं । उवरिमा देवगइ संजुत्तं अगइसंजुत्तं च बंधंति । सादावेदणीयपुरिसवेद-जसकित्तीओ मिच्छादिङि-सासणसम्मादिडिगो तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिट्टि असंजद
सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि पद्म और शुक्ल लेड्यावाले तिर्यच व मनुष्यों में पुरुषवेद और उच्चगोत्रका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
I
सब गुणस्थानोंके ओघप्रत्ययों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदको कम करदेने पर शेष यहां इन प्रकृतियोंके प्रत्यय होते हैं । विशेषता इतनी है कि प्रमत्तसंयतों में आहारक और आहारकमिश्र काययोगप्रत्ययों को कम करना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीवेदके उदय युक्त जीवों के वे दोनों प्रत्यय सम्भव नहीं हैं । असंयत सम्यग्दृष्टियों में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्तकालका अभाव है । शेष प्ररूपणा सुगम' है।
1
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, तथा सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, सासादन सम्यग्दृष्टियों में नरकगतिके बन्धका अभाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति व मनुष्यगति से संयुक्त बांधते हैं । उपरिम स्त्रीवेदी जीव देवगति से संयुक्त और गतिसंयोगसे रहित बांधते हैं । सातावेदनीय, पुरुषवेद और यशकीर्तिको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्तः सम्यग्मिथ्यादृष्टि
१ अतौ' पुरिसवेदु चागोदाणं पि ' इति पाठः ।
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३, १७१.] वैदभग्गणाए बंधसामित्त
(२४५ सम्मादिट्ठिणो देव-मणुसगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तमगइसंजुत्तं च बंधीत । उच्चागोदं सव्वे देव-मणुसगइसंजुत्तमगइसंजुत्तं च बंधति ।
तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी, णिरयगदीए इथिवेदस्सुदयाभावादो । दुगइसंजदासजदा सामी, देव-णेरइएसु अणुव्वईणमभावादो । उवरि मणुस्सा चेव, अणत्थुवरिमगुणाभावादो। बंधद्धाणं सुगमं । बंधवाच्छेदो णात्थि । पंचणाणावरणीय च उदंसणावरणीय-च उसंजलण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्ठीसु चउविहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । सेसपयडीण सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
बेट्ठाणी ओघं ॥ १७१ ॥
बेट्ठाणी मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठीसु बंधपाओग्गभावेण अवडिदाणि त्ति वुत्तं होदि। तेसिं परूवणा ओघ होदि ओघतुल्लेत्ति जं वुत्तं होदि । एदमप्पणासुत्तं देसामासिय, ओघादो एदम्हि थोवभेदुवलंभादो । तं भण्णमाणसुत्तत्थेण सह सिस्साणुग्गहढे परूवेमो---थीणगिद्धितिय
और असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति व मनुष्यगतिसे संयुक्त; तथा उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त और गतिसंयोगसे रहित बांधते हैं । उच्चगोत्रको सब स्त्रीवेदी जीव देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त तथा गतिसंयोगसे रहित बांधते है ।
तीन गतियों के मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. सम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें स्त्रीवेदके उदयका अभाव है। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी है, क्योंकि, देव-नारकियोंमें अणुव्रतियोंका अभाव है। उपरिम गुणस्थानवी मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में उपरिम गुणस्थानोंका अभाव है । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद है नहीं। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायोका मिथ्याद्दष्टियाम चारो प्रकारका बन्ध होता है। अन्य गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव वन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है॥ १७१ ॥
द्विस्थानिकका अर्थ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें बन्धकी योग्यतासे अवस्थित प्रकृतियां है । उनकी प्ररूपणा ओघ है अर्थात् ओघके समान है, यह अभिप्राय है । यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, ओघसे इसमें थोड़ा भेद पाया जाता है। प्रस्तुत सूत्रके अर्थके साथ शिप्योके अनुग्रहार्थ उक्त भेदकी प्ररूपणा करते हैं
१ प्रतिषु ' बेवाणि' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' भण्णमाणे वृत्तण ' इति पाठः ।
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२०६१
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
। ३, १७१. अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि बेहाणियाणि । एदेसु अणंताणुबंधिच उक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा । अण्णपयडीणं' सव्वासि पि पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छेदुमुवगओ । कुदो ? तधोवलंभादो ।
थीणंगिद्धित्तिय-अणंताणुबंधिचउक्क-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चदुसंठाण-चदुसंघडणतिरिक्खाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं बंधो सोदयपरोदओ, उभयथा वि बंधाविरोहादो। इथिवेदस्स सोदएणेव बंधो, तदुदयमहिकिच्च परूषणापारंभादो । ओघादो एत्थ विसेसो एसो, तत्थ सोदय-परोदएहि बंधोवदेसादो ।
___ थीणगिद्धित्तिय-अणंताणुबंधिच उक्क-तिरिक्खाउआणं बंधो णिरंतरो । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो, सत्तमपुढवीणेरइएहिंतो तेउ-वाउकाइएहिंतो च णिप्फिडिदूणित्थिवेदेसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संतो णिरंतरबंधुवलंभादो ।
स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये द्विस्थानिक प्रकृतियां हैं । इनमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं । अन्य सब ही प्रकृतियोंका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छेदको प्राप्त होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है ।
स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, तिर्यगायु, तिर्यग्गात, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यगानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और
का बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे ही उनके बन्धके विरोधका अभाव है। स्त्रीवेदका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, उसके उदयका अधिकार करके इस प्ररूपणाका प्रारम्भ हुआ है । ओघसे यहां यह विशेष है, क्योंकि, वहां स्वोदय-परोदयसे बन्धका उपदेश है।
स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका बन्ध निरन्तर होता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तरनिरन्तर होता है, क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियोंमेंसे तथा तेजकायिक व वायुकायिक जीवों से निकलकर स्त्रीवेदियों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहर्त काल तक निरन्तर बन्ध
१ प्रतिषु ' अण्णापयडीणं' इति पाठः। २ प्रतिषु तदुभयमहिकिच' इति पाठः।
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३, १७१.] वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[२४७ सासणम्मि सांतरो, तत्तो तेसिमुववादाभावादो । अवसेसाणं पयडीण बंधो सांतरा, अणियमेणगसमयबंधुवलंभादो । एसा परूवणा ओघादो थोवेण वि ण विरुज्झदि, समाणत्तुवलंभादो ।
पच्चया ओघपच्चयतुल्ला । णवरि मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणं जहाकमेण तेवण्णद्वेत्तालीसुत्तरपञ्चया, पुरिस-णqसयवेदपच्चयाणमभावादो । तिरिक्खाउअस्स मिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु कमेण पंचास पंचेतालीस पच्चया, ओरालिय-वे उब्वियमिस्स-कम्मइयकायजोग-पुरिस-णवंसयवेदपच्चयाणमभावादो । तदभावो वि इत्थिवेदोदइल्लाणमपज्जत्तकाले आउअकम्मस्स बंधाभावादो ।
तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्वि-उज्जोवाणि मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधंति । अप्पसत्थविहायगदि-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि मिच्छाइट्ठिणो तिगइसंजुत्तं बंधंति, देवगईए बंधाभावादो। सासणसम्माइट्ठिणो तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधति, देव-णिरयगईए सह बंधाभावादो। चउसंठाण-चउसंघडणाणि तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधंति, एदासिं णिरय-देवगईहि सह बंधाभावादो । थीणगिद्धित्तिय-अणंताणु
पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उस गुणस्थानसे उक्त जीवोंके उत्पादका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, विना नियमके उनका एक समय बन्ध पाया जाता है । यह प्ररूपणा ओघसे थोड़ी भी विरुद्ध नहीं है, क्योंकि, समानता पायी जाती है।
__ प्रत्यय ओघप्रत्ययोंके समान हैं । विशेषता इतनी है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंके यथाक्रमसे तिरेपन और अड़तालीस उत्तर प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनके पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है। तिर्यगायुके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे पचास और पैंतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनके औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मणकाययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है । उनका अभाव भी स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंके अपर्याप्तकालमें आय कर्मके बन्धका अभाव होनेसे है।
___ तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि जीव तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको मिथ्यादृष्टि जीव तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके देवगतिके बन्धका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके देव व नरक गतिके साथ उनका बन्ध नहीं होता। चार संस्थान और चार संहननको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, इनका नरकगात व देवगतिके साथ बन्ध नहीं होता । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानु
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२४८]
[ ३, १७२.
बंधिचउक्काणि मिच्छाइडिणो चउगइसंजुत्तं, सासणसम्मादिडिणो तिगइ संजुत्तं बंधंति, रियाईए अभावादो |
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
सव्वासि पडणं तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणो सामी, णिरयगईए इस्थिवेददयाभावाद । बंधद्धाणं बंधविणडाणं च सुगमं, सुत्तुद्दित्तादो । सत्तण्हं धुवपयडीणं मिच्छाहि उव्व बंधो । सासणे दुविहो बंधो, अणाइ धुवाभावादो । अवसेसाणं सव्वत्थ सादि- अद्धवो अद्धवबंधित्तादो |
णिद्दा पयला य ओघं ॥ १७२ ॥
दासिंदोह पडणं जहा ओघम्मि परूवणा कदा तहा कायव्वा । णवरि पच्चएस पुरिस - णवुंसयवेदपच्चया अवणेदव्वा । णवरि असंजद सम्मादिडिम्हि ओरालिय-वेउब्वियमिस्सकम्मइयकाय जे गा' च, इत्थवेदाहियारादो । पमत्तसंजदम्हि पुरिस णवुंसयवेदेहि सह आहारदुर्ग च अवणेदव्वं, अप्पसत्थवेदोदइल्लाणमाहार सरीरस्सुदयाभावाद । तिगइमिच्छादिङि-सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि-असजद सम्मादिट्टिणी सामी, णिरयगईए इत्थवेदोदइलाणमभावादो |
बन्धिचतुष्कको मिथ्यादृष्टि चार गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके नरकगतिका बन्ध नहीं होता ।
सब प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगति में स्त्रीवेदके उदयका अभाव है । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं, क्योंकि, वे सूत्र में ही निर्दिष्ट हैं। सात ध्रुवप्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थान में दो प्रकारका बन्ध होता, क्योंकि, वहां अनादि व ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
निद्रा और चला प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १७२ ॥
इन दो प्रकृतियोंकी जैसे ओघमें प्ररूपणा की गई है वैसे करना चाहिये । विशेष यह है कि प्रत्ययों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययौको कम करना चाहिये । इतनी और भी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययों को भी कम करना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीवेदका अधिकार है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में पुरुष और नपुंसक वेदों के साथ आहारकद्विकको भी कम करना चाहिये, क्योंकि, अप्रशस्त वेदोदय युक्त जीवोंके आहारकशरीर के उदयका अभाव है । तीन गतियों के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंका अभाव है । केवल इतनी ही ओघसे
१ प्रतिषु ' कायजोगो' इति पाठः ।
२. कात' सासणसम्माइङ्की असंजदसम्मादिट्टिणो' इति पाठः ।
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३, १७३. ]
वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २४९
एत्तिओ व विसेसो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि । तेण दव्वट्टियणयं पडुच्च ओघमिदि वृत्तं । असादावेदणीयमोघं ॥ १७३ ॥
असाद वेदणीयमिच्चेण पयडिणिसो ण कदो, किंतु असादावेदणीय-अरदि-सोगअथिर-असुह-अजसकित्ति त्ति छप्पयडिघडिओ असाददंडओ असादवेदणीयमिदि णिद्दिट्ठो । जहा सच्चहामा भामा, भीमसेणो सेणो, बलदेवो देवो ति । एदासिं छण्णं परूवणा ओघ - तुल्ला । णवरि एत्थ वि पच्चयविसेसो सामित्तविसेसो च णायव्वो ।
एक्कट्टाणी ओघं ॥ १७४ ॥
एक्कमि मिच्छाइट्टिगुणाणे जाओ पयडीओ बंधपाओग्गा हो दूण चिति तासिमेगट्ठाणि त्ति सण्णा । तिस्से एक्कड्डाणीए परूवणा ओघतुल्ला । तं जहा मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा । णवुंसयवेद- णिरयाउ- णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वी एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदियचउरिंदियजादि - आदाव - थावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि,
विशेषता है, अन्यत्र और कहीं भी विशेषता नहीं है । इसीलिये द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा कर ' ओघके समान है, ' ऐसा कहा गया है ।
असातावेदनीयकी प्ररूपणा ओधके समान है ॥ १७३ ॥
असातावेदनीय इस पदसे प्रकृतिका निर्देश नहीं किया है, किन्तु असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति, इन छह प्रकृतियोंसे सम्बद्ध असाताद्ण्डक ' असातावेदनीय ' पदसे निर्दिष्ट किया गया है । जैसे सत्यभामाको 'भामा', भीमसेनको ‘सेन' और बलदेवको 'देव' पदसे निर्दिष्ट किया जाता है । इन छह प्रकृतियों की प्ररूपणा ओके समान है । विशेष इतना है कि यहां भी प्रत्ययभेद और स्वामित्वभेद जानना चाहिये ।
1
एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघ के समान है ॥ १७४ ॥
एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान में जो प्रकृतियां बन्धयोग्य होकर स्थित हैं उनकी ' एकस्थानिक ' संज्ञा है । उन एकस्थानिकोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । वह इस प्रकार है - मिथ्यात्वका वन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं । नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका विचार
१ काप्रती ' अमुह-जस अजसकित्ति ' इति पाठः ।
छ. नं. ३२.
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२५०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १७४. एदासिमत्थ णियमेण उदयाभावादो । अवसेसाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, बंधे फिट्टे वि उवरिमगुणट्ठाणेसु एदासिमुदयदंसणादो ।
मिच्छत्तस्स सोदओ बंधो। णउंसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदियचउरिंदियजादि णिरयाणुपुवि-आदाव-थावर-सुहुम अपज्जत-साहारणसरीरणामाणं परोदओ बंधो, इत्थिवेदोदएण सह एदासिमुदयविरोहादो। एसो एत्थ ओघादो विसेसो, तत्थ सोदय-परोदएणेदासिं बंधोवदेसादो । हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं सोदय-परोदओ बंधो, इत्थिवेदोदएण सह एदासिमुदयस्स विपडिसेहाभावादो । मिच्छत्त-णिरयाउआणं णिरंतरा बंधो । अवसेसाणं सांतरो, अणियदेगसमयबंधदसणादो ।
मिच्छत्त-णQसयवेद-हुँडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-एइंदिय-आदाव-थावराणं तेवण्ण पच्चया, पुरिस-णqसयवेदाणमभावादो। णिरयाउ-णिस्यगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणमेगृणवचास पच्चया, ओघपच्चएसु ओरालियामिस्स-कम्मइय वे उब्वियद्ग-पुरिस-णQसयवेदाणमभावादो। बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय जादि-सुहुम अपज्जत्त-साहारणाणं एक्कवंचास पच्चया, ओघपच्चएसु वे उब्बियद्ग-पुरिस-णqसयवेदपच्चयाणमभावादो । सेस मुगमं ।
नहीं है, क्योंकि, यहां नियम से इनके उदय का अभाव है । शेष प्रकृतियोंका पूर्व में बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, बन्धके नष्ट होने पर भी उपरिम गुणस्थानोंमें इनका उदय देखा जाता है।
मिथ्यात्वका स्वोदय बन्ध होता है । नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, नारकानुपूर्वो, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्म, इनका परोदय वन्ध होता है, क्योंकि, स्त्रीवेदके उदयके साथ इनके उदयका विरोध हे । यह यहां ओघले विशेषता है, क्योंकि, वहां स्वोदय-परोदयसे इनके बन्धका उपदेश है । हुण्ड संस्थान और असंप्राप्त पाटिकासंहननका स्वोदयपरोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्नोवेदके उदयके साथ इनका विरोध नहीं है । मिथ्यात्व और नारकायुका निरन्तर बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनका नियम रहित एक समय बन्ध देखा जाता है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तरसपाटिकासंहनन, एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर प्रकृतियोंके तिरेपन प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है। नारकायु, नरकगति और नरकातिप्रायोग्यानुपूर्वीके उनचास प्रत्यय है,क्योकि, आवात्ययाम आदरिकाम,कामण, वाकायकाईक, पुरुषवेद आर नपुस प्रत्ययोंका अभाव है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके इक्यावन प्रत्यय हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमें क्रियिकद्विक, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है।
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३, १७५. ]
वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[२५१
मिच्छत्तं चउगइसंजुत्तं बंधइ । णउंसयवेद- हुंडठाणाणि तिगइसंजुत्तं, देवगईए सह बंधाभावादो। णिरयाउ-[णिरयगइ-] निरयगइपाओग्गाणुपुव्वीओ णिरयगइसंजुत्तं बंधइ । कुदो ? साभावियादो | अपज्जत्तासंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्ख - मणुसगइसंजुत्तं, णिरय - देवगईहि सह बंधाभावादो | अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खगइसंजुतं, तत्थ ताणं णियमदंसणादो । मिच्छत्तसय वेद- एइंदियादाव - थावर- हुंडसं ठाण- असंपत्तसे वट्टसंघडणाणं तिगइमिच्छाइड्डी सामी, णिरयगईए इत्थिवेदुदयाभावा दो । णिरयाउ - णिरयगइ - बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदियजादिणिरयाणुपुव्वि-सुहुम-अपज्जत-साहारणाणं तिरिक्ख - मणुस्सा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउब्विहो बंध | सेसाणं सादि- अद्धुओ !
अपच्चक्खाणावरणीयमोघं ॥ १७५ ॥
एत्थ वि पुच्वं व परूवेदव्वं । अहवा अपच्चक्खाणावरणीयपहाणो दंडओ अपच्चक्खाणावरणीयमिदि भण्णइ । जहा णिवच कथंब - जंबु-जंवीरवणमिदि । अपच्चक्खाणचउक्क मणुसगइओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण - मणुसगइपाओग्गाणु
मिथ्यात्वको चारों गतियोंसे संयुक्त बांधता है । नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानको तीन गतियों से संयुक्त बांधता है, क्योंकि, देवगतिके साथ उनके बन्धका अभाव है। नारकायु, [नरकगति] और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको नरकगति से संयुक्त बांधता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है | अपर्याप्त और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननको तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, नरकगति और देवगतिके साथ इनके बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति से संयुक्त बांधता है, क्योंकि, तिर्यग्गतिके साथ उनके बन्धका नियम देखा जाता है । मिथ्यात्व नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय, आताप, स्थावर, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन के तीन गतियों के मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिम स्त्रीवेदके उदयका अभाव है । नारकायु, नरकगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, नारकानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन प्रकृतियोंके बन्धके तिर्यच व मनुष्य स्वामी हैं ।वन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
अप्रत्याख्यानावरणीय की प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १७५ ॥
यहां भी पूर्वके समान प्ररूपणा करना चाहिये । अथवा अप्रत्याख्यानावरणीयप्रधान दण्डकको अप्रत्याख्यानावरणीय शब्द से कहा जाता है। जैसे कि नीम, आम, कदम्ब, जामुन और जम्बीर, इन वृक्षोंकी प्रधानता से इतर वृक्षों से भी युक्त वनों को नीमवन, आमवन, कदम्वचन, जामुनवन और जम्बीरवन शब्दों से कहा जाता है । अप्रत्याख्यानचतुष्क, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, इन अप्रत्याख्यानावरणीय संज्ञित प्रकृतियोंकी
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२५२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १७५. पुवीणमपच्चक्खाणावरणीयसण्णिदाणं परूवणा ओघतुल्ला। तं जहा- अपच्चक्खाणचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि चेव तदुभयदंसणादो । मणुसगइपाओग्गाणुपुवीए पुव्वं उदओ पच्छा बंधो, सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु तव्वोच्छेददंसणादो । अवसेसाणं पयडीणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, तहोवलंभादो ।
सव्वासिं पयडीणं बंधी सव्वत्थ सोदय-परोदओ। णवरि सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइदुग-ओरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं परोदओ बंधो, देवेसुदयाभावादो । अपच्चक्खाणावरणचउक्कस्स बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्टीसु सांतर-णिरंतरो । कुदो णिरंतरो ? आणदादिदेवेहिंतो इत्थिवेदमणुस्सेसुप्पण्णाणं अंतोमुहुत्तकालं णिरंतरत्तेण तदुभयबंधदंसणादो । उवरि णिरंतरो, देवसम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरबंधुवलंभादो । एवमोरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं पि वत्तव्यं, सणक्कुमारादिदेवेहिंतो इत्थिवेदेसुप्पण्णाणं णिरंतरबंधुवलंभादो । वज्जरिसहसंघडणस्स मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतरो।
प्ररूपणा ओघके समान है । वह इस प्रकारसे है - अप्रत्याख्यानचतुष्कका वन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें ही उन दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें उदय और पश्चात् वन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उनका व्युच्छेद देखा जाता है। शेष प्रकृतियों का पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है।
__ सब प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र स्वोदय परोदय होता है। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, देवोंमें इनका उदयाभाव है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका वन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वह शुववन्धी है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, आनतादिक देवोंमेंसे स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहर्त काल तक निरतर रूपसे उन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध देखा जाता है।
सासादनसे ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है. क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है । इसी प्रकार औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगके भी कहना चाहिये, क्योंकि, सनत्कुमारादिक देवोंमेंसे स्त्रीवेदियों में उत्पन्न हुए जीवोंके उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर बन्ध होता है। उपरिम
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३, १७५. वेदमग्गणाए बंधसामित्त
( २५३ उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो ।
___ अपच्चक्खाणचउक्कस्स सव्वगुणहाणेसु ओघपच्चया चेव । णवरि पुरिसणQसयपच्चया सव्वत्थ अवणेदवा। असंजदसम्मादिट्ठिम्हि ओरालिय-वेउव्वियमिस्सकम्मइयपच्चया च अवणेदव्वा । एवं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणस्स वि वत्तव्वं । णवरि सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठीसु ओरालियकायजोगपच्चओ अवणेदव्यो । मणुसगइमणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु दुरूवूणाघपच्चया चेव होंति, पुरिस-णqसयवेदपच्चयाणमभावादो। सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु चालीस पच्चया, पुरिस-णवंसयवेदेहि सह ओरालियदुगाभावादो, असंजदसम्मादिद्विम्हि वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाभावादो च' । सेसं सुगमं ।
अपच्चक्खाणचउक्कं मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं, उवरिमा दुगइसंजुत्तं बंधति । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीओ मणुसगइसंजुत्तं सव्वे बंधति ।
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गुणस्थानों में निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके सब गुणस्थानों में ओघप्रत्यय ही हैं। विशेषता केवल इतनी है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको सर्वत्र कम करना चाहिये । असंसयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको भी कम करना चाहिये । इसी प्रकार वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिक काययोग प्रत्यय कम करना चाहिये। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगके मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो कम ओघप्रत्यय ही हैं, क्योंकि, पुरुष और नपुंसक वेदप्रत्ययोंका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में चालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, वहां पुरुष और नपुंसक वेदोंके साथ औदारिकद्धिकका अभाव है तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वैऋियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव भी है । शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कको मिथ्यादृष्टि चार गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियों से संयुक्त, और उपरिम जीव दो गतियों से संयुक्त बांधते हैं । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रचोग्यानुपूर्वीको मनुष्यगतिसे संयुक्त सभी स्त्रीवेदी जीव
१ काप्रती - पुरिस णबुसयवेदपच्चयाणमभावादो। सम्मामिच्छाइट्ठी-असजदसम्मादिट्ठीसु वेउब्वियमिस्सकम्मइयपच्चयाभावादो च ' इति पाठः ।
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२५.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १७६. अवसेसतिण्णिपयडीओ मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो तिरिक्ख मणुसगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधंति ।
___ अपच्चक्खाणावरणच उक्कस्स तिगइचदुगुणवाणिणो सामी। अवसेसाणं पयडीणं तिगइमिच्छादिट्टि सासणसम्मादिट्ठिणो देवगइसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो च सामी। बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । अपच्चक्खाणच उक्कस्स मिच्छाइट्टिम्हि चउबिहो बंधो। अण्णत्थ तिविहो । अवसेसाणं पयडीणं सादि-अद्ववो ।
पच्चक्खाणावरणीयमोघं ॥ १७६॥ एत्थ ओघपरूवणं किंचिविसेसाणुविद्धं संभरिय वत्तव्यं । हस्स-रदि जाव तित्थयरेत्ति ओघं ॥ १७७ ॥
(ओघादो एदेसु सुत्तेसु अवट्ठिदथोवभेयसंदरिसणटुं मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहटुं च पुणरवि परूवेमो- हस्स-रद्र-भय-दुगुंछाणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, अपुवकरणचरिमसमए
बांधते हैं। शेष तीन प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यग्गति एवं मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा सम्याग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं।
__ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके तीन गतियोंके चार गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यम्दृष्टि तथा देवगतिके सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका मिथ्या दृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका और अन्य गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
प्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १७६ ॥ यहां कुछ विशेषतासे सम्बद्ध ओघप्ररूपणाको स्मरणकर कहना चाहिये । हास्य व रतिसे लेकर तीर्थकर प्रकृति तक ओधके समान प्ररूपणा है ॥ १७७॥
ओघकी अपेक्षा इन सूत्रोंमें अवस्थित कुछ थोडीसी विशेषताको दिखलाने तथा मन्दबुद्धि शिष्यके अनुग्रहके लिये फिर भी प्ररूपणा करते हैं- हास्य, रति, भय और जुगुप्साका बन्ध व उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, अपूर्वकरणके अन्तिम
१ अप्रतौ पच्चक्खाणावरणी ओघं ' इति पाठः।
२ प्रतिषु · देवेसु ' इति पाठः ।
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३, १७७.] वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २५५ दोण्हं वोच्छेदुवलंभादो । सधगुणहाणेसु बंधो सोदय-परोदओ, परोदए वि संते बंधविरोहाभावादो । भय-दुगुंछाणं सव्वगुणुहाणेसु णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो। हस्स-रदीणं मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधो सांतरो, एत्थ पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पच्चया सुगमा, बहुसो परविदत्तादो। मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं बंधीत । णवरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए सह बंधविरोहादो । सव्वपयडीओ सासणी तिगइसंजुत्तं बंधइ, तत्थ णिरयगईए बंधाभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्टिणो दुगइसंजुत्तं, तत्थ णिरय-तिरिक्खगईणं बंधाभावादो । उवरिमा देवगइसंजुत्तं, तत्थ सेसगईणं बंधाभावादो। णवरि अपुवकरणे चरिमसत्तमभागे अगइसंजुत्तं बंधंति । तिगइमिच्छादिटि-सासणसम्मादिष्टि सम्मामिच्छादिटि-असंजदसम्मादिट्टिणो सामी, णिरयगईए णिरुद्धित्थिवेदाभावादो । दुगइसंजदासजदा सामी, देवगईए देसवईमभावादो । उवरिमा मणुस्सा चेव, अण्णत्थ महबईणमभावादो । बंधद्धाणं बंधविणटाणं च सुगमं । भय-दुगुंछाणं
समयमें उनके बन्ध व उदय दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है । सब गुणस्थानोंमें उनका बन्ध स्वोदय-परोदय होता हैं, क्योंकि, अन्य प्रकृतियोंके उदयके भी होनेपर इनके बन्धका कोई विरोध नहीं है । भय और जगुप्साका सव गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध हो क्योंकि, वे धुबवन्धी हैं। हास्य और रतिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनको प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, उनका बहुत वार प्ररूपण किया जा चुका है । मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें चार गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । विशेष इतना है कि हास्य और रतिको तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, नरकगतिके साथ उनके बन्धका विरोध है । सब प्रकृतियोंको सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, इस गुणस्थानम नरकगतिका बन्ध नही हाता। सम्यग्मियादृष्टि और असंयतसम्यग्दृाष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उन गुणस्थानोंमें नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव है । उपारम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उपरिम गुणस्थानोंमें शेष गतियोंके बन्धका अभाव है। विशेषता यह है कि अपूर्वकरणके अन्तिम सप्तम भागमें गतिसंयोगसे रहित बांधते हैं। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें स्त्रोवेदके उदय सहित जीवोंका अभाव है। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं, क्योंकि, देवगतिमें देशवतियोंका अभाव है। उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी है, क्योंकि, अन्य गतियों में महाव्रतियोंका अभाव है। वन्धाध्वान और बन्धविनष्पस्थान सुगम हैं।
२ अप्रतौ — णिरयगईणं ' इति पाठः ।
१ प्रतिषु ' चदुण्हं ' इति पाठः। ३ प्रतिषु — देसबगईण. ' इति पाठः ।
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२५६ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १७७. मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउव्विहो । उवरि तिविहो, धुवबंधाभावाद। । हस्स-रदीणं सव्वत्थ सादिअद्भुवो, अद्भुवबंधित्तादो।
मणुस्साउअस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, असंजदसम्मादिट्ठि-अणियट्टीसु जहाकमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो । मिच्छादिटि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदएण बंधो । असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदएणेव । कुदो ? साभावियादो । सम्बत्थ बंधो णिरंतरो, जहण्णबंधकालस्स वि अंतोमुहुत्तपमाणुवलंभादो। मिच्छादिहिस्स पंचास,सासणस्स पंचेतालीस पचया;
ओरालिय-वेउनियमिस्स-कम्मइयकायजोग-पुरिस-णवुसयपच्चयाणमभावादो । असंजदसम्मादिट्ठीसु चालीस पच्चया, ओघाच्चएसु' ओरालिय-ओरालियमिस्स-वेउव्यियमिस्स-कम्मइयकायजोग-पुरिस-णqसयवेदाणमभावादो । सेसं सुगमं । सव्वे वि मणुसगइसंजुत्तं चेव बंधति, अण्णगईहि सह विरोहादो। तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिविणो सामी । असंजदसम्मादिष्टिणो देवा चेव सामी, अण्णस्थित्थिवेदोदइल्लाणं सम्मादिट्ठीणं मणुस्साउवस्स बंधाभावादो। बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । सव्वत्थ सादि-अद्धवो बंधो ।
भय और जुगुप्साका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि. वहां ध्रव बन्धका अभाव है। हास्य और रतिका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अधुववन्धी हैं।
__ मनुष्यायुका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में क्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है। असंयतसम्यग्दृगियों में परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव ही है। सर्वत्र निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उसका जघन्य बन्धकाल भी अन्तर्मुहर्त प्रमाण पाया जाता है । मिथ्याष्टिके पचास और सासादनसम्पदाप्टके पैंतालीस प्रत्यय है, क्योंकि, वहां औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण काययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, प्रत्ययोंका अभाव है । असंयतसम्यग्दृष्टियों में चालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययों मेंसे औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण काययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययाका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है । सब ही मनुष्यगतिसे संयुक्त ही बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्धका विरोध है । तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि देव ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें स्त्रीवेदोदय युक्त सम्यग्दृष्टियोंके मनुष्यायुके बन्धका अभाव है । बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं । सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
१ प्रतिषु — ओघपच्चयासु ' इति पाठः ।
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३, १७७. ]
वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २५७
देवाउवस्स पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, अप्पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु कमेण बंधोदयवाच्छेददंसणादो । सव्वगुणट्ठाणेसु परोद एणेव बंधो, सोदयम्हि बंधस्स अचंताभावस्स अवट्ठाणादो । णिरंतरो बंधो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । मिच्छाइट्ठिस्स एगूणवंचास, सासणस्स चउवेतालीस, असंजदसम्मादिट्ठिस्स चालीसुत्तरपच्चया, वे उब्विय- वे उव्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोग - पुरिस-णवुंसयवेदाणमभावादो । उवरि पुरिस - णवुंसयवे दाहारदुवेहि विणा ओघपच्चया चैव वत्तव्वा । सेस सुगमं । सव्वत्थ देवगइसंजुत्तो बंधो, अण्णगईहि सह बंधविरोहादो । तिरिक्ख - मणुस - मिच्छाइट्ठि - सासणसम्माइट्ठि - असंजदसम्माइट्ठि -संजदासंजदा सामी, अण्णत्थ ट्ठियाणं तब्बंधविरोहादो । उवरिमा मणुसा चेव, अण्णत्थ महव्वईणमभावादो । बंधद्धाणं सुगमं । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । कुदो ? सुत्ताणुसारिगुरूवदेसादो । सादि-अद्भुवो बंधो ।
देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय - तेजा - कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण - वेउव्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास- देवगइपाओग्गाणुपुव्वि - अगुरुवलहुव-उवघाद - परघा दुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज- णिमिणेसु देवगइ-देव
देवायुका पूर्व में उदय और पश्चात् बन्ध व्युछिन्न होता है, क्योंकि, अप्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । सब गुणस्थानों में परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, अपने उदयके होनेपर उसके बन्धका अत्यन्ताभाव है । उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है । मिथ्यादृष्टिके उनंचास, सासादन सम्यग्दृष्टिके चवालीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके चालीस उत्तर प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययों का अभाव है । असंयतसम्यदृष्टि गुणस्थानके ऊपर पुरुषवेद, नपुंसकवेद और आहारकद्विकके विना ओघप्रत्यय ही कहना चाहिये । शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है । सर्वत्र देवगति से संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्धका विरोध है । तिर्यच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि एवं संयतासंयत स्वामी हैं, क्योंकि, अन्यत्र स्थित जीवोंके उसके बन्धका विरोध है । उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें महाव्रतियोंका अभाव है । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, ऐसा सूत्रानुसारी गुरुका उपदेश है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, , स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय व निर्माण, इनमेंसे देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर ७. नं. ३३.
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२५८] . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १७७. गइपाओग्गाणुपुव्वी-वेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंगाणं पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, अपुव्वासंजदसम्माइट्ठीसु देवगइपाओग्गाणुपुव्वीए अपुव्व-सासणेसु कमेण बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण वण्ण-गंध रस-फास-अगुरुवलहुअउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुस्सर-णिमिणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, अपुव अणियट्टीसु कमेण बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । पंचिंदियजादि-तसबादर-पज्जत्त-सुभगादेज्जाणं पि एवं चेव वत्तव्यं ।
देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुब्वि-वे उब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं परोदएणेव सव्वत्थ बंधो, सोदएणेदासिं बंधविरोहादो। पंचिंदियजादिन्तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुवलहुअ-तस-बादर-पजत्त-थिर-सुभ-णिमिणाणं सोदओ सव्वगुणट्ठाणेसु बंधो, एत्थेदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराण सव्वत्थ सोदय-परोदओ बंधो, उभयहा वि बंधाविरोहादों। उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिहिसासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सोदय-परोदओ, विग्गहगदीए केसिंचि अपज्जत्तकाले च उदएण
और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तथा देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके अपूर्वकरण और सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानोंमें क्रमसे बन्धव उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर और निर्माण, इनका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में क्रमसे इनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। पंचेन्द्रियजाति, प्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग और आदेयके भी इसी प्रकार कहना चाहिये।
देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका परोदयसे ही सर्वत्र बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माणका सब गुणस्थानों में स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये प्रकृतियां ध्रुवोदयी देखी जाती हैं । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका सर्वत्र स्वोदयपरोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है । उपघात, परघात. उच्छवास और प्रत्येकशरीरका बन्ध मिथ्याडष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय परोदय होता है, क्योंक, विग्रहगातमें ओर किन्हींके अपर्याप्तकालमें
१ प्रतिषु बंधविरोहादो' इति पाठः ।
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३, १७७. ]
वेदमग्गणाए बंधसामितं
[ २५९
विणा बंधुवलंभादो | उवरिमेसु गुणट्ठाणेसु सोदएणेव, अपज्जत्तद्धाए तेसिं गुणाणमभावादी । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सुभगादेज्जाणं सोदयपरोदओ बंधो । उवरि सोदओ चेव, साभावियादो |
तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस - फास - अगुरुअलहुअ - उवघाद - णिमिणाणं बंधेो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। पंचिंदियजादि-परघादुस्सास-पसत्थविहाय गइ-तस - बादर-पज्जत्त - पत्तेयसरीरसुभग - सुस्सर-आदेज्ज-देवगड - देवगइपाओग्गाणुपुव्वी वे उव्वियसरीर - अंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर - णिरंतरो बंधो । कथं णिरंतरो ? ण, असंखेज्जवाउअतिरिक्ख- मणुस्सेसु निरंतरबंधु
भादो | एवं सासणस्स वि वत्तव्वं । णवरि पंचिंदियजादि - परघादुस्सास-तस - बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीराणं बंधो णिरंतरो चेव । सम्मामिच्छाइडिप्पहुडि उवरिमाणं सासणभंगो । णवरि देवगइ-वेउब्वियसरीर-समचउरससंठाण - वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-सुभगसुस्सरादेज्जाणं णिरंतरो बंधो, पडिवक्त्रपयडिबंधाभावादो । थिर-सुभाणं मिच्छाइ जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्ख
।
भी इनका उदयके बिना बन्ध पाया जाता है । उपरिम गुणस्थानों में स्वोदयसे ही बन्ध होता हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उन गुणस्थानोंका अभाव है । मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सुभग व अदेयका स्वादय परोदय बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानों में स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। पंचेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय, देवगति, देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका मिध्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यच और मनुष्यों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
इसी प्रकार सासादन गुणस्थानके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि पंचेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका बन्ध निरन्तर ही होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिसे लेकर उपरिम गुणस्थानों की प्ररूपणा सासादनसम्यग्दृष्टिके समान है । विशेष यह है कि देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, सुभग, सुस्वर और आदेयका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनको प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धका अभाव है । स्थिर और शुभका मिध्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है. क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। ऊपर इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि,
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२६.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १७७. पयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा, बहुसो परविदत्तादो । णवरि देवगइ-वेउब्वियदुगाणं वेउब्विय-वेउव्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया पुरिस-णवंसयवेदेहि सह अवणेदव्वा । सेसं सुगमं ।
देवगइ-वेउव्वियदुगाणि सव्वत्थ देवगइसंजुत्तं बझंति । णवरि वेउव्वियदुर्ग मिच्छाइट्ठी देव-णिरयगइसंजुत्तं बंधंति । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सरआदेज्जणामाओ मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए सह बंधाभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो देव-मणुसगइसंजुत्तं । सेसा देवगइसंजुत्तं बंधति । अवसेसाओ पयडीओ मिच्छाइट्ठी' चउगइसंजुत्त, सासणो तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठिणो देवगइ-मणुसगइसंजुत्तमुवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधंति ।
देवगइ-वेउव्वियदुगाणं तिरिक्ख-मणुसमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठि-संजदासजदा सामी । उवरिममणुसा चेव, अण्णत्थ तेसिमभावादो । अवसेसाणं पयडीणं तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठी दुगइसंजदा
वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, उनकी प्ररूपणा बहुत वार की जा चुकी है । विशेषता यह है कि देवगति और वैक्रियिकद्विकके वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको पुरुष और नपुंसक वेदोंके साथ कम करना चाहिये । शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है।
देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विक सर्वत्र देवगतिसे संयुक्त बंधते हैं। विशेषता इतनी है कि वैक्रियिकद्विकको मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीव देव व नरक गतिसे संयुक्त बांधते हैं। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय नामकर्मीको मिथ्यादृष्टि वसासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, नरकगतिके साथ इनके बन्धका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष गुणस्थानवर्ती देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। शेष प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति एवं मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा उपरिम गुणस्थानवी देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं।
देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत स्वामी हैं। उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें उन गुणस्थानोंका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियोंके
१ प्रतिषु 'मिच्छाइहि ' इति पाठः।
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३, १७७.] वेदमग्गणाए बंधसामित्त
[२६१ संजदा मणुसगइसंजदा च सामी। बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छादिविम्हि बंधो चउव्विहो । अण्णत्थ तिविहो, धुवबंधाभावादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगाणं ओघपरूवणमवहारिय वत्तव्वं । तित्थयरस्स वि ओघपरूवणं चेव णादूण वत्तव्वं । णवरि वेउब्बिय-वे उब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोग-पुरिस-णवंसयवेदा असंजदसम्मादिटिपच्चएसु अवणेदव्वा । अण्णत्थ पुरिस-णqसयपच्चया चेव अवणेदव्वा । तित्थयरबंधस्स मणुसा चेव सामी, अण्णस्थित्थिवेदोदइल्लाणं तित्थयरस्स बंधाभावादो। अपुव्वकरण उवसामएसु तित्थयरस्स बंधो, ण क्खवएसु; इत्थिवेदोदएण तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं खवगसेडिसमारोहणाभावादो । .
___ जहा इत्थिवेदोदइल्लाणं सव्वसुत्ताणि परूविदाणि तहा णqसयवेदोदइल्लाणं पि वत्तव्वं । णवरि सव्वत्थ इत्थिवेदम्मि भणिदपच्चएसु इत्थिवेदमवणिय गqसयवेदो पक्खिविदव्वो। असंजदसम्मादिट्टिपच्चएसु वेउब्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगपच्चया पक्खिविदव्वा,
संयतासंयत; तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। अन्य गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांगकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाका निश्चय कर कहना चाहिये । तीर्थकर प्रकृतिकी भी ओघप्ररूपणाको ही जानकर कहना चाहिये। विशेषता केवल यह है कि वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रत्ययोंमेंसे कम करना चाहिये। तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंके तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका अभाव है । अपूर्वकरण उपशामकोंमें तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है, क्षपकोंमें नहीं; क्योंकि, स्त्रीवेदके उदयके साथ तीर्थकरकर्मको बांधनेवाले जीवोंके क्षपकश्रेणीके आरोहणका अभाव है।
जिस प्रकार स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंकी अपेक्षा सब सूत्रों की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार नपुंसकवेदोदय युक्त जीवोंके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि सर्वत्र स्त्रीवेदमें कहे हुए प्रत्ययोंमेंसे स्त्रीवेदको कम कर नपुंसकवेदको जोड़ना चाहिये। असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रत्ययोंमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंको जोड़ना
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२६२२]]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १७७.
णेरइएसु आउअबंधवसेण सम्मादिट्ठीणमुप्पत्तिदंसणा दो । णिरयाउ- णिरय दुग- इत्थिवेदाणं सव्वत्थ पुरिसवेदस्सेव परोदएण बंधो। णवुंसयवेदस्स सोदएण । एइंदिय- बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदियजादि - आदाव-यावर - सुहुम-अपज्जत-साहारणाणं सोदय- परोदओ बंधो, एदेसु त्तट्टा सिं पडिवक्खट्ठाणेसु च णवुंसयवेदुदयदंसणादो ।
तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्विणीचा गोदाणं सांतर- णिरंतरो बंधो । कुदो ? तेउ-वाउकाइएसु सत्तमपुढविणेरइएसु च दोसु वि गुणट्ठाणेसु णिरंतरबंधुवलंभादो | मणुसगइमणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं सांतर - णिरंतरे। मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो । कुदो ? आणदादिदेवेर्हितो णवुंसयवेदोदइल्लमणुस्से सुप्पण्णाणं तित्थयरमंतकम्मेण णेरइरसुप्पण्णमिच्छाइट्ठीणं च णिरंतर बंधुवलंभादो । ओरालियसरीर-ओरालिय सरीरंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठी सणक्कुमारादिदेव - णेरइए अस्सिदूण निरंतरो बंधो । अण्णत्थ सांतरा वत्तव्वो, असंखेज्जवासाउएसु णवुंसयवेदुदयाभावादो । ते उ-पम्म - सुक्कलेस्सियणवुंसयवेदोदइल्लतिरिक्खमणुस्समिच्छाइट्ठि - सासणे अस्सिदूण देवगइ - वे उव्वियसरीरदुगाणं णिरंतरो बंधो वक्तव्वो ।
चाहिये, क्योंकि, आयुबन्धके वशसे सम्यग्दृष्टियों की नारकियों में उत्पत्ति देखी जाती है । नारका, नरकगतिद्विक और स्त्रीवेदका सर्वत्र पुरुषवेदके समान परोदयसे बन्ध होता है । नपुंसक वेदका स्वोदय से बन्ध होता है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका स्वोदय- परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन उक्त स्थानों में तथा इनके प्रतिपक्ष स्थानोंमें नपुंसकवेदका उदय देखा जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेज व वायु कायिक तथा सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि इन दोनों ही गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, आनतादिक देवामेंसे नपुंसकवेदोदय युक्त मनुष्यों में उत्पन्न हुए तथा तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ताके साथ नारकियोंमें उत्पन्न हुए मिथ्या दृष्टियों के निरन्तर बन्ध पाया जाता है । औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादाष्टे और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सनत्कुमारादि देव व नारकियोंका आश्रयकर निरन्तर बध होता है । अन्यत्र सान्तर बन्ध कहना चाहिये, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्कों में नपुंसकवेदके उदयका अभाव है । तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले नपुंसक वेदोदय युक्त तिर्यच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका आश्रयकर देवगतिद्विक ओर वैuresशरीरद्विकका निरन्तर बन्ध कहना चाहिये ।
२ प्रति सन्नः" इति पाठः ।
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१, १७७.] वेदमागणाए बंधसामित्तं
[२६१ उवघाद-परघादुस्सास-पत्तेयसरीराणं असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय परोदओ बंधो, णिरयगईए अपज्जत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु वि एदासिं बधुवलंभादो । तस बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरपंचिंदियजादीणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो सोदय-परोदओ, थावर- सुहुमापज्जत्त-साहारण-विगलिंदिएसु एदासिं बंधुवलंभादो । सव्वपयडीणं बंधस्स णत्थि देवाणं सामित्तं तत्थ णqसयवेदुदयाभावादो। एइंदिय-आदाव-थावराणं तिरिक्खगइ-मणुसगइ-मिच्छाइट्ठी चेव सामी, देवा ·ण होति; तेसु णसयवेदुदयाभावादो। अण्णो वि जदि भेदो अत्थि सो संभालिय' वत्तव्यो ।
जधा इत्थिवेदस्स परूवणा कदा तथा पुरिसवेदस्स वि कायव्वा । णवरि ओघपच्चएसु इत्थि-णqसयवेदपच्चया चेव सव्वगुणट्ठाणेसु अवणेदव्वा, सेसासेसपच्चयाणं तत्थ संभवादो। इथि-णqसयवेदाणं बंधो परोदओ, पुरिसवेदस्स सोदओ । उवघाद-परघादुस्सास-पत्तेयसरीराणमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदय-परोदओ बंधो । तित्थयरस्स परूवणा ओघतुल्ला । एवमण्णो वि जदि भेदो अत्थि सो संभालिय वत्तव्यो ।
उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें खोदयपरोदय बन्ध होता है, क्योंकि, नरकगतिमें अपर्याप्त असंयतसम्यग्दृष्टियों में भी इनका बन्ध पाया जाता है। त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और पंचेन्द्रियजातिका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें खेदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और विकलेन्द्रियों में इनका बन्ध पाया जाता है। सब प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी देव नहीं है,
गोंकि, उनमें नपुंसकवदके उदयका अभाव है। एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरके तिर्यग्गति व मनुष्यगतिके मिथ्यादृष्टि ही स्वामी हैं, देव नहीं हैं; क्योंकि, उनमें नपुंसकवेदके उदयका अभाव है । अन्य भी यदि भेद है तो उसको स्मरणकर कहना चाहिये।
जिस प्रकार स्त्रीवेदकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार पुरुषवेदकी भी करना चाहिये । विशेष इतना है कि ओघप्रत्ययोंमेंसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको ही सब गुणस्थानों में कम करना चाहिये, क्योंकि, शेष सब प्रत्ययोंकी वहां सम्भावना है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका बन्ध परोदय होता है । पुरुषवेदका स्वोदय बन्ध होता है। उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । तीर्थकर प्रकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है । इसी प्रकार अन्य भी यदि भेद है तो उसको स्मरण कर कहना चाहिये।
१ अप्रतौ — एइंदिये अण्णो' इति पाठः । २. प्रसिद्ध सासंमरियमबतौ :सप समाछिय पति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १७८.
अवगदवेदसु पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय जसकित्तिउच्चा गोद पंचंतर। इयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १७८ ॥
२६४ ]
सुगम ।
अणियट्टि पहुड जाव सुहुमसां पराइ उवसमा खवा बंधा । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदद्वाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवेससा अबंधा ॥ १७९ ॥
देसामा सिय सुत्तमेदं, बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं दोण्णं चैव परूवणादो । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा करदे । तं जधा - एदासिं सोलसहं पयडीणं पुत्रं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, तहìवलंभादो ।( एत्थुवउज्जंती गाहा—
आगमचक्खू साहू इंदियचक्खू असेसजीवा जे । देवा य ओहिचक्खू केवलचक्खु जिणा सत्रे || २४|| ) पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय पंचंतराइय- जसकित्ति - उच्चागोदाणं सोदओ चेव
अपगतवेदियों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १७८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अनिवृत्तिकरणसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १७९ ॥
यह सूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान इन दोनोंका ही प्ररूपण करता है । इसीलिए इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है— इन सोलह प्रकृतियों का पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है । यहां उपयुक्त गाथा
साधु आगम रूप चक्षुसे संयुक्त, तथा जितने सब जीव हैं वे इन्द्रिय-चक्षुके धारक होते हैं । अवधिज्ञान रूप चक्षुसे सहित देव, तथा केवलज्ञानरूप चक्षुसे युक्त सब जिन होते हैं ॥ २४ ॥
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, यशकीर्ति और उच्च
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३, १८१. ]
वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २६५
बंधो, एत्थ एदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । णिरंतरो बंधो, एत्थ बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघम्मि परुविदत्तादो । अगइसंजुत्तो बंधो, अवगदवेदेसु चदुष्णं' गईणं बंधाभावाद । मसा चैव सामी, अण्णत्थ खवगुवसामगाणमभावादो । बंधद्वाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय पंचंतराइयाणं तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो । जसकित्ति - उच्चागोदाणं सादि-अद्भुवा, अद्भुवबंधित्तादो ।
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १८० ॥
सुगमं ।
अणियट्टि पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा ! सजोगिकेवलि - अदाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १८१ ॥
दस अथ च । तं जहा - पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिच्जदि, सजोगि
गोत्रका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इन प्रकृतियोंके ध्रुवोदयित्व देखा जाता है । बन्ध इनका निरन्तर होता है, क्योंकि, यहां बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघ में उनकी प्ररूपणा की जा चुकी है । अगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अपगतवेदियों में चारों गतियोंके बन्धका अभाव है । मनुष्य ही स्वामी 'हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें क्षपक और उपशामकों का अभाव है । वन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव वन्धका अभाव है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवबन्धी हैं ।
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १८० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अनिवृत्तिकरणसे लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं । सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १८१ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सयोगकेवली और अयोगकेवली के अन्तिम समयमें क्रमसे
१ प्रतिषु ' चदुडाणं ' इति पाठः ।
छ. बं. ३४.
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२६६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १८२. अजोगिचरिमसमयम्मि बंधोदयवोच्छेददंसणादो । सोदय-परोदओ बंधो, परावत्तण्णुदयत्तादो। णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो। पच्चया सुगम, ओघम्मि परूविदत्तादो । अगइसंजुत्तो बंधो, अवगदवेदेसु गइचउक्कस्स बंधाभावादो। मणुसा सामी, अण्णत्थ अवगयवेदाणमभावादो । बंधद्धाणं बंधविणठ्ठाणं च सुगमं । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो।
कोधसंजलणस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १८२ ॥ सुगमं ।
अणियट्टी उवसमा खवा बंधा । अणियट्टिवादरद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिजदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥१८३॥
___ एदस्सत्थो वुच्चदे- बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, बंधे वोच्छिण्णे संते उदयाणुवलंभादो । सोदय-परोदओ बंधो, उभयहा वि बंधविरोहाभावादो । णिरंतरो, धुवबंधित्तादो ।
उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, परिवर्तित होकर उसके प्रतिपक्षभूत असाता वेदनीयका उदय पाया जाता है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम है, क्योंकि, ओघमें उनको प्ररूपणा की जाचुकी है । अगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अपगतवेदियों में चारों गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें अपगतवेदियोंका अभाव है। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी प्रकृति है।
संज्वलनक्रोधका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १८२ ॥ यह सूत्र सुगम है।
अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । बादर अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहु भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १८३ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- संज्वलनक्रोधका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, बन्धके व्युच्छिन्न होनेपर फिर उदय पाया नहीं जाता। स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी बन्ध होने का विरोध नहीं है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुववन्धी है । अगतिसंयुक्त वन्ध होता है, क्योंकि,
१ काप्रतौ ' परावत्तणुदयचादो' इति पाठः ।
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३, १८५.] वेदमग्गणाए बंधसामित्त
[२६७ अगइसंजुत्तो, एत्थ चउगइबंधाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितों विसेसाभावादी । मणुसा चेव सामी, अण्णत्थेदेसिमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्मि अद्धाणविरोहादो । अधवा अत्थि, पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अवगदवेदाणमणियट्टीणं संखेजाणमुवलंभादो अणियट्टिकालं संखेज्जाणि खंडाणि' करिय तत्थ बहुखंडेसु अइक्कंतेसु एगखंडावसेसे कोधसंजलणस्स बंधो वोच्छिण्णो । तिविहो बंधो, धुवबंधित्तादो ।
माण-मायांसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १८४ ॥ सुगमं ।
अणियट्टी उवसमा खवा बंधा । अणियट्टिवादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूण बंधे। वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १८५॥
एदासिं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, विणट्ठबंधाणमुदयाणुवलंभादो । सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो। णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। अवगयपच्चओ, ओघपच्चएहिंतो अविसिट्ठ
यहां चारों गतियों के बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंक, ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई भेद नहीं है । मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंक, अन्य गतियोंमें अपगतवेदियोंका अभाव है । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है । अथवा बन्धाध्वान है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर अपगतवेदी अनिवृत्तिकरणों के संख्यात
नेिसे अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात खण्ड करके उनमें बहुत खण्डोंके वीत जाने और एक खण्डके शेष रहनेपर संज्वलनक्रोधका बन्ध व्युच्छिन्न होता है। तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है।
संज्वलनमान और मायाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१८४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरणबादरकालके शेष शेष कालमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥१८५॥
इन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, बन्धके नष्ट हो जानेपर इनका उदय नहीं पाया जाता। स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी बन्ध पाया जाता है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे
१ प्रतिषु । बंधाणिं ' ' इति पाठः ।
२ अ-आप्रत्योः 'मायसंजलणाणं 'इति पाठः।
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२६८ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १८६.
पच्चयत्तादो । अगइसंजुत्तो, एत्थ चउगइबंधाभावादो । मणुससामिओ', अण्णत्थवगदवेदाभावादो । बंधद्धाणवजिओ, दव्वट्ठियणयविसयम्मि सव्वसंग हे अद्धाणाणुववत्तीदो' । अधवा अद्धाणसमण्णिओ, अवलंबियपज्जवट्ठियणयत्तादो । कोधबंधवोच्छिष्णद्वाणादो उवरिममद्भाणं संखेजखंडाणि काऊण बहुखंडे अइक्कंतेसु एयखंडावसेसे माणबंधो वोच्छिज्जदि । पुणो सेसमेयं खंड संखेज्जाणि खंडाणि करिय तत्थ बहुखंडेसु अइक्कंतेसु एयखंडावसेसे मायबंधो वोच्छिज्जदि । एदं कुदो वगम्मदे ? सेसे सेसे संखेज्जाभागं गंतूणे त्ति जिणवयणादो वगम्मदे । तिविहो, धुवत्ताभावाद ।
लोभसंजणस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १८६ ॥
सुगमं ।
ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। प्रत्यय अवगत हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई विशेषता नहीं है । अगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, यहां चारों गतियोंके बन्धका अभाव है | मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें अपगतवेदियों का अभाव है । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयके विषयभूत सर्व संग्रहके होनेपर अध्वान बनता नहीं है । अथवा पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेसे अध्वान से सहित बन्ध होता है । क्रोधके बन्धव्युच्छित्तिस्थान से ऊपरके कालके संख्यात खण्ड करके बहुत खण्डोंको विताकर एक खण्डके शेष रहनेपर मानका बन्ध व्युच्छिन्न होता है । तत्पश्चात् शेष एक खण्डके संख्यात खण्ड करके उनमें बहुत खण्डों को बिताकर एक खण्डके शेष रहनेपर मायाका बन्ध व्युच्छिन्न होता है ।
शंका- यह कहां से जाना जाता है ?
समाधान- शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर इस जिनवचनसे उक्त बन्धव्युच्छित्तिक्रम जाना जाता है ।
तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है । संज्वलनलोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? || १८६ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
१ प्रतिषु ' मणुसासामिओ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' अप्पाणुववत्तीयो ' इति पाठः ।
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३, १८८.] कसायमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २६९ अणियट्टी उवसमा खवा बंधा। अणियट्टिवादरद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १८७ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे - बंधो पुवमुदओ पच्छा वोच्छिज्जदि, अणियट्टि-सुहुमसांपराइयचरिमसमयम्मि बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो। णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो। अवगयपच्चओ, आपच्चएहिंतो अविसिट्ठपच्चयत्तादो। अगइसंजुत्तो, चउगइबंधाभावादो। मणुससामिओ', अण्णत्थ खवगुवसामगाणमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, सुत्ते अणुवदित्तादो । किमट्ठमणुवदिहँ ? दवट्ठियावलंबणादो । तिविहो बंधो, धुवबंधित्तादो ।
कसायाणुवादेण कोधकसाईसु पंचणाणावरणीय [ चउदंसणावरणीय-सादावेदणीय-] चदुसंजलण-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १८८ ॥
अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरणबादरकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १८७ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें क्रमसे वन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारसे वन्ध पाया जाता है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उक्त प्रकृति ध्रुवबन्धी है। ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई विशेषता न होनेसे उक्त प्रकृतिके बन्धके प्रत्यय अवगत हैं। अगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, यहां चारों गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी है, क्योंकि, अन्य मतियों में क्षपक व उपशामकोका अभाव है। बन्धाध्वान है नहीं, क्योंकि, सूत्र में उसका उपदेश नहीं है।
शंका-सूत्रमें बन्धाध्वानका उपदेश क्यों नहीं किया गया है ?
समाधान-द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेसे सूत्र में उसका उपदेश नहीं किया गया है।
तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुववन्धी प्रकृति है।
कपायमार्गणानुसार क्रोधकषायी जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय ], चार संज्वलन, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१८८ ॥
१ प्रतिषु · अवगयपच्चओघ ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु — मणुसासामिओ' इति पाठः।
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२७०
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १८९.
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति उवसमा खवा बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १८९ ॥
एदासिं पयडीणं बंधो उदयादो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिणो त्ति परिक्खा णत्थि, उदयवोच्छेदाभावादो तिण्णं कसायाणं णियमेण उदयाभावादो च । पंचणाणावरणीय-चउदसणावरणीय-कोहसंजलण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । सादावेदणीयस्स सव्वत्थ सोदय-परोदओ अद्धवोदयत्तादो। जसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि ति उच्चागोदस्स मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदो त्ति सोदय-परोदओ बंधो । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो । तिण्णं संजलणाणं परोदएण बंधो, कोहोदयप्पणादो ।
पंचणाणावरणीय-चउर्दसणावरणीय-चउसंजलण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सादावेदणीयस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंधो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो । एवं जसकित्तीए वत्तव्वं । उच्चागोदस्स मिच्छाइट्ठि
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं हैं ॥ १८९ ॥
इन प्रकृतियोंका बन्ध उदयसे पूर्व या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, इस प्रकारकी परीक्षा यहां नहीं है, क्योंकि, इनके उदयव्युच्छेदका अभाव है, तथा मानादिक तीन कषायोका नियमसे यहां उदय भी नहीं है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, संज्वलन क्रोध और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी हैं। सातावेदनीयका सर्वत्र स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वह अधुवोदयी है । यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक, तथा उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। उपरिम गुणस्थानों में इनका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। तीन संज्वलन कषायोंका परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, यहां क्रोधकी प्रधानता है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी है । सातावेदनीयका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक सान्तर बन्ध होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। इसी प्रकार यशकीर्तिके भी कहना चाहिये।
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३, १८९. ]
कसायमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २७१
सास सम्मादिट्टी सांतर - णिरंतरो । कधं णिरंतरो ? असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख मणुस्सेसु सुहुले स्सियसंखेज्जवासा उएसु च णिरतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावाद |
मिच्छाइट्टिम्हि तेदालीसुत्तरपच्चया, सासणे अट्ठत्तीस, बारसकसायाणमभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु जहाकमेण चोत्तीस- सत्तत्तीसपच्चया, णवकसायपच्चयाभावादो | संजदासंजदेसु एक्कत्तीसपच्चया, छक्क्सायाभावादो । पमत्तसंजदेसु एक्कवीसपच्चया, कसायतियाभावादो । अप्पमत्त - अपुव्वकरणेसु एक्कूणवीसपच्चया, कसायतियाभावादो । उवरि तेरस आदि काढूण एगूणादिकमेण पच्चया जाणिय वत्तव्वा । सेसं सुगमं ।
पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय चउसंजलण- पंचं तराइयाणि मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणसम्माइट्ठी तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठि - असंजद सम्माइट्टिणो देव- मणुसगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तमगइसंजुत्तं च बंधंति । सादावेदणीय - जसकित्तीओ मिच्छाइडिसासणसम्माइट्टिणो तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए सह बंधाभावाद। । उवरि णाणावरणभंगो । उच्चा
उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है । निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यच और मनुष्यों में तथा शुभ लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्कों में भी उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है ।
मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तेतालीस और सासादन गुणस्थान में अड़तीस उत्तर प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां बारह कषायका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में यथाक्रम से चौंतीस और सैंतीस उत्तर प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां नौ कषाय प्रत्ययोंका अभाव है। संयतासंयतों में इकतीस उत्तर प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनमें छह कषायों का अभाव है । प्रमत्तसंयतों में इक्कीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनमें तीन कषायका अभाव है । अप्रमत्त और अपूर्वकरण संयतों में उन्नीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां भी तीन कषायों का अभाव है । ऊपर तेरहको आदि लेकर एक कम दो कम इत्यादि क्रमसे प्रत्ययोंको जानकर कहना चाहिये । शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायको मिथ्यादृष्टि चार गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगति से संयुक्त और गतिसंयोग से रहित बांधते हैं । सातावेदनीय और यशकीर्तिको मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, नरकगतिके साथ इनके बन्धका अभाव है । उपरिम गुणस्थानों में ज्ञानावरणके समान प्ररूपणा है ।
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२७२ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १९०. गोदं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो देव-मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, अण्णगईहि बंधविरोहादो। उवरिमा देवगइसंजुत्तमणियट्टिणो अगइसंजुत्तं बंधति ।
चउगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी । दुगइसंजदासंजदा। अवसेसा मणुसा, अण्णत्थ तेसिमणुवलंभादो। बंधद्धाणं सुगमं । बंधविणासा णत्थि, बंधुवलंभादो । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । उवरिमगुणेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सादि-अद्भुवो', अद्धवबंधित्तादो ।
बेट्टाणी ओघं ॥ १९० ॥
थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिच उक्क-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाणचउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं बेट्टाणियसण्णा, दोसु गुणट्ठाणसु चिटुंति त्ति उप्पत्तीदो । एदासिं परूवणा
उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्धका विरोध है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त, तथा अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवर्ती अगतिसंयुक्त बांधते हैं।
चारों गतियोंके मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं । शेष गुणस्थानवी मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में वे गुणस्थान पाये नहीं जाते । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धविनाश है नहीं, क्योंकि, उनका बन्ध पाया जाता है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुववन्धी हैं।
द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १९० ॥
स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुवन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंकी द्विस्थानिक संज्ञा है, क्योंकि, 'जो दो गुणस्थानों में रहें वे द्विस्थानिक हैं ' ऐसी व्युत्पत्ति है । इनकी प्ररूपणा ओघके समान है, क्योंकि,
१ प्रतिषु ' दुगइसंजदा' इति पाठः ।
२ प्रतिषु 'सादि' इति पाठः ।
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३, १९०.] कसायमग्गणाए बंधमामित्त
[ २७३ ओघतुल्ला, विसेसाभावादो। तं जहा- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, सासणम्मि तदुभयाभावदंसणादो। थीणगिद्धितियस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणसम्माइट्टि-पमत्तसंजदेसु कमेण बंधोदयवोच्छे दुवलंभादो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइउज्जोवणीचागोदाणमेवं चेव । णवरि संजदासंजदम्मि उदयवोच्छेदो । एवमित्थिवेदस्स वि । णवरि अणियट्टिम्हि तदुच्छेदो । चउसंठाण-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणमेवं चेव । णवरि एत्थ उदयवोच्छेदो णस्थि । चउसंघडणाणमेवं चेव । णवरि अप्पमत्तसंजदेसु बिदिय-तदियसंघडणाणमुदयवोच्छेदो। चउत्थ-पंचमाणं णत्थि उदयवोच्छेदो, उवसंतकसाएसु तदुच्छेददंसणादो । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी दुभग-अणादेजाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु कमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो ।
अणंताणुबंधिकोधस्स सोदओ बंधो । तिण्हं कसायाणं परोदओ, तेसिमेत्युदयाभावादो। अवसेसपयडीण सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधविरोहाभावादो । इत्थिवेद-चउसंठाण-चउ
ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है । वह इस प्रकार है- अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । स्त्यानगृद्धित्रयका पूर्वमें वन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें क्रमसे बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गति, उद्योत और नीचगोत्रकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेषता केवल इतनी है कि संयतासंयत गुणस्थानमें उनका उदयव्युच्छेद होता है । इसी प्रकार स्त्रीवेदकी भी प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उसके उदयका व्युच्छेद होता है। चार संस्थान, अप्रशस्तविहायोगति और दुस्वरकी प्ररूपणा भी इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि यहां उनका उदयव्युच्छेद नहीं है। चार संहननोंकी प्ररूपणा भी इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि अप्रमत्तसंयतों में द्वितीय और तृतीय संहननका उदयव्युच्छेद होता है । चतुर्थ और पंचम संहननका उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, उपशान्तकषायों में उनके उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, दुर्भग और अनादेयका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है।
__ अनन्तानुबन्धिक्रोधका स्वोदय बन्ध होता है। तीन कषायोका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनके उदयका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका खोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी उनके बन्धका कोई विरोध नहीं है।
स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, छ.बं. ३५.
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२७४ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १९१. संघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बि-णीचागोदाणं दोसु वि गुणट्ठाणेसु सांतर-णिरंतरा बंधो, तेउ-बाउक्काइएसु सत्तमपुढविणेरइएसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा ।
तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्धि-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बंधति । इत्थिवेदं तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए बंधाभावादो। चउसंठाण-चउसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, अण्णगईहि बंधाभावादो। अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि तिगइसंजुत्तं बंधति, देवगईए बंधाभावादो । सासणो तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बंधइ, तस्सण्णगईहि विरोहादो । चउगइमिच्छादिहि-सासण सम्मादिडियो सामी । उवरि सुगमं, बहुसो परूविदत्तादो।
जाव पच्चक्खाणावरणीयमोघं ॥ १९१ ॥
बेढाणदंडयं परूविय पच्छा जेणेदं सुत्तं परविदं तेण णिदादंडयमादि कादूणे त्ति अत्थावत्तीदो अवगम्मदे । णिदा-असादेगट्ठाण-अपचक्खाण-पञ्चक्खाणदंडयाणं परूवणाए
और अनादेयका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिनायोग्यानुपूर्वी और नीच गोत्रका दोनों ही गुणस्थानों में सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है, क्योंके, तेजकायिक व वायुकाायक तथा सतम पृथिवीके नारकियोंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है । शेष प्रकृतियोंक वन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं।
तिर्यगायु, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । स्त्रीवेदको तीन गतियोले संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, नरकगतिके साथ उसके बन्धका अभाव है । चार संस्थान और चार संहननोंको तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियों के साथ उनके वन्धका अभाव है। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि.देवगतिके साथ इनके बन्धका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि इन्हें तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधता है,क्योंकि, उसके अन्य गतियोंके साथ इनके वन्धका विरोध है । चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । उपरिम प्ररूपणा सुगम है, क्योंकि, वह बहुत वार की जा चुकी है।
प्रत्याख्यानावरणीय तक सब प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १९१ ॥
द्विस्थानदण्डककी प्ररूपणा करके पीछे चूंकि इस सूत्रकी प्ररूपणा की गई है अत एव 'निद्रादण्डकको आदि करके', यह अर्थापत्तिसे जाना जाता है । निद्रा, असातावेदनीय, एकस्थानिक, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान दण्डकोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । उसको
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३, १९४.] कसायमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २७५ ओघभंगो । सो वि चिंतिय एत्थ वत्तव्यो ।
पुरिसवेदे ओघं ॥ १९२ ॥
एसो पुरिसवेदणिदेसो जेण देसामासियो तेग पुरिसवेददंडय-माणदंडय-लोहदंडयाणं गहणं । जहा एदेसि दंडयाणमाघम्मि परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । णवरि पच्चयविसेसो जाणिय वत्तव्यो ।
हस्स-रदि जाव तित्थयरे त्ति ओघं ॥ १९३ ॥
हस्स-रदिसुत्तमादि कादूण जाव तित्थयरसुतं ति ताव एदेसिं' सुत्ताणमोघपरूवणमवहारिय परूवेदव्वं ।
माणकसाईसु पंचगागावरणीय-च उदसणावरणीय-सादावेदणीयतिण्णिसंजलण-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १९४ ॥
सुगमं ।
भी विचार कर यहां कहना चाहिये ।
पुरुषवेदकी प्ररूपणा ओषके समान है ॥ १९२ ॥
यह पुरुषवेद पदका निर्देश चूंकि देशामर्शक है, अतः इससे पुरुषवेददण्डक, मानदण्डक और लोभदण्डकका ग्रहण करना चाहिये । जिस प्रकार इन दण्डकोंकी ओघमें प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रत्ययभेद जानकर कहना चाहिये।
हास्य व रतिसे लेकर तीर्थकर प्रकृति तक ओघके समान प्ररूपणा है ॥ १९३ ॥
हास्य-रति सूत्रको आदि करके तीर्थकर सूत्र तक इन सूत्रों की ओघप्ररूपणाका निश्चय कर प्ररूपणा करना चाहिये।
मानकषायी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, तीन संज्वलन, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १९४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
१ प्रतिषु ' एदासिं' इति पाठः ।
२ अ-आप्रत्योः जाणिदरो' इति पाठः ।
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२७६) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १९५. मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टि उवसमा खवा बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १९५ ॥
कोधसंजलणमैत्थ एदाहि सह किण्ण परविदं ? ण, तस्स माणसंजलणबंधादो पुवमेव वोच्छिण्णबंधस्स माणादीहि बंधद्धाणं पडि पच्चासच्चीए अभावाद।। एदस्स सुत्तस्स परूवणाए कोधभंगो । णवरि माणस्स सोदओ, अण्णेसिं कसायाणं परोदओ बंधो । पच्चएसु माणकसायं मोत्तूण सेसकसाया अवणेदव्वा । सेसं जाणिय वत्तव्यं ।
बेट्टाणि जाव पुरिसवेद-कोधसंजलगाणमोघं ॥ १९६ ॥
बेवाणि ति वुते बेट्टाणिय-णिद्दा-असाद-मिच्छत आच्चक्खाण-पच्चक्खाणदंडया घेत्तव्वा, देसामासियत्तादो । पुरिसवेद-कोधसंजलणे त्ति वुते तस्स एक्कस्सेव सुत्तस्स गहणं कायव्वं । एदेसिं सुत्ताणमाघपरूवणमवहारिय वत्तव्वं ।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवी उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं हैं ॥ १९५ ॥
शंका-यहां इन प्रकृतियों के साथ संज्वलन क्रोधकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है?
समाधान नहीं, क्योंकि संज्वलनमानके बन्धसे उसका बन्ध पूर्वमें ही व्युच्छिन्न हो जाता है, अत एव मानादिकोंके साथ बन्धाध्वानके प्रति उसकी प्रत्यासत्तिका अभाव है। इसी कारण उसकी प्ररूपणा यहां नहीं की गई है।
इस सूत्रकी प्ररूपणा क्रोधके समान है । विशेष इतना है कि मानका स्वोदय और अन्य कषायोंका परोदय बन्ध होता है। प्रत्ययोंमें मानकषायको छोड़कर शेष कषायोंको कम करना चाहिये । शेष प्ररूपणा जानकर कहना चाहिये।
द्विस्थानिक प्रकृतियोंको लेकर पुरुषवेद और संज्वलनक्रोध तक ओघके समान प्ररूपणा
'द्विस्थानिक' ऐसा कहनेपर द्विस्थानिक, निद्रा, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दण्डकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, यह देशामर्शक पद है । पुरुषवेद व संज्यलनक्रोध, ऐसा कहनेपर उस एक ही सूत्रका ग्रहण करना चाहिये। इन सूत्रोंकी ओघप्ररूपणाका निश्चय कर व्याख्यान करना चाहिये ।
१ प्रतिषु · सादअसाद ' इंति पाठः ।
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६, २००.]
कसायमगणार बंधसामित हस्स-रदि जाव तित्थयरे त्ति ओघं ॥ १९७ ॥ सुगममेदं, बहुसो परूविदत्थत्तादो ।
मायकसाईसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-सादावेदणीयदोण्णिसंजलण-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १९८ ॥
सुगममेदं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टी उवसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १९९॥
एदं पि सुत्तं सुगमं । बेट्टाणि जाव माणसंजलणे ति ओघं ॥ २०॥
बेट्ठाणि-णिद्दासादेगट्ठाण-अपच्चक्खाण-पच्चक्खाण-पुरिस-कोध-माणसुत्ताणमाघपरूवणमवहारिय परूवेदव्वं ।
हास्य व रतिसे लेकर तीर्थकर तक ओघके समान प्ररूपणा है ॥ १९७ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, इसके अर्थकी वहुत वार प्ररूपणा की जा चुकी है।
मायाकषायी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, दो संज्वलन, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१९८॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं हैं ॥ १९९ ॥
यह भी सूत्र सुगम है। द्विस्थानिक प्रकृतियोंको लेकर संज्वलनमान तक ओघके समान प्ररूपणा है ॥२०॥
द्विस्थानिक, निद्रा, असातावेदनीय, एकस्थानिक, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, पुरुषवेद, क्रोध और मान सूत्रोंकी ओघप्ररूपणाका निश्चय कर प्ररूपणा करना चाहिये।
१प्रतिष सादासादेग-' इति पाठः।
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२७८ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २०१. हस्स-रदि जाव तित्थयरे ति ओघं ॥ २०१॥ सुगममेदं ।
लोभकसाईसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-सादावेदणीयजसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥२०२॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २०३ ॥
एदं सुगमं । सेसं जाव तित्थयरे त्ति ओघं ॥ २०४ ॥ सुगमं । अकसाईसु सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥१०५॥ सुगमं ।
हास्य व रतिसे लेकर तीर्थकर प्रकृति तक ओघके समान प्ररूपणा है ॥ २०१॥ यह सूत्र सुगम है।
लोभकषायी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥२०२॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं हैं ॥ २०३ ॥
यह सूत्र सुगम है। तीर्थकर प्रकृति तक शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २०४ ।। यह सूत्र सुगम है। अकषायी जीवोंमें सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥२०॥ यह सूत्र सुगम है।
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[२७९
३, २०६.]
णाणमग्गणाए बंधसामित्तं उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था खीणकसायवीदरागछदुमत्था सजोगिकेवली बंधा । सजोगिकेवलिअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २०६॥
एदस्स अत्थो। तं जहा - सादावेदणीयस्स' पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, सजोगि-अजोगिकेवलीसु कमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो । सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधाविरोहादो। णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो। उवसंत-खीणकसाएसु णव जोगपञ्चया । सजोगीसु सत्त । अगइसंजुत्तो बंधो । मणुसा सामी । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-अट्ठणोकसायतिरिक्खाउ-मणुसाउ-देवाउ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-पंचसंठाण-ओरालिय
उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ और सयोगकेवली बन्धक हैं । सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २०६ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- सातावेदनीयका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। उसका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी उसके बन्धका विरोध नहीं है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका यहां अभाव है। उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंमें नौ योग प्रत्यय तथा सयोगी जिनों में सात हैं । अगतिसंयुक्त बन्ध होता है । मनुष्य स्वामी हैं। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
ज्ञानमार्गणाके अनुसार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, पांच संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, पांच
१ अप्रतौ सादासादवेदणीयस्स', आप्रतौ ' सादासादयस्स' इति पाठः । २ प्रतिषु — बंधविरोहादो' इति पाठः।
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२८०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २०७. वेउव्वियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-वण्ण-गंध-रस- फास-तिरिक्खगइमणुसगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघादउस्सास-उज्जोब दोविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिरसुहासुह-सुभग दुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज--अणादेज्ज-जसकित्तिअजसकित्ति-णिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥२०७॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २०८॥
एत्थ उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिज्जदि त्ति विचारो णत्थि, एदासि पयडीणं बंधोदयवोच्छेदाभावादो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । देवाउ-देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुव्वीणं परोदओ बंधो,
संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गति, मनुष्यगति व देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच व ऊंच गोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २०७॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं हैं ॥ २०८ ॥
__ यहां उदयसे बन्ध पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंके बन्ध व उदयके व्युच्छेदका यहां अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन
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३, २०८. ]
गाणमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २८१
एदासिं बंधोदयाणमक्कमेण वृत्तिविरोहादो । पंचदंसणावरणीय - सादासाद-सोलसकसायअणोकसाय - तिरिक्ख- मणुसाउ-तिरिक्ख- मणुसगइ - ओरालिय सरीर - पंचसंठाण - ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-तिरिक्ख - मणुसगइपाओग्गाणुपुवी - उववाद - परघाद- उस्सास-उज्जीवदोविहायगइ-पत्तेय सरीर-सुभग- दुभंग-सुस्सर दुस्सर - आदेज्ज - अणादेज्ज - जसकित्ति-अजसकित्तिणीचागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो, दोहि' वि पयारेहि बंधविरोहाभावादो । पंचिंदिय-तसबादर-पज्जत्ताणं मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठीसु सोदय- परोदओ बंधे । सासणसम्माइट्ठीसु सोदओ चेव, एदासिं पडिवक्खपयडीणं तत्थुदयाभावादो ।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय - सोलसकसाय-भय- दुगुंछा - तिरिक्ख - मणुस - देवाउतेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास - अगुरुवलहुअ - उवघाद - णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमइयबंधाणुवलंभादो । सादासाद- पंचणोकसाय- पंचसंठाण-पंच संघडण - उज्जोवअप्पसत्थविहायगइ-थिराथिर - सुभासुभ- दुभग- दुस्सरे अणादेज्ज- अजसकित्तीणं सांतरा बंधो, एग
प्रकृतियोंके बन्ध व उदयके एक साथ रहनेका विरोध है। पांच दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, पांच संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगतियां, प्रत्येकशरीर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और नीचगोत्रका स्वोदय- परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारोंसे उनके बन्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है | पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर और पर्याप्तका मति व श्रुत अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका वहां उदयाभाव है ।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनका एक समयिक बन्ध नहीं पाया जाता । साता व असाता वेदनीय, पांच नोकषाय, पांच संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और यशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा
१ प्रतिषु ' हि दोहि ' इति पाठः ।
७. नं. ३६.
२ अप्रतौ ' सुस्सर' इति पाठः ।
,
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२८२ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २०८.
समण विदासिं बंधुवरमदंसणा दो । पुरिसवेदस्स सांतर - निरंतरो । कुदेो णिरंतरो ? पम्म-सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुसमिच्छाट्ठि सासण सम्मादिट्ठीस पुरिसवेदस्स निरंतर बंधुवलंभादो । मणुसगइ - मणुसगइपाओग्गाणुपुत्रीणं सांतर - णिरंतरो बंधो। होदु सांत, कुदो णिरंतरो ? ण, सुक्कलेस्सियमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिङिदेवाणं निरंतरबंबुवलंभादो | ओरालिय सरीरअंगोवंगाणं सांतर - निरंतरो । कथं णिरंतरो ? ण णेरइएस सण+कुमारादिदेवेसु च णिरंतर
भादो | देवगर - पंचिंदियजादि वे उच्चियसरीर चे उच्चिय सरीर अंगोवंग देवगइपाओग्गाणुपुत्रि - सत्य विहाय गइ - सुभग- सुस्सर-आदेज्ज - उच्चा गोदाणं सांतर - निरंत। बंधो । कथं णिरंतरो ? ण, असंखेजवासाउअतिरिक्खे -मगुप्तमिच्छाइट्ठि - सास सम्मादिट्टीसु तेउ-पम्म- सुक्कलेस्सियसंखेज्जवासाउअतिरिक्ख मणुसमिच्छाइट्ठि - सासणसम्म दिडीसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । परघा
जाता है । पुरुषवेदका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका - निरन्तर बन्ध कैसे सम्मय है ?
समाधान – क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले तिर्यच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टियों में पुरुषवेदका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायेोग्यानुपूर्वीका सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है । शंका- इनका, सान्तर बन्ध भले ही हो, पर निरन्तर बन्ध कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है । शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, नारकियों तथा सनत्कुमारादि देवों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है । निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? नहीं, क्योंकि, असंख्यात वर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों तथा तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क तिर्यच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध
१ अप्रतौ ' वासाउअस्थितिरिक्ख ' इति पाठः ।
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३, २०८.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं
[२८३ दुस्सास-तस-बादर-पज्जत-पत्तयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधे। सांतर-णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? देव-णेरइएसु असंखेज्जवासाउअतिरिक्व-मणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधाभावादो परघादुस्सासंबंधविरोहिअपज्जत्तस्स बंधाभावादो च । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-णीचागोदाणं पि बंधो सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो? ण, तेउ-वाउकाइयमिच्छाइट्ठीसु सत्तमपुढविमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु च णिरंतरबंधुवलंभादो ।
पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो भेदाभावादो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवि-उज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । मणुसाउ-मणुसगइ मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मणुगइसंजुत्तो बंधो । देवाउ- [ देवगइ. ] देवगइपाओग्गाणुपुवीणं देवगइसंजुत्तो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंठाण-पंचसंघडणाणं तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो, अण्णगईहि बंधविरोहादो । णवरि समचउरससंठाणस्स तिगइसंजुत्तो, णिस्यगईए अभावादो । वेउब्धियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठिम्हि देवगइ-णिरयगइसंजुत्ता। सासणे देवगइसंजुत्तो । सादावेदणीय-इत्थि-पुरिस-हस्स-रदि-पसत्थविहाय
पाया जाता है । परघात, उच्छ्वास, त्रस, वादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर निरन्तर बन्ध होता है । निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? क्योंकि, देवनारकियों और असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्यों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है,तथा परघात और उच्छ्वासके बन्धके विरोधी अपर्याप्तके भी बन्धका अभाव है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भी बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है । निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? नहीं, क्योंकि, तेज व वायु कायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
प्रत्यय सुगम है, क्योंकि, ओधप्रत्ययोंसे यहां कोई भेद नहीं है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। देवायु, [देवगति ] और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वका देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संस्थान और पांच संहननका तिर्यंच व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उनके बन्धका विरोध है। विशेष इतना है कि समचतुरस्रसंस्थानका तीन गतियों से संयुक्त वन्ध होता है, क्योंक, नरकगतिके साथ उसके बन्धका अभाव है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें देवगति व नरकगतिसे संयुक्त, तथा सासादन गुणस्थानमें देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य,
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२८.) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २०८. गइ-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तीणं तिगइसंजुत्तो बंधो, णिरयगईए अभावादो । अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज-णीचागोदाणं तिगइसंजुत्तो बंधो, देवगईए अभावादो। णवरि सासणे तिरिक्ख-मणुसगइसजुत्तो । उच्चागोदस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो, अण्णगईहि विरोहादो । पंचणाणावरणीय-णवर्दसणावरणीय-असादावेदणीय-सोलसकसाय-अरदि-सोग-भयदुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघादउस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुह-अजसकित्ति-णिमिण पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्टिम्हि चउगइसंजुत्तो बंधो । सासणे तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो।।
देवाउ-देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउन्वियसरीरंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं बंधस्स तिरिक्ख-मणुसमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो सामी । अवसेसाणं चउगइया। बंधद्धाणं सुगमं। बंधवोच्छेदो णत्थि, ' अबंधा णत्थि ' त्ति सुत्तुद्दिद्वृत्तादो। धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउव्विहो । सासणे तिविहो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो । एवमेसा मदि-सुदअण्णाणीणं परूवणा कदा।
रति, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, और यशकीर्तिका तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, नरकगतिके साथ इनके बन्धका अभाव है। अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिके साथ उसके बन्धका अभाव है। विशेषता इतनी है कि सासादन गुणस्थानमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । उच्चगोत्रका देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्धका विरोध है। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, नरकगतिके साथ इस गुणस्थानमें उनके बन्धका अभाव है।
देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगातिप्रायोग्यानुपूर्वीके बन्धके तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धके चारों गतियोंके जीव स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद है नहीं, क्योंकि, वह 'अबन्धक नहीं हैं। इस प्रकार सूत्रोक्त ही है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका ह सासादन गुणस्थानमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। इस प्रकार यह मतिःश्रुत अशानियोंकी प्ररूपणा की गई है।
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३, ३०९.] णाणमग्गणाए बंधसामित्त
। २८५ विभंगणाणीणं पि एवं चेव वत्तव्यं, विसेसाभावादो । णवरि उवघाद-परघाद-उस्सासपत्तेयसरीराणं सोदओ बंधो, आज्जतकाले विभंगणाणाभावादो । तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदओ बंधो, थावर-सुहुम-अपज्जत्तएसु विभंगण्णाणाभावादो । तिण्णमाणुपुबीणं वंधो परोदओ, अपज्जत्तकाले विभंगणाणाभावादो । पञ्चएसु ओरालिय-वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा, विभंगणाणस्स अपज्जत्तकालेण सह विरोहादो । अण्णो वि जइ अस्थि भेदो' सो संभालिय वत्तव्यो ।
एक्कट्ठाणी ओघं ॥ २०९ ॥
मिच्छत्त-णqसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय - तीइंदिय-चउरिंदियजादिहुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-णिरयाणुपुवी-आदाव-थावर-सुहुम -अपज्जत्त-साहारणाणमेक्कट्ठाणिसण्णा, एक्कम्हि चेव मिच्छाइटिगुणट्ठाणे बंधसरूवेण अवट्ठाणादो । एदासिं परूवणा ओघतुल्ला । णवरि विभंगणाणीसु एइंदिय-बेइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादि-आदाव-थावर
विभंगशानियोंके भी इसीप्रकार कहना चाहिये, क्योंकि, मति-श्रुत अज्ञानियोंसे इनके कोई विशेषता नहीं है । भेद केवल इतना है कि उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें विभंगज्ञानका अभाव है। प्रस, बादर और पर्याप्तका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्तक जीवों में विभंगज्ञानका अभाव है। तीन आनुपूर्वी नामकोका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें विभंगज्ञानका अभाव है। प्रत्ययोंमें औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, विभंगज्ञानका अपर्याप्तकालके साथ विरोध है । और भी यदि कोई भेद है तो उसको स्मरणकर कहना चाहिये।
एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २०९॥
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नारकानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनकी एकस्थानिक संज्ञा है, क्योंकि, एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें इनका बन्ध स्वरूपसे अवस्थान है । इनकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेषता यह है कि विभंगज्ञानियों में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
१ अ-आप्रत्योः ‘पंचसु एसु', काप्रतौ · एसु पंचसु ' इति पाठः । २ अप्रतौ ' इथि भेदो', आ-काप्रयोः ' इत्थि वेदो' इति पाठः । ३ प्रतिषु मिच्छाइट्ठीसु गुणट्ठाणे' इति पाठः ।
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२८६) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २१०. सुहुम-अपज्जत्त-साहारण-णिरयाणुपुवीण परोदओ बंधो, एदेसु विभंगणाणीणमभावादो । सेसं सुगमं ।
आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥२१०॥
एवं सुगमं ।
असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा बंधा। सुहुमसांपराइयअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिजदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २११॥
एदासिमुदयादो बंधो पुव्वं वोच्छिण्णो, बंधे वोच्छिण्णे संते वि पच्छा उदयदसणादो। पंचणाणावरणीय-चउदसणावरणीय-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो। जसकित्तीए असंजदसम्मादिद्विम्हि सोदय-परोदओ, पडिवक्खुदयदसणादो । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो।
जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और नारकानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनमें विभंगज्ञानी जीवोंका अभाव है। शेष प्ररूपणा सुगम है।
आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधि ज्ञानी जीवोंमें पांच ज्ञाणावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २१० ॥
यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परायिककालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २११ ॥
इन प्रकृतियोंका बन्ध उदयसे पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, बन्धके व्युच्छिन्न हो जानेपर भी पीछे इनका उदय देखा जाता है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है । यशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय देखा जाता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिक उदयका अभाव है।
१ प्रतिषु । साहारणा' इति पाठः। २ प्रतिषु · सेसं ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' जाव सुहुमसांपराइयअदाए ' इति पाठः ।
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३, २१२.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २८७ उच्चागोदस्स असंजदसम्मादिद्वि-संजदासंजदेसु सोदय-परोदओ, पडिवक्खुदयदसणादो । उवरि सोदओ चेव ।
__ पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ बंधुवरमाभावादो । असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो ताव जसकित्तीए बंधो सांतरो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्ख यडिबंधाभावादो । पच्चया सुगमा । असंजदसम्मादिट्ठीणं देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरिमेसु देवगइसंजुत्तो। चदुगइअसंजदसम्मादिट्ठी, दुगइसंजदासजदा सामी । उवरिमा मणुसा चेव । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
णिद्दा पयला य ओघं ॥ २१२ ॥
णवरि 'असंजदसम्मादिटिप्पहुडि' जाव भणिदव्वं । ओघम्मि 'मिच्छाइट्ठिप्पहुडि' त्ति वुत्तं ; एत्थ पुण असंजदसम्मादिटिप्पहुडि त्ति वत्तव्वं, सण्णाणस हेट्ठिमगुणट्ठाणेसु अभावादो ।
उच्चगोत्रका असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय देखा जाता है । ऊपर उसका स्वोदय ही बन्ध होता है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके वन्धविश्रामका अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक यशकीर्तिका बन्ध सान्तर होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियोंके देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। उपरिम जीवोंके देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं। उपरिम गुणस्थानवी मनुष्य ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी है।
निद्रा और प्रचलाकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २१२ ॥
विशेषता केवल यह है कि ' असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर' कहना चाहिये । ओघमें 'मिथ्यादृष्टिसे लेकर' ऐसा कहा गया है, परंतु यहां ' असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर' कहना चाहिये, क्योंकि, अधस्तन गुणस्थानों में सम्यग्ज्ञानका अभाव है। इतना ही यहां
१अ-काप्रत्योः भाणिदव्वं ' इति पाठः।
२ प्रतिषु 'पुवं ' इति पाठः।
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२८८ ]
एत्तिओ चैव विसेसो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि ।
छक्खंडागमे बंधसामित्तार्वचओ
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २१३ ॥
सुगमं ।
असंजदसम्मादिट्टिपहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था बंधा ! एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २१४ ॥
सादावेदणीयस्स बंधे। उदयादो पुत्रं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, एत्थ बंधोदयाणं वोच्छेदाभावादो । सोदय-परोदओ बंधो अद्भुवोदयत्तादो, असंजदसम्मादिङिहुड जाव पत्तसंजदो त्ति बंधो सांतरा । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो । पच्चया सुगमा । असंजदसम्मादिट्ठी देव - मणुस गइसंजुत्तं; उवरिमा देवगइसंजुत्तमगइसंजुत्तं च बंधंति, साहावियादो | चउगइअसंजदसम्मादिट्टिणी, दुगइसंजदासंजदा सामी । उवरि मणुसा चैव । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवाच्छेदो णत्थि, ' अबंधा णत्थि ' त्ति सुद्दिट्ठत्तादो | सादिअद्भुवो बंधो, अद्भुवबंधित्तादो ।
विशेष है, अन्यत्र कहीं भी और कुछ विशेषता नहीं है ।
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९३ ॥
[ ३, २१३.
यह सूत्र सुगम है |
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २१४ ॥
सातावेदनीयका बन्ध उदयसे पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, यहां उसके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है । स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवोदयी है । असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक उसका बन्ध सान्तर होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि जीव देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बांधते हैं; उपरिम जीव देवगति से संयुक्त और अगतिसंयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं । उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है | बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, वह ' अबन्धक नहीं हैं ' इस प्रकार सूत्रमें ही निर्दिष्ट है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है ।
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१, २१५.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २८९ सेसमोघं जाव तित्थयरे त्ति । णवरि असंजदसम्मादिटिप्पहुडि त्ति भाणिदव्वं ॥ २१५ ॥
एदस्स अत्थो जदि वि सुगमो तो वि सण्णाणपक्खवाएणाक्खित्तचित्तो दुम्मेहजणाणुग्गहट्टं च पुणरवि परवेमि - असादावेदणीयस्स पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो । उदयवोच्छेदो णत्थि, केवलणाणीसु वि तदुदयदसणादो । एवमथिरासुहाणं पि वत्तव्वं । अरदि-सोगाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, पमत्तापुब्बेसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अजसकित्तीए पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिण्णो, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । असादावेदणीयअरदि-सोगाणं बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । अथिरासुहाणं सोदओ, धुवोदयत्तादो । अजसकित्तीए असंजदसम्मादिट्ठिम्हि बंधो सोदय-परोदओ । उवरि परोदओ चेव । एदासिं पयडीणं सव्वासिं पि बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा । असंजदसम्मादिहिम्हि सव्वपयडीणं दुगइसंजुत्तो, उवरिमाणं देवगइसंजुत्तो बंधो। चउगइअसंजदसम्मादिट्ठी दुगइसंजदासजदा मणुसगइसजदा च सामी । असंजदसम्मादिटिप्पहुडि
शेष प्ररूपणा तीर्थकर प्रकृति तक ओघके समान है । विशेषता केवल इतनी है कि 'असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर ' ऐसा कहना चाहिये ॥ २१५ ॥
इस सूत्रका अर्थ यद्यपि सुगम है तो भी सम्यग्ज्ञानके पक्षपातसे आक्षिप्तचित्त अर्थात् आकृष्ट होकर और दुर्बुद्धि जनोंके अनुग्रहार्थ फिरसे भी प्ररूपणा करते हैंअसातावेदनीयका पूर्व में बन्ध व्युच्छिन्न होता है । उदयव्युच्छेद उसका नहीं है, क्योंकि, केवलज्ञानियों में भी उसका उदय देखा जाता है । इसी प्रकार अस्थिर और अशुभके भी कहना चाहिये । अराति व शोकका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्यच्छेद पाया जाता है । अयशकीर्तिका पूर्वमें उदय और पश्चात् वन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । असातावेदनीय, अरति और शोकका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं । अस्थिर और अशुभका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं। अयशकीर्तिका बन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में खोदय-परोदय होता है । ऊपर उसका परोदय ही बन्ध होता है । इन सब ही प्रकृतियोंका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्यय सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सब प्रकृतियोंका दो गतियोंसे संयुक्त तथा उपरिम जीवोंके देवगतिसे संयक्त बन्ध होता है। चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक बन्धाध्वान ७.बं. ३७.
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२९०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २१५. जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधद्धाणं । पमत्तसंजदम्मि बंधवोच्छेदो । एदासिं बंधो सादि-अद्धवो ।
अपच्चक्खाणावरणचउक्क-मणुसगइ-ओरालियसरीर-अंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-मणुसगइपाओग्माणुपुवीओ एक्कम्हि असंजदसम्मादिट्टिगुणट्ठाणे बझंति त्ति एदासिमेत्थ एगट्ठाणसण्णा । एत्थ अपच्चक्खाणचउक्क-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, असंजदसम्मादिहिँ मोत्तूणुवरि' बंधुदयाणुवलंभादो । अवसेसाणं पयडीणमेत्थ खओवसमियणाणमग्गणाए बंधोवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदो णस्थि, केवलणाणीसु वि उदयदंसणादो। अपच्चक्खाणावरणचउक्कस्स बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं बंधो परोदओ, सम्मादिट्ठीसु एदासिं सोदएण बंधस्स विरोहादो। णिरंतरो बंधो, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि एगसमएण बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा । णवरि मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणमसंजदसम्मादिहिम्हि ओरालियकायजोग-ओरालियमिस्सकायजोगपञ्चया णत्थि, तिरिक्ख-मणुसअसंजदसम्मादिट्ठीसु एदासिं वंधाभावादो । अपच्चक्खाणचउक्कस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो बंधो । अण्णासिं पयडीणं मणुस
है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें बन्धव्युच्छेद होता है। इन प्रकृतियोंका बन्ध सादि और अध्रुव होता है।
__ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, ये प्रकृतियां एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बंधती हैं, अतएव इनकी यहां एकस्थान संज्ञा है। यहां अप्रत्याख्यान चतुष्क और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको छोड़कर उपरिम गुणस्थानों में इनका बन्ध और उदय नहीं पाया जाता । शेष प्रकृतियोंका यहां क्षायोपशमिक ज्ञानमार्गणामें बन्धव्युच्छेद ही है, उदयव्युच्छेद नहीं है; क्योंकि, केवलज्ञानियों में भी उनका उदय देखा जाता है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध खोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वह अध्रुवोदयी है। मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों में इनके स्वोदयसे बन्धका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें एक समयसे बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं। विशेषता इतनी है कि मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिक और औदारिकमिश्र काययोग प्रत्यय नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टियों में इनके बन्धका अभाव है। अप्रत्याख्यानचतुष्कका देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त, तथा अन्य प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध
१ अप्रतौ · मोत्तूणुवरिट्ठाणं ' इति पाठः ।
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३, २१५.] णाणमग्गणार बंधसामित
[२९१ गइसंजुत्तो, अण्णगईहि सह विरोहादो । अपच्चक्खाणचउक्कस्स चउगइअसंजदसम्माइट्ठी सामी । अवसेसाणं पयडीणं देव-णेरइया सामी । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि गुणहाणे भूओगुणट्ठाणजणियद्धाणविरोहादो । असंजदसम्मादिट्ठिम्हि बंधो वोच्छिज्जदि । अपच्चक्खाणचउक्कस्स तिविहो बंधो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो ।
पच्चक्खाणावरणचउक्कमेत्थ बेढाणियमसंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजददोगुणट्ठाणेसु समं चेव बंधुवलंभादो । बंधोदया समं वोच्छिण्णा, संजदासंजदम्मि तदुभयाभावदंसणादो । सोदय-परोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा । असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । संजदासंजदेसु देवगइसंजुत्तो । चउगइअसंजदसम्मादिट्ठी दुगइसंजदासजदा सामी । असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासजदो त्ति बंधद्धाणं । संजदासंजदम्मि बंधो वोच्छिज्जदि । दोसु वि गुणट्ठाणेसु तिविहो बंधो, धुवाभावादो।
पुरिसवेद-चउसंजलण-हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदओ बंधो। सांतर-णिरंतर
होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ इनके बन्धका विरोध है। अप्रत्याख्यानचतुष्कके चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । शेष प्रकृतियोंके देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें बहुत गुणस्थान जनित अध्वानका विरोध है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । अप्रत्याख्यानचतुष्कका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उसके ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
प्रत्याख्यानावरणचतुष्क यहां द्विस्थानिक है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थानोंमें समान ही बन्ध पाया जाता है । बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है। स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुवोदयी है। निरन्तर बन्ध होता है,क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है। प्रत्यय सुगम हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियों में देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त तथा संयतासंयतोंमें देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक बन्धाध्वान है । संयतासंयत गुणस्थानमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है। दोनों ही गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है।
पुरुषवेद, चार संज्वलन, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका स्वोदय-परोदय बन्ध
१ प्रतिषु ' धुवोदयादो ' इति पाठः ।
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२९२ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २१५. पच्चय-गइसंजोग-सामित्तद्धाण-बंधवियप्पा जाणिय वत्तव्वा' ।
. मणुसाउअस्स पुन्वावरकालसंबंधिबंधोदयपरिक्खा सुगमा । परोदओ बंधो, मणुस्साउबंधोदयाणमसंजदसम्मादिविम्हि अक्कमेण वुत्तिविरोहादो। णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। बाएत्तालीस पच्चया, ओरालिय-ओरालियमिस्स-वेउब्बियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । मणुसगइसंजुत्ता बंधो। देव-णेरइया सामी । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि गुणट्ठाणे अद्वाणविरोहादो। असंजदसम्मादिट्ठिम्हि बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
देवाउअस्स पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, अप्पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । परोदओ, सोदएण बंधविरोहादो । णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पच्चया ओघतुल्ला । देवगइसंजुत्तो बंधो । तिरिक्ख-मणुसअसंजदसम्मादिहि-संजदासंजदा मणुससंजदा च सामी, अण्णत्थ बंधाणुवलंभादो । असंजदसम्मादिट्ठिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति बंधद्धाणं । अप्पमत्तसंजदद्धाए संखेज्जदिमं भाग गंतूण बंधो
होता है । सान्तर-निरन्तरता, प्रत्यय, गतिसंयोग, स्वामित्व, अध्वान और बन्धविकल्प, इनको जानकर कहना चाहिये।
मनुष्यायुके पूर्वापर काल सम्बन्धी बन्ध और उदयके व्युच्छेदकी परीक्षा सुगम है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, मनुष्यायुके वन्ध और उदयके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें एक साथ अस्तित्वका विरोध है । निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्राम का अभाव है। व्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। देव व नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वन्ध व्युच्छिन्न होता है। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है ।
देवायुका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अप्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । परोदय बन्ध होता है,क्योंकि, स्वोदयसे उसके बन्धका विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय ओघके समान है। देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । तिर्यंच व मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत,तथा मनुष्य संयत स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में उसका बन्ध पाया नहीं जाता। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक बन्धाध्वान है । अप्रमत्तसंयतकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध
१ प्रतिषु वित्तव्वो' इति पाठः ।
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३, २१५. 1 णाणमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २९३ वोच्छिज्जदि । सादि-अद्भुवो, अद्धवबंधित्तादो ।
देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग वण्ण-गंध-रस फास-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं वुच्चदे-देवगइपाओग्गाणुपुवी-वे उब्वियसरीर-वे उब्वियसरीरंगोवंगाणं पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, अपुवासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अवसेसतेवीसपयडीणं एत्थुदयवोच्छेदो पत्थि, बंधवोच्छेदो चेव; केवलणाणीसु उदयवोच्छेदुवलंभादो ।
देवगइ-वेउव्वियदुगाणं सव्वगुणट्ठाणेसु परोदओ बंधो, एदासिमुदयबंधाणमक्कमेण वुत्तिविरोहाद।। पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-तस-बादरपज्जत्त-थिर-सुभ-णिमिणाणं सोदओ बंधो । समचउरससंठाण-उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणमसंजदसम्मादिद्विम्हि सोदय-परोदओ बंधो। उरिमेसु गुणट्ठाणेसु सोदओ चेव, तेसिमपज्जत्तद्धाए अभावादो । णवरि समच उरसठाणस्स सव्वगुणहाणेसु सोदय-परोदओ बंधो । पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सव्वगुणट्ठाणेसु सोदय-परोदओ बंधा । सुभग-आदज्जाणं
व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण नामकमौकी प्ररूपणा करते हैं-देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमे क्रमशः उनके बन्ध व व्युच्छेद पाया जाता है । शेष तेईस प्रकृतियोंका यहां उदयव्युच्छेद नहीं है, केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, केवलज्ञानियों में उनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है।
देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका सब गुणस्थानों में परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके उदय और बन्धके एक साथ रहनेका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माणका
दय बन्ध होता है। समचतुरस्रसंस्थान, उपघात,परघात, उच्छवास और प्रत्येकशरीरका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय परोदय बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानों में उनका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनके अपर्याप्तकालका अभाव है । विशेष इतना है कि समचतुरनसंस्थानका सब गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका सब गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । सुभग और आदेयका
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२९४) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २१५. असंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो।
थिर-सुभाणमसंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदा त्ति सांतरो बंधो । उवरि णिरंतरो। अवसेसाणं पयडीणं सव्वगुणहाणेसु बंधो णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो ।
देवगइ-वेउव्वियदुगाणं वेउन्विय-वे उब्वियमिस्सपच्चया असंजदसम्मादिविम्मि अवणेदव्वा । सेसपयडीणं पञ्चया ओघतुल्ला । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं बंधा सव्वगुणट्ठाणसु देवगइसंजुत्तो। अवसेसाणं पयडीणं बंधो असंजदसम्मादिट्ठिम्हि देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरिमेसु गुणट्ठाणेसु देवगइसंजुत्तो । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं दुगइअसंजदसम्मादिट्टि-संजदासंजदा मणुसगइसंजदा सामी । सेसाणं पयडीणं चउगइअसजदसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी। असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपुवकरणे त्ति बंधद्धाणं । अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । णिमिणस्स तिविहो बंधो, धुवाभावादो। अवसेसाणं बंधो सादि-अद्धवो।
___ आहारदुग-तित्थयराणमोघपरूवणमवहारिय भाणिदव्वं ।
असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है।
स्थिर और शुभका असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सब गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
देवगति और वैक्रियिकद्विकके वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र काययोगप्रत्ययोंको असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कम करना चाहिये। शेष प्रकृतियोंके प्रत्यय ओघके समान हैं। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका बन्ध सब गुणस्थानोंमें देवगतिसे संयुक्त होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है। उपरिम गुणस्थानों में देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके दो गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । शेष प्रकृतियोंके चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण तक बन्धाध्वान है। अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। निर्माण नामकर्मका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उसका ध्रुव बन्ध नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है।
आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाका निर्णय करके करना चाहिये।
१ अ-काप्रयोः ‘पयडीए' इति पाठः। .
. २ प्रतिषु ' लदो' इति पाठः ।
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३, २१८.] णाणमग्गणाए बंधमामित्तं
[ २९५ मणपज्जवणाणीसुपंचणाणावरणीय-चउदसणावरणीय-जसकित्तिउच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २१६ ॥
सुगमं ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा बंधा । सुहुमसांपराइयसंजदद्धाए चरिमसममं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २१७ ॥
____एत्थ एदासिं पयडीणं मदिणाणमग्गणाए पमत्तसंजदप्पहुडिगुणट्ठाणेसु जधा परूवणा कदा तधा परवेदव्वा । णवरि एत्थ सबस्थित्थि-णउसयवेदपच्चया अवणेदव्वा, अप्पसत्थवेदोदइल्लाण मणपज्जवणाणाणुप्पत्तीदो । पमत्तपच्चएसु आहारदुगमवणदेव्वं, मणपज्जवणाणस्स आहारसरीरदुगोदएण सह विरोहादो । पुरिसवेदस्स सोदओ बंधो । एवमण्णो वि विसेसो जदि अत्थि सो संभरिय वत्तव्यो ।
णिहा-पयलाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २१८ ॥
मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २१६ ॥
यह सूत्र सुगम है।
प्रमत्तसंयतसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परयिकशुद्धिसंयतकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २१७॥
यहां इन प्रकृतियोंकी मतिज्ञानमार्गणामें प्रमत्तसंयतादिक गुणस्थानोंमें जैसे प्ररूपणा की गई है वैसे प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां सर्वत्र स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, अप्रशस्त वेदोदय युक्त जीवोंके मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती। प्रमत्तसंयत गुणस्थान सम्बन्धी प्रत्ययोंमें आहारकद्विकको कम करना चाहिये, क्योंक, मनःपर्ययज्ञानका आहारशरीरद्विकके उदयके साथ विरोध है। पुरुषवेदका स्वोदय बन्ध होता है। इसी प्रकार अन्य भी यदि भेद है तो उसको स्मरण कर कहना चाहिये ।
निद्रा और प्रचलाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २१८ ॥
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२९६ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २१९. सुगमं ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुव्वकरणपइट्ठउवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिजदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २१९ ॥
एदं पि सुगम, ओघम्मि वुत्तत्थत्तादो । सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २२० ॥ सुगमं ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्था बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २२१ ॥ __सुगममेदं ।
सेसमोघं जाव तित्थयरे ति । णवरि पमत्तसंजदप्पहुडि त्ति भाणिदव्वं ॥ २२२ ॥
एदं पि सुगमं ।
यह सूत्र सुगम है।
प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं॥२१९॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, ओघमें इसका अर्थ कहा जा चुका है। सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २२० ॥ यह सूत्र सुगम है।
प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ तक बन्धक हैं ।। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २२१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
शेष प्ररूपणा तीर्थकर प्रकृति तक ओघके समान है। विशेष इतना है कि 'प्रमत्तसंयतसे लेकर ' ऐसा कहना चाहिये ॥ २२२ ॥
___ यह सूत्र भी सुगम है।
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३, २२४.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं
[२९७ केवलणाणीसु सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥२२३॥ सुगमं ।
सजोगिकेवली बंधा । सजोगिकेवलिअद्धाएं चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिजदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २२४ ॥
एदस्स बंधो पुवं वोच्छिज्जदि, उदओ पच्छा वोच्छिज्जदि; सजोगि-अजोगिचरिमसमएसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो। सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सच्चवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो कम्मइयकायजोगो त्ति सत्त एदस्स बंधपच्चया। बंधो अगइसंजुत्तो, एत्थ गइबंधेण विरुद्धबंधादो। मणुसा सामी, अण्णत्थ केवलीणमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि गुणट्ठाणे अद्धाणविरोहादो । अजोगिचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो।
केवलज्ञानियोंमें सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २२३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
सयोगकेवली बन्धक हैं। सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २२४ ॥
इसका बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, उदय पश्चात् व्युच्छिन्न होता है; क्योंकि, सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानोंके अन्तिम समयोंमें क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। बन्ध उसका स्वोदय परोदय होता है, क्योंकि, वह अध्रुवोदयी प्रकृति है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। सत्यमनोयोग, असत्य-मृषामनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्य मृषावचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग, ये सात इसके बन्धप्रत्यय हैं। बन्ध गतिबन्ध रहित होता है, क्योंकि, यहां गतिबन्धसे विरुद्ध बन्ध है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में केवलियोंका अभाव है। बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है । अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।।
१ प्रतिषु 'सजोगकेवली बंधाए' इति पाठः। २ प्रतिषु 'अत्थाण' इति पाठः।
...३८.
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २२५.
संजमाणुवादेण संजदेसु मणपज्जवणाणिभंगो ॥ २२५ ॥
जधामणपज्जवणाणमग्गणाए परूवणा कदा तथा एत्थ कायञ्चा । णवरि पञ्चयादिविसेसो जागिय वत्तत्र । एत्थ विसेसदुपायणमुत्तरमुत्तं भणदि
२९८ ]
वरि विसेसो सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ?
॥ २२६ ॥
सुगमं ।
पमतसं जप्यहुडि जाव सजोगिवळी बंधा । सजोगिकेवलि - अदाए चरिमसमयं गंतूग बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २२७ ॥
सुगममेदं ।
सामाइय-छेदोवडावण बुद्धिसंजदेसु पंचगाणावरणीय-सादावेद णीय- लोभसं जल ग- जसकिति उच्चा गोद पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ।। २२८ ॥
संयममार्गणानुसार संयत जीवोंमें मन:पर्ययज्ञानियों के समान प्ररूपणा है ।। २२५॥
जिस प्रकार मन:पर्ययज्ञानमार्गणा में प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार यहां करना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रत्ययादि के भेदको जानकर कहना चाहिये। यहां विशेषता बतलाने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं-
विशेषता इतनी है कि सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥२२६॥ यह सूत्र सुगम है |
प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं । सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २२७ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
सामायिक-छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, सातावेदनीय, संज्वलनलोभ, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ?
॥ २२८ ॥
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३, २२९.] संजममग्गणाए बंधसामित्त
[ २९९ सुगमं ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टिउवसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २२९ ॥
एदासिं पयडीणमेत्थ बंधोदयवोच्छेदाभावादो ' उदयादो किं पुवं पच्छा वा बंधो वोच्छिण्णो ' त्ति विचारो णत्थि । पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोदपंचंतराइयाण सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । सादावेदणीय-लोभसंजलणाणं सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । सादावेदणीय-जसकित्तीणं पमत्तसंजदम्मि सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, तदभावादो । सेसाणं पयडीणं बंधो सव्वत्थ णिरंतरो, अप्पिदसंजदेसु बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । एदासिं सव्वपयडीणं पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुवकरणद्धाए छसतभागो ति बंधो देवगइसंजुत्तो । उवरि अगइसंजुत्तो, तत्थ गईणं बंधाभावादो। मणुसा सामी, अण्णत्थ संजदाभावादो। बंधद्धाणं
यह सूत्र सुगम है।
प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २२९॥
यहां इन प्रकृतियोंके बन्ध और उदयका व्युच्छेद न होनेसे ' उदयसे क्या पूर्वमें या पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है' यह विचार नहीं है। पांच झानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुव उदय है । सातावेदनीय और संज्वलनलोभका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। सातावेदनीय और यशकीर्तिका प्रमत्तसंयत गुणस्थान में सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृति के बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका वन्ध सर्वत्र निरन्तर है, क्योंकि, विवक्षित संयत में इनके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघनत्ययोंसे यहां के.ई भेद नहीं है। इन सब प्रकृतियोंका बन्ध प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरणकालके छह सप्तम भाग तक देवगतिसे संयुक्त होता है। कार अगति संयुक्त वन्ध होना है. क्योंकि, वहां गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में संयनका अभाव है।
१ प्रतिषु पाणुसाउत्र' इति पाठः।
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३००]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २३०. सुगम, सुत्तुद्दिट्टत्तादो। बंधवोच्छेदो णत्थि, उवरि वि बंधुवलंभादो 'अबंधा णत्थि' त्ति सुत्तादो वा । चोदसणं धुवबंधीणं बंधो तिविहो, धुवाभावादो। अवसेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
सेसं मणपज्जवणाणिभंगो ॥ २३०॥
जहा मणपज्जवणाणीसु सेसपयडीणं परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । को वि विसेसो अत्थि', णqसयवेदाहारदुगपच्चयाणं तत्थासंताणमेत्थत्थित्तदंसणादो।
णिद्दा-पयलाणं पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो । उदयवोच्छेदो णस्थि, सुहुमसांपराइय-जहाक्खादसंजदेसु वि तदुदयदसणादो । बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो। णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । देवगइसंजुत्तो, गत्तरस्स बंधाभावादो । मणुसा सामी, अण्णत्य संजमाभावादो। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुवकरणो
बन्धाध्वान सुगम है, क्योंकि, वह सूत्रमें निर्दिष्ट है | बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर भी बन्ध पाया जाता है; अथवा 'अबन्धक नहीं है' इस सूत्रसे भी बन्धव्युच्छेदका अभाव सिद्ध है। चौदह ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध तीन प्रकार होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुववन्धी हैं ।
शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है ॥ २३० ॥
जिस प्रकार मनःपर्ययज्ञानियोंमें शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये। यहां कुछ विशेषता भी है, क्योंकि, नपुंसकवेद और आहारद्विकके प्रत्यय, जो मनःपर्ययज्ञानियों में नहीं थे, यहां देखे जाते हैं।
निद्रा और प्रचलाका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है। उनका उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक और यथाख्यातसंयतोंमें भी उनका उदय देखा जाता है। बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुघोदयी हैं। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं हैं। देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, संयतोंमें अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें संयमका अभाव है । प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरण तक बन्धाध्वान है। अपूर्व
१ अ-आप्रत्योः · को विसेसो अस्थि णत्थि', काप्रतौ ' को वि विसेसो अस्थि णत्थि' इति पाठः । २ प्रतिषु · तथासंताण ' इति पाठः। ३ काप्रतावत्र 'बंधो सोदय-परोदओ ' इत्यधिकः पाठः । ४ प्रतिषु 'गभंतरस्स' इति पाठः ।
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३, २३..] संजममग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३०१ त्ति बंधद्धाणं । अपुव्वकरणद्धाए सत्तमभागचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि । कधमेदं णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो । तिविहो बंधो, धुवाभावादो ।
एवं चेव पुरिसवेदस्स वत्तव्वं । णवरि अद्धाणमणियट्टिअद्धाए संखेज्जा भागा त्ति वत्तव्वं । देवगइ-अगइसंजुत्तो । दुविहो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
कोधसंजलणस्स लोभसंजलणभंगो । णवरि अद्धाणमणियट्टिअद्धाए संखेज्जा भागा त्ति । एवं माण-मायासंजलणाणं पि वत्तव्वं । णवरि कोधबंधवोच्छिण्णुवरिमद्धाए संखेज्जाभागे गंतूण माणबंधद्धाणं समप्पदि। सेसद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण मायबंधद्धाणं सम पदि' त्ति वत्तव्वं ।
हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, अपुव्वकरणद्धाए चरिमसमए तदभावदसणादो। बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । हस्स रदीणं बंधो पमत्तम्मि सांतरो।
करणकालके सप्तम भागके अन्तिम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्रसे अविरुद्ध आचार्योंके वचनसे वह जाना जाता है। उनका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है ।
इसी प्रकार ही पुरुषवेदके भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि बन्धाध्वान अनिवृत्तिकरणकालका संख्यात बहुभाग है, ऐसा कहना चाहिये । देवगतिसंयुक्त और अगतिसंयुक्त बन्ध होता है । दो प्रकारका वन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
__ संज्वलनक्रोधकी प्ररूपणा संज्वलनलोभके समान है । विशेष इतना है कि बन्धाध्वान अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातबहुभाग है । इसी प्रकार संज्वलन मान और मायाके भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि संज्वलनक्रोधके बन्धके व्युच्छिन्न होनेके उपरिम कालका संख्यात बहुभाग विताकर मानबन्धाध्वान समाप्त होता है। शेष कालके संख्यात बहुभाग जाकर मायाबन्धाध्वान समाप्त होता है, ऐसा कहना चाहिये।
हास्य, रति, भय और जुगुप्साका बन्ध व उद्य दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके अन्तिम समयमें उनका अभाव देखा जाता है । बन्ध उनका स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। हास्य और रतिका बन्ध प्रमत्स
२ प्रतिषु समप्पडि ' इति पाठः ।
१ प्रतिषु · विविहो' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः समप्पडि' इति पाठः।
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३०२) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २३०. उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । भय-दुगुंछाणं सव्वत्थ णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहिंतो विसेसाभावादो। देवगइसंजुत्तो अगइसंजुत्तो वि, अपुव्वकरणद्धाए चरिमसत्तमभागे गईए बंधाभावादो । मणुसा सामी । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुव्वकरणो त्ति बंधद्धाणं । अपुवकरणचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि । भय-दुगुंछाणं तिविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अद्धवो, तबिवरीयबंधादो।
देवाउअस्स पुवावरकालेसु बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, उदयाभावादो । परोदओ बंधो, साभावियादो। णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा । देवगइसंजुत्तो। मणुसा चेव सामी। पमत-अप्पमत्तसंजदा बंधद्धाणं । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
संपहि देवगइसहगयाणं सत्तावीसपयडीणं भण्णमाणे पुवावरकालेसु बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा जाणिय कायव्वा । देवगइ-वेउवियदुगाणं बंधो परोदएण, साभावियादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराण सोदय-परोदओ, संजदेसु पडिवक्खपयडीणं पि उदय
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संयत गुणस्थानमें सान्तर होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। भय और जुगुप्साका सर्वत्र निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । प्रत्यय सुगम है, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई विशेषता नहीं है। देवगतिसंयुक्त और अगतिसंयुक्त भी बन्ध होता है, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके अन्तिम सप्तम भागमें गतिके बन्धका अभाव हो जाता है । मनुष्य स्वामी हैं । प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरण तक बन्धाध्वान है । अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । भय और जुगुप्साका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंके, वे उनसे विपरीत (अध्रुव) वन्धवाली हैं ।
देवायुके पूर्वापर कालभावी बन्ध व उदयके व्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां उसका उदयाभाव है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, अन्तर्मुहर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं। देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है । मनुष्य ही स्वामी हैं। प्रमत्त और अप्रमत्त संयत बन्धा हैं। अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
अव देवगतिके साथ रहनेवाली [ परभविक नामकर्मकी ] सत्ताईस प्रकृतियों की प्ररूपणा करते समय पूर्वापर कालोंमें बन्ध व उदयके व्युच्छेदकी परीक्षा जानकर करना चाहिये । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका बन्ध परोदयसे होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, संयतोंमें इनकी
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३, २३०. ]
संजममग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३०३
दंसणा दो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सोदओ, धुवोदयत्तादो । थिर-सुभाणं पमत्तसंजदम्मि वं सांत, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, तदभावादो | अवसेसाणं पयडीणं वो निरंतरो, एत्थ धुवबंधित्तादो | पच्चया सुगमा । सव्वासि पयडीणं बंधो देवगइसंजुत्तो । मला सामीओ | बंधद्वाणं बंधविणड्डाणं च सुगमं । धुवबंधीणं बंधो तिविहो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो ।
असादावेदणीय-अरदि-सोग- अथिर- अमुह-अजसकित्तीणमेगाणियाणं सांतरबंधीणमोचपच्चयाणं देवगइ संजुत्ताणं मणुससामियाणं बंधद्धाणविरहियाणं पमत्तसंजदम्मि वोच्छिण्णबंधाणं बंघेण सादि-अद्भुवाणं बंधो सोदओ परोदओ सोदर्य- परोदओ वेत्ति जाणिय परूवेदव्वो । आहारदुग तित्राणं पि जाणिय वत्तव्वं ।
परिहार सुद्धिसंजदेसु पंत्रणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सादावेदणीय-चदु संजुल - पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय- दुगुंछा-देवगइ-पंचिंदिय
प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी उदय देखा जाता है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं। स्थिर और शुभका बन्ध प्रमत्तसंयत गुणस्थान में सान्तर होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका वन्ध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, यहां वे ध्रुवबन्धी हैं । प्रत्यय सुगम हैं । सब प्रकृतियोंका बन्ध देवगतिसंयुक्त होता है । इनके बन्धके स्वामी मनुष्य हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध तीन प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है ।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति, इन एकस्थानिक, सान्तर बन्धवाली, ओघ प्रत्ययोंसे युक्त, देवगतिसंयुक्त, मनुष्यस्वामिक, बन्धाध्वान से रहित, प्रमत्तसंयत गुणस्थानभावी बन्धव्युच्छेद से सहित, तथा बन्धकी अपेक्षा सादि व अध्रुव प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय, परोदय अथवा स्वोदय-परोदय है; इसकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । आहारद्विक और तीर्थकर प्रकृति की भी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये ।
परिहारशुद्धिसंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस
१ अ आप्रत्योः ' सोदयो', काप्रती ' सोदओ ' इति पाठः ।
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३०४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २३१.
जादि वे उव्त्रिय-तेजा- कम्मइयसरीर - समचउरससंठाण - वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस- फास - देवाणुपुव्वि-अगुरुवल हुअ उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तिणिमिण- तित्थयरुच्चा गोद - पंचतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २३१ ॥
सुगमं ।
पमत्त अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २३२ ॥
उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिज्जदि त्ति एत्थ विचारे। णत्थि एदासिं बंधवोच्छेदाभावादो उदइल्लाणमुदयवच्छेदाभावादो च । देवगइ देवगइपाओग्गाणुपुव्विवेउब्वियदुग-तित्थयराणं परोदओ बंधो, एदासिं बंधोदयाणमक्कमवुत्तिविरोहादो | णिद्दापयला-सादावेदणीय-चदुसंजलण - हस्स - रदि-भय- दुगुंछा - समचउरससंठाण - पसत्थविहाय गइसुस्सराणं सोदय - परोइओ बंधो, एदासिं पडिवक्खपयडणं पि उदयदंसणादो | अवसेसाणं पडणं सोदओ बंधो, एत्थ एदासिं पयडीणं धुवोदयत्तुवलंभादो ।
व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपचात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आंदेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
प्रमत्त और अप्रमत्त संयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २३२ ॥
उदयसे बन्ध पूर्व में या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं है, क्योंकि, इनके बन्धव्युच्छेदका अभाव है, तथा उदय युक्त प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका भी अभाव है । देवगति, देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकद्विक और तीर्थकर, इनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके एक साथ अस्तित्वका विरोध है । निद्रा, प्रचला, सातावेदनीय, चार संज्वलन, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वादय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी उदय देखा जाता है । शेष प्रकृतियोंका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इन प्रकृतियोंका ध्रुव उदय पाया जाता है ।
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३, २३१.] संजममग्गणार बंथसामि
[३०५ - सादावेदणीय-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसकित्तीणं पमत्तसंजदाम्म बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहिंतो विसेसाभावादो । णवरि इत्थिणवंसयवेदपच्चया णत्थि, अप्पसत्थवेदोदइल्लाणं परिहारसुद्धिसंजमाभावादो । आहारदुगपञ्चया वि णत्थि, परिहारसुद्धिसंजमेण आहारदुगोदयविरोहादो तित्थयरपादमूले ट्ठियाणं गयसंदेहाणं आणाकणिट्ठदासजमबहुलतादिआहारुट्ठवणकारणविरहिदाणमाहारसरीरोवादाणासंभवादो वा।
देवगइसंजुत्तो बंधो, एत्थण्णगइबंधाभावादो । मणुसा सामी, अण्णत्थ संजमाभावादो। बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति सुत्तणिद्देसादो । धुवबंधीणं बंधो तिविहो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो, अद्धवबंधित्तादो।
__ असादावेदणीय-अरदि-सोग-अथिर-असुह-अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २३३ ॥
सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशकीर्तिका प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तके विना उनके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं है। विशेष इतना है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्यय नहीं है, क्योंकि, अप्रशस्तवेदोदय युक्त जीवोंके परिहारशुद्धिसंयमका अभाव है। आहारकद्विक प्रत्यय भी नहीं है, क्योंकि, परिहारशुद्धिसंयमके साथ आहारकद्विककी उत्पत्तिका विरोध है; अथवा तीर्थकरके पादमूलमें स्थित, सन्देह रहित, तथा आज्ञाकनिष्ठता अर्थात् आप्तवचनमें सन्देहजनित शिथिलता और असंयमबहुलतादि रूप आहारशरीरकी उत्पत्तिके कारणोंसे रहित परिहारशुद्धिसंयतोंके आहारकशरीरकी उत्पत्ति असंभव है।
देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, यहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में संयमका अभाव है। वन्धाध्वान सुगम है। बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि अबन्धक नहीं है' ऐसा सूत्र में कहा गया है। इनमें ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध तीन प्रकारका होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३३ ॥
.. आ काप्रत्योः · मूलट्ठियाणं' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'बहुलावादि', 'का-मप्रयोः बहुलालादि' इति पाठः ।
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३०६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २३४. सुगमं । पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा,अवसेसा अबंधा ॥ २३४ ॥
असादावेदणीय-अरदि-सोगाणमेत्थ बंधवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदो णत्थि; उवरि तदुदयवोच्छेदुवलंभादो । अथिर-असुभाणं पि एवं चेव वत्तव्वं, पमत्त सजोगीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो। अजसकित्तीए पुबमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो । अथिर-असुहाणं सोदओ, अजसकित्तीए परोदओ, सेसाणं बंधो सोदय-परोदओ। सांतरो बंधो, एदासिमेगसमरण वि बंधुवरमदंसणादो । इत्थि-णqसयवेदाहारदुगविरहिदोघपच्चया एत्थ वत्तव्वा । देवगइ [-संजुत्तो] बंधे।। मणुसा सामी। बंधद्धाणं णस्थि, एगगुणट्ठाणम्हि तदसंभवादो । पमत्तसंजदचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो।
देवाउअस्स को बंधो को अबंधो ?।। २३५॥
यह सूत्र सुगम है। प्रमत्तसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २३४ ॥
असातावेदनीय, अरति और शोकका यहां वन्धव्युच्छेद ही है उदयव्युच्छेद नहीं है; क्योंकि, ऊपर उनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है। अस्थिर और अशुभके भी इसी प्रकार कहना चाहिये, क्योंकि, प्रमत्त और सयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । अयशकीर्तिका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । अस्थिर और अशुभका स्वोदय, अयशकीर्तिका परोदय, तथा शेष प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय परोदय होता है । सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंका एक समयसे भी बन्धविश्राम देखा जाता है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और आहारकद्विकसे रहित यहां ओघप्रत्यय कहना चाहिये। देवमतिसंयुक्त बन्ध होता है । मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें उसकी सम्भावना नहीं है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्ध ब्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं।
देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३५ ॥
१ प्रतिषु · गुणट्ठाणाणम्हि ' इति पाठः ।
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३, २३८. ]
संजममग्गणाए बंधसामित्तं
सुगमं ।
पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा बंधा। अप्पमत्तसंजदद्वार संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २३६ ॥
॥ २३७ ॥
उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, संजदेसु देवा अस्स उदयाभावादो। परोदओ बंधो, बंधोदयाणमक्कमवुत्तिविरोहादो । णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावाद । पच्चया सुगमा, ओघपच्चए हिंतो विसेसाभावाद । णवरि आहारदुगित्थिणवुंसयवेदपच्चया णत्थि । देवगइसंजुत्तो, मणुसा सामीओ, अवगयबंधद्धाणो, अप्पमत्तद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण वोच्छिण्णबंधो । सादि-अद्भुवो ।
आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ?
[ ३०७
सुगमं ।
अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २३८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं । अप्रमत्तसंयतकालका संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २३६ ॥
उदयसे बन्ध पूर्व में या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं है, क्योंकि, संयत जीवोंमें देवायुके उदयका अभाव है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उसके बन्ध और उदयके एक साथ रहने का विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई विशेषता नहीं है । विशेष इतना है कि आहारकद्विक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्यय नहीं हैं। देवगति संयुक्त बन्ध होता है । मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान सूत्र से जाना जाता है । अप्रमत्तकाल के संख्यात वहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २३८ ॥
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३०८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २३९. ___ एदासिं देवाउअभंगो। णवरि बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि गुणट्ठाणे अद्धाणासभवादो । पंधवोच्छेदो णत्थि, उवरि पि बंधुवलंभादो ।
सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीयसादावेदणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २३९ ॥
सुगमं ।
'सुहुमसांपराइयउवसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णस्थि ॥ २४०॥
एदासिं बंधोदयवोच्छेदाभावादो उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णा त्ति ण परिक्खा कीरदे । सादावेदणीयस्स बंधो सोदय-परोदओ, अणुदए वि बंधविरोहाभावादो। णिरंतरा सव्वपयडीणं बंधो, एत्थ गुणट्ठाणेसु बंधुवरमाभावादो। ण एगसमयमच्छिय मुदसुहुमसांपराइएहि वियहिचारो, सुहुमसांपराइयगुणट्टाणम्मि त्ति विसेसणादो । ओरालिय
इन दोनों प्रकृतियोंकी प्ररूपणा देवायुके समान है। विशेष इतना है कि बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानकी सम्भावना नहीं है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर भी बन्ध पाया जाता है।
__ सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३९ ॥.
यह सूत्र सुगम है।
सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक और क्षपक बन्धक हैं । ये वन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २४०॥
इन प्रकृतियोंके बन्ध व उदयके व्युच्छेदका अभाव होनेसे उदयसे बन्ध पूर्वम न्युच्छिन्न होता है या पश्चात्, यह परीक्षा यहां नहीं की जाती है । सातावेदनीयका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, उदयके न होनेपर भी उसके बन्धमें कोई विरोध नहीं है। इन सब प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इस गुणस्थानमें बन्धविश्रामका अभाव है। ऐसा माननेपर एक समय रहकर मृत्युको प्राप्त हुए सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंसे व्यभिचार होगा, यह भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, 'सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें' ऐसा विशेषण दिया गया है । औदारिक काययोग, लोभ कपाय, चार मनोयोग और चार
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३, २४२. ]
संजममग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३०९
कायजोग-लोभकसाय- चदुमण - वचिजोगा त्ति दस पच्चया । अगइसंजुत्तो बंधो, एत्थं चउगइबंधाभावाद । मणुसा सामो, अण्णत्थ सुहुमसांपराइयाणमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, सुहुमसांपराय पहुडित्ति सुत्ते अणुवदिट्ठत्तादो । बंधवेोच्छेदो गत्थि, 'अबंधा णत्थि ' त्ति वयणादो । पंचणाणावरणीय - चउदंसणावरणीय पंचंतराइयाणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अद्भुवो ।
जहाक्खादविहार सुद्धिसंजदेसु सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंध ? || २४१ ॥ सुमं ।
उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था खीणकसायवीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली बंधा । सजोगिकेवलिअद्धाए चरिमसममं गंतूण [ बंधो ] वोच्छिजदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २४२ ॥ सुगममेदं, केवलणाणमग्गणापरूवणाए समाणत्तादो |
वचनयोग, ये दश प्रत्यय हैं। गतिसंयोग से रहित बन्ध होता है, क्योंकि, यहां चारों गतियों के बन्धका अभाव है | मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंका अभाव है । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, 'सूक्ष्मसाम्परायिक आदि ' ऐसा सूत्रमें निर्देश नहीं किया गया है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबंधक नहीं है ' ऐसा सूत्रका वचन है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इनका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतों में सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ?
॥ २४१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ और सयोगकेवली बन्धक हैं | सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर [ बन्ध ] व्युच्छिन्न होता है । बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २४२ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, केवलज्ञानमार्गणाकी प्ररूपणा से इसकी समानता है ।
१ प्रतिषु ' अजोगिनेत्रलि ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
संजदासंजदेसु पंचणाणावरणीय - छदंसणावरणीय-सादासादअट्ठकसाय पुरिसवेद-हस्स-रदि-सोग-भय-दुगुंछ- देवाउ-देवगइ-पंचिंदियजादि वे उब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर - समचउरससंठाण - वे उव्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध रस- फास- देवगड़पाओग्गाणुपुत्री- अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादउस्सास-पसत्यविहाय गइ-तस बादर - पज्जत्त - पत्ते यसरीरथिराथिर - सुहासुह-सुभग-सुस्सर - आदेज्ज - जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण- तित्थयरुच्चा गोद - पंचतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २४३ ॥
३१० ]
सुगमं ।
संजदासंजदा बंधा । एदे बंधा अबंधा णत्थि ॥ २४४ ॥
"
[ ३, २४३.
उदयादो पुव्वं पच्छा वा बंधो वोच्छिण्णो त्ति एत्थ विचारे णत्थि, बंधवोच्छेदाभावादो । पंचणाणावरणीय- चउदंसणावरणीय- पंचिंदियजादि तेजा - कम्मइयसरीर- वण्णचउक्कअगुरुअलहुअचउक्क-थिराथिर - सुहासुह- सुभगादेज्ज-जसकित्तिणिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ
यह सूत्र सुगम है ।
संयतासंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २४४ ॥
संयतासंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २४३ ॥
A
इन प्रकृतियोंका बन्ध उदयसे पूर्व में या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं है, क्योंकि, उनके बन्धव्युच्छेदका अभाव है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु आदिक चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय
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३, २४४.]
संजममग्गणाए बंधसामित्तं बंधो, एत्थ धुवोदयत्तुवलंभादो । देवाउ-देवगइ-वे उब्वियसरीर-अंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीअजसकित्ति-तित्थयराणं परोदओ बंधो, बंधोदयाणमण्णोण्णविरोहादो । णिद्दा-पयला-सादासादअट्ठकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइसुस्सरुच्चागोदाणं बंधा सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधविरोहामावादो ।
__पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-अलसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछा-देवाउ-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग वण्णचउक्कदेवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुवचउक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-सुभग-सुस्सरादेज्जणिमिण-तित्थयरुच्चागोद-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। सादासादहस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीण बंधो सांतरो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा, ओघाणुबइपच्चएहितो भेदाभावादो। सव्वासिं पयडीण देवगइ. संजुत्ता बंधो, अण्णगईणं बंधाभावादो । दुगइदेसव्वइणों सामी, अण्णत्थ तेसिमभावादो। बंधद्धाणं णत्थि, एक्कगुणट्ठाणे तदसंभवादो । अधवा अत्थि, पज्जवट्ठियणयावलंबणादो ।
बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुव उदय पाया जाता है । देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर व वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अयशकीर्ति और तीर्थकरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्ध और उदयका परस्परमें विरोध है। निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुस्वर और उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है।
__ पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्णादिक चार, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, सादिक चार, सुभग सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका बन्ध सान्तर होता है. क्योंकि. एक समयसे उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, सामान्य अणुव्रतीके प्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं है । सब प्रकृतियोंका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके बन्धका वहां अभाव है। दो गतियोंके देशवती स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें उनका अभाव है। बन्धाध्यान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें उसकी सम्भावना नहीं है। अथवा पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करके बन्धाध्वान है।
१ प्रतिषु · देसबगइणो' इति पाठः ।
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३१२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २४५. बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति वयणादो । धुवबंधीण तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
असंजदेसु पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय दुगुंछा-मणुसगइ-देवगइपंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउब्बिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउब्बियअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रसफास-मणुसगइ-देवगइपाओगाणुपुब्बी-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघादउस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-वादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोदपंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २४५॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा, अबंधा णस्थि ॥ २४६ ॥
बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं ' ऐसा सूत्रमें कहा गया है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी है।
असंयतोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगति व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, पत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २४५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २४६॥
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३, २४६.] संजममग्गणाए बंधसामित्तं
[३१३ ____एत्थोदइल्लाणं बंधोदयवोच्छेदाभावादो उदयादो बंधो किं पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्कअगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । देवगइवेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं परोदओ बंधो, बंधोदयाणं परोप्परविरोहादो । णिद्दा-पयला-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछासमचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं बंधो सोदय-परोदओ उहयहा वि वंधुवलंभादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधुवलंभादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ, सोदएण सगबंधस्स तत्थ विरोहदंसणादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छादिट्ठीसु सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, विगलिंदिय-थावर-सुहुमापज्जत्तएसु सासणादीणमभावादो । उवघादपरघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्टि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय
यहां उदय युक्त प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव होनेसे उदयकी अपेक्षा बन्ध क्या पूर्वमें और या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्ध और उदयके परस्पर विरोध है । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वहां दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध पाया जाता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में परोद्य बन्ध होता है, क्योंकि, अपने उदयके साथ अपने बन्धका वहां विरोध देखा जाता है। पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर और पर्याप्तका बन्ध मिथ्यादृष्टियोंमें स्वोदय-परोदय होता है। ऊपर इनका स्वोदय ही बन्धहोता है, क्योंकि, विकलेन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्तकोंमें सासादनादिक गुणस्थानोंका अभाव है । उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय ..बं.४०.
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३१४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २४६. परोदओ । सम्मामिच्छाइट्ठिम्हि सोदओ चेव, अपज्जत्तद्धाए तस्साभावादो।
पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सादासादहस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीण बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-वेउव्वियसरीर वेउवियसरीरअंगोवंग-समचउरससंठाणाणं बंधो मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो? ण, असंखेजवासाउ अतिरिक्ख-मणुसमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सुहतिलेस्सियसंखेज्जवासाउएसु च जिरंतरमधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पुरिसवेदस्स मिच्छादिदि सासण सम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो। कथं णिरंतरो ? पम्म-सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु पुरि सरदस्सेव बंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। मणुसगइ-मणुस
बन्ध होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उनका स्वोदय ही वन्ध होता है, क्योंकि, अपयांचएकालमें उस गुणस्थानका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और समचतुरस्रसंस्थानका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें तथा शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्कोंमें भी उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच एवं मनुष्यों में पुरुषवेदका ही बन्ध पाया जाता है।
ऊपर उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका
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३, २४६.) संजममग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३१५ गइपाओग्गाणुपुवीणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतर-णिरंतरो । क, णिरंतरो ? ण, आणदादिदेवेसुणिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठीसु सासणसम्मादिट्ठीसु च सांतर-णिरंतरो बंधो । कवं णिरंतरो ? ण, देव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। वज्जरिसहसंघडणस्स मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। पसत्थविहायगइ सुभग-सुस्सरादेज्जुच्चागोदाणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरणिरंतरो, असंखेज्जवासाउएसु णिरतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबधादो । पंचिंदियजादि-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो,
अभाव है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्याहाष्ट और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि आनतादिक देवोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां वह प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धले रहित है।
औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टियों और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका-इनका निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि देव और नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। प्रास्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादजर र. ग्दृष्टियों में सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्कोंमें उनका निरन्तर वध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियों के से रहित है। पंचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरी का बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, देव व नारकियों में इनका
१ प्रतिषु · देवीसु' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २४६. देव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो ।
पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीयअसादावेदणीय-बारसकसाय-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुहअजसकित्ति-णिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइटिम्हि चउगइसंजुत्तो । सासणे णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । सादावेदणीयपुरिसवेद-हस्स-रदि-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर- आदेज्ज-जसकित्तीणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणमभावादो । ओरालियसरीर
ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तो। सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मणुसगइसंजुत्तो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं देवगइसंजुत्तो ।
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निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है।
प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई विशेषता नहीं है। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असाता वेदनीय, वारह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचे. न्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, अयशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरणयका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादन गुणस्थानमें नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ नरकगगतिके वन्धका अभाव है। सम्याग्मिथ्यावृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और तिर्यग्गतिका अभाव है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और घज्रर्षभसंहननका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यदृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उनका बन्ध मनुष्यगतिले संयुक्त होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध
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३, २४९.) संजममग्गणाए घंधसामित्तं
[३१७ वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, तिरिक्ख-मणुसगईणमभावादो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देवगइसंजुत्तो । उच्चागोदस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो, अण्णत्थ तस्सुदयाभावादो।
चउगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठी सामी । वंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति वयणादा। धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठीसु चउबिहो बंधो। सासणादीसु तिविहो, धुवबंधाभावादो । अबसेसाणं सादि-अद्धवो, अद्भुवबंधित्तादो ।
बेट्टाणी ओघं ॥ २४७॥ बेट्ठाणपयडीणं जधा मूलोघम्मि परूवणा कदा तथा कायव्वा, विसेसाभाषादो । एक्कट्ठाणी ओघं ॥ २४८ ॥ सुगममेदं । मणुस्साउ-देवाउआणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २४९ ॥
देवगतिसे संयुक्त होता है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका बन्ध मिथ्यादृष्टियोंमें दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, उनके साथ तिर्यग्गति और मनुष्यगतिके बन्धका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देवगतिसे संयुक्त उनका बन्ध होता है । उच्चगोत्रका बन्ध देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है, क्योंकि, अन्य गतियों में उसके उदयका अभाव है।
चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं' ऐसा सूत्रमें कहा गया है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टियों में चारों प्रकारका होता है । सासादनादिकोंमें तीन प्रकारका वन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २४७ ॥
द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा जैसे मूलोधमें की गई है उसी प्रकार करना चाहिये, क्योंकि, मूलोघसे यहां कोई विशेषता नहीं है।
एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २४८ ॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्यायु और देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २४९ ॥
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३१८) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५०. मुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २५० ॥
सुगमं । तित्थयरणामस्स को बंधो को अबंधों? ॥ २५१ ॥ सुगमं । असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥२५२॥ सुगमं ।
दसणाणुवादेण चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणीणमोघं णेदव्वं जाव तित्थयरे त्ति ॥ २५३ ॥
तिणं जाईणमादाव-थावर-सुहुम-साहारणाणे चक्खुदंसणीसु परोदयत्तुवलंभादो ओघ
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २५०॥
यह सूत्र सुगम है। तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २५१ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अवन्धक हैं ॥ २५२ ॥ यह सूत्र सुगम है।
दर्शनमार्गणानुसार चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा तीर्थकर प्रकृति तक ओघके समान जानना चाहिये ॥ २५३॥
शंका-तीन जातियां, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंका चक्षुदर्शनियों में चूंकि परोदय बन्ध पाया जाता है, अत एव 'उनकी प्ररूपणा ओघके समान
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३, २५७. ]
दंसणमग्गणाए बंधमा मित्तं
[ ३१९
मिदि ण घडदे ? ण, दव्वट्ठियणयमवलंबिय दिदेसामासियसुत्तेसु विरोहाभावादो । पयडिबंधद्धाणगयभेदपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि-
णवरि विसेसो, सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ?
॥ २५४ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्टि पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्था बंधा । एदे बंधा अबंधा णत्थि ।। २५५ ॥
सुगममेदं ।
ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगो ॥ २५६ ॥
सुगमं ।
केवलदंसणी केवलणाणिभंगो ॥ २५७ ॥
सुगमं ।
है' यह घटित नहीं होता ?
समाधान —- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन कर स्थित देशामर्शक सूत्रोंमें विरोधका अभाव है ।
प्रकृतिवन्धाध्वानगत भेदके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
इतनी विशेषता है कि सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥२५४॥ यह सूत्र सुगम है ।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २५५ ॥
यह सूत्र सुगम है |
अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २५६ ॥
यह सूत्र सुगम है |
केवलदर्शनियोंकी प्ररूपणा केवलज्ञानियोंके समान है || २५७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
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३२० ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २५८. लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सियाणमसंजदभंगो ॥ २५८ ॥
किण्हलेस्साए ताव उच्चदे - पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-मणुसगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालियवेउब्विय तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउब्वियसरीरंगोवंग-वजरिसहसंघडणवण्णचउक्क-मणुसगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअचउक्क-पसत्थविहायगइ. तसचउक्कथिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचतराइयाणि किण्हलेस्सियचउगुणट्ठाणजीवेहि बज्झमाणाणि । तत्थुदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति परिक्खाएं' असंजदभंगो।
पंचणाणावरणीय-च उदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वणचउक्क-अगुरुवलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं बंधो सोदओ, धुवोदयत्तादो । देवगइदुग-वेउब्वियदुगाणं परोदओ, बंधोदयाणं समाणकाल उत्तिविरोहादो । णिदा-पयला-सादासाद-बारसकसाय-पुस्सिवेद
लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा असंयतोंके समान है ॥ २५८ ॥
पहले कृष्णलेश्याके आश्रित प्ररूपणा करते हैं- पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक और वैक्रियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्णादिक चार, मनुष्यगति और देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, त्रसादिक चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, ये प्रकृतियां कृष्णलेश्यावाले चार गुणस्थानवी जीवों द्वारा बध्यमान हैं। उनमें 'उदयसे बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या पश्चात् ' इस प्रकारकी परीक्षा यहां असंयत जीवोंके समान है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका बन्ध स्वोदय होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्ध और उदयके समान कालमें रहनेका विरोध है। निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय,
१ अप्रतौ परिक्खाणं ' इति पाठः।
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३, २५८.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[३२१ हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ, सोदयबंधाणमेदेसु गुणट्ठाणेसु अक्कमउत्तिविरोहादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्ठीसु सोदय-परोदओ, एत्थ पडिवक्खपयडीणं पि उदयसंभवादो । उवरि सोदओ चेव, विगलिंदिय-थावर-सुहुमअपज्जत्तएसु सासणादीणमभावादो । उवघाद-परघादुस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ। असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ, छट्टपुढवीपच्छायदाणमाज्जत्तकाले असंजदसम्मादिट्ठीणं परोदएण बंधसंभवादो । सम्मामिच्छाइट्ठीसु सोदओ, एदेसिमपज्जत्तदाभावादो।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । सादासाद
जुगुप्ता, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है. क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वहां दोनों प्रकारसे भी बन्ध पाया जाता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यर गुणस्थानों में उनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में उन प्रकृतियों के अपने बन्ध और उदयके एक साथ रहने का विरोध है । पंचेन्द्रिय जाति, स, बादर और पर्याप्तका मिथ्यादृष्टियोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी उदय सम्भव है। ऊपर स्वोदय ही वन्ध होता है, क्योंकि, विकलेन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्तकोंमें सासादनादिक गुणस्थानोंका अभाव है। उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, छठी पृथिवीसे
पीछे आये हुए असंयतसम्यग्दृष्टियोंके परोदयसे बन्ध सम्भव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें • स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्तताका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघ, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वे ध्रुववन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति,
.........................................
१ प्रतिषु ' थावरे' इति पाठः । छ..४१.
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३२२]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५८. हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो, अद्धवबंधित्तादो । पुरिसवेद-देवगइदुग-वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडणपसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? ण, आरणच्चुददेवाणं मणुस्सेसुववण्णाणं सुक्कलेस्साविणासेण किण्हलेसाए परिणदाणमंतोमुहुत्तकालं णिरंतरबंधुवलंभादो । सुक्कलेस्साए हिदो पम्मतेउ-काउ-णीललेस्साओ वोलिय कधमक्कमेण किण्हलेस्सापरिणदो होज ? ण, सुक्कलेस्सादो कमेणं काउ-णीललेस्सासु परिणमिय पच्छा किण्णलेस्सापजाएण परिणमणब्भुवगमादो ण च मणुसगइबंधगद्धा काउ-णीललेस्साकालादो थोवा, ततो तस्स बहुत्तुवलंभादो । अधवा मज्झिमसुक्कलेस्सिओ देवो जहा छिण्णाउओ होदण जहण्णसुक्काइणा अपरिणमिय असुहतिलेस्साए' णिवददि
शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। पुरुषवेद, देवगतिद्विक, वैक्रियिकशरीर,वैक्रियिकशरीरांगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर वन्ध कैसे होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मनुष्योंमें उत्पन्न हुए आरण-अच्युत देवोंके शुक्ललेश्याके विनाशसे कृष्णलेश्यामें परिणत होनेपर अन्तर्मुहूर्त काल तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
शंका-शुक्ललेश्यामें स्थित जीव पद्म, तेज, कापोत और नील लेश्याओंको लांघकर कैसे एक साथ कृष्णलेश्यामें परिणत हो सकता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, शुक्ललेश्यासे क्रमशः कापोत और नील लेश्याओंमें परिणमन करके पीछे कृष्णलेश्या पर्यायसे परिणमन स्वीकार किया गया है । और मनुष्यगतिबन्धककाल कापोत और नील लेश्याके कालसे थोड़ा नहीं है, क्योंकि, वह उससे बहुत पाया जाता है । अथवा, मध्यम शुक्ललेश्यावाला देव जिस प्रकार आयुके क्षीण होनेपर जघन्य शुक्ललेश्यादिकसे परिणमन न करके अशुभ तीन लेश्याओंमें गिरता
, अ-काप्रयोः ' -मंतोमुहुत्तं कालं' इति पाठः। २ अप्रतौ ' सुक्कलेस्साणं ' इति पाठः। ३ अप्रतौ अपरिणमिह असुहतिलेस्साण' इति पाठः।
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३, २५८.] लेस्सामग्गणार बंधसामित्त
[ ३२३ तहा सव्वे देवा मुदयक्खणेण' चेव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदंति ति गहिदे जुज्जदे । अण्णे पुण आइरिया किण्णलेस्साए मजुसगइदुगस्स णिरंतरं बंधं णेच्छंति, मणुसगदिबंधगद्धाए काउलेस्साबंधगद्धाबहुत्तब्भुवगमादो । तं पि कुदो ? मुददेवाणं सव्वेसि पि काउलेस्साए चेव परिणामब्भुवगमादो। उवरि णिरंतरो । ओरालियसरीर-अंगोवंगाणं मिच्छाइट्टिसासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कुदो ? णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पंचिंदियजादि-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो, णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो।
पच्चयाणमोघमंगो। णवरि असंजदसम्माइट्ठिपच्चएसु वेउब्वियमिस्सपच्चओ अवणेदव्वो। ओरालियदुग-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं सम्मामिच्छाइडिम्हि ओरालियकायजोगित्थि
...........
है, उसी प्रकार सब देव मरणक्षणमें ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओंमें गिरते हैं, ऐसा ग्रहण करनेपर उपर्युक्त कथन संगत होता है।
अन्य आचार्य कृष्णलेश्यामें मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध नहीं मानते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति बन्धककालसे कापोतलेश्याका बन्धककाल बहुत स्वीकार किया गया है।
शंका-वह भी कैसे?
समाधान ---क्योंकि, सब ही मृत देवोंका कापोतलेश्याम ही परिणमन खीकार किया गया है।
ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है। औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । पंचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है. क वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
प्रत्ययोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रत्ययों में वैफियिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये। औदारिकद्विक, मनुव्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके सभ्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें औदारिक
क्योंकि,
१ अप्रतौ · देवा मुदयक्खणोण ', आ-काप्रत्योः : देवाणमुदयक्खणोण ' इति पाठः। २ प्रतिषु । सम्मामिच्छाइट्ठीहि ' इति पाठः।
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३२४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २५८.
पुरिसवेदपच्चएहि विणा चालीसपच्चया । देवगड - देवगइपाओग्गाणुपुव्वी वे उव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरंगोवंगाणं वेउब्विय- वे उव्वियमिस्सपच्चया सव्वगुणट्ठाणपच्चएस सव्वत्थ अवणेदव्वा । ओरालियदुग-मणुसगइ-मणुसग पाओग्गाणुपुव्वीणं असंजदसम्मादिट्ठिम्हि चालीस पच्चया, वे उब्वियमिस्स ओरालिय-ओरालियमिस्स-कम्मइय- इत्थि - पुरिसवेदपच्चयाणमभावाद | वजीरसहसंघडणस्स सम्मामिच्छाइट्ठिम्हि चालीस पच्चया, ओरालियकायजोगित्थि-पुरिसवेदपच्चयाणमभावादो | असंजदसम्माइट्ठिम्हि चालीस पच्चया, ओरालिय-ओरालियमिस्स - वे उब्विय मिस्सकम्मइयकायजोगित्थि-पुरिसवेदपच्चयाणमभावादो ।
पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय असादावेदणीय- वारस कसाय- अरदि-सोग-भय-दुगुंछापंचिंदियजादि - तेजा -कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास- अगुरुवलहुअ- उवघाद-परघाद- उस्सासतस - बादर-पज्जत- पत्तेयसरीर अथिर- असुह-अजस कित्तिणिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउगइसंजुत्तो बंधो। सासणे तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । असंजदसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणमभावादो । सादावेदणीय - पुरिसवेद-हस्स-रदिसमचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जस कित्तीणं मिच्छाइट्ठि-सासण
errयोग, स्त्रीवेद और पुरुषवेद प्रत्ययोंके विना चालीस प्रत्यय हैं । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगके वैक्रियिक और वैक्रियेकमिश्न प्रत्ययोंको सब गुणस्थ नोके प्रत्ययोंमें सर्वत्र कम करना चाहिये । औदारिकहिक, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, वहां वैक्रियिकमिश्र, औदारिक, औदारिकःमिश्र, कार्मण काययोग, स्त्रीवेद और पुरुषवेद प्रत्ययका वहां अभाव है। वज्रर्षभसंहनन के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि औदारिककाययोग, स्त्रोवेद और पुरुषवेद प्रत्ययका वहां अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उसके चालीस प्रत्यय हैं. क्योंकि, औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण काययोग स्त्रीवेद और पुरुषवेद प्रत्ययका वहां अभाव है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आसाता वेदनीय, बारह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छूवास, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, अयशकार्ति, निर्माण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है । सासादन गुणस्थान में तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगतिका अभाव है। असंयतनम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयुक्तबन्ध होता है क्योंकि, वहां नरकगति और तिर्यग्गनिका अभाव है । साना वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, समच उरलसंस्थान, प्रशस्त विहाय, गति, स्थिर, शुभ, सुभग,
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१, २५८.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३२५ सम्मादिट्ठीसु तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणमभावादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं सव्वगुणट्ठाणेसुबंधो मणुसगइसंजुत्तो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो। सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्माइट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो, अण्णगइबंधाभावादो। देवगइदुगस्स देवगइसंजुत्तो। वेउवियदुगस्स मिच्छाइट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, तिरिक्ख-मणुसगईणमभावादो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देवगइसंजुत्तो, अण्णगइबंधेण संजोगविरोहादो । उच्चागोदस्स सव्वगुणहाणेसु देवगइ-मणुसगइसंजुत्तो बंधो।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुवलहुवचउक्क-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभगसुस्सर-आदेज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-पंचतराइय-उच्चागोदाण चउगइमिच्छाइट्ठि-सासण
सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगतिका अभाव है । सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और तिर्यग्गतिका अभाव है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायाग्यानुपूर्वीका सब गुणस्थानों में मनुष्यगतिले संयुक्त बन्ध होता है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग
और वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त वन्ध होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है । देवगतिद्विकका देवगतिसे संयुक्त वन्ध होता है । वैक्रियिकद्विकका मिथ्यादृष्टियों में दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यग्गति और मनुष्यगतिके बन्धका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोम देवगतिसे संयक्त बन्ध होता है. क्योंकि. अन्य गतियोंके बन्धके साथ उसके संयोगका विरोध है। उच्चगोत्रका सब गुणस्थानों में देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, पंचेन्द्रिय जाति, तैजल व कार्मण शरीर, समवतुरस्रसंस्थान, वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तावहायोगति, प्रल, बादर. पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, पांच अन्तराय और उच्चगोत्रके चारों गतियों के
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३२६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५८. सम्मादिविणो, तिगइसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी, देवगईए अभावादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो णिरयगइसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो च सामी । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं दुगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो च सामी, णिरय-देवगईणमभावादो ।
वंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णस्थि, ' अबंधा णत्थि' ति वयणादो। धुवबंधीणं मिच्छादिट्ठिम्हि बंधो चउब्धिहो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । अवबंधीणं सव्वत्थ सादिअद्भुवो, अणादि-धुवाणमभावादो ।
संपहि दुट्ठाणपयडीणं परूवणा कीरदे- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, सासणसम्मादिट्टिम्हि तदुभयवोच्छेदुवलंभादो । एवं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए वि वत्तव्वं । असंजदसम्मादिट्ठिम्हि वि तदुदओ अत्थि त्ति चे ण, किण्णलेस्साए णिरुद्धाए
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि, तथा तीन गतियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, यहां देवगतिमें इनके बन्धका अभाव है। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननके चारों गतियोंके पिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि और नरकगतिक सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके दो गतियोंके मिथ्याधि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरक और देव गतिमें इनके बन्धका अभाव है।
वन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अवन्धक नहीं है ' ऐसा सूत्रमें कहा गया है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्य गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । अध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, उनके अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है।
अब द्विस्थान प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं - अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीके भी कहना चाहिये।
शंका--असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें भी तो तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उदय है, फिर उसका उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कैसे सम्भव है।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, कृष्णलेझ्याका अनुषंग होनेपर उसका वहां उदय
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३, २५८.] लेस्पामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३२७ तदुदयासंभवादो । अवसेसाणं पयडीणं उदयवोच्छेदो णत्थि, वंधवोच्छेदो चेव । सव्वासिं पयडीणं बंधो सोदय-परोदओ, अद्ववोदयत्तादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कतिरिक्खाउआणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। इत्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडणउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो । कुदो ? सत्तमपुढवीट्ठिदमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तेउ-वाउकाइयमिच्छाइट्ठीसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । पच्चया सुगमा । णवरि तिरिक्खाउअस्स मिच्छाइट्ठिम्हि वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्या। सासणसम्मादिविम्हि ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा । थीगगिद्धितिय अणताणुबंधिच उक्काणं बंधो चउगइसंजुत्तो। इत्थिवेदस्स तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो। चउसंठाण-चउसंघडणाणं दुगइसंजुत्तो, णिरय-देवगईणमभावादो । अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठीसु तिगइसंजुत्तो, देवगईए
असम्भव है।
शेष प्रकृतियोंका उदययुच्छेद नहीं है, केवल बन्धव्युच्छेद ही है। सब प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अधुवोदयी हैं । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है । स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि सप्तम पृथिवीमें स्थित मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंमें तथा तेज व वायु कायिक मिथ्यादृष्टि जीवों में भी उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि तिर्यगायुके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध चारों गतियोंसे संयुक्त होता है । स्त्रीवेदका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, उसके साथ नरकगतिके बन्धका अभाव है। चार संस्थान और चार संहननका बन्ध दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, उनके साथ नरकगति और देवगतिके बन्धका अभाव है।अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका मिथ्यादृष्टियों में तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिका वहां अभाव है।
१ अ-आप्रलोः ‘पुटवीविहिद ' ' इति पाठः।
२ अप्रतौ ' मुस्सर' इति पाठः।
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३२८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५८. अभावादो । सासणे दुगइसंजुत्तो, णिरय-देवगईणमभावादो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी उज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो, साभावियादो । थीणगिद्धितियादीणं पयडीणं बंधस्स चउग्गइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिद्विणो सामी, अविरोहादो । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउविहो बंधो । सासणे दुविहो, अणाइ-धुवबंधाभावादो। अवसेसाणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
एगट्ठाणपयडीणं परूवणा कीरदे-मिच्छत्तेइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादिणिरयाणुपुवी-आदाव-थावर सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणं बंधोदया समं वोच्छिज्जति, मिच्छाइट्ठिम्हि चेव तदुभयवोच्छेदुवलंभादो । अवसेसाणं पयडीणं उदयवोच्छेदो णत्थि, बंधवोच्छेदो चेव । मि छत्तस्स बंधो सोदओ। णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं परोदओ, सोदएण बंधविरोहादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधो सोदय-परोदओ, उभयहा वि अविरुद्धबंधादो। मिच्छत्त-णिरयाउआणं बंधो णिरंतरो। अवसेसाणं सांतरो, एगससएण वि बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा । णवरि णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयाणुपुवीणं वेउव्विय
सासादनमें दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और देवगतिका अभाव है । निर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । स्त्यानगृद्धित्रय आदि प्रकृतियोंके बन्धके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि और अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
एकस्थान प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं-मिथ्यात्व, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति. नारकानुपूर्वी आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरका बन्ध व उदय दोनों साथमै व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद नहीं है, केवल बन्धव्युच्छेद ही है । मिथ्यात्वका बन्ध स्वोदय होता है। नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपने उदयके साथ इनके बन्धका विरोध है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी उनके वन्धमें कोई विरोध नहीं है । मिथ्यात्व और नारकायुका बन्ध निरन्तर होता है । शेष प्रकृतियाका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका अन्धविश्रामका देखा जाता है। प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि नारकायु,
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३, २५८. ]
लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३२९
वे उव्वियमिस्स - ओरालियमिस्स - कम्मइयपच्चया णत्थि, अपज्जत्तकाले एदार्सि बंधाभावादो । एइंदिय-आदाव थावराणं वेउब्वियकाय जोगपच्चओ अवणेयव्वो । बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदियसुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं वेउव्विय- वे उव्वियमिस्सपच्चया अवणेदव्वा, देव- रइएस एदासिं बंधाभावाद | मिच्छत्तस्स चउगइसंजुत्तो । णवुंसयवेद - हुंडसठाणाणं तिगइसंजुत्तो, देवगदीए अभावादो । असंपत्तसेवट्टसंघडण - अपज्जत्ताणं दुगइसंजुत्तो, णिरय देवगईणमभावादो । णिरयाउणिरय दुगाणं णिरयगइ संजुत्तो । अवसेसाणं पयडीणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । णिस्याउणिरय दुग-बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदियजादि - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं तिरिक्ख- मणुसा सामी । मिच्छत्त-णवुंसयवेद- हुंडसंठाण असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठी सामी । एइंदिय-आदावथावराणं तिगइमिच्छाइट्ठी सामी । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि अद्धाणविरोहादो | बंधवोच्छेदो सुगम । मिच्छत्तस्स बंधो चउव्विहो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो, अदुवबंधित्तादो ।
मणुसाउअस्स मिच्छाइट्ठि- सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सोदय - परोदओ | असंजदसम्मादिट्ठी परोदओ । सव्वत्थ णिरंतरो, एगसमरण बंधुवरमाभावादो । पच्चया ओघसिद्धा ।
नरकगति और नारकानुपूर्वीके वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्यय नहीं हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनके बन्धका अभाव है । एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरके वैक्रियिककाययोग प्रत्यय कम करना चाहिये । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर के वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, देव और नारकियों में इनके बन्धका अभाव है ।
मिथ्यात्वका बन्ध चारों गतियोंसे संयुक्त होता है। नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ देवगतिके बन्धका अभाव है । असंप्राप्तसृपाटिका संहनन और अपर्याप्तका बन्ध दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ नरक और देव गतिके बन्धका अभाव है । नारकायु और नरकद्विकका बन् नरकगतिले संयुक्त होता है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध तिर्यग्गतिसे संयुक्त होता है । नारका, नरकद्विक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके तिर्यच और मनुष्य स्वामी हैं । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननके स्वामी चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि जीव हैं। एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थान में अध्वानका विरोध है । बन्धव्युच्छेद सुगम है । मिथ्यात्वका बम्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। मनुष्यायुका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें स्वोदयपरोदय होता है । असंयतसम्यग्दृष्टियों में उसका परोदय बन्ध होता है । सर्वत्र निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय औघसे सिद्ध हैं ।
छ. नं. ४२.
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३३०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५८.. णवरि मिच्छाइट्ठिम्हि वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया, सासणे वेउब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि ओरालियदुग-वेउब्वियमिस्स-कम्मइय-इस्थि-पुरिसवेदपच्चया अवणेदव्वा; असुहतिलेस्सासु मणुसाउअं बंधमाणाणं देवासंजदसम्मादिट्ठीणमणुवलंभादो । ण च देवेसु पज्जत्तएसु असुहतिलेस्साओ अस्थि, भवणवासिय वाणवंतर-जोदिसिएसु अपज्जत्तयदेवेसु चेव तासिमुवलंभादो। ण च देवा णेरइया वा पज्जत्तणामकम्मोदयतिरिक्खमणुसा अपज्जत्तयदा संता आउअंबंधति, तिरिक्ख-मणुसअपज्जते मोत्तूण अण्णत्थ तब्बंधाणुवलंभादो। मणुसगइसंजुत्तो । तिगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो णिरयगइअसंजदसम्मादिट्ठिणो च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, किण्हलेस्साए वट्टमाणसंजदासंजदाणमणुवलंभादो । सादि-अडुवो बंधा, अदुवबंधित्तादो ।
देवाउअस्स सव्वत्थ बंधो परोदओ, बंधोदएसु उदयबंधाणमच्चंताभावावट्ठाणादो । णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । सव्वेसि पि वेउव्विय-वेउवियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया सग-सगोघपच्चएहिंतो अवणेयव्वा । देवगइसंजुत्तो। तिरिक्ख-मणुसा
विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको, सासादन गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको, तशा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकहिक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण, स्त्रीवेद और पुरुषवेद प्रत्ययोको कम करना चाहिये; क्योकि, अशुभ तीन लेश्याओम मनुष्यायुको बांधनेवाल देव असंयतसम्यग्दृष्टि पाये नहीं जाते । और देव पर्याप्तकोंमें अशुभ तीन लेयायें होती नहीं हैं, क्योंकि भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी अपर्याप्तक देवों में ही वे पाई जाती हैं । तथा देव, नारकी अथवा पर्याप्त नामकर्मोदय युक्त तिर्यंच व मनुष्य अपर्याप्त होकर आयुको बांधते नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य अपर्याप्तोंको छोड़कर अन्यत्र उसका बन्ध पाया नहीं जाता । मनुष्यगतिसे संयुक्त वन्ध होता है। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तथा नरकगतिके असंयत सम्यग्दृष्टि भी स्वामी हैं। बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योकि, कृष्णलेश्याम वर्तमान संयतासयत पाय नहीं जाते । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुववन्धी है ।।
देवायुका सर्वत्र परोदय वन्ध होता है, क्योंकि, बन्ध और उदयके होनेपर क्रमसे उसके उदय और बन्धका अत्यन्ताभाव अवस्थित है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है। सभी जीवोंके वैकियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कामेण प्रत्ययोको अपने अपने ओघप्रत्ययोमेसे कम करना चाहिये । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। तिर्यंच और मनुष्य ही स्वामी हैं। बन्धाध्वान
१ अ-आप्रयोः ' असुहा' इति पाठः ।
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३, २५८.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३३१ चेव सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, उवरिम्ह बंधुवलंभादो । सादि-अद्धवो, अदुवबंधित्तादो।
तित्थयरस्स बंधो परोदओ, बंधे उदयविरोहादो। णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। ओधपच्चएसु वेउव्विय-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा । देवगइसंजुत्तो, किण्णलेस्सियणेरइएसु तित्थयरबंधाभावेण मणुसगइसंजुत्तत्ताभावादो । सामी मणुसा चेव, अण्णत्यासंभवाशे । बंधद्धाणं णस्थि, एक्कम्हि असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छेदो णत्थि, उवारं पि बंधदसणादो । सादि-अदुवो, अन्डुवबंधित्तादो।
एवं चेव णीललेसाए परवेदव्वं । णवरि तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुन्वीणीचागोदाणं सासणसम्माइट्ठिम्हि सांतरो बंधो, सत्तमपुढवीसासणसम्माइट्ठिणो मोत्तणण्णत्थेदासिं सासणेसु णिरंतरबंधाणुवलंभादो। ण च सत्तमपुढवीणीललेस्सिया सासणसम्माइट्ठिणो अत्थि, तत्थ किण्णलेस्सं मोत्तूणण्णलेस्साभावादो । कथं मिच्छाइट्ठीण णीललेस्साए णिरंतरो बंधो १ ण,
सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर बन्ध पाया जाता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अधुववन्धी है।
तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध परोदय होता है, क्योंकि, बन्धके होने पर उसके उदयका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है । ओघप्रत्ययोंमें वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, कृष्णलेश्यावाले नारकियोंमें तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका अभाव होनेसे मनुष्यगतिके संयोगका अभाव है । स्वामी मनुष्य ही हैं, क्योंकि, अन्य गतियाक कृष्णलेश्या युक्त जीवाम उसके बन्धको सम्भावना नहीं है। बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर भी बन्ध देखा जाता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
इसी प्रकार ही नील लेश्याम प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सप्तम पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंको छोड़कर अन्यत्र इनका सासादनसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध पाया नहीं जाता। और सप्तम पृथिवीमें नीललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि हैं नहीं, क्योंकि, वहां कृष्णलेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याओंका अभाव है।
शंका---नीललेश्याम मिथ्यादृष्टियोंके उनका निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
१ अ-आप्रत्योः । अण्णद्धा-' इति पाठः ।
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३३२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५८. ते-वाउकाइएसु णीललेस्सिएसु तिरिक्खगइदुग-णीचागोदाणं णिरंतरबंधुवलंभादो । तदियपुढवीए णीललेस्साए वि संभवादो तित्थयरबंधस्स मणुस्सा इव णेरइया वि सामिणो होति ति किण्ण परूविज्जदे १ तत्थ हेट्ठिमइंदर णीललेस्सासहिए' तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। कुदो १ तत्थ तिस्से पुढवीए उक्कस्साउदसणादो । ण च उक्कस्साउएसु तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अस्थि, तहोवएसाभावादो। तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववजमाणाणं सम्माइट्ठीणं व बाउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णील-किण्हलेस्साए वित्थयरसंतम्मिया अस्थि ।
एवं काउलेस्साए वि वत्तव्वं । णवरि तित्थयरस्स मणुसा इव णेरइया वि सामिणो । मणुस-देवगइसंजुत्तो बंधो। ओघपच्चएसु एक्को वि पच्चओ णावणेयव्वो, वेउव्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मझ्यपच्चयाणं भावादो। ओरालियदुग-मणुसगइदुग-वजरिसहसंघडणाणं असंजदसम्मादिडिम्हि वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया णावणेयव्वा । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुबीए
समाधान-नहीं, क्योंकि तेज व वायु कायिक नीललेश्यावाले जीवोंमे तिर्यग्गतिद्विक और नीचगोत्रका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
__ शंका-तृतीय पृथिवीमें नीललेश्याकी भी सम्भावना होनेसे तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके मनुष्योंके समान नारकी भी स्वामी होते हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, वहां नीललेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रकमें तीर्थकर प्रकृतिके सत्ववाले मिथ्यादृष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है। इसका कारण यह है कि वहां उस पृथिवीकी उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। और उत्कृष्ट आयुवाले जीवोंमें तीर्थकरसंतकर्मिक मिथ्यादृष्टियोंका उत्पाद है नहीं, क्योंकि, वैसा उपदेश नहीं है । अथवा नारकियों में उत्पन्न होनेवाले तीर्थकरसन्तकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके सम्यग्दृष्टियोंके समान कापोत लेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याओंका अभाव होनसे नील और कृष्ण लेश्यामें तीर्थकरकी सत्तावाले जीव नहीं होते।
इसी प्रकार कापोतलेश्यामें भी कहना चाहिये । विशेषता इतनी है कि तीर्थकर प्रकृतिके मनुष्योंके समान नारकी भी स्वामी हैं। मनुष्य और देव गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ओघप्रत्ययों में से एक भी प्रत्यय कम नहीं करना चाहिये, क्योंकि, वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका यहां सद्भाव है। औदारिकद्विक, मनुष्यगतिद्विक और वज़र्षभसंहननके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम नहीं करना चाहिये। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय
१ प्रतिषु ' हेहिमइंदिए णीललेस्सासहए इति पति।
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३, २६०.] लेस्सामग्गणार बंधसामित
[३३३ बंधो पुवमुदओ पच्छा वोच्छिज्जदि, सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अण्णो वि जइ भेदो अस्थि सो वि चिंतिय वत्तव्यो ।
तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीयसादावेदणीय-चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्बिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचं. तराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २५९ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजंदा बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २६० ॥
देवगइ-वेउब्वियदुगाणं पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि । अवसेसाणं पयडीण
व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । अन्य भी यदि भेद है तो उसे भी विचारकर कहना चाहिये ।
तेज और पद्म लेश्यावाले जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २५९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २६०॥
देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता
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३३४]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २६०.
मुदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति परिक्खा णत्थि, एत्थ बंधोदयवोच्छेदाभावादो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिर-सुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । णिद्दा पयला-सादावेदणीय-चदुसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछा-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सव्वगुणट्ठाणेसु सोदय-परोदओ बंधो, अदुवोदयत्तादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंगाणं बंधो परोदओ, सोदएण बंधविरोहादो । उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं सोदयपरोदओ, अपज्जत्तकाले उदयाभावादो । सेसेसु बंधो सोदओ, तेसिमपज्जत्तद्धाए अभावादो । सुभग-आदेज्ज-जसकित्तीणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिष्टि तिबंधो सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। उच्चागोदस्स मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति बंधो सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ, पडिवक्खुदयाभावादो ।
. पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-चदुसंजलण-भय-दुगुंछ-देवगइ-वेउब्वियदुग-तेजा
है। शेष प्रकृतियोंके उदयसे वन्ध पूर्वमें या पश्चात् ब्युच्छिन्न होता है, यह परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां उनके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है।
___ पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी हैं। निद्रा, प्रचला, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका सब गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय वन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, अपने उदयके साथ इनके बन्धका विरोध है। उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका वन्ध मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि
और असंयतसम्यग्दृष्टियों के स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनके उदयका अभाव है। शेष गुणस्थानोंमें स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उनके अपर्याप्तकालका अभाव है । सुभग, आदेय और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक खोदय परोदय वन्ध होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है । उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, देवगति,
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३, २६०. J
लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३३५
कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास - अगुरुवलहुअ - उवघाद - परघादुस्सास- बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीरणिमिण-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादावेदणीय-हस्स-रदि-थिर-सुहजसकित्तीणं मिच्छाइट्टि पहुडि जाव पमत्तसंजदा त्ति बंधो सांतरा । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपडणं बंधाभावाद । पंचिंदियजादि - तसणामाणं मिच्छाइट्टिम्हि बंधो सांतर - निरंतरो, तिरिक्खेसु सणक्कुमारादिदेवेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्टि - सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो, एगसमरण वि बंधुवरमुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिवधाभावादो ।
पच्चया सुगमा, ओघपच्च एहिंतो विसेसाभावाद । णवरि देवगड - वे उच्चियदुगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालिय मिस्स वे उच्चियदुग-कम्मइयकाय जे गपच्चया अवव्वा, देव- इस अपज्जत्ततिरिक्ख मणुसेसु च एदासिं बंधाभावादो । सम्मामिच्छाइट्टिम्हि वे उव्वियकाय जोगपच्चओ, असंजदसम्मादिडिम्हि वेउव्वियदुगपच्चओ अवणेदव्वो । मिच्छाइ- सासणसम्माइट्ठी सव्वपयडीणं पि ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्वा, तिरिक्ख-मणुस
वैक्रियिकद्विक, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तरायका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, यहां ये भुषवन्धी हैं । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयतों तक सान्तर बन्ध होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पंचेन्द्रियजाति और त्रस नामकर्मका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यचों और सनत्कुमारादि देवों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समय से भी उसका बन्धविश्राम पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है ।
प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई विशेषता नहीं है । भेद इतना है कि देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में औदारिकमिश्र, वैककिद्विक और कार्मण काययोग प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, देव नारकियों तथा अपर्याप्त तिर्यच व मनुष्यों में भी इनके बन्धका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिक काययोग प्रत्यय तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वैफ्रियिक और वैक्रियिकमिश्र प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सभी प्रकृतियोंके औदारिकमिश्र प्रत्यय कम करना चाहिये,
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३३६ ]
छखंडागमे बंधसामित्तविचओ
मिच्छाइट्ठि- सास सम्मादिट्ठीणमपज्जत्तकाले सुहलेस्साणमभावादो ।
पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय सादावेदणीय - चउसंजलण- पुरिसंवेद-हस्स-रदि-भयदुगुंछा - पंचिंदिय-तेजा-कम्मइय- समच उरससंठाण - वण्णचउक्क- अगुरुवलहुअचउक्क - पसत्थविहाय गदि - थिर - सुभग- सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्तिणिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठी बंधो तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छाइट्ठि - असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणमभावादों । उवरिमेसु देवगइसंजुत्ता, तत्थण्णगईणं बंधाभावादो | देवगइ-वेउव्वियदुगाणं देवगइसंजुत्ता, अण्णगईहि बंधविरोहादो | उच्चा गोद स मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देव- मणुस गइसंजुत्तो । उवरि देवगइ संजुत्ता बंधो ।
सव्वासि पयडीणं तिगइमिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्टिणी सामी, णिरएसु तेउलेस्सादिसुहलेस्साभावादो। दुगइसंजदासंजदा, मणुस गइसंजदा
[ ३, २६०.
क्योंकि, तिर्यच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्तकालमें शुभ लेश्याओंका अभाव है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णादिक चार, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगतिका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयुक्त वन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और तिर्यग्गतिका अभाव है । उपरिम गुणस्थानों में देवगति संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ इनके बन्धका विरोध है । उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर देवगति से संयुक्त बन्ध होता है ।
सब प्रकृतियों के तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नारकियों में तेजोलेश्यादि शुभ लेश्याओंका अभाव है । दो गतियोंके संयतासंयत और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं ।
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३, २६१.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[३३७ सामी । णवरि वेउब्वियचउक्कस्स तिरिक्ख-मणुसगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि ' त्ति वयणादो । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउविहो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीण सव्वत्थ सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो।
बेट्टाणी ओघं ॥ २६१ ॥
तं जहा -- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा', सासणसम्मादिविम्हि दोण्णं वोच्छेदुवलंभादो। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए पुणो उदओ चेव णत्थि, तेउलेस्साहियारादो। सेसाणं पयडीण बंधवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदाभावादो। थीणगिद्धित्तियअणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेदाणं सोदय-परोदओ । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइदुग-चउसंठाणे-चउसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दूभग-दुस्सर-अणादेज-णीचागोदाणं दोसु वि गुणट्ठाणेसु बंधो
विशेषता इतनी है कि वैक्रियिकचतुष्कके तिर्यंच और मनुष्य गतिके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयंत; तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं' ऐसा सूत्र में निर्दिष्ट है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्य गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओषके समान है ॥ २६१ ॥
वह इस प्रकार है-अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है । परन्तु तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका यहां उदय ही नहीं है, क्योंकि, तेजोलेश्याका अधिकार है । शेष प्रकृतियोंका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, उनके उदयव्युच्छेदका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका दोनों ही गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय
१ प्रतिषु वोच्छिण्णो' इति पाठः ।
२ अ आप्रयोः 'गइदुगसंठाण-च उसंघडण', कापतो गइदुगसंठाणचउसंठाण-चउसंबडण ' इति पाठः। छ.बं. ४३.
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३३८ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २६१.
सोदय-पदओ । श्रीणगिद्धितिय अणंताणुबंधिच उक्क तिरिक्खाउआणं बंधो णिरंतरो । सेसाणं सांत, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो । सव्वपयडीणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु चडवणेगूर्णवंचास पच्चया, ओरालिय मिस्सपच्चयाभावादो | णवरि तिरिक्खाउअस्स ओरालियदुग-वेउब्वियमिस्स-कम्मइय - णवुंसयवेदपच्चया अवणेदव्वा, पज्जत्तदेवे मोत्तूण अण्णत्थ बंधाभावादो । तिरिक्खगइ दुगुज्जोव - चउसंठाण चउसंघडण अप्पसत्थविहायगइ दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचा गोदाणं ओरालियदुगणवंसयवेदपच्चया अवणेयच्या, तिरिक्ख - मणुस्से मोत्तूर्ण देवाणमेदासिं पज्जत्तापज्जत्तावत्थासु बंधुवलंभादो ।
तिरिक्खाउ- तिरिक्खगइदुगुज्जे वाणं बंधो तिरिक्खगइ संजुत्तो। चउसंठाण- चउसंघडण - अप्पसत्थविहायगइ-दूभग- दुस्सर- अणादेज-णीचागोदाणं दुगइसंजुत्तो, णिरय- देव गईणमभावाद। । श्रीगिद्धितिय - अणंताणुबंधिच उक्कित्थिवेदाणं बंधो तिगइसंजुत्ता, णिरयगईए अभावादो | तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइदु गुज्जाव - चउसंठाण - चउसंघडण - अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचा गोदाणं बंधस्स देवा चेव सामी, सुहतिलेस्सियतिरिक्ख - मणुस्सेसु एदासिं
बन्ध होता है । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका बन्ध निरन्तर होता है । शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समय भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है । सब प्रकृतियोंके मिथ्याहा और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे चौवन और उनंचास प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्र प्रत्ययका यहां अभाव है । विशेष इतना है कि तिर्यगाचुके औदारिकहिक, वैक्रियिकमिश्र व कार्मण काययोग और नपुंसक वेद प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, पर्याप्त देवोंको छोड़कर अन्यत्र उसके बन्धका अभाव है । तिर्यग्गतिद्विक, उद्योत, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके औदारिकद्विक एवं नपुंसक वेद प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्यों को छोड़कर देवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें इनका बन्ध पाया जाता है ।
तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक और उद्योतका वन्ध तिर्यग्गति से संयुक्त होता है। चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त विहायोपति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका बन्ध दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, नरक और देव गतिके साथ इनके बन्धका अभाव है । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, यहां नरकगतिके बन्धका अभाव है । तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक, उद्योत, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके बन्धके देव ही स्वामी हैं, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यच व मनुष्यों में इनके
१ अ- आप्रत्योः ' चउवत्रपणेगूण' इति पाठः ।
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१, २६२.]
लेस्सामग्गणार बंधसामित बंधाभावादो। थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेदाणं तिगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणी सामी, णिरयगईए सुहतिलेस्साभावादो । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णहाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । सासणे' दुविहो, अणाइ-धुवाभावादो । सेसाणं पयडीणं बंधो सव्वत्थ सादि-अडवो ।
असादावेदणीयमोघं ॥ २६२ ॥
देसामासियसुत्तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- अजसकित्तीए पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । असादावेदणीयअरदि-सोग-अथिरासुहाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, तहोवलंभादो । अथिरअसुहाणं बंधो सोदओ, धुवोदयत्तादो । अजसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव । असादावेदणीय-अरदि-सोगाणं सोदय-परोदओ, सव्वत्थ अनुवोदयत्तादो । सांतरो बंधो, सव्वासिमेदासिमेगसरएण वि सव्वगुणट्ठाणेसु बंधुवरमुवलंभादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । णवरि मिच्छाइट्टि
..........................................
बन्धका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सारूदनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें शुभ तीन लेश्याओंका अभाव है। बन्धावान और बन्धव्युन्छिवस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र सादि व अध्रुव होता है।
असातावेदनीयकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २६२ ॥
इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार हैअयशकीर्तिका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध न्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर और अशुभका पूर्वमें बन्ध व पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है । अस्थिर और अशुभका बन्ध स्वोदय होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है। असातावेदनीय, अरति और शोकका स्वोदय-पदय वन्ध होता है, क्योंकि, ये सर्वत्र अधुवोदयी हैं। सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन सबका एक समयसे भी सब गुणस्थानों में बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई भेद नहीं है । विशेषता
१ प्रतिषु । सासणो' इति पाठः ।
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३४० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २६३. सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्वो। तिगइसंजुत्तो बंधो मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तो। उवरि देवगइसंजुत्तो। तिगइमिच्छाइटि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो, दुगइसंजदासंजदा, मणुसगइसंजदा च सामी । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति अद्धाणं । बंधवोच्छेदट्ठाणं सुगमं । सादि-अडवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
मिच्छत्त-णqसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २६३ ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥२६४ ॥
मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा । णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तैसेवट्टसंघडणएइंदिय-आदाव-थावरणामाणं बंधवोच्छेदो चेव, उदयाभावादो । मिच्छत्तस्स सोदएण बंधो, उदयाभावे बंधाणुवलंभादो। णउंसयवेद हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-एइंदिय-आदाव-थावराणं
इतनी है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में औदारिकमिश्र प्रत्यय कम करना चाहिये। मिथ्याडष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उनका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है। ऊपर उनका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियोंके संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक बन्धाध्वान है। बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २६३ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २६४ ॥
मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर नामकर्मका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, यहां इनके उदयका अभाव है। मिथ्यात्वका स्वोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, उदयके अभावमें उसका बन्ध पाया नहीं जाता। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरका बन्ध परोदय
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३, २६५.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३४१ बंधो परोदओ, एदासिं देवेसु उदयाभावादो । मिच्छत्तबंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। अण्णपयडीणं सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । णवरि ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्वो, तत्थ सुहलेस्साए अभावादो । णउंसयवेद-हुंडसंठाण-असपत्तसेवट्टसंघडण-एइंदिय-आदाव-थावराणं ओरालियदुग-कम्मइयणवंसयवेदपच्चया अवणेयव्वा । मिच्छत्तबंधो तिगइसंजुत्तो। णवंसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं दुगइसंजुत्तो, देवगईए अभावादो । एइंदिय-आदाव-थावराणं तिरिक्खगइसंजुत्तो । मिच्छत्तबंधस्स तिगइमिच्छाइट्ठिणो सामी । अवससाणं पयडीणं देवा चेव सामी। बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउव्विहो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अदुवो अदुवबंधित्तादो।
अपच्चक्खाणावरणीयमोघं ॥२६५॥
एदं देसामासियसुत्तं । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे- अपच्चक्खाणावरणीयस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जति, असंजदसम्मादिविम्हि तदुभयवोच्छेदुवलंभादो। अवसेसाणं बंधवोच्छेदो चेव । अपच्चक्खाणचउक्कस्स बंधो सोदय-परोदओ । मणुसगइदुगोरालियद्ग
होता है, क्योंकि, इनका देवोंके उदयाभाव है। मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । अन्य प्रकृतियोका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं है। विशेष इतना है कि यहां औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये,क्योकि, उ शुभ लेश्याका अभाव है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन. एकेन्द्रिय. आताप और स्थावरके औदारिकद्विक, कार्मण और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको कम करना चाहिये। मिथ्यात्वका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है। नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननका दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, इनके साथ देवगतिके बन्धका अभाव है । एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मिथ्यात्वके बन्धके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके देव ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
अप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २६५ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इसीलिये इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैंअप्रत्याख्यानावरणीयका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद ही है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है।
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छक्खंडागमे वसामित्तविचओ
[ ३, २६५.
वज्जरिसहवइरणारायणसंघडणाणं बंधो परोदओ, सुहलेस्सियतिरिक्ख - मणुस्सेसु एदासिं बंधाभावादो । अपच्चक्खाणचउक्क - ओरालियसरीराणं बंधो णिरंतरो । बंधो मणुसगइदुगस्स मिच्छाइट्ठ- सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो । उवरि णिरंतरो । एवं वज्जरिसहसंघडणस्स वि वत्तव्वं । ओरालियसरीरअंगोवंगस्स बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सांतरो । उवरि णिरंतरो, एइंदियबंधाभावादो । पच्चया सुगमा । णवरि अपच्चक्खाणचउक्कस्स दोसु गुणट्ठाणेसु ओरालिय मिस्सपच्चओ अवणेयव्वो । मणुसगइदुगोरा लिय दुग- वज्जरि सहसंघडणाणं ओरालियदुगणवुंसयवेदपच्चया तिसु गुणट्ठाणेसु अवणेयव्वा । सम्मामिच्छाइट्टिम्हि दो चेव अवणेयव्वा', ओरालियमिस्सपच्चयस्स पुव्वमेवाभावादो । अपच्चक्खाणच उक्कस्स मिच्छाइट्ठि - सासण सम्मादिट्ठीसु तिगइसजुत्ता बंधो । उवरि दुगइसंजुत्तो, णिरय - तिरिक्खगईणमभावादो | मणुसगइदुगस्स मणुसग संजुत्तो । ओरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छाइट्ठि - सासणसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजुत्तमुवरि मणुसग इसंजुत्तमण्णगइबंधाभावादो । अपच्चक्खाणच उक्कस्स तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजद सम्मादिट्टिणो सामी । अवसेसाणं पयडीणं देवा सामी । बंधद्धाणं
३४२ ]
मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभवज्रनाराच संहननका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, शुभ लेश्यावाले तिर्यच व मनुष्योंमें इनके बन्धका अभाव है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और औदारिकशरीरका बन्ध निरन्तर होता है | मनुष्यगतिद्विकका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर होता है । ऊपर उसका निरन्तर बन्ध होता है । इसी प्रकार वज्रर्षभसंहननके भी कहना चाहिये । औदारिकशरीरांगोपांगका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तर होता है । ऊपर निरन्तर होता है, क्योंकि, वहां एकेन्द्रियके बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके दो गुणस्थानोंमें औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये । मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननके औदारिकद्विक और नपुंसकवेद प्रत्ययको तीन गुणस्थानों में कम करना चाहिये । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दो प्रत्ययों को ही कम करना चाहिये, क्योंकि, औदारिकमिश्न प्रत्ययका पहले ही अभाव हो चुका है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और तिर्यग्गतिका अभाव है । मनुष्यगतिद्विकका मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है । औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयुक्त तथा ऊपर मनुष्यगतिले संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके तीन गतियोंके मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके देव स्वामी हैं ।
१ प्रतिषु ' अवणेयव्त्रो ' इति पाठः ।
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३, २६७ ) लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[३४३ बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीण मिच्छाइट्ठिम्मि बंधो चउविहो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । सेसाणं बंधो सादि-अद्भुवो, अदुवबंधित्तादो ।
पच्चक्खाणचउक्कमोघं ॥ २६६ ॥
बंधोदया समं वोच्छिण्णा, संजदासंजदम्मि तेसिं दोण्णमक्कमेण वोच्छेदुवलंभादो । सोदय-परोदओ, दोहि वि पयारेहि बंधाविरोहादों। णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा, अपच्चक्खाणपच्चयतुल्लत्तादो । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो तिगइसंजुत्तो । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तो। उवरि देवगइसंजुत्तो। तिगइमिच्छाइटि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी । दुगइसंजदासंजदा सामी। बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णवाणं च सुगमं । मिच्छाइविम्हि बंधो चउव्विहो । उवरि तिविहो, धुवाभावादो।
मणुस्साउअस्स ओघभंगो ॥२६७ ॥
बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्य गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अधूव होता है क्योंकि, वे अध्रुवपन्धी हैं ।
प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २६६ ॥
प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमै व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थानमें दोनोंका एक साथ व्युच्छेद पाया जाता है। स्वोदयपरोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों भी प्रकारोंसे उसके बन्धमें कोई विरोध नहीं है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, वे अप्रत्याख्यानावरणके प्रत्ययोंके समान हैं। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयक्त बन्ध होता है। ऊपर देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। ऊपर तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है।
मनुष्यायुकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २६७ ॥
१ प्रतिषु ' बंधविरोहादो' इति पाठः ।
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३४४ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २६८. तं जहा - बंधो परोदओ, तेउलेस्साए सव्वगुणट्ठाणेसु सोदएण बंधविरोहादो | णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो | पच्चया सुगमा, ओघाविसेसादो | णवीर तिसु वि गुणट्ठाणेसु ओरालियदुग - वेडब्बियमिस्स - कम्मइय- णउंसयवेदपच्चया अवशेयब्वा । मणुसग संजुत्तो | देवा चैव सामी | मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठि असंजद सम्मादिट्ठत्ति बंधद्धाणं । बंधवे।च्छेदो सुगमो । बंधो सादि- अडवो ।
देवा अस्स ओघमंगो ॥ २६८ ॥
देण सूदत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- बंधो परोदओ, सोदएण बंधविरोहादो । निरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो | पच्चया ओघतुल्ला | वरि ओघे वि वेव्विय दुगोरा लिय मिस्स - कम्मइयपच्चया अवणेयव्वा । बंधो देवगइ संजुत्तो । तिरिक्खमणुससामीओ । वद्धाणं सुगमं । अप्पमत्तद्वार संखेज्जे भागे गंतूण बंधवोच्छेदो | सादि-अद्भुवो बंधो ।
आहारसरीर - आहारसरीर अंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ? अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २६९ ॥
वह इस प्रकार है- बन्ध उसका परोदय होता है, क्योंकि, तेजोलेश्या में सब गुणस्थानों में खोदय से उसके बन्धका विरोध हे । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्ध विश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, उनमें ओघसे कोई भेद नहीं है । विशेष इतना है कि तीनों ही गुणस्थानों में औदारिकद्विक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण और नपुंसकवेद प्रत्ययों को कम करना चाहिये । मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है । देव ही स्वामी हैं । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दष्टि, यह बन्धाध्वान है । बन्धयुच्छेद सुगम है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
देवायुकी प्ररूपणा ओघके समान है || २६८ ॥
बन्ध उसका
इस सूत्र से सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार हैपरोदय होता है, क्योंकि, स्वोदय से इसके बन्धका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय ओघके समान हैं । विशेषता इतनी है कि ओघ में भी वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये | देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है । तिर्यच और मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभाग जाकर वन्धव्युच्छेद होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? अप्रमत्तसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २६९ ॥
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३, २७०.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[३१५ . सुगममेदं । कुदो ? अप्पमत्तसंजदा चेव बंधआ', उवरि तेउलेस्साए अभावादो।
तित्थयरणामाणं को बंधो को अबंधो ? असंजदसम्माइट्ठी जाव अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २७० ॥
___ सुगमं । णवरि देव-मणुससामीओ बंधो । एवं तेउलेस्साए एसा परूवणा कदा । जहा तेउलेस्साए परूवणा कदा तहा पम्मलेस्साए वि कायव्वा । णवीर पुरिसवेदस्स जम्हि सांतरो बंधो परूविदो तम्हि सांतर-णिरंतरो त्ति वत्तव्यो, पम्मलेस्सियतिरिक्ख मणुस्सेसु पुरिसवेदं मोत्तूण अण्णवेदस्स बंधाभावादो। जासिं पयडीणं बंधस्स देवा चेव सामी तासिमित्थिवेदपच्चओ अवणेयव्वो, देवेसु पम्मलेस्साए इत्थिवेदाणुवलंभादो । पंचिंदियतसपयडीणं बंधो णिरंतरो त्ति वत्तव्बो, तेउलेस्साए एदासिं बंधस्स सांतर-णिरंतरत्तुवलंभादो। ओरालियसरीरअंगोवंगस्स बंधो परोदओ।णिरंतरो, पम्मलेस्साए अंगोवंगेण विणा बंधाभावादो। पम्मलेस्साए पयडिबंधगयभेदपरूवणट्ठमाह--
यह सूत्र सुगम है। कारण कि अप्रमत्तसंयत ही बन्धक हैं, क्योंकि, इससे ऊपरके गुणस्थानोंमें तेजोलेश्याका अभाव है।
तीर्थंकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २७० ॥
यह सूत्र सुगम है । विशेष इतना है कि इसके बन्धके स्वामी देव व मनुष्य हैं। इस प्रकार तेजोलेश्याका आश्रयकर यह प्ररूपणा की गई है। जिस प्रकार तेजोलेश्यामें प्ररूपणा की है उसी प्रकार पद्मलेश्याम भी करना चाहिये । विशेषता यह है कि पुरुषवेदका जहां सान्तर बन्ध कहा गया है वहां 'सान्तर-निरन्तर' ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि, पद्मलेश्या युक्त तिर्यंच व मनुष्योंमें पुरुषवेदको छोड़कर अन्य वेदके बन्धका अभाव है । जिन प्रकृतियोंके बन्धके देव ही स्वामी हैं उनके स्त्रीवेद प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, देवोंमें पद्मलेश्यामें स्त्रीवेद नहीं पाया जाता । पंचेन्द्रिय जाति और प्रस प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, ऐसा कहना चाहिये; क्योंकि, तेजोलेश्यामें इनके बन्धके सान्तर निरन्तरता पाई जाती है । औदारिकशरीरांगोपांगका वन्ध परोदयसे होता है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, पद्मलेश्यामें अंगोपांगके विना बन्धका अभाव है। पद्मलेश्यामें प्रकृतिवन्धगत भेदके प्ररूपणार्थ आगेका सूत्र कहते हैं
२ प्रतिषु ' तेउलेस्साएसा' इति पाठः ।
१ प्रतिषु 'बंधओ' इति पाठः।
..बं. ४४.
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३४६ ]
छक्खंडागमे सामित्तविचओ
[ ३, २७१.
पम्म लेस्सिएसु मिच्छत्तदंडओ रइयभंगो || २७१ ॥ एइंदिय-आदाव- थावराणं बंधाभावादो । एत्तिओ चेव भेदो, अण्णो णत्थि । जदि अस्थि सो चिंतिय वत्तव्वो ।
सुक्कलेस्सिएसु जाव तिथयरे त्ति ओघभंगो ॥ २७२ ॥
एदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे— पंचणाणावरणीय च उदंसणावरणीय पंचंतराइयाणं पुव्वं बंधों पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सुहुमसांपराइय - खीणकसासु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । जसकित्ति - उच्चागोदाणं पि एवं चैव वत्तव्वं । णवरि उदयवोच्छेदो एत्थ णत्थि, अजोगिम्ह उदयवच्छेददंसणादो | पंचणाणावरणीय - चउदसणावरणीय - पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठित्ति जसकित्तीए सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव बंधो, पडिवक्खुदयाभावादो । मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदो ति उच्चागोदबंधो सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, णीचागो दुदयाभावादो । पंचणाणावरणीयचउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, ध्रुवबंधित्तादो । जसकित्तीए मिच्छाइट्टिप्पहुडि
पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्वदण्डककी प्ररूपणा नारकियों के समान है || २७१ ॥
क्योंकि, उनके एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर के बन्धका अभाव है । केवल इतना ही भेद है, और कुछ भेद नहीं है । यदि कुछ भेद है तो उसे विचारकर कहना चाहिये ।
शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृति तक ओघ के समान प्ररूपणा है ।। २७२ ॥
इस सूत्र सूचित अर्थको प्ररूपणा करते हैं- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक और क्षीणकषाय गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रके भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उसका उदयव्युच्छेद यहां नहीं है, क्योंकि, अयोगकेवली गुणस्थान में उनका उदय व्युच्छेद देखा जाता है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक यशकीर्तिका स्वोदय - परोदय बन्ध होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नीचगोत्र के उदयका अभाव है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अंतरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक
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३, २७२.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित
[ ३४७ जाव पमत्तसंजदो ति बंधो सांतरा, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु उच्चागोदस्स बंधो सांतर-णिरंतरो, सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिविपच्चएसु' ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो, तिरिक्खमणुसमिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठीणमपज्जत्तकाले सुहतिलेस्साणमभावादो । मिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधो देव-मणुसगइसंजुचो । उवरि देवगइसंजुत्तो चेव, अण्णगइबंधाभावादो । तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउविहो । सासणादीसु तिविहो, धुवबंधाभावादो । सेसाणं सादि-अदुवो, अद्भुवबंधित्तादो ।
एगट्ठाण-बेट्ठाणपयडीओ ठविय उवरिमाओ ताव परूवेमो-णिद्दा-पयलाणं पुव्धं बंधो
सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी वहां उसका बन्धविश्राम देखा जाता है । ऊपर निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उच्चगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच और मनुष्यों में उसका निरन्तर वन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके प्रत्ययोंमेंसे औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अपर्याप्तकालमें शुभ तीन लेश्याओंका अभाव है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर देवगति संयुक्त ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियोंके संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चार प्रकारका वन्ध होता है । सासादनादिक गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उनके ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
एकस्थानिक और द्विस्थानिक प्रकृतियोंको छोड़कर उपरिम प्रकृतिओंकी प्ररूपणा
१ अप्रतौ सासणसम्मादिछीम पच्चएम' इति पाठः ।
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३४८]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २७२.
पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, अपुव्व-खीणकसाएसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । सोदय-परोदओ बंधो, अदुवोदयत्तादो । णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो । मिच्छाइट्ठि सासणसम्मादिट्टिसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । उवरि देवगइसंजुत्तो। तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्विणो दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । अपुवकरणद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि ।
___असादावेदणीयस्स पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो । उदयवोच्छेदो पत्थि । अरदि-सोगाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, पमत्तापुव्वेसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अथिर-असुभाणं पंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्सिएसु सव्वत्थुदयदसणादो । अजसकित्तीए पुवमुदयस्स पच्छा बंधस्स वोच्छेदो, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । असादावेदणीयअरदि-सोगाणं बंधो सोदय-परोदओ, अदुवोदयत्तादो । अथिर-असुहाणं सोदओ चेव, धुवोदयत्तादो । अजसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टि त्ति स्रोदय
करते हैं- निद्रा और प्रचलाका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और क्षीणकषाय गुणस्थानोंमें क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये। मिथ्यादृष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सोसादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियोंके संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अपूर्वकरणकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है।
असातादनीयका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । उदयव्युच्छेद नहीं है। अरति और शोकका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। अस्थिर और अशुभका बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले जीवों में सर्वत्र उनका उदय देखा जाता है । अयशकीर्तिके पूर्वमें उदयका और पश्चात् बन्धका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है।
असातायेदनीय, अरति और शोकका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोंदयी हैं । अस्थिर और अशुभका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वे धुवोदयी हैं। अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता
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३, २७२.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३४९ परोदओ। उवरि परोदओ चेव, जसकित्तीए णियमेणुदयदंसणादो। छण्णं पि पयडीण बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो । पच्चया ओघतुल्ला । णवरि मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु छण्णं पयडीणं बंधो देव-मणुसगइसंजुत्तो । उवरि देवगइसंजुत्तो। तिगइअसंजदा दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी। बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । बंधो छण्णं पि सादि-अढुवो, अदुवबंधित्तादो।
___ अपच्चक्नाणावरणीयस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि दोणं वोच्छेदुवलंभादो । सेसाणं बंधवोच्छेदो चव, उदयवोच्छेदाणुवलंभादो । अपञ्चक्खाणचउक्कस्स सोदय-परोदएण वि बंधो, अदुवोदयत्तादो । अवसेसाणं बंधो परोदओ, सुक्कलेस्साए सव्वगुणट्ठाणेसु सोदएणेदासिं बंधविरोहादो । अपच्चक्खाणचउक्क-मणुसगइदुगोरालियदुगाणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। वज्जरिसहसंघडणस्स मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा ।
है। ऊपर परोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नियमसे यशकीर्तिका उदय देखा जाता है । छहों प्रकृतियोंका वन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम देखा जाता है । प्रत्यय ओघके समान हैं । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में छहों प्रकृतियोंका बन्ध देव और मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है । ऊपर देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। तीन गतियों के असंयत, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम है । छहों प्रकृतियोंका बन्थ सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
अप्रत्याख्यानावरणीयका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, उनका उदयव्युच्छेद नहीं पाया जाता। अप्रत्याख्यानचतुष्कका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वह अधुवोदयी है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें सब गुणस्थानों में स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यगतिद्धिक और औदारिकद्विकका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है। वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं।
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३५०१ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २७२. णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपञ्चओ अवणेयव्यो। मणुसगइदुगोरालियद्गवज्जरिसहसंघडणाणमोरालियदुगित्थि-णqसयवेदपच्चया अवणेयव्वा, देवेसु एदासिमभावादो । अपञ्चक्खाणचउक्कस्स दुगइसंजुत्तो बंधो । अवसेसाणं मणुसगइसंजुत्तो। अपञ्चक्खाणचउक्कस्स तिगइजीवा सामी । अवसेसाणं पयडीणं देवा सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिपणहाणं च सुगमं । अपच्चक्खाणचउक्कस्स मिच्छाइट्ठिम्हि बंधो चउब्विहो । उवरि तिविहो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो, अटुवबंधित्तादो ।
पच्चक्खाणावरणीयस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जति, संजदासंजदम्मि तदुहयवोच्छेददंसणादो । बंधो सोदय-परोदओ, अदुवोदयत्तादो । णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो, तिरिक्ख-मणुसमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु अपज्जत्तकाले सुहलेस्साणमभावादो । असंजदेसु बंधो देव-मणुसगइसंजुत्तो, संजदासजदेसु देवगइसंजुत्तो । तिगइअसंजदगुणट्ठाणाणि, दुगइसंजदासजदा च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । मिच्छाइडिम्हि बंधो चउब्विहो ।
विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये। मनुष्यगतिद्विक, औदारिकाद्धक और वज्रभसंहननके औदारिकद्विक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, देवोंमें यहां इन प्रत्ययोंका अभाव है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है। शेष प्रत्ययोंका मनुष्यगतिसे संयुक्त वन्ध होता है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके तीन गतियोंके जीव स्वामी हैं । शेष प्रकृतियोंके देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। ऊपर तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
प्रत्याख्यानावरणीयका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थानमें उन दोनोंका ब्युच्छेद देखा जाता है। स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवोदयी प्रकृति है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिकमिश्र प्रत्यय कम करना चाहिये, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों में अपर्याप्तकालमें शुभ लेश्या
ओंका अभाव है । असंयतोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । संयतासंयतोंमें देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । तीन गतियोंके असंयत गुणस्थान और दो गतियों के संयतासंयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्याटाष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । ऊपर तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि,
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३, २७२.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३५१ उवरि तिविहो, धुवाभावादो।
पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, अणियट्टिम्मि तदुहयवोच्छेददंसणादो । सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो । कोधसंजलणस्स बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो, सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु पुरिसवेदं मोत्तूणण्णवेदाणं बंधाभावादो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपञ्चओ अवणेयव्यो । चदुसु असंजदगुणट्ठाणेसु दुगइसंजुत्तो, उवरि देवगइसंजुत्तो बंधो अगइसंजुत्तो वा । तिगइअसंजदगुणट्ठाणाणि दुगइसंजदासंजदों मणुसगइसंजदा च सामी। बंधद्धाणं तुगमं । अणियट्टिअद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । कोधसंजलणस्स मिच्छाइटिम्हि चउव्विहो बंधो। उवरि तिविहो, धुवाभावादो । पुरिसवेदस्स सादि-अद्भुवो, भडुपबंधित्तादो।
___ माण-माया-लोहसंजलणाणं कोहसंजलणभंगो । णपरि बंधवोच्छेदपदेसो जाणिय वत्तव्यो ।
वहां ध्रुव बन्धका अभाव है।
पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधका बन्ध व उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है । स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे ही बन्ध पाया जाता है। संज्वलनक्रोधका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है। पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्यों में पुरुषवेदको छोड़कर अन्य वेदोंके बन्धका अभाव है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में औदारिकमिश्र प्रत्यय कम करना चाहिये । चार असंयत गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयुक्त और ऊपर देवगतिसे संयुक्त अथवा अगतिसंयुक्त बन्ध होता है । तीन गतियोंके असंयत गुणस्थान, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान सुगम है । अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। संज्वलनक्रोधका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। ऊपर तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। पुरुषवेदका सादि व अध्रुव वन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
संज्वलन मान,माया और लोभकी प्ररूपणा संज्वलनक्रोधके समान है। विशेषता इतनी है कि बन्धव्युच्छेदस्थानको जानकर कहना चाहिये।
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३५२ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २७२. हस्स रदि-भय-दुगुंछाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, अपुव्वकरणचरिमसमए तदुहयवोच्छेददंसणादो । बंधो सोदय-परोदओ, अद्भुवोदयत्तादो । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति हस्स-रदीणं बंधो सांतरो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। भय-दुगुंछाफ णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपञ्चओ अवणेयव्वो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुस-देवगइसंजुत्तो। उवरि देवगइसंजुत्तो अगइसंजुत्तो च । तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्विणो दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । भय-दुगुंछाणं मिच्छाइद्विम्हि चउव्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो । उवरि तिविहो, धुवाभावादो । हस्स-रदीणं सव्वत्थ सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो ।
मणुसाउअस्स बंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्साए उदयवोच्छेदाणुवलंभादो। परोदओ बंधो, सुक्कलेस्साए सव्वत्थ सोदएण बंधविरोहादो। णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पचया सुगमा । णवरि मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु ओरालियदुग
हास्य, रति, भय और जुगुप्साका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें उन दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है। बन्ध उनका स्वोदय परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं। मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक हास्य व रतिका सान्तर बन्ध होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। भय और जुगुप्साका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें मनुष्य और देव गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर देवगतिसंयुक्त और अगतिसंयुक्त बन्ध होता है । तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियों के संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । भय और जगुप्ताका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। ऊपर तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुवबन्धका अभाव है । हास्य और रतिका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
मनुष्यायुका केवल बन्धव्युच्छेद ही होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें उसका उदयव्युच्छेद नहीं पाया जाता। परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्याने सर्वत्र स्वोदयसे उसके बन्धका विरोध है । निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि
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३, २७२.] सामग्गणाए बंधसामित्तं
[३५३ वेउब्वियमिस्स-कम्मइय-इत्थि-णउंसयवेदपच्चया अवणेदव्वा । मणुसगइसंजुत्तो । देवा सामी । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो त्ति बंधद्धाणं । बंधवोच्छिण्णहाणं सुगमं । सादि-अदुवो बंधो, अद्भुवबंधित्तादो।
देवाउअस्स पुव्वमुदयस्स पच्छा बंधस्स वोच्छेदो, अप्पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु वेउव्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेयव्वा । देवगइसंजुत्तो बंधो । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति तिरिक्ख-मणुसा सामी । उवीर मणुसा चेव । बंधद्धाणं सुगमं । अप्पमत्तद्धार संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो।
देवगइ-वेउव्वियदुगाणं पुवमुदयस्स पच्छा बंधस्स वोच्छेदो, अपुव्वासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्साए उदयवोच्छेदाणुवलंभादो । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । पंचिंदियजादि-तेजा
और असंयतसम्यदृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिकद्विक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण काययोग,स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको कम करना चाहिये। मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है । देव स्वामी हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान बन्धाध्वान है। बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम है। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
देवायुके पूर्व में उदयका और पश्चात् बन्धका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, अप्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। परोदय बन्ध होता है, क्योंक, स्वोदयसे उसके बन्धका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त के विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक तिर्यंच व मनुष्य स्वामी हैं। ऊपर मनुष्य ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके पूर्व में उदयका और पश्चात् बन्धका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उनके बन्ध घ उदयका न्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें उनका उदयव्युच्छेद नहीं पाया जाता। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका परोदय बन्ध ...४५.
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३५४]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ . [३, २७२. कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिर-सुह-णिमिणाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो। समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधाविरोहादो । उवघाद-परघादुस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु बंधो सोदय-परोदओ । अण्णत्थ सोदओ चेव, अपज्जत्तद्धाभावादो । णवरि पमत्तसंजदेसु परघादुस्सासाणं सोदय-परोदओ। सुभगादेज्जाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि त्ति बंधो सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-रस-गंध-फासदेवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरणिमिणणामाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधितुवलंभादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइसुभग सुस्सर-आदेज्जाणं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो। होदु णाम सुक्कलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु देवगइसंजुत्तं बंधमाणेसु णिरंतरो बंधो, ण सांतरो ? ण, देवेसु सुक्कलेस्सिएसु
होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति,तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माणका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे ही इनके बन्धमें कोई विरोध नहीं है । उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय वन्ध होढ़ा है। अन्य गुणस्थानों में स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तकालका अभाव है। विशेषता इतनी है कि प्रमत्तसंयता परघात और उच्छ्वासका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। सुभग और आदेयका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और निर्माण नामकर्मीका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनमें ध्रुववन्धीपना पाया जाता है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका मिथ्यादृष्टि व सांसादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-इन प्रकृतियोंको देवगतिसे संयुक्त बांधनेवाले शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्यों में निरन्तर वन्ध भले ही हो, परन्तु सान्तर वन्ध होना सम्भव नहीं है ? ।
समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले देवोंमें उनका सान्तर बन्ध
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३, २७२.] लेस्सामग्गणार बंधसामित्त
[ ३५५ सांतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। थिर-सुभाण मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो।
पच्चया सुगमा । देवगइ-वेउब्बियदुगाणं बंधो देवगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरि देवगइसंजुत्तो। देवगइ-वेउवियदुगाणं दुगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी । अवसेसाणं पयडीणं बंधस्स तिगइमिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिहिणो दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । अपुव्यकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । तेजाकम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुलहुव-उववाद-णिमिणाणं' मिच्छाइटिम्हि बंधो चउव्विहो । उवरि तिविहो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं पयडीणं सादि-अन्हुवो बंधो ।
__ आहारदुगस्स ओघभंगो । तित्थयरस्स वि ओघभंगो। दुगइअसं जदसम्मादिट्ठिणो मणुस
पाया जाता है।
ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धका अभाव है । स्थिर और शुभका मिथ्याप्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
प्रत्यय सुगम हैं । देवगति और वैक्रियिकद्विकका बन्ध देवगतिसंयुक्त होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यन्दृष्टि गुणस्थानों में देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है । ऊपर देवगतिसे संयुक्त होता है।
देवगति और वैक्रियिकद्विकके दो गतियों के मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयतः तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। शेष प्रक्रतियोंके बन्धके तीन गतियोंके मिथ्याधि, सासादनसम्याधि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियों के संयतासंयत, तथा मनुष्यगति के संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है।
तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलधु, उपवात और निर्माणका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । ऊपर तीन प्रकारका वन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबम्धी हैं । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
__ आहारकद्विककी प्ररूपणा ओघके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिकी भी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेषता इतनी है कि उसके दो गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और
१ प्रतिषु :-णिमिणस्स ' इति पाठः ।
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३५६ ]
छक्वंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २०३. गइसंजदासजदप्पहुडिओ च' सामी ।
णवरि विसेसो सादावेदणीयस्स मणजोगिभंगो ॥२७३॥
ओघादो को एत्थ विसेसो ? ण, ओघम्मि अबंधगाणमुवलंभादो। एत्थ पुण ते णत्थि, अजोगीसु लेस्साभावादो। का लेस्सा णाम? जीव-कम्माणं संसिलेसणयरी, मिच्छत्तासंजम-कसायजोगा' त्ति भणिदं होदि । सेसं जसकित्तिभंगो ।
बेट्टाणि-एक्कट्ठाणीणं णवगेवज्जविमाणवासियदेवाणं भंगो ॥ २७४ ॥
एदस्स देसामासियसुत्तस्स अत्थो उच्चदे । तं जहा- थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचा
मनुष्यगतिक संयतासंयतादिक स्वामी हैं।
परन्तु विशेष इतना है कि सातावेदनीयकी प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है ॥२७॥ शंका-ओघसे यहां क्या भेद है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ओघमें सातावेदनीयके अबन्धक पाये जाते हैं । किन्तु यहां वे नहीं हैं, कारण कि अयोगी जीवोंमें लेश्याका अभाव है।
शंका-लेश्या किसे कहते हैं ?
समाधान-जो जीव व कर्मका सम्बन्ध कराती है वह लेश्या कहलाती है । अभिप्राय यह कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग,ये लेश्या है ।
शेष विवरण यशकीर्ति के समान है।
द्विस्थानिक और एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा नौ ग्रैवेयक विमानवासी देवोंके समान है ॥ २७४ ॥
इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग,
१ आप्रतौ ' संजदासजदप्पहुडिसंजदाओ च ' इति पाठः । २ अ-आप्रयोः · संकिलिस्सणयरि ', कापतौ — संकिलिस्सणेरड्य ' इति पाठः । ३ अत्रतौ · कसायाजोगा ' इति पाठः ।
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६, २७४.)
लेस्सामग्गणाए बंधसामिर्च गोदाणि बेढाणपयडीओ । एत्थ अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा । सेसाणं पयडीणं पुवं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, तहोवलंभादो । एदासिं सव्वासिं पयडीणं पि बंधो परोदओ। थीणगिद्धितिय-अणंताणुवंधिच उक्काणं बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । इत्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो। पचया सुगमा । णवरि ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो । इत्थिवेद-चउसंठाण-च उसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं ओरालियदुगित्थि-णउसयवेदपच्चया अवणेयव्वा, सुक्कलेस्साए एदार्सि' बंधाभावादो । थीणगिद्धितिय अणंताणुबंधिचउक्काणं देव-मणुसगइसंजुत्तो । सेसाणं मणुसगइसंजुत्तो, देवगईए सह बंधविरोहादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं तिगइजीवा सामी । सेसाणं पयडीण बंधस्स देवा सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णहाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्टिम्हि चउन्विहो बंधो । सासणे दुविहो, अणाइ-धुवाभावादो। सेसाणं पयडीणं
दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये द्विस्थानिक प्रकृतियां हैं। इनमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं। शेष प्रकृतियोंका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है । इन सब ही प्रकृतियोंका बन्ध परोदय होता है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, ये धुववन्धी हैं । स्त्रीवेदका, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये । स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और मीचगोत्रके औदारिकद्विक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्यर्योको कम करना चाहिये, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें इन प्रकृतियों के बन्धका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका देव व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिके साथ उनके बन्धका विरोध है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कके तीन गतियोंके जीव स्वामी हैं । शेष प्रकृतियोंके बन्धके देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका पन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है,
१ अ-काप्रत्योः ' मुक्कलेस्साए तिगइमएस्सेसा एदासिं ', आमतौ — सुक्कलेस्साए तिगश्मणुस्सस्त प्रवासेिं' इति पाठः।
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३५८)
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २७५. सादि-अदुवो, अदुवयंधित्तादो।।
मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणि एगट्ठाणपयडीओ । एत्थ मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, मिच्छाइट्टिम्हि चेव तदुहयेदंसणादो । णउसयवेदअसंपत्तसेवट्टसंघडणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वेच्छिज्जदि, तहोवलंभादो । हुंडसंठाणस्स बंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्साए उदयवोच्छेदाभावादो । मिच्छत्तस्स बंधो सोदओ । सेसाणं तिण्णं पि परोदओ । मिच्छत्तस्स णिरंतरो। सेसाणं सांतरो । मिच्छत्तस्स दुगइसंजुत्तो । सेसाणं मणुसगइसंजुत्तो । मिच्छत्तस्स तिगइया सामी । सेसाणं देवा । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णहाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउविहो बंधो । सेसाणं सादि-अदुवो।
भवियाणुवादेण भवसिद्धियागमोघं ॥ २७५ ॥ णत्थि एत्थ ओघपरूवणादो को वि विसेसो, तेण ओघमिदि जुज्जदे ।
क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, ये एकस्थान प्रकृतियां हैं । इनमें मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं. क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही वे दोनों देखे जाते हैं। नपुंसकवेद और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है। हुण्डसंस्थानका बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें उसके उदयव्युच्छेदका अभाव है । मिथ्यात्वका बन्ध स्वोदय होता है। शेष तीनों प्रकृतियोंका परोदय बन्ध होता है। मिथ्यात्वका निरन्तर और शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है। मिथ्यात्वका दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मिथ्यात्वके बन्धके तीन गतियोंके जीव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धयुच्छिन्नस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका चारों प्रकारका बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
भव्यमार्गणानुसार भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २७५ ॥
चूंकि यहां ओघप्ररूपणासे कोई भेद नहीं है अत एव 'ओघके समान है ' ऐसा कहना योग्य है।
१ न-कापलीः । तदुदय-' इति पाठः ।
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३, २७७.] भवियमग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३५९ अभवसिद्धिएसु पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय सादासादमिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-चदुआउ-चदुगइ-पंचजादि-ओरालिय-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-छसंठाण-ओरालिय-वेउब्वियअंगोवंग-छसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-चत्तारिआणुपुव्वी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदावुजोव-दोविहायगइ-तस-बादर-थावर-सुहुमपज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग दुभगसुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणणीचुच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २७६ ॥ .
सुगमं । सव्वे एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २७७ ॥
एदस्स देसामासियसुत्तस्स अत्थपरूवणा कीरदे - एदासु पयडीसु एत्थ ण कासिं पि बंधोदयवोच्छेदो अस्थि, उवलंभमाणाणं वोच्छेदविरोहादो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय
अभव्यसिद्धिक जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, चार आयु, चार गतियां, पांच जातियां, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात,उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, बादर, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच व ऊंच गोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २७६ ॥
यह सूत्र सुगम है। ये सभी बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २७७ ॥
इस देशामर्शक सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा करते हैं- इन प्रकृतियोंमें यहां किन्हीं के भी बन्ध और उदयका व्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, विद्यमान होनेसे उन दोनोंके व्युच्छेदका विरोध है। पांच शानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सैजस व कार्मण शरीर,
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३६.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २७७. मिच्छत्त-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो । पंचदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्ख-मणुस्साउतिरिक्ख-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरंगोवंग-छसंघडणतिरिक्ख-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदावुज्जोव-दोविहायगइ-तसथावर-बादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्जअणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णीचुच्चागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो। देवाउ-णिरयाउदेवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुन्वि-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-वेउव्वियसरीरंगोवंगाणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो ।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-चत्तारिआउतेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-इत्थि-णउंसयवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-णिरयगइएइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि-पंचसंठाण-छसंघडण-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी-आदाउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-दूभग-दुस्सरअणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो ।
वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका खोदय बन्ध होता है। पांच दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, तिर्यग्गति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, अस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और नीच व ऊंचगोत्रका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। देवायु, नारकायु, देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, चार आयु, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके यन्धविश्रामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुसंकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, पांच संस्थान, छह संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा
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३, २७७.]
भवियमग्गणाए बंधसामित्त पुस्सिवेदस्स बंधो सांतर-णिरंतरो। कुदो ? पम्म-सुक्कलेस्सिएसु णिरंतरबंधुवलंमादो । देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्वियसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्जउच्चागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो । कुदो ? असंखेज्जवासाउअ-सुहतिलेस्सियतिरिक्खमणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं बंधो सांतर-णिरंतरो । कुदो ? आणदादिदेवेसु णिरंतरबंधुवलंभादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो। कुदो ? तेउ-वाउकाइएसु सत्तमपुढवीणेरइएसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं सांतर-णिरंतरो, सणक्कुमारादिदेव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो।
सम्बकम्माणं पंचवंचास पच्चया । णवरि तिरिक्ख-मणुस्साउआणं तेवंचास पच्चया, वेउम्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । देव-णिरयाउआणं एक्कवंचास पच्चया, वेउब्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो। देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-णिरयगइणिरयगइपाओग्गाणुपुथ्वी-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियसरीरंगोवंगाणमेक्कवंचास पच्चया, वेउब्विय
जाता है। पुरुषवेदका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क और शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्योंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, आनतादिक देवोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। तिर्यग्गति, तिर्य ग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेज व वायु कायिक जीवों में तथा सप्तम पृथिवीके नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव व नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सब कौके पचवन प्रत्यय हैं। विशेष इतना है कि तिर्यगायु और मनुष्यायुके तिरेपन प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। देवायु और नारकायुके इक्यावन प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैक्रियिकाद्वक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगके इक्यावन प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैक्रियिकरिक,
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३६२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, २७७. दुगोरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो। बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि-सुहुम-अपजत्तसाहारणाणं तेवंचास पच्चया, वेउव्वियद्गाभावादो।
सादावेदणीय-इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदि-पसत्थविहायगइ-समचउरससंठाण-थिर-सुभसुभग-सुस्वर-आदेज्ज-जसकित्तीणं तिगइसंजुत्तो बंधो, णिरयगईए अभावादो । णिरयाउणिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं णिरयगइसंजुत्तो । देवाउ-देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं देवगइसंजुत्तो। मणुसाउ-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मणुसगइसंजुत्तो। तिरिक्खाउतिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणं चदुजादि-आदावुज्जोव-थावर-सुहुम साहारणाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो । वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं देव-णिरयगइसंजुत्तो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-चउसंठाण-छसंघडण-अपज्जत्तणामकम्माणं तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो बंधो। हुंडसंठाण-अप्पसत्थविहायगइ-अथिर-असुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं तिगइसंजुत्तो, देवगईए अभावादो । उच्चागोदस्स दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणमभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो चउगइसंजुत्तो ।
देवाउ-णिरयाउ-देवगइ-णिरयगइ-बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि-वेउब्वियस्सरीर
औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तिरेपन प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनके वैक्रियिकद्विकका अभाव है।
सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, प्रशस्तविहायोगति, समचतुरस्त्रसंस्थान, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है,क्योंकि, इनके साथ नरकगतिके बन्धका अभाव है। नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका नरकगतिसंयुक्त बन्ध होता है । देवायु, देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है । मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गति व तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी तथा चार जातियां, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका तिर्यग्गतिसंयुक्त बन्ध होता है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका देव एवं नरक गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, चार संस्थान, छह संहनन और अपर्याप्त नामकर्मोंका तिर्यगति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्तविहायोगति, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, इनके साथ देवगतिके बन्धका अभाव है। उच्चगोत्रका दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, उसके साथ नरकगति और तिर्यग्गतिका बन्ध नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका बन्ध चारों गतियोंसे संयुक्त होता है।
देवायु, नारकायु, देवगति, नरकगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति,
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सम्मत्तमग्गणाए बंधसा मित्तं
[ ३६३
अंग|वंग-णिरयगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी सुहुम-अपज्जत -साहारणसरीराणं बंधस्स तिरिक्खमसा सामी । एइंदियजादि - आदाव - थावराणं तिगइभिच्छाइट्ठी सामी, णेरइयाणमभावादो । अवसेसाणं पयडीणं चउगइमिच्छाइट्ठी सामी, तेसिं तब्बंधवि|हाभावादो ।
३, २७८. ]
बंधद्वाणं णत्थि, एक्कम्हि गुणट्ठाणे अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छेदो वि णत्थि, एत्थ उत्तासेसपयडीणं बंधुवलंभाद। । बज्झमाणपयडीसु धुवबंधीणमणादिओ धुवो बंधो। अवसेसाणं सादि-अद्भुवो ।
सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठीसु खइयसम्माइट्टीसु आभिणिबोहियणाणिभंगो ॥ २७८ ॥
जहा आभिणिबोहियणाणपरूवणा कदा तथा णिरवसेसा कायव्वा, विसेसाभावादो । णवरि खइयसम्माइट्ठिसंजदासंजदेसु उच्चागोदस्स सोदओ णिरंतरो बंधो, तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठी संजदासंजदाणमणुवलंभादो । मणुसाउअं बंधमाणाणमित्थिवेदपच्चओ णत्थि, देवइस इत्थवेदखइय सम्माइट्ठीणमभावादो । एत्तिओ चैव विसेसो । अण्णा जदि अत्थि सो
वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, नरकगति व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर, इनके बन्धके तिर्यच व मनुष्य स्वामी हैं । एकेन्द्रिय जाति, आताप और स्थावरके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं. क्योंकि, नारकियोंके इनका बन्ध नहीं होता । शेष प्रकृतियोंके बन्धके चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, उनके इन प्रकृतियों के बन्धका कोई विरोध नहीं है ।
बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थान में अध्वानका विरोध है । बन्धव्युच्छेद भी नहीं है, क्योंकि, यहां सूत्रोक्त सब प्रकृतियों का बन्ध पाया जाता है । बध्यमान प्रकृतियों में ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका अनादि व ध्रुव बन्ध होता है । शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
सम्यक्त्वमार्गणानुसार सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानियों के समान प्ररूपणा है ॥ २७८ ॥
जिस प्रकार आभिनिवोधिकज्ञानी जीवोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार पूर्णरूप से यहां भी करना चाहिये, क्योंकि, उनसे यहां कोई भेद नहीं है । विशेष इतना है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में उच्चगोत्रका स्वोदय एवं निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, तिर्येच क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते । मनुष्यायुको बांधनेवाले जीवोंके स्त्रीवेद प्रत्यय नहीं है, क्योंकि, देव व नारकियोंमें स्त्रीवेदी क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका अभाव है । इतनी ही यहां विशेषता है । अन्य कोई यदि
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३६४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २०१. वित्तिय वत्तव्यो । पपडिबंधगयभेदपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि
णवरि सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २७९ ॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा । सजोगिकेवलिअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अबसेसा अबंधा ॥ २८० ॥
एदं पि सुगमं, बहुसो उत्तत्थत्तादो' । . वेदयसम्मादिट्ठीसु पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-सादावेदपीय-चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ-देवगदि-पांचिंदियजादिवेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियअंगोवंग-वण्णगंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादउस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग
विशेषता है तो उसे विचारकर कहना चाहिये । प्रकृतिबन्धगत भेदके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
विशेष यह कि सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है १ ॥२७९॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं । सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥२८॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, इसका अर्थ बहुत वार कहा जा चुका है।
वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर,
१ प्रतिषु ' उत्तद्धादो' इति पाठः ।
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१, २८२.]
सम्मत्तमागणाए बंधसामित्त सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-तित्थयरुच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २८१ ॥
एत्थ अक्खसंचारं काऊण पण्णारस पण्णभंगा उप्पाएयव्वा । सेसं सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णस्थि ॥ २८२ ॥
एदस्स देसामासियसुत्तस्स परूवणा कीरदे--- देवगइ-वेउब्बियदुगणमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि उदओ वोच्छिण्णो पुव्वमेव । बंधवोच्छेदो णत्थि, उवरिम्हि बंधुवलंभादो । तित्थयरस्स णत्थि उदयवोच्छेदो, एदेसु उदयाभावादो । बंधवोच्छेदो वि णत्थि, उबलममाणत्तादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधोदयाणं दोणं पि वोच्छेदाभावादो उदयादो बंधो पुच्च पच्छा वा योच्छिंण्णो त्ति ण परीक्खा कीरदे ।
पंचणाणावरणीय चउर्दसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध रसफास-अगुरुवलहुव-तस-बादर-पज्जत्त-थिर-सुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवो
.......
पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८१ ॥
___ यहां अक्षसंचार करके चौदह गुणस्थान और सिद्धोंके आश्रयसे एक संयोगी पन्द्रह प्रश्नभंगोंको उत्पन्न करना चाहिये । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
___ असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २८२॥
इस देशामर्शक सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं देवगति और वैकिायकहिकका उदय असंयत्तसम्यग्रधि गुणस्थानमें पर्वमें ही व्यछिन्न हो जाता है। बन्धब्युच्छेद-नहीं है, क्योंकि, ऊपर बन्ध पाया जाता है। तीर्थकर प्रकृतिका उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टियों में उसके उदयका अभाव है। उसके बन्धका व्युच्छेद भी नहीं है, क्योंकि, वह पाया जाता है । शेष प्रकृतियोंके बन्ध और उदय दोनोंक भी व्युच्छेदका अभाव होनेसे 'उदयकी अपेक्षा बन्ध पूर्वमै अथवा पश्चात् ब्युच्छिन्न होता है" यह परीक्षा नहीं की जाती है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, प्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ, निर्माण और पाँच
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३६६]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २८२. दयत्तादो । णिद्दा-पयला-सादावेदणीय-च उसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सोदय-परोदओ बंधो, दोहि वि पयारेहि बंधुवलंभादो । देवगइ-वेउव्वियदुग-तित्थयराणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । उवघाद-परघादउस्सास-पत्तेयसरीराणं असंजदसम्मादिट्ठिम्हि बंधो सोदय परोदओ । उवरि सोदओ चेव, तत्थ अपज्जत्तद्धाए अभावादो । णवरि पमत्तसंजदम्मि परघादुस्सासाणं सोदय-परोदओ। सुभगादेजजसकित्तीणमसंजदसम्मादिविम्हि बंधो सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। उच्चागोदस्स असंजदसम्मादिट्ठीसु संजदासंजदेसु बंधो सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-चदुसंजलण-पुरिसवेद-भय-दुगुंड-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रसफास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिण-तित्थयरुचागोद-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो,
अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं। निद्रा, प्रचला, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों भी प्रकारोंसे उनका बन्ध पाया जाता है । देवगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक और तीर्थकरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है । उपधात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तकालका अभाव है । विशेषता इतनी है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें परघात और उच्छ्वासका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। सुभग, आदेय और यशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। उच्चगोत्रका असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंमें स्वोदय परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है।
पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक,तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, भादेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि,
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३, २८३.]
सम्मत्तमागणाए बंधसामित्तं एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादावेदणीय-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसकित्तीणं असंजदसम्मादिट्ठिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो।
पच्चया सुगमा, ओघपञ्चएहितो विसेसाभावादो । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं देवगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधो दुगइसंजुत्तो । उवरिमेसु देवगइसंजुत्तो । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं तिरिक्ख-मणुसअसंजदसम्मादिहि-संजदासजदा सामी । तित्थयरस्स तिगइअसंजदसम्मादिहिणो सामी, तिरिक्खगईए अभावादो । उवरिमा मणुसा चेव, तेसिमण्णत्थाभावादो । सेसाणं पयडीणं चउगइअसंजदसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी। बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णस्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति वयणादो। धुवबंधीणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो।
__ असादावेदणीय-अरदि-सोग-अथिर-असुह-जसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २८३ ॥
एत्थ पण्णभंगा जाणिय वत्तव्वा ।
एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई विशेषता नहीं है । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका असंयतसम्यग्दृष्टियों में दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानोंमें देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके तिर्यंच व मनुष्य असंयतसम्यग्दहि एवं संयतासंयत स्वामी हैं । तीर्थकर प्रकृतिके तीन गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यग्गतिमें उसके बन्धका अभाव है। उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, उनका अन्य गतियों में अभाव है। शेष प्रकृतियोंके चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं ' ऐसा सूत्र में निर्दिष्ट है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकिर्ति नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८३ ॥
यहां प्रश्नभंगोंको जानकर कहना चाहिये।। ...
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३६८ ]
छगमे बंधसामित्तविचओ
[ १,२८४.
असंजद सम्मादिट्टिय्हुडि जाव पमतसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २८४ ॥
एदस्सत्थो बदे- अरदि सोग - असादावेदणीय-अथिर असुभाणं बंधवोच्छेदो चेव । उदयवच्छेदो जत्थि, उवरिम्हि उदयस्सुवलंभादो । अजसकित्तीए पुव्वमुदयस्स पच्छा बंघस्स वोच्छेदो, पमत्तासंजद सम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । असादावेदणीय-अरदि-सोगाणं खो सोदय-परोदओ, दोहि वि पयारेहि बंधुवलंभादो । अथिर-असुहाणं सोदओ चेव, धुवोदयतादो । अजसकित्तीए असंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदय - परोदओ । उवरि परोदओ चेव, परिषदयाभावादो । एदासिं छण्हं पयडीणं बंधा सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो ।
पच्चया सुगमा, बहुसो उत्तत्तादो' । देव मणुसगइसंजुत्तो चेव, अण्णगइबंधाभावादो । चउगइअसंजदसम्मादिट्टिणो दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । सव्वासिं बंधो सादि- अद्भुवो, अडुवबंधित्तादो |
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २८४ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं -अरति, शोक, असातावेदनीय, अस्थिर और अशुभका बन्धक्युच्छेद ही है । उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर उनका उदय पाया जाता है । अयशकीर्तिके पूर्वमें उदयका और पश्चात् बन्धका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, प्रमचसंयत और असंयत सम्यग्दृष्टिः गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । असातावेदनीय, अरति और शोकका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारोंसे बन्ध पाया जाता है । अस्थिर और अशुभका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । अयशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्वोदय परोदय बन्ध होता है । ऊपर परोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है। इन छह प्रकृतियोंका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका अन्धविश्राम देखा जाता है ।
प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, बहुत वार कहे जा चुके हैं। देव और मनुष्य- गतिसे संयुक्त ही बन्ध होता है, क्योंकि, यहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है । चारों गतियोंके असंयत संम्यग्दाष्ट, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत्त स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धन्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । सब प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अधुन होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
१ प्रतिषु ' उत्थादो' इति पाठः ।
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३, २८६.] सम्मत्तमग्गणाए बंधसामित्तं ... अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोह-मणुस्साउ-मणुसगइ
ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-मणुसाणुपुवीणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २८५॥
सुगमं ।
असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २८६ ॥
अपच्चक्खाणावरणचउक्क-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, असंजदसम्मादिविम्हि तदुहयवोच्छेदुवलंभादो । मणुसगइ-मणुसाउ-ओरालियसरीरअंगोवंगवज्जरिसहसंघडणाणं बंधवोच्छेदो चेव, उवरि पि' उदयदंसणादो। अपच्चक्खाणचउक्कस्स पंधो सोदय-परोदओ । सेसाणं परोदओ चेव, सोदएण बंधविरोहादो । दसण्णं पयडीणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। अपच्चक्खाणचउक्कस्स चालीस पच्चया। मणुसाउअस्स बादालीस, ओरालियदुग-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । सेसाणं चोदालीस,
अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्षभसंहनन और मनुष्यानुपूर्वी नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८५॥
यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २८६॥
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध व उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं. क्योंकि, असंथतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है । मनुष्यगति, मनुष्यायु, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, ऊपर भी उनका उदय देखा जाता है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है । शेष प्रकृतियोंका परोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है । दशों प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके चालीस प्रत्यय हैं। मनुष्यायुके ब्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिकद्विक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके चवालीस प्रत्यय है, क्योंकि, उनके औदा.
१ प्रतिषु ' व ' इति पाठः ।
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३७० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २८७. ओरालियदुगाभावादो । अपच्चक्खाणचउक्कस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो। सेसाणं मणुसगइसंजुत्तो, साभावियादो। अपच्चक्खाणचउक्कस्स चउगइअसंजदसम्मादिहिणो सामी। सेसाणं देवणेरइया । बंधद्धाणं णस्थि, एक्कम्हि अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छिण्णट्ठाणं सुगमं । अपच्चक्खाणचउक्कस्स तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अडवो, अदुवबंधित्तादो ।
पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोभाणं को बंधो को अबंधो? ॥ २८७ ॥
सुगम ।
असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २८८॥
एदासिं संजदासंजदम्हि अक्कमेण वोच्छिण्णबंधोदयाणं, सोदय-परोदएहि णिरंतरबंधीणं, असंजदसम्मादिहि-संजदासंजदेसु जहाकमेण छादाल-सत्तत्तीसपच्चयाणं, देव-मणुसगइसंजुत्तबंधाणं, चउगइ-दुगइअसंजदसम्मादिहि-संजदासंजदसामीयाणं, असंजदसम्मादिट्ठि-संजदा
रिकद्विकका अभाव है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । अप्रत्या. ख्यानावरणचतुष्कके चारो गतियोके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी है। शेष प्रकृतियोके देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्यान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्यानका विरोध है । बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८७॥
यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २८८॥
इन चार प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों एक साथ संयतासंयत गुणस्थानमें व्युच्छिन्न होते हैं । स्वोदय-परोदय सहित निरन्तर बन्ध होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें छयालीस और संयतासंयत गुणस्थानमें सैंतीस प्रत्यय हैं । देव और मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और दो गतियोंके संयतासंयत खामी हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत बन्धाध्वान हैं। संयतासंयत गुण
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३, २९०. ]
सम्मत्तमग्गणाए बंधसामितं
[ ३७१
संजदद्धाणाणं, संजदासंजदम्मि वोच्छिण्णबंधाणं, धुवेण' विणा तिविहबंधुवगयाणं परूवणा सुगमा ।
देवा अस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २८९ ॥
सुगमं ।
असंजदसम्मादिट्टि पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा बंधा । अप्पमत्तदाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २९० ॥
एदस्स अत्थो उच्चदे । तं जहा पुव्वमुदओ पच्छा [ बंधो ] वोच्छिज्जदि, अप्पमत्तासंजद सम्मादिट्ठीसु बंधोदय वोच्छेदुवलंभादो । परोदओ, णिरंतरो, असंजदसम्मादिट्ठीसु वेउव्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइय-पच्चयाणमभावादो बादालीसपच्चओ, उवरिमेसु गुणट्ठाणेसु ओघपच्चओ, देवगइसंजुत्तो, दुगइअसंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद- मणुसगइ संजदसामीओ, असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद - पमत्त अप्पमत्तसंजदद्धाणो, अप्पमत्तद्धाए संखेज्जेसु भागे सु पत्तविलओ, सादि - अडवो, देवाउअस्स बंधो त्ति अवगंतव्वो ।
स्थान में बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ध्रुव बन्धके बिना शेष तीन प्रकारका बन्ध होता है । इस प्रकार इनकी प्ररूपणा सुगम है ।
देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । अप्रमत्तसंयतकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २९० ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते । वह इस प्रकार है - देवायुका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अप्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । परोदय और निरन्तर बन्ध होता है । असंयत'सम्यग्दृष्टियों में वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंका अभाव होने से भ्यालीस प्रत्यय हैं । उपरिम गुणस्थानोंमें ओघके समान प्रत्यय हैं । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है । दो गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्तसंयत बन्धाध्वान हैं। अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभागोंके वीतनेपर बन्धव्युच्छेद होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है। इस प्रकार देवायुके बन्धकी प्ररूपणा जानना चाहिये ।
१ प्रतिषु ' दुवेण ' इति पाठः ।
२ अप्रतौ ' व ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २९१. आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २९१ ॥
सुगमे । अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥२९२॥ एदस्स अत्थो सुगमो।
उवसमसम्मादिट्ठीसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २९३ ॥
सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा बंधा । सुहुमसांपराइयउवसमद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥२९४ ॥
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं बंधवोच्छेदो
आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मीका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९१ ॥
यह सूत्र सुगम है। अप्रमत्तंसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २९२ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है ।
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, ऊंचगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक तक बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परायिकउपशमककालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २९४ ॥
पांच शानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्त.
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२, २९४ सम्मत्तमगणाए बंधसामित्त
[३७३ चेव । उदयवोच्छेदो णस्थि, खीणकसायादिसु वि एदासिं पयडीणं उदयदसणादो । तेण उदयवोच्छेदादो बंधवोच्छेदो पुव्वं पच्छा वा होदि त्ति विचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णियासविरोहादो। पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचतराइयाणं सोदओ बंधो । जसकित्तीए असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। उच्चागोदस्स असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासजदेसु सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । जसकित्तीए असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा । णवरि असंजदसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ, पमत्तसंजदेसु आहारदुगपच्चओ णत्थि । असंजदसम्मादिट्ठीसु एदासिं पयडीणं बंधो देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरिमेसु गुणहाणेसु देवगइसंजुत्तो अगइसंजुत्तो वा । चउगइअसंजदसम्मादिट्ठी दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा सामीओ। बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अदुवो, अद्भुवबंधित्तादो।
रायका बन्धव्युच्छेद ही है । उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, क्षीणकषायादिक गुणस्थानों में भी इन प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है । इसी कारण उदयव्युच्छेदसे बन्धव्युच्छेद पूर्वमें या पश्चात् होता है, यह विचार नहीं है; क्योंकि, सत् और असत्की तुलनाका विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है। यशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है। उच्चगोत्रका असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदयाभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। यशकीर्तिका असंतयसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ऊपर प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका
प्रत्यय सुगम है । विशेष इतना है कि असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें औदारिकमिश्र प्रत्यय और प्रमत्तसंयतोंमें आहारकद्विक प्रत्यय नहीं हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें इन प्रकृतियोंका बन्ध देव व मनुष्य गतिसंयुक्त होता है। उपरिम गुणस्थानों में देवगतिसंयुक्त या अगतिसंयक्त बन्ध होता है। चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अधुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
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३७४ !
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २९५. णिद्दा-पयलाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २९५॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपुवकरणउवसमा बंधा । अपुवकरणउवसमद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २९६ ॥
____एदासिं बंधो पुव्वं वोच्छज्जदि । उदयवोच्छेदो णत्थि, खीणकसाएसु वि उदयदसणादो । सोदय-परोदओ बंधो, अडुवोदयत्तादो। णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । असंजदसम्मादिट्ठीसु पंचेतालीस पच्चया, ओरालियमिस्सपच्चयाभावादो । पमतसंजदम्हि बावीस पच्चया, आहारदुगाभावादो। सेसगुणट्ठाणेसु ओघपच्चओ, विसेसाभावादो । असंजदसम्मादिद्विम्हि देव-मणुसगइसंजुत्तो, उवरिमेसु देवगइसंजुत्तो, चउगइअसंजदसम्मादिट्ठि-दुगइसंजदासंजद
निद्रा और प्रचलाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? २९५ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण उपशमक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरण उपशमकालका संख्यातवां भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २९६॥
इनका बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है । उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, क्षीणकषाय जीवोंमें भी उनका उदय देखा जाता है। स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें पैंतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्र प्रत्ययका वहां अभाव है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें बाईस प्रत्यय है, क्योंकि, वहां आहारकद्विकका अभाव है। शेष गुणस्थानों में ओघप्रत्ययोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, ओघसे वहां कोई विशेषता नहीं है। असंयतसम्यग्दृष्टि गणस्थानमें देव व मनुष्य गतिले संयुक्त तथा उपरिम गुणस्थानों में देवगतिसंयुक्त होता है। चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्य
१ अप्रतौ — पमत्तसंजदा हि बात्रीस ', आप्रतौ ‘पमतमजद० बावीप ', काप्रती पमत्तसंजदा बावीस' पति पाठः।
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३, २९८.] सम्मत्तमग्गणार बंधसामित्तं
[ ३७५ मणुसगइसंजदसामीओ, अवगयबंधद्धाणो, अपुवकरणद्धाए संखेज्जदिमे भागे गयविणासो, धुवबंधित्तादो तिविहाणो णिहा-पयलाणं बंधो ।
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ॥ २९७ ॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीयरागछदुमत्था बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २९८ ॥
बंधवोच्छेदं मोत्तूण उदयवोच्छेदाभावादो, सोदय-परोदयबंधादो, असंजदप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरं बंधिदूणुवरि णिरतरबंधित्तादो, ओघपच्चएहितो असंजदसम्मादिट्ठिपमत्तसंजदे मोत्तूण अण्णत्थ समाणपच्चयत्तादो, असंजदसम्मादिहि-पमत्तसंजदेसु ओरालियमिस्साहारदुगाभावादो, असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तादो उवरि देवगइसंजुत्तबंधादो, चउगइअसंजदसम्मादिहि-दुगइसंजदासंजद-मणुसगइसंजदसामिबंधादो, बंधेण सादि-अडुवत्तादो सुगममेदं ।
गतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान ज्ञात हो है । अपूर्वकरणकालका संख्यातवां भाग वीतनेपर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ध्रुवबन्धी होनेसे निद्रा व प्रचलाका तीन प्रकार बन्ध होता है।
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं है ॥ २९८ ॥
सातावेदनीयके बन्धव्युच्छेदको छोड़कर उदयव्युच्छेदका अभाव होनेसे, स्वोदयपरोदय बन्ध होनेसे, असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बंधकर ऊपर निरन्तरबन्धी होनेसे, असंयतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयतोंको छोड़कर अन्यत्र औघके समान प्रत्यय युक्त होनेसे,असंयतसम्यग्दृष्टियों में औदारिकमिश्र और प्रमत्तसंयतोंमें आहारद्विकका अभाव होनेसे, असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें दो गतियोंसे संयुक्त तथा ऊपर देवगतिसंयुक्त बन्ध होनेसे; चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी होनेसे; तथा बन्धसे सादि व अध्रुव होनेसे यह सूत्र सुगम है।
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३७६]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २९९. . असादावेदणीय-अरदि-सोग अथिर-असुह-अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २९९ ॥
सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३०० ॥
सुगममेदं, मदिणाणमग्गणाए परूविदत्थत्तादो । अपच्चक्खाणावरणीयमोहिणाणिभंगो ॥ ३०१॥
अपच्चक्खाणचउक्क-मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं एत्थ गहणं कायव्वं, देसामासियत्तादो । सेसं सुगम । णवरि ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो । कथं वेउब्धियमिस्स-कम्मइयाणमुवलंभो' ? उवसमसम्मत्तेण उवसमसेडिं चडिय कालं काऊण देवेसुप्पण्णाणं तदुवलंभादो ।
......................................
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति नामकर्मोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २९९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ३०० ।।
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, मतिशान मार्गणामें इसके अर्थकी प्ररूपणा की जाचुकी है।
अप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ ३०१॥
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका यहां ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, यह सूत्र देशामर्शक है। शेष प्ररूपणा सुगम है। विशेष इतना है कि औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये।
शंका-वैक्रियिकमिश्न ओर कार्मण काययोग यहां कैसे पाये जाते हैं ?
समाधान-उपशमसम्यक्त्वके साथ उमशमश्रेणि चढ़कर और मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके वे दोनों प्रत्यय पाये जाते हैं ।
१ प्रतिषु ' -मुवलंभादो' इति पाठः ।
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३, ३०६.] सम्मत्तमग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३७७ णवरि आउवं णत्थि ॥ ३०२॥ कुदो ? सम्मामिच्छाइटिस्सेव सव्वुवसमसम्माइट्ठीणमाउअस्स बंधाभावादो । पच्चक्खाणावरणचउक्कस्स को बंधो को अबंधो ? ३०३ ॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा [बंधा] । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३०४ ॥
एदं पि सुगम, सुदणाणपरूवणापरूविदत्थत्तादो। . पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ३०५ ॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अणियट्टी उवसमा बंधा। अणियट्टिउवसमद्धाए सेसे संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंघा ॥ ३०६॥
विशेष इतना है कि उनके आयु कर्मका बन्ध नहीं है ॥ ३०२ ॥
क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टिके समान ही सर्व उपशमसम्यग्दृष्टियोंके आयुके बन्धका अभाव है।
प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३०३ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत [ बन्धक ] हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ३०४॥
यह भी सूत्र सुगम है, क्योंकि, इसके अर्थकी प्ररूपणा श्रुतज्ञानप्ररूपणामें की . जा चुकी है।
पुरुषवेद और संज्वलन क्रोधका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३०५ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक तक बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरणउपशमककालके शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक है ॥ ३०६॥
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.४८.
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३७८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३०७. सुगममेदं । माण-मायसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ३०७॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिहिप्पहुडि जाव अणियट्टी उवसमा बंधा। अणियट्टिउवसमद्धाए सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । .एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३०८ ॥
एदं पि सुगम, बहुसो परूविदत्तादो। लोभसंजलणस्स को बंधो को अवंधो ? ॥ ३०९ ॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अणियट्टी उवसमा बंधा । अणियट्टिउवसमद्धाएं चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३१० ॥
यह सूत्र सुगम है। संज्वलन मान और मायाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३०७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक तक बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरणउपशमकालके शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ।। ३०८॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, बहुत वार इसकी प्ररूपणा की जाचुकी है। संज्वलन लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३०९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक तक बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरणउपशमकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ३१०॥
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३, ३१३.] सम्मत्तमग्गणाए बंधसामित्त
३०९ एदं पि सुगमं । हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ३११ ॥ मुगमं ।
असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणउवसमा बंधा । अपुव्वकरणुवसमद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिजदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३१२ ॥
एदं पि सुगमं ।
देवगइ-पंचिंदियजादि-वेब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरसं-- संठाण-वेउब्वियअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-देवाणुपुब्बी-अगुरुअलहुअउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगदि-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीरथिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिण-तित्थयरणामाणं को बंधो को अबंधो? ॥ ३१३॥
सुगमं ।
यह सूत्र भी सुगम है। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है? ॥ ३११ ॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण उपशमक तक बन्धक हैं। अपूर्वकरण उपशमकालके अन्तिम समयको प्राप्त होकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ३१२॥ ,
यह सूत्र भी सुगम है।
देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३१३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३१४.
असंजसम्मादिट्टि पहुडि जाव अपुव्वकरणउवसमा बंधा । अपुव्वकरणुवसमद्धाए संखेज्जे भागे गंतॄण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३१४ ॥
एदं पि सुगमं, बहुसो कयपरूवणादो । आहारसरीर-आहारसरीरअंगोवंगाणं को बंधो को अबंधो ?
३८० ]
॥ ३१५ ॥
सुमं ।
अप्पमत्तापुव्वकरणवसमा बंधा । अपुव्वकरणुवसमद्धांए संखेजे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३१६ ॥
एदं पि सुगमं ।
सास सम्मादिट्टी मदिणाणिभंगो ॥ ३१७ ॥
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण उपशमक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरण उपशमकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं । ३४ ॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, बहुत बार इसकी प्ररूपणा की जाच्चुकी है। आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांगका कौन बन्धक और कौन अन्धक है ?
॥ ३१५ ॥
यह सूत्र सुगम है |
अप्रमत्त और अपूर्वकरण उपशमक बन्धक हैं । अपूर्वकरण उपशमकालके संख्यात बहुभाग जाकर चन् व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ ३१६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानियोंके समान है ॥ ३१७ ॥
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३, ३१७.] सम्मत्तमागणाए बंधसामित्त
[३८१ पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-अट्ठणोकसाय-तिरिक्खमणुस-देवाउ-तिरिक्ख-मणुस-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-पंचसंठाण-ओरालिय-वेउब्वियअंग्रोवंग-पंचसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्ख-मणुस-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-उज्जोव-दोविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयपयडीओ सासणसम्मादिट्ठीहि बज्झमाणियाओ । एदासिमुदयादो बंधो पुब्वं पच्छा [वा] वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, एत्थ एदासिं बंधोदयवोच्छेदाभावादो ।
पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । देवाउ-देवगइ-वेउब्धियदुगाणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधुवलंभादो ।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस-देवाउपंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकपाय, तिर्यगाय, मनुष्याय, देवाउ, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, पांच संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, पांच संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलधु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच व ऊंच गोत्र
पांच अन्तराय,ये प्रकृतिया सासादनसम्यग्हांजावा द्वारा बध्यमान है। इनका बन्ध उदयसे पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं हैं। क्योंकि, यहां इनके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी हैं । देवायु, देवगतिद्विक और वैक्रियिकतिकका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है। शेष प्रकृतियोका बन्ध स्वोदय परोदयसे होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे भी उनका वन्ध पाया जाता है।
__ पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरु
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३८२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३१७. तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाणुवलंभादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोगित्थिवेद-मज्झिमच उसंठाण-पंचसंघडण-उज्जोव-दोविहायगइ-थिराथिर-सुहासुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएणवि बंधुवरमदसणादो । पुरिसवेदस्स बंधो सांतर-णिरंतरो, पम्म-सुक्कलेस्सिएसु तिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । देवगइ-वे उव्वियदुग-समचउरससंठाण-सुभग-सुस्सरआदेज्जुच्चागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो, असंखेज्जवासाउएसु सुहतिलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । मणुसगइदुगस्स बंधो सांतर-णिरंतरो, आणदादिदेवेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । तिरिक्खगइदुग-णीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो, सत्तमपुढवीणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । ओरालियसरीरदुगस्स वि सांतर-णिरंतरो बंधो, देव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो।
देवाउ-देवगइ-वेउव्वियदुगाणं छादालीस पच्चया, वेउब्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइयाणमभावादो । मणुस-तिरिक्खाउआणं सत्तेतालीस पच्चया, ओरालिय-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । अवसेसाणं पयडीणं पंचास पच्चया, पंचमिच्छत्तपच्चयाणमभावादो ।
लघ, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तरायको निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम नहीं पाया जाता । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, मध्यम चार संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, दो विहायोगतियां, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । पुरुषवेदका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्यों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। देवगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क और शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यच व मनुष्यों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। मनुष्यगतिद्विकका बन्धसान्तर निरन्तर होता है, क्योंकि, आनतादिक देवों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । तिर्यग्गतिद्विक और नीचगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । औदारिकशरीरद्विकका भी सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, देव व नारकियोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
देवायु, देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके छयालीस प्रत्यय है,क्योंकि, वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंका अभाव है। मनुष्यायु और तिर्यगायुके सैंतालीस प्रत्यय है, क्योंकि, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके पचास प्रत्यय है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियोंके पांच मिथ्यात्व प्रत्ययोंका अभाव है।
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सम्मतमग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३८३
देवाउ-देवगइ-वेउब्वियदुगाणं बंधो देवगइसंजुत्ता । मणुसाउ- मणुसगइदुगाणं मणुसगइसंजुत्तो । तिरिक्खाउ - तिरिक्खगइदुगुज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो । ओरालियसरीरमज्झिमचउसठाण-ओरालिय सरीरअंगोवंग-पंच संघडण - अप्पसत्थविहायगइ- दुभग- दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं तिरिक्ख-मणुसग संजुत्तो बंधो । उच्चागोदस्स देव मणुसगइसंजुत्ता बंधो, तिरिक्खेसुच्चागोदाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो तिगइ संजुत्तो, णिरयगइबंधाभावादो । देवाउ-देवगइ-वेउब्वियदुगाणं तिरिक्ख- मणुसा सामी । सेसाणं पयडीणं बंधस्स सामी चउगइसासणा । बंधद्धाणं बंधवोच्छेदो च णत्थि । छदालीसधुवबंधपयडीणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो अद्भुवबंधित्तादो |
सम्मामिच्छा हट्टी असंजदभंगो ॥ ३१८ ॥
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादासाद - बारसकसाय - पुरिसवेद - हस्स - रदि-अरदिसोग-भय-दुगुंडा- मणुसगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वे उव्वियअंगोवंग- वज्जरि सहसंघडण वण्ण-गंध-रस- फास - मणुसगइ - देवगइ
३, ३१८. ]
देवायु,देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका बन्ध देवगति संयुक्त होता है। मनुष्यायु और मनुष्यगतिद्विकका बन्ध मनुष्यगति संयुक्त होता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गतिद्विक और उद्योतका बन्ध तिर्यग्गति संयुक्त होता है । औदारिकशरीर, मध्यम चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका तिर्यग्गति और मनुष्यगति से संयुक्त बन्ध होता है । उच्चगोत्रका देव व मनुष्य गति से संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यचोंमें उच्चगोत्रका अभाव है । शेष प्रकृतियों का बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियों के नरकगतिके बन्धका अभाव है ।
देवायु, देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके तिर्यच व मनुष्य स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी चारों गतियोंके सासादन लम्यग्दृष्टि हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छेद नहीं है । छ्यालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुवबन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है ॥ ३१८ ॥
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगति व देवगति प्रायोग्यानु
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arjasti धसामित्तविचओ
[ ३, ३१८.
३८४ ] पाओग्गाणुपुत्री- अगुरुवलहुअ-उवघाद - परघाद- उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेयसर-थिराथिर - सुद्दा सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज जसकित्ति अज सकित्ति - णिमिणुच्चा गोद - पंचतराइयपडीओ सम्मामिच्छाइट्ठीहि बज्झमाणियाओ । उदयादा बंधो पुव्वं पच्छा [वा ] वोच्छिण्णो त्ति एस विचारो णत्थि, पयडीणमेत्थ बंधोदयवोच्छेदाणुवलंभादो |
पंचणाणावरणीय-च उदंसणावरणीय पंचिंदियजादि - तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुवलहुअ-उवघाद- परघाद- उस्सास-तस बादर - पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुहणिमिण-पंचं तराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । णिद्दा- पयला-सादासाद-बारसकसायपुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि- सोग-भय- दुगुंछा - समचउरस संठाण - पसत्थविहाय गइ - सुभग-सुस्सरआदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति - उच्चागोदाणं बंधो सोदय- परोदओ, उहयहा वि बंधुवलंभादो । मणुस गइ - देवगड- वे उव्वियसरीर - ओरालिय- वे उव्वियसरीरअंगोवंग- वज्जरि सहसंघडण - मणुसगइ - देवगइपाओग्गाणुपुष्वीणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो ।
पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय बारस कसाय - पुरिसवेद-भय-भय-दुगुंछा- मणुसगइ देवगइपंचिंदियजादि-ओरालिय- वे उब्विय- तेजा - कम्मइयसरीर - समचउरस संठाण-ओरालिय- वेडव्वियअंगो
पूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा बध्यमान हैं । उदय से बन्ध पूर्व में या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं हैं; क्योंकि, यहां उक्त प्रकृतियोंके बन्ध और उदयका व्युच्छेद नहीं पाया जाता है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे भी इनका बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, औदारिक व वैकियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदय से इनके बन्धका विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्य गति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर,
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३, ३१८.] सम्मत्तमग्गणाए बंधसामित्तं
[३८५ वंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइ-देवगइपाआग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्जणिमिणुच्चागोद-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधदसणादो। सादासाद-हस्स-रदिअरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो।
मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं बादालीस पच्चया, ओरालियकायजोगाभावादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुचीवेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवगाणं पि बादालीस पच्चया, वेउब्वियकायजोगाभावादो । अवसेसाणं तेदालीस पच्चया, पंचमिच्छत्ताणुबंधिचउक्कोरालिय-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं बंधो मणुसगइसंजुत्तो । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं देवगइसंजुत्तो । सेससव्वपयडीणं देवमणुसगइसंजुत्तो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं देव-णेरइया सामी । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं तिरिक्ख-मणुसा सामी । सेसाणं पयडीणं बंधस्स सामी
समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगति व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुवबन्ध देखा जाता है। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा जाता है।
मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिकशरीरांगो पांग और वज्रर्षभसंहननके व्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिककाययोगका अभाव है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगके भी ब्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिककाययोगका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके तेतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, पांच मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतष्क, औदा गरिक. मिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका मिश्रगुणस्थानमें अभाव है।
मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका बन्ध मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकाद्वकका बन्ध देवगति संयुक्त होता है । शेष सब प्रकृतियोंका बन्ध देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है। मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक व वज्रर्षभसंहननके देव व नारकी स्वामी हैं। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके तिर्यंच व मनुष्य खामी हैं । शेष प्रकृतियोक बन्धके स्वामी चारों गतियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं । बन्धाध्वान ... ४९.
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३१९. चउगइसम्मामिच्छाइट्ठिणो । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छेदो वि णस्थि, एत्थ सव्वासिं बंधुवलंभादो। धुवबंधिपयडीणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अदुवो, अद्भुवबंधित्तादो ।
मिच्छाइट्ठीणमभवसिद्धियभंगो ॥ ३१९ ॥
सुगममेदं सुत्तं, विसेसाभावादो । णवरि धुवबंधिपयडीणं चउब्विहो बंधो, सादि-सांतरबंधुवलंभादो।
सणियाणुवादेण सण्णीसु जाव तित्थयरे त्ति ओघभंगो ॥३२०॥
एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं परोदयत्तुवलंभादो पंचिंदियजादि-तस-बादराणं सोदयबंधुवलंभादो णेदं सुत्तं जुज्जदे ? ण, देसामासिय
नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है। बन्धव्युच्छेद भी नहीं है, क्योंकि, यहां सब प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धका यहां अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुववन्धी हैं ।
मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा अभव्यसिद्धिक जीवोंके समान है ॥ ३१९ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, यहां कोई विशेषता नहीं है। भेद इतना है कि ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका यहां चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, सादि व सान्तर अर्थात् अध्रुव बन्ध पाया जाता है।
संज्ञिमार्गणानुसार संज्ञी जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृति तक ओघके समान प्ररूपणा है ॥३२० ॥
शंका-चूंकि यहां एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण प्रकृतियोंका बन्ध परोदयसे और पंचेन्द्रिय जाति, त्रस व बादरका बन्ध स्वोदयसे पाया जाता है, अतएव यह सूत्र युक्त नहीं है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, देशामार्शक सूत्रोंमें इस प्रकारकी
१ प्रतिषु अतोऽग्रे 'एगूणचालीसपच्चया' इत्यधिकः पाठः समुपलभ्यते ।
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३, ३२२.] सणिमगणाए बंधसांमित्त
। ३८७ सुत्तेसु एवंविहभेदाविरोहादो । पयडिबंधद्धाणणिबंधणभेदपदुप्पायणट्ठमाह
णवरि विसेसो सादावेदणीयस्स चक्खुदंसणिभंगो ॥ ३२१॥ सुगममेदं । असण्णीसु अभवसिद्धियभंगो ॥ ३२२ ॥
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-चउँआउ-चउगइ-पंचजादि-ओरालिय-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-छसंठाण-ओरालिय-वेउव्वियअंगोवंग-छसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-चउआणुपुब्बी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापजत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-णीचुच्चागोदपंचतराइयपयडीओ असण्णीहि वज्झमाणियाओ । उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति परिक्खा णत्थि, एत्थेदासिं बंधोदयवोच्छेदाभावादो ।
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विशेषता विरोधसे रहित है।
प्रकृतियोंके बन्धाध्वानमिमित्तक भेदके प्ररूपणार्थ सूत्र कहते हैं
परन्तु विशेषता इतनी है कि सातावेदनीयकी प्ररूपणा चक्षुदर्शनी जीवोंके समान है ॥ ३२१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
असंज्ञी जीवोंमें बन्धोदयव्युच्छेदादिकी प्ररूपणा अभव्यसिद्धिक जीवोंके समान है ॥ ३२२ ॥
पांच शानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, चार आयु, चार गतियां, पांच जातियां, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधा. रण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच व ऊंच गोत्र और पांच अन्तराय, ये प्रकृतियां असंत्री जीवोंके द्वारा बध्यमान हैं । उदयसे बन्ध पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह परीक्षा यहां नहीं है। क्योंकि, यहां इन प्रकृतियों के बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है।
१ प्रतिषु । मिसेसा' इति पाठः ।
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३८८३ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३२२. पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-मिच्छत्त-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-णीचागोद-पंचंतराइय-तिरिक्खगईणं बंधो सोदओ । णिरय-देवाउ-णिरय-देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-णिरय देवगइपाओग्गाणुपुव्वीउच्चागोद-मणुसाउ-मणुसगइदुगाणं परोदओ बंधो । पंचदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-णवणोकसाय-पंचजादि-ओरालियसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-तिरिक्खाणुपुव्वी-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीर-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-[अणादेज्ज-] जसकित्ति-अजसकित्तीणं बंधो सोदयपरोदओ, उहयहा वि बंधविरोहाभावादो। उवघाद-परघाद-उस्सासाणं पि सोदय-परोदओ, अपज्जत्तकाले उदएण विणा वि बंधुवलंभादो।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछ-चउआउ-तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-सत्तणोकसाय-णिरय-मणुस-देवगइ-पंचिंदियजादिवेउब्वियसरीर-छसंठाण-ओरालिय-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-णिरय-मणुस-देवाणुपुव्वी-पर
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण, नीचगोत्र, पांच अन्तराय और तिर्यग्गतिका बन्ध स्वोदय होता है । नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, नरकगति व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र, मनुष्यायु और मनुष्यगतिद्विकका परोदय बन्ध होता है। पांच दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय,पांच जातियां, औदारिकशरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, तिर्यगानुपूर्वी, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, सुभग, दुर्भग,सुस्वर, दुस्वर, आदेय, [अनादेय ], यशकीर्ति और अयशकीर्तिका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे भी इनके बन्धका कोई विरोध नहीं है। उपधात, परघात और उच्छ्वासका भी स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उदयके विना भी इनका बन्ध पाया जाता है।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, चार आयु, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायको निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविधामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, नरकगति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग,
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३, ३२२.]
सणिमग्गणाए बंधसामित्त पादुस्सास-आदावुजोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साहारणसरीरथिराथिर-सुहासुह-सुभग-भग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-णीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो, तेउ वाउकाइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो ।
___ असण्णीसु पणदालीस पच्चया सव्वपयडीणं, वेउव्वियदुग-चउविहमण-तिविहवचिजोगमाणसासंजमाभावादो । णवरि णिरय-देवाउअ-णिरय-देवगइ-णिरयगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीवेउब्वियसरीर-वेउब्धियसररिअंगोवंगाणं तेदालीस पच्चया, ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो। मणुस्स-तिरिक्खाउआणं चोदालीस पच्चया, कम्मइयपच्चयाभावादो। सादावेदणीय-इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदि-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर - आदेज्ज-जसकित्तीणं बंधो तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं गिरयगइसंजुत्तो । मणुसाउ-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं मणुसगइसंजुत्तो । देवाउ-देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं देवगइसंजुत्तो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ
यह संहनन, नारकानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, प्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक व साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। तिर्यग्गात, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर और नीचगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, तेज व वायुकायिक जीवोंमें इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
असंही जीवोंमें सब प्रकृतियोंके पैंतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, उनके वैक्रियिकद्धिक, चार प्रकारका मन, अनुभय वचनयोगके विना तीन प्रकारका वचन योग और मन जनित असंयम प्रत्ययोंका अभाव है। विशेषता यह है कि नारकायु, देवायु, नरकगति, देवगंति, नरकगति व देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगके तेतालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। मनुष्यायु और तिर्यगायुके चवालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, कार्मण प्रत्ययका अभाव है।
सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, समचतुरन संस्थान, प्रशस्तविहयोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ नरकगतिके बन्धका अभाव है। नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध नरकगतिसंयुक्त होता है। मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है। देवायु, देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। तिर्य गायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानु
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३५० ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३२३.
तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वी- एइंदिय-बीइंदिय - तीइंदिय - चउरिंदियजादि - आदावुज्जोव - थावरसुहुम-साहारणसरीराणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । वेउब्वियसरीर - वे उब्वियसरीरअंगोवंगाणं देव णिरयगइ संजुत्तो । ओरालियसरीर अंगोवंग-मज्झिमच उसठाण - छसंघडण - अपज्जत्ताणं तिरिक्ख- मणुसगइसंजुत्तो बंधा । णउंसयवेद- हुंड संठाण - अप्पसत्यविहायगइ- दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचागोदाणं तिगइसंजुत्तो बंधो, देवगईए अभावादो | उच्चागोदस्स दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणं अभावादो । अवसेसाणं पयडीगं बंधो चउगसंजुत्तो ।
तिरिक्खा चेव सामी, अण्णत्थासणीणमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि अद्धाविहाद बंधवोच्छेदो वि णत्थि, बंधुवलंभादो । सत्तेतालीसधुवबंधिपयडीणं चउव्विह। बंधो । सेसाणं सादि- अडवो, पडिवक्खबंधाणुवलंभादो' ।
1
आहारावादेण आहारएस ओघं ॥ ३२३ ॥
दस्स सुत्तस्स जधा ओघम्मि परूवणा कदा तथा कायव्वा । णवरि सव्वत्थ कम्मझ्यपच्चओ अवणेयव्वो । चदुण्णमाणुपुत्रीणं बंधो परोदओ । उवघादस्स सोदओ ।
पूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीरका तिर्यग्गतिसंयुक्त बन्ध होता है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका देव व नरक गति से संयुक्त बन्ध होता है । औदारिकशरीरांगोपांग, मध्यम चार संस्थान, छह संहनन और अपर्याप्तका तिर्यग्गति व मनुष्यगति से संयुक्त बन्ध होता है । नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ देवगतिके बन्धका अभाव है। उच्चगोत्रका दो गतियोंसे सुंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, उसके साथ नरक और तिर्यगतिका बन्ध नहीं होता । शेष प्रकृतियोंका बन्ध चारों गतियोंसे संयुक्त होता है ।
तिर्यच जीव ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में असंज्ञी जीवोंका अभाव है । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्यानका विरोध है । बन्धव्युच्छेद भी नहीं है, क्योंकि, बन्ध पाया जाता है । सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, इनके प्रतिपक्ष अर्थात् अनादि व ध्रुव बन्ध नहीं पाये जाते हैं ।
आहारमार्गणानुसार आहारक जीवोंमें ओघके समान प्ररूपणा है ॥ ३२३ ॥
इस सूत्र की जैसे ओघ में प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि सर्वत्र कार्मण प्रत्ययको कम करना चाहिये । चार आनुपूर्वियों का बन्ध परोदय होता है । उपघातका स्वोदय बन्ध होता है ।
१ प्रतिषु 'डिमक्खनं धुनमादो ' इति पाठः ।
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३, ३२४. आहारमग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३९१ अणाहारएसु कम्मइयभंगो ॥ ३२४ ॥
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-असादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि[अरदि-सोग-भय-दुगुंडा-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा कम्मइयसरीर समचउरससंठाण
ओरालियअंगावंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुचागोद-पंचतराइयपयडीओ तीहि गुणहाणेहि बज्झमाणियाओ । एदासिमुदयपुवावरकालसंबंधिबंधवोच्छेदपरीक्खा णत्थि, सव्वासिमेत्थ बंधोदयदंसणादो।
__पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाण सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । ओरालियसरीरसमचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-सुस्सराणं परोदओ बंधो, सोदएण एत्थ बंधविरोहादो । णिद्दा-पयलाअसादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-सुभग-आदेज्ज-जस
अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगियोंके समान प्ररूपणा है ॥ ३२४ ॥
पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, [अरति],शोक,भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण,गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायो. गति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां तीन [मिथ्यादृष्टि, सासादन, अविरतसम्यग्दृष्टि] गुणस्थानों द्वारा बध्यमान हैं। इन प्रकृतियोंके उद्यव्युच्छेदके पूर्वापर कालसम्बन्धी बन्धव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, सब प्रकृतियोंका यहां बन्ध और उदय देखा जाता है ।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी हैं। औदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, बज्रर्षभसंहनन, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे यहां इनके बन्धका विरोध है। निद्रा, प्रचला, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति..
, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका स्वोदय
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३९२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १२४. कित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधविरोहाभावादो। मणुसगइमणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ । असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ चेव, सोदएण बंधविरोहादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्ठीसु बंधो सोदय-परोदओ, पडिवखुदयदंसणादो । सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदओ चेव, पडिवखुदयाभावादो ।
पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछ-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । असादावेदणीय-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो । पुस्सिवेदस्स मिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो । असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । एवं समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सरआदेज्जुच्चागोदाणं पि वत्तव्वं । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो णिरंतरो, आणदादिदेवसुप्पज्जिय विग्गहगईए वट्टमाणेसु णिरंतरबंधुवलंभादो।
परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध मिथ्थादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में परोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है। पंचेन्द्रिय जाति, अस, बादर और पर्याप्तका बन्ध मिथ्याष्टियों में स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उनका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है।
__पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी हैं। असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है। पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर होता है। असंयतसम्यग्हष्टियोंमें उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। इसी प्रकार समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगांत्रके भी कहना चाहिये । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, आनतादिक 'देवोंमें उत्पन्न होकर विग्रहगतिमें वर्तमान जीवोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
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१, ३२५.]
आहारमग्गणाए बंधसामित्तं असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पंचिंदियजादि-ओरालियसरीरअंगोवंग-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो, सणक्कुमारादिदेव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । विग्गहगदीए कषं णिरंतरदा ? ण, सत्तिं पडुच्च णिरंतरत्तुवदेसादो । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । एवमोरालियसरीरस्स वि वत्तव्वं ।
मिच्छाइट्ठिस्स तेदालीस, सासणस्स अट्टत्तीस, असंजदसम्मादिहिस्स तेत्तीस पच्चया । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं बंधो मणुसगइसंजुत्तो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्ता । असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो । एवं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणस्स वि वत्तव्वं । उच्चागोदस्स मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो, असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तो, एदेसिमपज्जत्तकाले देव-णिरयगईणं बंधाभावादो। असंजदसम्मादिट्ठीसु देव
असंयतसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीरांगोपांग, परघात, उच्छवास, त्रस, बादर,पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव और नारकियोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
शंका-विग्रहगतिमें बन्धकी निरन्तरता कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, शक्तिकी अपेक्षा उसकी निरन्तरताका उपदेश है।
सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनके प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। इसी प्रकार औदारिकशरीरके भी कहना चाहिये।
मिथ्यादृष्टिके तेतालीस, सासादनसम्यग्दृष्टिके अड़तीस, और असंयतसम्यग्दृष्टिके तेतीस प्रत्यय हैं। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध मनुष्यगतिसंयुक्त
ता है। औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्य ग्दृष्टियोंमें तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है। इसी प्रकार वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके भी कहना चाहिये। उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में मनुष्यगतिसंयुक्त, तथा असंयतसम्यग्दृष्टियों में देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके अपर्याप्तकालमें देव व नरक गतिके बन्धका अभाव है । असंयतसम्य
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३९४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३२४. मणुसगइसंजुत्तो, तत्थण्णगईणं बंधाभावादो ।
मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं चउगइमिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठी सामी, देव-णिरयगइअसंजदसम्मादिट्ठी सामी । एवं वज्जरिसहसंघडणस्स वि वत्तव्वं । सेसाणं पयडीणं चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो च सुगमो । धुवबंधीणं बंधो मिच्छाइट्ठीसु चउव्विहो, सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु तिविहो । सेसाणं पयडीणं सव्वत्थ सादि-अडुवो।
थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-तिरिक्खगइ-चउसंघडण-चउसंठाण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं दुट्ठाणपयडीणं वुच्चदे- अर्णताणुबंधिचउक्कित्थिवेदाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा । दुभगाणादेजणीचागोद-तिरिक्खदुगाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि । अवसेसाणं पयडीणं बंधवोच्छेदो चेव, एत्थुदयविरोहादो । अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-तिरिक्खगइदुग-दुभगाणादेज्ज-णीचागोदाणं बंधो सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधविरोहाभावादो। सेसाणं परोदओ
ग्दृष्टियों में देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है।
मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगो. पांगके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि, तथा देवगति व नरकगतिके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। इसी प्रकार वज्रर्षभसंहननके भी कहना चाहिये । शेष प्रकृतियोंके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। बन्धाध्वान सुगम है। बन्धव्युच्छेद भी सुगम है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टियों में चारों प्रकारका होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे तीन प्रकारका बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, चार संहनन, चार संस्थान, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन द्विस्थान प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं- अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदका बन्ध व उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं। दुर्भग, अनादेय, नीचगोत्र और तिर्यग्गतिद्विकका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है। शेष प्रकृतियोंका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, यहां उनके उदयका विरोध है। अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यग्गतिद्विक, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है। शेष प्रकृतियोंका परोदय बन्ध
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३, ३२४.1 आहारमग्गणाए बंधसामित्तं
[३९५ बंधो, एत्युदयाभावादो। थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, अणेगसमयबंधसत्तिसंजुत्तत्तादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुग्वि-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठीसु सांतरणिरंतरो, तेउ-वाउकाइएसु विग्गहं काऊणुप्पण्णाणं तदो विग्गहगईए गयाणं सत्तमपुढवीदो विग्गहं काऊण णिग्गयाणं च णिरंतरबंधुवलंभादो। सासणम्मि सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमसत्तिदसणादो । सेसाणं पयडीणं बंधो सव्वत्थ सांतरो, साभावियादो । पच्चया सुगमा । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो । चउसंठाण-चउसंघडणाणं तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तो। इत्थिवेदस्स दुगइसंजुत्तो, देव-णिरयगईणमभावादो । अप्पसत्थविहायगइदुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सासणे दुगइसंजुत्तो, देव-णिरयगईणमभावादो। थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि सासणे दुगइसंजुत्तो, णिरय-देवगईणमभावादो। चउगइमिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठिणो सामी। बंधद्धाणं बंधवोच्छेदट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं बंधो मिच्छाइट्टिम्हि चउविहो । सासणे तिविहो,
होता है, क्योंकि, यहां उनका उदयाभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये अनेक समयरूप बन्धशक्तिसे संयुक्त हैं। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका मिथ्यादृष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमें विग्रह करके उत्पन्न हुए, उनमेंसे विग्रहगतिमें गये हए, तथा सप्तम प्रथिवीसे विग्रह करके निकले हुए जीवोंके उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । सासादन गुणस्थानमें उनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी बन्धविश्रामशक्ति देखी जाती है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र सान्तर होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। चार संस्थान और चार संहननका तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। स्त्रीवेदका दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उक्त दोगुणस्थानोंमें देव व नरक गतिके बन्धका अभाव है । अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, देव वनरक गतिके बन्धका अभाव है । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्थादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, नरक व देव गतिके बन्धका अभाव है। चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान व बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम हैं। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका होता है। सासादन गुणस्थानमें तीन प्रकारका बन्ध
, प्रतिषु ' संजुत्तादो' इति पाठः।
२ प्रतिषु 'तरो' इति पाठः । है आप्रतौ - मिठाइहिन्दि चउन्विहो सासणे ' इति पाठः ।
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३९६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १२४. धुवाभावादो। ... मिच्छत्त-णqसयवेद-चउजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघड़ण-आदाव-थावर-सुहुमअपज्जत्त-साहारणसरीराणमेगट्ठाणाणं वुच्चदे- उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णा ति [विचारो] मिच्छत्त-चउजादि-थावर-सुहुम-अपजत्ताणं णत्थि, अक्कमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो। णउंसयवेदस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, असंजदसम्मादिविम्हि उदयवोच्छेददसणादो। हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-साहारणसरीराणं बंधवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदो णस्थि, अभावस्स भावपुरंगमत्तदंसणादो। ण च एदासिं पयडीणं विग्गहगदीए उदओ अत्थि, अणुवलंभादो । मिच्छत्तस्स बंधो सोदएण, णउंसयवेद-चउजादि-थावर-सुहुमअपज्जत्ताणं सोदय-परोदएण, हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-साहारणाणं परोदएण । मिच्छत्तस्स बंधो णिरंतरो । सेसाणं सांतरो, णियमाभावादो। पच्चया सुगमा । मिच्छत्तणउंसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-अपज्जत्ताणं बंधो तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो। चउजादि-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो । मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाणअसंपत्तसेबट्टसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठी सामी। एइंदिय-आदाव-थावराणं तिगइमिच्छाइट्ठी
होता है, क्योंकि, वहां ध्रुवबन्धका अभाव है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, चार जातियां, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर, इन एकस्थान प्रकृति प्ररूपणा करते हैं- उदयसे बन्ध पूर्व या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है यह विचार मिथ्यात्व, चार जातियां, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्त प्रकृतियोंके नहीं है, क्योंकि, इनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद एक साथ देखा जाता है। नपुंसकवेदका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उसका उदयव्युच्छेद देखा जाता है । हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और साधारणशरीरका केवल बन्धव्युच्छेद ही है, उदयव्युच्छेद नहीं है; क्योंकि, अभाव भावपूर्वक देखा जाता है। और इन प्रकृतियोंका विग्रहगतिमें उदय है नहीं, क्योंकि, वहां वह पाया नहीं जाता। मिथ्यात्वका बन्ध स्वोदयसेनपुंसकवेद, चार जातियां, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्तका स्वोदयपरोदयसे; तथा हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन, आताप और साधारणशरीरका परोदयसे बन्ध होता है। मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर होता है। शेष प्रकृतियोका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनके बन्धका नियम नहीं है । प्रत्यय सुगम हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन और अपर्याप्तका बन्ध तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है । चार जातियां, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका तिर्यग्गतिसंयुक्त बन्ध होता है। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी है। एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरके तीन
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३, ३२५.]
आहारमागणाए बंधसामित सामी, णिरयगईए अभावादो । बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-सुहम-अपज्जत्त-साहारणाण तिरिक्ख-मणुसा सामी, देवणेरइएसु एदासिं बंधाभावादो। बंधद्धाणं पत्थि, एक्कम्हि अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छेदट्ठाणं सुगमं । मिच्छत्तबंधो चउब्विहो । सेसाणं सादि-अडवो ।
सादावेदणीयस्स अणाहारीसु बंधवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदाभावादो। सव्वत्थ बंधो सोदय-परोदओ । मिच्छाइटि-सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सांतरो, पडिवक्सपयडिबंधुवलंभादो। सजोगिम्हि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा । णवरि सजोगिम्हि कम्मइयकायजोगपच्चओ एक्को चेव, अण्णेसिमसंभवादो । मिच्छाइटिसासणसम्मादिट्ठीसु लिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो। असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । सजोगीसु अगइसंजुत्तो । चउगइमिच्छाइटि-सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिहिणो मणुसगइ. केवलिणो च सामी । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । सादि-अदुवो बंधो, साभावियादो।
देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवी-तित्थयरणामाण
गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें इनके बन्धका अभाव है। हीन्द्रिय, जीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके तिर्यंच और मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, देव व नारकियोंमें इनके बन्धका अभाव है। बन्धाभ्यान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है। वन्धव्युच्छेदस्थान सुगम है। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अधुव बन्ध होता है।
सातावेदनीयका अनाहारी जीवों में केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, वहां उसके उदयव्युच्छेदका अभाव है। सर्वत्र उसका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। मिथ्याटि, सासादनसम्यग्हाष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें साम्तर बम्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध पाया जाता है । सयोगकेवली गुणस्थानमें उसका निरन्तरबन्ध होता है,क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना कि सयोगकेवली गुणस्थानमें केवल एक कार्मण काययोग प्रत्यय ही है, क्योंकि, अन्य प्रत्ययोंकी वहां सम्भावना नहीं है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। सयोगकेवली जीवोंमें गतिसंयोगसे रहित बन्ध होता है। चारों गतियोंके मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, तथा मनुष्यगतिके केवली स्वामी हैं। बन्धाभ्वान और बन्धन्युग्छिन्चस्थान सुगम हैं। सादि व अचव बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है।
देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और
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३९८) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ३२४. मसंजदसम्मादिविणो बज्झमाणाणं पयडीणं उच्चदे - एदासिं परोदएण बंधो । कुदो, साहावियादो । णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमसत्तीए अभावादो । पच्चया सुगमा। णवरि देवगइ. चउक्कस्स णउंसयपच्चओ णस्थि । तित्थयरस्स देव-मणुसगइसंजुत्तो। तित्थयरस्स तिरिक्खगईए विणा तिगइअसंजदसम्मादिविणो सामी । सेसाणं तिरिक्ख-मणुसा सामी । बंधद्धाणं बंध. वोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । सादि-अदुवो बंधो, अडुवबंधित्तादो।
___एवं बंधसामित्तविचओ समत्ता ।
तीर्थकर नामकर्म, इन असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा बध्यमान प्रकृतियों की प्ररूपणा करते हैंइनका परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, एक समयसे इनके बन्धविश्रामशक्तिका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेषता इतनी है कि देवगतिचतुष्कके नपुंसकवेद प्रत्यय नहीं है। तीर्थकर प्रकृतिका देव और मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। तीर्थकर प्रकृतिके तिर्यग्गतिके विना तीन गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके तिर्येच व मनुष्य स्वामी हैं। बन्धावान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। ..
इस प्रकार बन्धस्वामित्वविचय समाप्त हुआ।
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परिशिष्ट
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बंधसामित्तविचय-सुत्ताणि ।
पृष्ठ
३०
सूत्र संख्या
सूत्र १ जो सो बंधसामित्तविचओ णाम तस्स इमो दुविहो णिद्देसो ओघेण
आदेसेण य। २ ओघेण बंधसामित्तविचयस्स चोदसजीवसमासाणि णादव्वाणि भवंति। ३ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्री असंजदसम्माइट्ठी संजदासजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा अपुवकरणपइट्ठउवसमा खवा अणियट्टिबादरसांपराइयपइट्ठउवसमा खवा सुहुमसापराइयपइट्रउवसमाखवा उवसंतकसायवीयरागछदुमत्था खीणकसायवीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवली । ४ पदेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं पयडिबंधवोच्छेदो कादव्यो भवदि। ५ पंचण्णं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दंसणावरणीयाणं जसकित्तिउच्चागोद-पंचण्हमंतराइयाणं
को बंधो को अबंधो? ६ मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । सुहुमसांपराइय.
सुद्धिसंजदद्धाए चरिमसमयं ... ५१.
पृष्ठ सूत्र संख्या संख्या
सूत्र
सूत्र गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। ७ णिहाणिहा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधि-कोह-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउतिरिक्खगइ-च उसंठाण-चउसंघ. डण-तिरिक्खगइपाओग्गाणु- पुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगदिदुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो? ८ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा
अबंधा। ९ णिद्दा-पयलाणं को बंधो को
अबंधो? १० मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्व
करणपविट्ठसुद्धिसंजदेसु उवसमा खवा बंधा । अपुवकरणद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा,
अवसेसा अबंधा। ११ सादावेदणीयस्स को बंधो को
अबंधो? १२ मिच्छाइट्रिप्पहाडि जाव सजोगि
केवलि त्ति बंधा। सजोगिकेवलिअद्धाए चरिमसमय गंतूण बंधो वोच्छिज्जाद । पदे बंधा,
अवसेसा अबंधा। | १३ असादावेदणीय-अरदि-सोग
२२
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________________
( २ )
सूत्र संख्या
सूत्र
अथिर - असुह - अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? १४ मिच्छादिट्टिप्पाड जाव पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
--
१५ मिच्छत्त - णवुंसयवेद - णिरयाउनिरयगइ - एइंदिय - बेइंदिय-तीइंदिय- चउरिदियजादि-हुंडठाणअसंपत्तसेवट्टसरीरसं घडण - णिरयगह पाओग्गाणुपुव्वि आदावथावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंधो ?
१६ मिच्छाइट्ठी बंधा । पदे वंधा, अवसेसा अबंधा ।
१७ अपच्चक्खाणावरणीय - कोधमाण- माया-लोभ मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालिय सरीरअंगोवंग- वजरिस हवइरणारायण संघड- मणुसगइपाओग्गाणुपुव्विणामाणं को बंधो को अबंधो ? १८ मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
१९ पच्चक्खाणावरणीयकोध-माणमाया- लोभाणं को बंधो को अबंधो ?
२० मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा बंधा । पदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
२१ पुरिसवेद- कोधसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ?
परिशिष्ट
पृष्ठ सूत्र संख्या
४०
४१
४२
४३
४६
33
५०
""
५२
सूत्र
२२ मिच्छाइट्टि पहुडि जाव अणिट्टिबादरसां पराइयपइट्ठउवसमाखवा बंधा 1 अणियट्टि बादरद्धाए सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा । २३ माण- मायसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ?
२४ मिच्छाइट्टि पहुडि जाव आणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठउवसमा खवा बंधा । अणियट्टिबादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा |
२५ लोभसंजलणस्स को बंधो को अबंधो ?
२६ मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठउवसमा खवा बंधा । अणियट्टिीबादरद्धाए चरिमसमयं गतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा अवसेसा अबंधा ।
२७ हस्स-रदि-भय-दुर्गुछाणं को बंधो को अबंधो ?
२८ मिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव अपुकरणपवि उवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा अवसेसा अबंधा ।
२९ मणुस्सा अस्स को बंध को अबंधो ?
सासणसम्माइट्ठी असंजद सम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
३० मिच्छारट्ठी
98
५२
५५
५६
५८
५९
६०
६१
६२
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________________
पृष्ट
७३
बंध-सामित्त-विचयसुत्ताणि सूत्र संख्या ____ सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ३१ देवाउअस्स को बंधो को अबंधो? ६४ ।। बंधा। अपुवकरणद्धाए संखेज्जे ३२ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी
| भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा
एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा ३९ कदिहि कारणहि जीवा तित्थयरबंधा । अप्पमत्तसंजदद्धार संखे- । णामगोदं कम्मं बंधंति ? ज्जदिभागं गंतूण बंधो वोच्छि. ४० तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि ज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा
जीवा तित्थयरणामगोदकम्म अबंधा।
बंधंति ? ३३ देवगइ-पंचिंदियजादि वेउव्विय
४१ दसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णतेजा कम्मइयसरीर-समचउरस
दाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए संठाण-घेउव्वियसरीरअंगोवंग
आवासएसु अपरिहाणदाए खणवण्ण-गंध-रस-फास-देवगइ--
लवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगपाओग्गाणुपुब्वि-अगुरुवलहुव
संपण्णदाए जधाथामे तधा तवे उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थ
साहूणं पासुअपरिचागदाए विहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त
साहूणं समाहिसंधारणाए साहणं पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग
वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतसुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं
भत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणको बंधो को अबंधो? ।
भत्तीए पवयणवच्छलदाए पव३४ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्व
यणप्पभावणदाए अभिक्खणं
अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए करणपइट्ठउवसमा खवा बंधा ।
इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जे भागे
जीवा तित्थयरणामगोदं कम्म गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे
बंधंति । बंधा, अवसेसा अबंधा।
,
४२ जस्स इणं तित्थयरणामगोद३५ आहारसरीर-आहारसरीर अंगो
कम्मस्स उदएण सदेवासुरमाणुवंगणामाणं को बंधो को अबंधो? ७१,
सस्स लोगस्स अच्चणिज्जा पूज३६ अप्पमत्तसंजदा अपुव्वकरण
णिज्जा वंदणिज्जा णमंसणिज्जा पइट्ठउवसमा खवा बंधा ।
णेदारा धम्मतित्थयरा जिणा अपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे
केवलिणो हवंति । गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे
| ४३ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयबंधा, अवसेसा अबंधा। "
गदीए णेरइएसु पंचणाणावरण ३७ तित्थयरणामस्स को बंधो को
छदंसणावरण-सादासाद-बारसअबंधो?
कसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि३८ असंजदसम्माइटिप्पड्डडि आव
अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-मणुसअपुव्वकरणपट्टउवसमा खवा
गदि-पंचिंदियजादि-ओरालिय
७९
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________________
( ४ )
सूत्र संख्या
सूत्र
तेजा - कम्मइ यसरीर-समचउरससंठाण - ओरालिय सरीरअंगोवंगवज्जरि सहसंघडण वण्ण-गंधरस- फास- मणुसगइपाओग्गाणुपुच्चि - अगुरुल हुग-उवघाद-परघाद- उस्सास-पसत्थविहायगदितस-बाद-पज्जन्त- पत्तेयसरीरथिरथिर- सुहासुह-सुभग-सुस्सरआदेज्ज-जसकित्ति अजसकित्तिणिमिणुच्चा गोद - पंचतराइयाणं को बंधो को अबंधो ?
४४ मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ।
४५ णिद्दाणिद्दा - पयलापयला-थीणगिद्धिअणंताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ- इत्थिवेद-तिरिक्खाउतिरिक्खगइ - चउसंठाण- चउसंघडण - तिरिक्खगड़पाओग्गाणुपुथ्वी-उज्जेोव - अप्पसत्थविहायगइ- दुभग- दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ?
सास सम्माइट्ठी
बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
४६ मिच्छाइट्ठी
४७ मिच्छत्त-णवुंसयवेद- हुंडसं ठाणअसंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण -- णामाण को बंधो को अबंधो ?
४८ मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
४९ मणस्सा अस्स को बंधो को भबंधो ?
परिशिष्ट
पृष्ठ सूत्र संख्या
९३
""
९८
१०१
""
१०२
सूत्र
५० मिच्छाइट्ठी
सासणसम्माट्ठी
असंजद सम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा । ५१ तित्थयरणामकम्मस्स को बंधो को अबंधो ?
५२ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
५३ एवं तिसु उवरिमासु पुढवीसु णेयव्वं ।
पंचमीए
छट्टीए
पुढवीए एवं चेव णेदव्वं । णवरि विसेसो, तित्थयरं णत्थि ।
५४ चउत्थीए
५५ सत्तमाए पुढवीए रइया पंचणाणावरणीय - छदंसणावरणीयसादासाद-बारसकसाय- पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भयदुगंछा-पंचिदियजादि-ओरालियतेजा - कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण ओरालिय सरीरअंगोवंगवज्ज रिसह संघडण - वण्ण-गंधरस- फास अगुरुवलहुव उवघादपरघाद- उस्स(स-पसत्थविहाय - गइ-तस - बादर - पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिराथिर- [ सुहा- ] सुहसुभग-सुस्सर-आदेज-जस कित्तिअजस कत्ति - णिमिण-पंचतरा-इयाणं को बंधो को अबंधो ? ५६ मिच्छादिट्ठिप्प हुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ।
५७ णिद्दाणिद्दा - पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणमाया- लोभ- इत्थवेद-तिरिक्खगद्द - चउसठाण - चउघडण -
8
१०३
५
"
१०४
२०५
१०५
१०६
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बंध-सामित्त-विचयसुत्ताणि
(५) सूत्र संख्या
सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या
सूत्र पृष्ठ तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी
कित्ति-णिमिण-उच्चागोद-पंचंतउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग
राइयाणं को बंधो को अबंधो? ११२ दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं
| ६४ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदाको बंधो को अबंधो?
१०९
संजदा बंधा। एदे बंधा, अबंधा ५८ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी
णत्थि ।
११३ बंधा । एदे बंधा, अवसेसा
६५ णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणअबंधा।
गिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माण५९ मिच्छत्त-णवुसयवेद-तिरिक्खाउ
माया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउहुंडसंठाण-असंपत्तसेवदृसंघडण
मणुसाउ-तिरिक्खगइ-मणुसगहणामाणं को बंधो को अधो? १११ ।
ओरालियसरीर-चउसंठाण-ओरा६० मिच्छाइट्टी बंधा । एदे बंधा, लियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडणअवसेसा अबंधा।
तिरिक्खगइ-मणुसगइपाओ६१ मणुसगइ-मणुसगढ़पाओग्गाणु
ग्गाणुपुवी-उज्जोव-अप्पसत्थ
विहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणापुवी उच्चागोदाणं को बंधो को अबंधो?
देज्ज-णीचागोदाणं को बंधो
को अबंधो? ६२ सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मा
| ६६ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी इट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा
बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।
अबंधा। ६३ तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचि
६७ मिच्छत्त-णqसयवेद-णिरयाउदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्ख
णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणि
दिय-चरिंदियजादि-हुंडसंठाणणीसुपंचणाणावरणीय-छदसणा
असंपत्तसेवट्टसंघडण-णिरयवरणीय-सादासाद-अट्टकसाय
गइपाओग्गाणुपुवि-आदावपुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग
थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणभय-दुगुंछा-देवगइ-पंचिंदिय
सरीरणामाणं को बंधो को जादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइय
अबंधो?
१२३ सरीर-समचउरससंठाण-घेउ
६८ मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, व्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध
___अवसेसा अबंधा। रस-फास-देवगदिपाओग्गाणु
६९ अपच्चक्खाणकोघ-माण-मायापुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ
___लोभाणं को बंधो को अबंधो? १२५ तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर- ७० मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असं[थिरा-] थिर-सुहासुह-सुभग
जदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अस्सर-आदेज-जसकित्ति-अजस
अवसेसा अबंधा।
Page #435
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________________
(६)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या
पृष्ठ ७१ देवाउअस्स को बंधो को अबंधो? १२६ | ७७ देवगदीए देवेसु पंचणाणावर७२ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी
णीय-छदसणावरणीय-सादासादअसंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा
बारसकसाय--पुरिसवेद-हस्सबंधा । एदे बंधा, अवसेसा
रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा
मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओराअवंधा।
लिय-तेजा-कम्मइयसरीर-सम७३ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता पंच
चउरससंठाण-ओरालियसरीरणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय
अंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणसादासाद-मिच्छत्त-सोलस
वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसाणुकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्खाउ
पुब्वि-अगुरुअलहुव-उवघाद-परमणुस्साउ-तिरिक्खगइ-मणुस
घाद-उस्सास-पसत्थविहायगदिगइ-२ इंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय
तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरच उरिदिय-पंचिंदियजादि-ओरा
थिराथिर सुहासुह-सुभग-सुस्सरलिय-तेजा-कम्मइयसरीर-छ
आदेज्ज जसकित्ति-अजसकित्तिसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग
णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं छसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास
को बंधो को अबंधो? १३७ तिरिक्खगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुगलहुग-उव--
७८ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदघाद-परघाद-उस्सास-आदा
सम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, उज्जोव-दोविहायगइ-तस थावर
अबंधा णत्थि।
१३८ बादर सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्त
७२ णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणपत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर
गिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणसुहासुह-सुभग- [ दुभग- ]
माया लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउसुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणा
तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति
डण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइ
उज्जोव--अप्पसत्थविहायगहयाणं को बंधो को अबंधो? १२७ दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचा७४ सव्वे एदे बंधा, अबंधा णत्थि।
गोदाणं को बंधो को अबंधो? १४१ ७५ मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त- ८० मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी मणुसिणीसु ओघं यवं जाव
बंधा । पदे बंधा, अवसेसा तित्थयरे त्ति । णवरि विसेसो,
अबंधा। बेट्टाणे अपच्चक्खाणावरणीयं
८१ मिच्छत्त-णबुंसयवेद-एइंदियजधा पंचिंदियतिरिक्खभंगो। १३०
जादि हुंडसंठाण-असंपत्तसेव७६ मणुसअपज्जत्ताणं पंचिदिय
संघडण-आदाव-थावरणामाणं को तिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
बंधो को अबंधो?
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________________
अबंधा।
बंध-सामित्त-विचयमुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ ८२ मिच्छाइट्री बंधा ।
जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणअवसेसा अबंधा।
उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को ८३ मणुस्साउअस्स को बंधो को
वंधो को अबंधो?
. १४९ अबंधो?
१४४ ९१ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजद८४ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी
सम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे
अबंधा णत्थि। बंधा, अवसेसा अबंधा।
णिद्दाणिद्दा-पयलांपयला-थीण८५ तित्थयरणामकम्मस्स को बंधो
गिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणको अबंधो?
माया-लोभ इत्थिवेद-चउसंठाण८६ असंजदसम्माइट्टी बंधा । एदे
चउसंघडण अप्पसत्थविहायगइ. बंधा, अवसेसा अबंधा।
दुभग दुस्सर-अणादेज्ज-णीचा
गोदाणं को बंधो को अवंधो? १५२ ८७ भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदि-. .
९३ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सियदेवाणं देवभंगो । णवरि
बंधा । एदे बंधा, अवसेसा विसेसो तित्थयर णत्थि।
अबंधा। ८८ सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवाणं ९४ मिच्छत्त णव॒सयवेद हुंडसंठाणदेवभंगो।
असंपत्तसेवसंघडणणामाणं को ८९ सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदर
बंधो को अबंधो? . सहस्सारकप्पवासियदेवाणं पढ- | ९५ मिच्छाइट्ठी बंधा। पदे बंधा,
माए पुढवीए णेरइयाणं भंगो। १४८ अवसेसा अबंधा। ९० आणद जाव णवगेवज्जविमाण- ९६ मणुस्साउअस्स को बंधो को वासियदेवेसु पंचणाणावरणीय
अबंधो? छदंसणावरणीय-सादासाद
९७ मिच्छाइट्टी सासणसम्माइट्ठी बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स
असंजदसम्माइट्टी बंधा । एदे रदि-भय-दुगुंछा मणुसगह-पंचिं
बंधा, अवसेसा अबंधा। दियजादि-ओरालियतेजा-कम्म
९८ तित्थयरणामकम्मस्स को बंधो इयसरीर-समचउरससंठाण ओरा
को अबंधो? लियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण वण्ण-गंध रस-फास
९९ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे
___ बंधा, अवसेसा अबंधा। मणुसगहपाओग्गाणुपुब्धी अगुरुवलहुव-उवघाद परघाद-उस्सास- १०० अणुदिस जाव सव्वट्टसिद्धिपसत्थविहायगइ-तस-बादर
विमाणवासियदेवेसु पंचणाणापज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर
वरणीय-छदसणावरणीय सादासुहासुह सुभग-सुस्सर आदेज्ज
साद-बारसकसाय-परिसवेद
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( ८ )
सूत्र संख्या
सूत्र
हस्स·रदि- अरदि-सोग-भयदुगुंछा - मणुस्सा उ- मणुसगहपंचिदियजादि ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर -- समचउरससंठाण - ओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरि सहसंघडण वण्णगंध-रस- फास-मंणुसगइपाओग्गाणुपुवी- अगुरुअलहुअ-उवघाद- परघाद उस्सास-पसत्थविहायगइ तस बादर- पज्जन्तपत्तेयसरीर-थिराथिर- सुहासुहसुभग- सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति - अजस कित्तिणिमिणतित्थयर उच्चागोद-पंचतराइया को बंधो को अबंधो ? १०१ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । अबंधा णत्थि । १०२ इंदियाणुवादेण पइंदिया बादरा सुहुमा पञ्जन्त्ता अपज्जन्त्ता बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिदियपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिदियअपज्जत्ताणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ।
१०३ पंचिदिय - पेचिदियपज्जत्तपसु पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय जसकित्ति-उच्चागोदपंचतराइयाणं को बंधो को अबंधो ?
१०४ मिच्छाइट्टि पहुडि जाव सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु उवसमाखवा बंधा । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो बोच्छिज्जदि । पदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
परिशिष्ट
पृष्ठ सूत्र संख्या
६५५
१५६
१५८
१७०
१७२
सूत्र
१०५ णिहाणिद्दा- पयलापयला थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणमाया लोभ - इत्थवेद - तिरिक्खाउ-तिरिक्खगह-चउसठाणचउसंघडण - तिरिक्खगइपाओगावी-उज्जोव - अप्पसत्थविहाय गइ - दुभग- दुस्सर-अणादेज्ज-णीचा गोदाणं को बंधो को अबंधो ?
सासणसम्माइट्ठी
बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
१०६ मिच्छाइट्ठी
१०७ णिद्दा पयलाणं को बंधो को अबंधो ?
१०८ मिच्छाइट्टि पहुडि जाव अपुण्वकरणपविट्ठसुद्धिसंजदेसु उव. समा खवा बंधा । अपुव्वकरणसंजदद्धार संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । पदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
१०९ सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ?
११० मिच्छा इट्ठिप्प हुडि जाव सजोगि केवली बंधा। सजोगिकेवलिअद्धार चरिमसमयं गं तूण बंधो वोच्छिज्जदि । पदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
१११ असादावेदणीय-अरदि-सोग-अथिर असुह--अजसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ?
११२ मिच्छाइट्टि पहुडि जाव पमन्तसंजदो त्ति बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा |
पृष्ठ
१७४
33
१७७
""
१७८
१७९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
बंध-सामित्त-विचयसुत्ताणि सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र . पृष्ठ ११३ मिच्छत्त-णqसयवेद-णिरयाउ. । १२१ माण-मायासंजलणाणं को बंधो णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइं
को अबंधो? दिय-चउरिंदियजादि-हुंडसंठाण
| १२२ मिच्छादिटिप्पहुडि जाव आणि. असंपत्तसेवदृसंघडण-णिरयाणु
यट्टी उवसमा खवा बंधा । पुव्वी-आदाव-थावर-सुहुम-अप
अणियट्टिबादरद्धाए सेसे सेसे ज्जत्त--साहारणसरीरणामाणं
संखेज्जे भागे गंतूण बंधो को बंधो को अबंधो? १८० वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, ११४ मिच्छाइट्ठी बंधा। एदे बंधा,
अवसेसा अबंधा। अवसेसा अबंधा।
१२३ लोभसंजलणस्स को बंधो को ११५ अपच्चक्खाणावरणीयकोध
अबंधो? माण-माया-लोभ-मणुसगइ
१२४ मिच्छादिटिप्पहुडि जाव आणिओरालियसरीर-ओरालिय
यट्टी उवसमा खवा बंधा । सरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइर
अणियट्टिबादरद्धाए चरिमणारायणसरीरसंघडण-मणुस
समयं गंतूण बंधोवोच्छिज्जदि। गइपाओग्गाणुपुग्विणामाणं को
एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। " वंधो को अबंधो?
१८२ | १२५ हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं को ११६ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असं
बंधो को अवंधो? जदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा,
१२६ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुव्वअवसेसा अबंधा।
करणपविट्ठउवसमाखवा बंधा। ११७ पच्चक्खाणावरणकोध-माण
अपुवकरणद्धाए चरिमसमयं माया-लोभाणं को बंधो को
गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे अबंधो?
बंधा अवसेसा अबंधा। ११८ मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव संजदा- १२७ मणुस्साउअस्स को बंधो को संजदा बंधा । एदे बंधा, अव.
अबंधो? सेसा अबंधा।
" | १२८ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी ११९ पुरिसवेद कोधसंजलणाणं को
असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधो को अबंधो?
बंधा, अवसेसा अबंधा। १२० मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अणि- १२९ देवाउअस्स को बंधो को यट्टिबादरसांपराइयपविट्ठउव
अबंधो? समा खवा बंधा । अणियट्टि | १३० मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बादरद्धाए सेसे संखेज्जाभागे
असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे
पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा बंधा, अवसेसा अबंधा।
बंधा । अप्पमत्तद्धाए संखे. ..बं. ५२.
१८३
१८४
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________________
(१०)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या जदिमं भागं गंतूण बंधोवोच्छि- १३७ कायाणुवादेण पुढविकाइयज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा
आउकाइय--वणफदिकाइयअबंधा।
णिगोदजीव-बादर-सुहुम -- १३१ देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्धिय
पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरवणतेजा-कम्मइयसरीर-समच उरस
प्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता
पज्जत्ताणंच पंचिंदियतिरिक्वसंटाण-वे उब्वियसरीरअंगोवंग
अपज्जत्तभंगा। वण्ण-गंध रस-फास देवगइपाओग्गाणुपुबी-अगुरुवलहुव
१३८ तेउकाइय-चाउकाइय-बादरउवघाद-परघाद-उस्सास---
सुहुम-पजत्तापज्जत्ताणं सो पसत्थविहायगइ-तस-बादर
चेव भगो । णवरि विसेसो पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ
मगुस्साउ-मणुसगइ मणुसगइसुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिण
पाओग्गाणुपुत्री-उच्चागोदं णामाणं को बंधो को अवंधो?
णस्थि । १३२ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुच
१३९ तसकाइय तसकाइयपजत्ताण
मोघं णदव्यं जाव तित्थयरे करणपइट्टउवसमा खवा बंधा।
त्ति । अपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे
१४० जोगाणुवादेण पंचमणजोगिबंधा, अवसेसा अबंधा। १८८
पंचवचिजोगि-कायजोगीसु ओघं
णेयव्वं जाव तित्थयरे त्ति । १३३ आहारसरीर-आहारअंगोवंग
१४१ सादावेदणीयस्स को बंधो को णामाणं को बंधो को
अबंधो ? मिच्छाइटिप्पहुडि अबंधो?
जाव सजोगिकेवली बंधा । १३४ अप्पमत्तसंजदा अपुवकरण
_एदे बंधा, अबंधा णत्थि । पइट्रउवसमा खवा बंधा ।
१४२ ओरालियकायजोगीणं मणुसअपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे
गइभंगो। गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।
१४३ णवरि विसेसो सादावेद,
णीयस्स मणजोगिभंगो। १३५ तित्थयरणामाए को बंधो को
१४४ ओरालियमिस्सकायजोगीसु अबंधो?
पंचणाणावरणीय-छदसणावर१३६ असंजदसम्मादिटिप्पडि जाव
णीय-असादावेदणीय-बारसअपुवकरणपइट्ठउवसमा खवा
कसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदिबंधा। अपव्वकरणद्धाए संखज्जे
अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पंचिंभागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि।
दियजादि-तेजा-कम्मइयसरीरएदे बंधा, अवसेसा अबंधा।
समचउरससंठाण-वण्ण-गंध
२००
२०१
२०३
२०५
"
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________________
२०५
२१४
बर
बंध-सामित्त-विचयमुत्ताणि सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या रस-फास-अगुरुअलहुअ-उव
साहारणसरीरणामाणं को बंधो घाद-परघाद-उस्सास-पसत्थ
को अबंधो? विहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त- | १५१ मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह
अवसेसा अबंधा। सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जस
१५२ देवगइ वेउब्वियसरीर-वेउवियकित्ति-णिमिण-उच्चागोद-पंचतराइयाणं को बंधो को
सरीरअंगोवंग-देवगइपाओअबंधो?
ग्गाणुपुब्बी-तित्थयरणामाणं को
बंधो को अबंधो? १४५ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे
| १५३ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवलेसा अबंधा।
बंधा, अवसेसा अबंधा।
| १५४ वेउम्चियकायजोगीणं देवगईए १४६ णिहाणिद्दा-पयलापयला थीण
भंगो। गिद्धि-अणंताणुबंधिकोध माण
१५५ बेउब्वियमिस्सकायजोगीणं देवमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्ख
गइभंगो।
२२२ गह-मणुसगइ-ओरालियसरीरच उसंठाण-ओरालियसरीरअंगो
१५६ णवरि विसेसो बेट्टाणियासु वंग-पंचसंघडण-तिरिक्खगग
तिरिक्खाउअं णत्थि मणुमणुसगइपाओग्गाणुपुवी
स्साउअंणत्थि। उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ
१५७ आहारकायजोगि-आहारमिस्सदुभग-दुस्सर-अणादेज-णीचा
कायजोगीसु पंचणाणावरणीयगोदाणं को बंधो को अबंधो? २०९ | छदसणावरणीय-सादासाद१४७ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी
चदुसंजलण-पुरिसवेद-हस्सबंधा । एदे बंधा, अवसेसा
रदि-अरादि-सोग-भय-दुगुंछा- . अबंधा।
देवाउ-देवगइ-पंचिंदियजादि- .
वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर१४८ सादावेदणीयस्स को बंधो को
समचउरससंठाण-वेउव्वियअबंधो?
२१२
सरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस१४९ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी
फास-देवगइपाओग्गाणुपुव्वीअसंजदसम्माइट्ठी सजोगि
अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादुकेवली बंधा। एदे बंधा, अबंधा
स्सास-पसत्थविहायगइ-तसणत्थि ।
बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर१५० मिच्छत्त-णउसयवेद-तिरि
थिराथिर-सुहासुह-सुभगक्खाउ-मणुसाउ-चदुजादि-हुंड
सुस्सर-आदेज-जसकित्तिसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण
अजसकित्ति-णिमिण-तित्थयरआदाव-थावर-सुदुम-अपज्जत्त
उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को
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________________
( १२ )
सूत्र संख्या
सूत्र
बंधो को अबंधो ? १५८ पमत्तसंजदा बंधा । पदे बंधा, अबंधा णत्थि । १५९ कम्मइयकायजोगीसु पंचणाणावरणीय - - छदंसणावरणीयअसादावेदणीय - बारसकसायपुरिसवेद - हस्स - रदि-अरदिसोग-भय-दुगुंछा- मणुसगइपंचिदियजादि - ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर - समचउरससंठाण ओरालिय सरीर अंगोवंगवज्जरि सहसंघडण वण्ण-गंधरस- फास- मणुस गइपाओग्गाणुपुथ्वी- अगुरुवल हुव-उवघाद - परघादुसास-पसत्थविहायगहतस - बादर- पज्जन्त - पत्तेयसरीरथिरथिर- सुहासुह - सुभग - सुस्सर- आदेज्ज - जसकित्ति - अजस कित्ति - णिमिणुच्चागोदपंचतराइयाणं को बंधो को अबंधो ?
१६० मिच्छाइट्ठी
सासणसम्माकी असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेला अबंधा ।
१६१ णिद्दाणिद्दा पयलापयला-थीगिद्धि - अनंताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ- इत्थवेद-तिरिक्खगह- चउसंठाण - चउसंघडण - तिरिक्खगह पाओग्गाणुपुव्विउज्जोव - अप्पसत्थविहायगइदुभग- दुस्सर- अणादेज्ज-णीचागोदा को बंधो को अबंधो ? १६२ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माट्ठी बंधा । पदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
परिशिष्ट
पृष्ठ सूत्र संख्या
सूत्र
२२९ | १६३ सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? १६४ मिच्छारट्ठी सासणसम्माट्ठी असं जदसम्म इट्ठी सजोगिकेवली बंधा । पदे बंधा, अबंधा णत्थि |
२३०
२३२
२३७
"
१६५ मिच्छत्त - णवुंसयवेद चउजादिहुंडसंठाण - असंपत्तसेवट्टसंघडण आदाव-थावर - सुहुम-अपज्जत्तसाहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंधो ?
१६६ मिच्छाइट्ठी बंधा । पदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।
१६७ देवगड वेव्वियसरीर - वेडविसरीर अंगोवंग - देवगइ - पाओग्गाणुपुवि - तित्थयर - णामाणं को बंधो को अबंधो ? १६८ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा । १६२ वेदाणुवादेण इत्थवेद-पुरिसवेद-सयवेदसु पंचगाणावरणीय - चउदसणावरणीयसादावेदणीय चदुसंजलणपुरिसवेद-जस कित्ति-उच्चा गोद पंचतराइयाणं को बंधो को अबंधो ?
१७० मिच्छाइ डिप्पहुडि जाव अणिविसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ।
१७१ बेट्टाणी ओघं ।
१७२ णिद्दा पयला य ओघं ।
१७३ असादावेदणीयमोघं ।
९७४ एकट्टाणी ओघं ।
ପୃଷ
२३८
२३९
99
२४०
२४१
""
२४२
99
२४५
२४८
२४९
>>
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________________
बंध-सामित्त-विचयसुत्ताणि
(१३) सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ १७५ अपच्चक्खाणावरणीयमोघं। २५१ । १८६ लोभसंजलणस्स को बंधो को १७६ पच्चक्खाणावरणीयमोघं। २५४ | अबंधो?
२६८
१८७ अणियट्टी उवसमा खवा बंधा। १७७ हस्स-रदि जाव तित्थयरे त्ति ओघं।
अणियट्टिबादरद्धाए चरिम
समयं गंतूण बंधो वोच्छिन्जदि। १७८ अवगदवेदपसु पंचणाणावर
पदे बंधा, अवसेसा अबंधा। २६९ णीय-चउर्दसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं
| १८८ कसायाणुवादेण कोधकसाईसु को बंधो को अबंधो?
पंचणाणावरणीय-[च उदंसणा
वरणीय-सादावेदणीय-]चदुसंज१७९, अणियट्टिप्पहुडि जाव सुहुम
लण-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंसांपराइयउवसमा खवा बंधा।
राइयाणं को बंधो को अबंधो? , सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदद्धाए
| १८९ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणिचरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा
यट्टि त्ति उवसमा खवा बंधा।
एदे बंधा, अबंधा णस्थि। अबंधा।
२७० १८० सादावेदणीयस्स को बंधो को " १९० बेढाणी ओघं ।।
२७२ अबंधो?
२६५ | १९१ जाव पच्चक्खाणावरणीयमोघं । २७४ १८१ अणियट्टिप्पहुडि जाव सजोगि- १९२ पुरिसवेदे ओघं।
केवली बंधा। सजोगिकेवलि- १९३ हस्स-रदि जाव तित्थयरे त्ति अद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो
ओघं। वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अव. १९४ माणकसाईसु पंचणाणावरसेसा अबंधा।
णीय-चउर्दसणावरणीय सादा१८२ कोधसंजलणस्स को बंधो को
वेदणीय-तिण्णिसंजलण-जसअबंधो?
कित्ति उच्चागोद-पंचंतराइयाणं १८३ अणियट्टी उवसमा खवा बंधा।
को बंधो को अबंधो? अणियट्टिवादरद्धाए संखेज्जे १९५ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणिभागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि ।
यही उवसमा खवा बंधा । एदे पदे बंधा, अवसेसा अबंधा।
बंधा, अबंधा णत्थि।
२७६ १८४ माण-मायासंजलणाणं को बंधो १९६ बेट्टाणि जाव पुरिसवेद-कोधको अबंधो?
२६७ संजलणाणमोघं। १८५ अणियट्टी उवसमा खवा बंधा । १९७ हस्स-रदि जाव तित्थयरे त्ति अणियट्टिवादरद्धाए सेसे सेसे
ओघं।
२७७ संखेज्जे भागे गंतूण बंधो | १९८ मायकसाईसु पंचणाणावर. वोच्छिज्जदि । पदे बंधा, अव
णीय-चउर्दसणावरणीय-सादासेसा अबंधा।
वेदणीय-दोणिसंजलण-अस
"
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________________
ओघं।
(१५)
परिशिष्ट सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या कित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं
दियजादि-ओरालिय-वेउव्वियको बंधो को अबंधो?
२७७ तेजा कम्मइयसरीर पंचसंठाण१९९ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणि
ओरालिय उब्वियसरीरअंगोयही उवसमा खवा बंधा । एदे
वंग-पंचसंघडण वण्ण-गंध-रसबंधा, अबंधा णस्थि ।
फास-तिरिक्खगइ-मणुसगह
देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुअ२०० बेटाणि जाव माणसंजलणे ति
लहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास
उज्जोव-दोविहायगइ-तस२०१ हस्स-रदि जाव तित्थयरे त्ति
बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरओघं।
२७८
थिराथिर-सुहासुह-सुभग२०२ लोभकसाईसु पंचणाणावर
दुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्जणीय-चउदंसणावरणीय-सादा
अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसवेदणीय-जसकित्ति-उच्चागोद
कित्ति-णिमिण-णीचुच्चागोदपंचंतराइयाणं को बंधो को
पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो?
अबंधो?
२८० २०३ मिच्छाइट्रिप्पहुडि जाव सुहम
२०८ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सापराइयउवसमा खवा बंधा।
बंधा । एदे बंधा, अंबधा एदे बंधा, अबंधा णस्थि ।
णस्थि । २०४ सेसं जाव तित्थयरे त्ति ओघं। " | २०९ एक्कट्ठाणी ओघं । २०५ अकसाईसु सादावेदणीयस्स
२१० आभिणिबोहिय-सुद-ओहि-- को बंधो को अबंधो?
णाणीसु पंचणाणावरणीय-चउ. २०६ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था
दसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चाखीणकसायवीदरागछदुमत्था
गोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को सजोगिकेवली बंधा। सजोगि
अबंधो? केवलिअद्धार चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे
२११ असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव
सुहुमसापराइयउवसमा खवा बंधा, अवसेसा अबंधा। २७९ ,
बंधा। सुहुमसांपराइयअद्धाए २०७ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि
चरिमसमयं गंतूण बंधोवोच्छिसुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु
ज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा पंचणाणावरणीय-णवदंसणा
अबंधा। वरणीय-सादासाद-सोलस
२१२ णिहा-पयला य ओघं। २८७ कसाय-अट्ठणोकसाय-तिरिक्खाउ-मणुसाउ-देवाउ-तिरि- | २१३ सादावेदणीयस्स को बंधो को स्वगइ-मशुसगर-देवगइ-पंचिं.
२८८
२८५
अबंधो?
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________________
बंध-सामित्त-विचयसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या २१४ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाय । २२४ सजोगिकेवली बंधा । सजोगिखीणकसायवीदरागछदुमत्था
केवलिअद्धाए चरिमसमयं बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि। २८८ गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे २१५ सेसमोघं जाव तित्थयरे त्ति ।
बंधा, अवसेसा अबंधा। णवरि असंजदसम्मादिटिप्पहुडि
२२५ संजमाणुवादेण संजदेसु मणत्ति भाणिदव्यं ।
पज्जवणाणिभंगो। २१६ मणपज्जवणाणीसु पंचणाणा- २२६ णवरि विसेसोसादावेदणीयस्स वरणीय-चउर्दसणावरणीय
__ को बंधो को अबंधो ? जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइ- २२७ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगि
याणं को बंधो को अबंधो? २९५ केवली बंधा । सजोगिकेवलि२१७ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सुहुम
अद्धाए चरिमसमयं गंतूण सांपराइयउवसमा खवा बंधा।
बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, सुहुमसांपराइयसंजदद्धाए
अवसेसा अबंधा। चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छि- २२८ सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा
संजदेसु पंचणाणावरणीयअबंधा।
सादावेदणीय-लोभसंजलण२१८ णिद्दा पयलाणं को बंधो को
जसकित्ति-उच्चागोद-पंचतराअबंधो?
इयाणं को बंधो को अबंधो? २६९ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुच
२२९ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणिकरणपइट्ठउवसमा खवा बंधा।
यट्टिउवसमा खवा बंधा । एदे
बंधा, अबंधा णस्थि । अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि।।
२३० सेसं मणपज्जवणाणिभंगो। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। २९६ | २३१ परिहारसुद्धिसंजदेसु पंच२२० सादावेदणीयस्स को बंधो को
णाणावरणीय-छदसणावरणीयअबंधो?
सादावेदणीय-चदुसंजुलण
पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय२२१ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीण
दुगुंछा देवगइ-पंचिंदियजादिकसायवीयरायछदुमत्था बंधा।
वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीरएदे बंधा, अबंधा णत्थि।
समचउरससंठाण-वेउव्विय२२२ सेसमोघं जाव तित्थयरे त्ति।
सरीरअंगोवंग-वण्ण गंध-रसणवरि पमत्तसंजदष्पहुडि त्ति
फास-देवाणुपुब्धि-अगुरुवलहुअभाणिदव्वं।
उवघाद-परघादुस्सास-पसत्थ२२३ केवलणाणीसु सादावेदणीयस्स
विहायगइ-तस-बादर-पज्जत्तको बंधो को अबंधो?
पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग
१९९
३००
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
३०९
(१६)
परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र सुस्सर-आदेज्ज-असकित्ति
१२ उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था णिमिण-तित्थयरुच्चागोद-पंच
खीणकसायवीयरायछदुमत्था तराइयाणं को बंधो को अबंधो? ३०३ सजोगिकेवली बंधा। सजोग२३२ पमत्त-अप्पमत्तसंजदा बंधा ।
केवलिअद्धाए चरिमसमयं एदे बंधा, अबंधा णत्थि। ३०४
गंतूण [बंधो] वोच्छिज्जदि ।
एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। २३३ असादावेदणीय-अरदि-सोगअथिर--असुह-अजस कित्ति
२४३ संजदासंजदेसु पंचणाणावरणामाणं को बंधो को अबंधो?
णीय-छदंसणावरणीय-सादा३०५
साद-अट्ठकसाय--पुरिसवेद२३४ पमत्तसंजदा बंधा। एदे बंधा,
हस्स-रदि-सोग-भय-दुगंछअवसेसा अबंधा ।
३०६ देवाउ देवगड पंचिंदियजादि२३५ देवाउअस्स को बंधो को
वेउव्यिय-तेजा-कम्महयसरीरअबंधो?
समचउरससंठाण-घेउब्विय२३६ पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा
सरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रसबंधा । अप्पमत्तसंजदद्धाए
फास-देवगइपाओग्गाणुपुवीसंखेज्जे भागे गंतूण बंधो
अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद
उस्सास-पसत्थविहायगइ-तसवोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।
बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर३०७
थिराथिर-सुहासुह-सुभग२३७ आहारसरीर-आहारसरीरंगो
सुस्सर--आदेज-जसकित्तिवंगणामाणं को बंधो को
अजसकित्ति-णिमिण-तित्थअबंधो?
यरुच्चागोद-पंचंतराइयाणं को २३८ अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे
बंधो को अबंधो? बंधा, अवसेसा अबंधा।
२४४ संजदासंजदा बंधा । एदे बंधा, २३९ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु
अबंधा त्थि। पंचणाणावरणीय-च उदंसणा
२४५ असंजदेसु पंचणाणावरणीयवरणीय-सादावेदणीय-जस
छदसणावरणीय-सादासादकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं
बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्सको बंधो को अबंधो?
रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा
मणुसगइ-देवगइ-पंचिंदिय. २४० सुहुमसांपराइयउवसमा खवा
जादि-ओरालिय वेउब्विय-तेजाबंधा। पदे बंधा, अबंधा णत्थि।
कम्मायसरार-समचउरस२४१ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु
संठाण-ओरालियावेउव्वियअंगोसादावेदणीयस्स को बंधो को
वंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्णअबंधो?
३०९/ गंध-रस-फास-मणुसगइ-देवगइ
३१०
धो?
३०८
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
बंध-सामित्त-विचयसुत्ताणि
सूत्र
सूत्र
३१७
सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या पाओग्गाणुपुब्धी-अगुरुअलहुअ
णीललेस्सिय-काउलेस्सियाणमउवघाद-परघाद-उस्सास
संजदभंगो।
३२० पसत्थविहायगइ-तस-बादर
५९ तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसुपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर
पंचणाणावरणीय-छदसणावरसुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज
णीय-सादावेदणीय-चउसंजजसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणु
लण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भयच्चागोद-पंचंतराइयाणं को
दुगुंछा देवगह-पंचिंदियजादिबंधो को अबंधो?
वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर२४६ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असं.
समचउरससंठाण-वेउवियजदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा,
सरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रसअबंधा जत्यि।
फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी२४७ बेढाणी ओघं।
अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादु२४८ एकट्टाणी ओघं ।
स्सास-पसत्थविहायगइ-तस२४९ मणुस्साउ-देवाउआणं को बंधो
बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीरको अबंधो?
थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज
जसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंच२५० मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी
तराइयाणं को बंधो को असंजदसम्माइट्री बंधा। एदे
- अबंधो?
३३३ बंधा, अवसेसा अबंधा।
२६० मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्प२५१ तित्थयरणामस्स को बंधो को
मत्तसंजदा बंधा। एदे बंधा, अबंधो?
अबंधा णत्थि। २५२ असंजदसम्माइट्ठी बंधा। एदे
३३७ बंधा, अवसेसा अबंधा।
२६१ बेहाणी ओघं। २५३ देसणाणुवादेण चक्खुदंसणि
२६२ असादावेदणीयमोघं । ३३९ अचक्खुदंसणीणमोघं णेदवं २६३ मिच्छत्त-ण_सयवेद एइंदियजाव तित्थयरे त्ति।
जादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्ट- . २५४ णवरि विसेसो, सादावेदणी
संघडण-आदाव-थावरणामाणं यस्स को बंधो को अबंधो? ३१२ ।
को बंधो को अबंधो?
३४० २५५ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव खीण
२६४ मिच्छाइट्टी बंधा। पदे बंधा, कसायवीयरायछदुमत्था बंधा।
अवसेसा अबंधा। पदे बंधा, अबंधा णत्थि ।
२६५ अपच्चक्खाणावरणीयमोघं।। २५६ ओहिदसणी ओहिणाणिभंगो। , २६६ पच्चक्खाणचउक्कमोघं। २५७ केवलदसणी केवलणाणिभंगो। ,, २६७ मणुस्साउअस्स ओघभंगो। २५८ लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय २६८ देवाउअस्स ओघभंगो। छ. बं. ५३.
णारय ।
३४१ ३४३
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
पृष्ठ सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ
(१८) सूत्र संख्या
सूत्र २६९ आहारसरीर-आहारसरीरअंगो
वंगणामाणं को बंधो को अबंधो? अप्पमत्तसंजदा बंधा।
एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। २७० तित्थयरणामाणं को बंधो को
अबंधो? असंजदसम्माइट्टी जाव अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे
बंधा, अवसेसा अधा। २७१ पम्मलेस्सिएसु मिच्छत्तदंडओ
णेरइयभंगो। २७२ सुक्कलेस्सिएसु जाव तित्थयरे
त्ति ओघभंगो। २७३ णवरि विसेसो सादावेदणीयस्स
मणजोगिभंगो। २७४ बेट्टाणि-एक्कट्ठाणीणं णवगेवज
विमाणवासियदेवाणं भंगो। २७५ भवियाणुवादेण भवसिद्धियाण
मोघं। २७६ अभवसिद्धिपसु पंचणाणावर
णीय-णवदंसणावरणीय-सादा. साद-मिच्छत्त-सोलसकसाय
णवणोकसाय-चदुआउ-चदुगइपंचजादि-ओरालिय-वेउव्वियतेजा-कम्मइयसरीर-छसंठाणओरालिय-उब्धियअंगोवंग-छसंघडण वण्ण-गंध-रसफास-चत्तारिआणुपुब्बी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सासआदावुज्जीव-दोविहायगइ तसबादर-थावर-सुहुम--पज्जत्तअपजत्त-पत्तेय-साहारणसरीरथिराथिर-सुहासुह-सुभगदुभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज
अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-णीचुच्चागोद
पंचंतराइयाणं को बंधो को ३४४ अबंधो?
३५९ | २७७ सम्वे एदे बंधा, अबंधा णत्थि। , २७८ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठीसु
खइयसम्माइट्रीसु आभिणि बोहियणाणिभंगो।
३६३ | २७९ णवरि सादावेदणीयस्स को
बंधो को अबंधो? २८० असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
सजोगिकेवली बंधा। सजोगि
केवलिअद्धाए चरिमसमयं ३५६
गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे
बंधा, अवलेला अबंधा। , २८१ वेदयसम्मादिट्ठीसु पंचणाणा.
वरणीय छदसणावरणीय-सादावेदणीय--चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय दुगुंछ-देवगदि-पंचिंदियजादि-वेउवियतेजा-कम्मइयसरीर-समच उरससंठाण-वेउवियअंगोवंग-वण्णगंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभगसुस्सर आदेज्ज-जसकित्तिणिमिण-तित्थयरुच्चागोद-पंचं.
तराइयाणं को बंधो को अबंधो? २८२ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि।
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र
बंध-सामित्त-विचयसुत्ताणि
(१९) सूत्र संख्या
पृष्ठ सूत्र संख्या
सूत्र
पृष्ठ २८३ असादावेदणीय-अरदि सोग- २९३ उवसमसम्मादिट्ठीसु पंचणाणाअथिर-असुह-अजसकित्ति
वरणीय-चउर्दसणावरणीयणामाणं को बंधो को अबंधो? ३६७ जसकित्ति उच्चागोद-पंचंतराइ
याणं को बंधो को अबंधो? ३७२ २८४ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
पमत्तसंजदा बंधा। एदे बंधा, २९४ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अवसेसा अबंधा।
सुहुमसांपराइयउवसमा बंधा। २८५ अपच्चक्खाणावरणीयकोह
सुहमसापराइयउवलमद्धाए माण-माया-लोह मणुस्साउ
चरिमसमयं गंतूण बंधोवोच्छिमणुसगइ-ओरालियसरीर
ज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरि
अबंधा। सहसंघडण--मणुसाणुपुव्वी-- २९५ णिहा-पयलाणं को बंधो को
णामाणं को बंधो को अबंधो? ३६९ अबंधो? २८६ असंजदसम्मादिठ्ठी बंधा । एदे २९६ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
बंधा, अवसेसा अबंधा। " अपुवकरणउवसमा बंधा । २८७ पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण
अपुव्वकरणउवसमद्धाए संखे
ज्जदिम भागं गंसूण बंधो माया लोभाणं को बंधो को
वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवअबंधो?
सेसा अबंधा। २८८ असंजदसम्मादिट्ठी संजदा
२९७ सादावेदणीयस्स को बंधो को संजदा बंधा। एदे बंधा, अव
अबंधो?
३७५ सेसा अबंधा।
२९८ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव २८९ देवाउअस्स को बंधो को
उवसंतकसायवीयरागछदुमत्था अबंधो?
३७१
बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि। , २९० असंजदसम्मादिहिप्पहुडि जाव
२९९ असादावेदणीय-अरदि-सोगअप्पमत्तसंजदा बंधा । अप्प
अथिर--असुह-अजसकित्तिमत्तद्धार संखेजे भागे गंतूण बंधो वोच्छिन्जदि । एदे बंधा,
णामाणं को बंधो को अबंधो? ३७६ अवसेसा अबंधा।
, ३०० असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, २९१ आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगणामाणं को बंधो को
अवसेसा अबंधा। अबंधो?
३७२ ३०१ अपच्चक्खाणावरणीयमोहि
णाणिभंगो। २९२ अप्पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।
'३०२ णवरि आउवं णत्थि ।
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२.)
परिशिष्ट
सूत्र संख्या
सूत्र
३०३ पच्चक्खाणावरणच उकस्स को
बंधो को अबंधो? ३०४ असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदा
[बंधा] । एदे बंधा, अवसेसा
अवंधा। ३०५ पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं को
बंधो को अबंधो? ३०६ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
अणियट्टी उवसमा बंधा। अणियट्टिउवसमद्धाए सेसे संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि ।
एदे बंधा, अवसेसा अबंधा। ३०७ माण-मायसंजलणाणं को बंधो
को अबंधो? ३०८ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
अणियट्टी उवसमा बंधा । अणियट्टिउवसमद्धाए सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अव
सेसा अबंधा। ३०९ लोभसंजलणस्स को बंधो को
अबंधो? ३१० असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव
अणियट्टी उवसमा बंधा। अणियट्टिउवसमद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । पदे
बंधा, अवसेसा अबंधा। ३११ हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं को
बंधो को अबंधो? ३१२ असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव
अपुवकरणउवसमा बंधा । अपुष्वकरणुवसमद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। पदे बंधा, अवलेसा अबंधा।
पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ३१३ देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउ
चिय-तेजा-कम्मइयसरीर समचउरससंठाण-वेउब्वियअंगोवंग वण्ण गंध-रस-फास देवाणुपुवी-अगुरुअलहुअ-उवघादपरघाद-उस्सास पसत्थविहायगदि-तस बादर पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग-सुस्सरआदेज-णिमिण तित्थयरणामाणं
को बंधो को अबंधो? ३७९ ३१४ असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव " अपुवकरण उवसमा बंधा ।
अपुवकरणुवसमद्धाए. संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि।
एदे बंधा, अवलेला अबंधा। ३८० ३२५ आहारसरीर-आहारसरीरअंगो
वंगाणं को बंधो को अबंधो? ३१६ अप्पमत्तापुब्धकरण उवसमा बंधा।
अपुधकरणुवसमद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा
अबंधा। | ३१७ सासणसम्मादिट्ठी मदि
अण्णाणिभंगो। ३१८ सम्मामिच्छाइट्टी असंजदभंगो। ३८३
३१९ मिच्छाइट्ठीणमभवसिद्धियभंगो। ३८६ , ३२० सणियाणुवादेण सरणीलु
जाव तित्थयरे त्ति ओघमंगो। " | ३२१ णवरि विसेसो सादावेद
णीयस्स चक्खुदंसणिभंगो। ३८७ ३२२ असणीसु अभवसिद्धियभंगो। , ३२३ आहाराणुवादेण आहारएसु
ओघं। ,, | ३२४ अणाहारपसु कम्मइयभंगो। ३९१
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
२ अवतरण-गाथा-सूची
क्रम संख्या गाथा पृष्ट अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां १६ अगुरुअलहु-उवघा १७
| २२ पणवण्णा इर वण्णा २४ २४ आगमचक्खू साडू..... २६४ प्र. सा. ३-३४ ९ पण्णरस कसाया विणु १२ १७ इत्थि-णउंसयवेदा १८
१८ पंचासुहसंघडणा १८ । ११ उवरिल्लपंचए पुण २४ गो. क. ७८८ १० पुबुत्तवसेसाओ १३ २० चदुपच्चइगो बंधो , , ७८७
१ बंधेण य संजोगो १५ णाणंतरायदसयं २७
३ बंधोदय पुब्धं वा १२ जाणंतरायदंसण १५ ११ तित्थयर-णिरय-देवाउअ १४
२ बंधो बंधविही पुण ५.२३ दस अट्ठारस दसय २८ गो. क. ७२२ ८ मिच्छत्त-भय-दुगुंछा १२
दस चदुरिगि सत्तारस ११ , २६३ / १३ सत्तावीसेदाओ १५ ७ देवाउ-देवचउक्काहार ,,
१४ सत्तेताल धुवाओ १६ ४ पच्चयसामित्तविही ८
१९ सांतरणिरंतरेण य १९
३ न्यायोक्तियां
mtinkamuTHARTI
क्रम संख्या
न्याय
पृष्ठ क्रम संख्या
न्याय
१ जहा उद्देसो तहा णिसो' त्ति
जाणावण?मोघेणे त्ति उत्तं। २ 'यदस्ति न तद् द्धयमतिलंध्य वर्तत'
४
इति दो वि णए अविलंबिऊण ट्ठिदणेगमणयस्स भावाभावव्यवहारविरोहाभावादो।
-
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ ग्रन्थोल्लेख
१ कसायपाहुड
कसायपाहुउसुत्तेणेदं सुत्तं विरुज्झदि त्ति उत्ते सच्चं विरुज्झइ किंतु....... ५६
२ चूर्णिसूत्र चुण्णिसुत्तकत्ताराणमुवएसेण पचण्णं पयडीणमुदयवोच्छेदो, चदुजादिथावराणं सासणसम्मादिट्टिम्हि उदयवोच्छेदब्भुवगमादो।।
३ महाकर्मप्रकृतिप्राभृत मिच्छत्त-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-च उरिंदियजादि-आदाव-थावर-सुहुमअपज्जत्त-साहारणाणं दसण्हं पयडीणं मिच्छाइटिस्स चरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदो। एसो महाकम्मपयडिपाहुडउवएसो।
___४ व्याकरणसूत्र - 'एए छच्च सामणा' त्ति सुत्तेण आदिवुड्डीए कयअकारत्तादो।
सूत्र पुस्तक अप्पमत्तद्धार संखेज्जेसु भागेसु गदेसु देवाउअस्स बंधो वोच्छिज्जदि त्ति केसु वि सुत्तपोत्थएसु उवलभर ।
५ पारिभाषिक शब्दसूची
शब्द
पृष्ठ
शब्द
अगतिसंयुक्त भगुरुलघु भचक्षुदर्शनी
अज्ञानमिथ्यात्व अतिचार अध्वान
अध्रुव ३१८ | अनन्तानुबन्धी
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारिभाषिक शब्दसूची
(२३)
शब्द
२०५
११६
३८७
३१२
24
२५ २४२, २७४
१०
आचार्य
,२००
८
अनर्पित
अष्टस्थानिक अनादिक
असंख्यातवर्षायुष्क अनादेय
असंही अनाहारक
३९१ असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन अनिवृत्तिकरण
असंयत अनुभाग बन्ध
असंयतसम्यग्दृष्टि अनेकान्त
असंयम . अन्तर
६३ | असंयम प्रत्यय अन्तरकरण
असातादण्डक अन्तराय
अस्थिर अपगतवेद
२६५, २६६ अपर्याप्त अपूर्वकरण अप्कायिक
आताप अप्रत्यय
आदेय अप्रत्याख्यानावरणदण्डक २५१, २७४
आदेश अप्रमत्तसंयत
आनुपूर्वी अभव्यसिद्धिक
३५९
आभिनिबोधिकज्ञानी अभिधेय
आभ्यन्तर तप अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता ७९, ९१
आवश्यक अयशकीर्ति
आवश्यकापरिहीनता अयोगिकवली
आहारक अरति
आहारककाययोगी अरहन्त
आहारकमिश्रकाययोगी अरहन्तभक्ति
७९, ८९
आहारकशरीरद्विक अर्चना अर्थापत्ति
२७४ अर्धनाराचसंहनन
इन्द्रियासंयम
१० अर्पणासूत्र
१९२, १९९, २०० अर्पित
उच्चगोत्र अवधि
२६४ उच्छ्वास अवधिज्ञानी
२८६ उत्तरप्रकृतिबन्ध अवधिदर्शनी
उत्तर प्रत्यय अव्वोगाढमूलप्रकृतिबंध
उद्योत अशुभ
१० । उपघात
७२, ८३
३९०
hr
m
३१९ ।
९, २००
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२५)
परिशिष्ट
शब्द
शब्द
२६५
उपशमक उपशमसम्यग्दृष्टि उपशान्तकषाय उपसंहार
२६५/क्षपक ३७२ क्षायिकसम्यग्दृष्टि
४ क्षीणकषाय
C
.
गतिसंयुक्त गंध
२७४
एक-एक-मूलप्रकृतिबन्ध एकस्थानदण्डक एकस्थानिक एकान्तमिथ्यात्व एकेन्द्रिय
चक्षुदर्शनी
चतुरिन्द्रिय चारित्रविनय चूर्णिसूत्र
ऐन्द्रध्वज
औदारिककाययोगी औदारिकमिश्रकाययोगी औदारिकशरीर औदारिकशरीरांगोपांग
२०३ २०५
जीवसमास जीवस्थान जुगुप्सा ज्ञानविनय झानावरणीय ज्योतिषी
९२ ११, ७२, ७३
७६, ७८
कल्पवृक्ष कषाय कषायप्रत्यय कापोतलेश्या कार्मणकाययोगी कार्मणशरीर कीलितसंहनन कृति कृष्णलेश्या केवल केवलज्ञानी केवलदर्शनी क्षण-लवप्रतिबोधनता
तिर्यगायु
तिर्यग्गति २१,२५ तिर्यच ३२०. ३३२ | तीर्थ
२३२ तीर्थकर १० तीर्थकरनामगोत्रकर्म
तीर्थकरसन्तकार्मिक
तेज ३२० तेजकायिक २६४ तेजोलेश्या २९६
तैजसशरीर
त्रस ७९, ८५ त्रीन्द्रिय
२०० १९२
३३३
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
दर्शन विनय दर्शन विशुद्धता दर्शनावरणीय दुर्भग
दुस्वर
देवगति
देवायु
देशवती
द्रव्यश्रुत द्रव्यार्थिकनय द्विस्थानदण्डक द्विस्थानी
द्वीन्द्रिय
धर्म
ध्रुव
ध्रुवबन्ध
ध्रुवबन्धप्रकृति ध्रुवबन्धी
नपुंसक वेद नमंसन
नरकगति
नारकायु
नाराच संहनन
निगोदजीव
निद्रा
निद्रादण्डक
निद्रानिद्रा
निरतिचारता
निरन्तर निरन्तरबन्ध ७. बं. ५४.
द
ध
न
पारिभाषिक शब्दसूची
पृष्ठ
152020
८०
७९
१०
९
१०
९
""
२५५, ३११
२७४
२४५, २७२
९
९१ परिहारशुद्धिसंयत
३
९२
८
१७
शब्द
निरन्तरबन्धप्रकृति
निर्माण नीचगोत्र नीललेश्या नैगमनय
5 56
पद्मलेश्या
परघात
२७४
परोदय
पर्याप्त
पर्याय
पर्यायार्थिकनय पंचेन्द्रियजाति पंचेन्द्रियतिर्यच
पुरुषवेद पुरुषवेददण्डक पृथिवीकायिक प्रकृतिबन्ध १० प्रकृतिबन्धत्र्युच्छेद ९२ | प्रकृतिसमुत्कीर्तना प्रकृतिस्थानबन्ध
९
पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त
पंचेन्द्रिय तिर्यचपर्याप्त
पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिमती
प्रचला
99
१०
प्रचलाप्रचला
१९२
प्रतिक्रमण
१० प्रत्यक्षज्ञानी
प्रत्ययविधि
९ प्रत्याख्यान
८२
८
१७ | प्रत्यासत्ति
प्रत्याख्यानदण्डक
प्रत्याख्यानावरण
( २५ )
पृष्ठ
१७
१०
९
३२०, ३३१
६
३३३, ३४५
१०
३०३
७
११
५, ६
३, ७८
११
११२
१२७
११२
39
१०
२७५ १९२
२
१०
८३, ८४
५७ ८
८३, ८५ २७४
९
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२६)
परिशिष्ट
शब्द
पृष्ठ
२७९
१३०
प्रत्येकशरीर प्रदेशबन्ध प्रमत्तसंयत प्रमोक्ष प्रयोजन प्रवचन प्रवचनप्रभावना प्रवचनभक्ति प्रवचनवत्सलता प्राण्यसंयम प्राशुकपरित्यागता
१३.
| मतिअज्ञानी मनःपर्ययज्ञानी मनुष्यअपर्याप्त
मनुष्यगति ७३, ९०
मनुष्यनी
मनुष्यपर्याप्त ७९, ९०
मनुष्यायु महाकर्मप्रकृतिप्राभूत
महामह ७२, ८७
महाव्रती मानदण्डक
मागेणास्थान २, ३,८
मिथ्यात्व मिथ्यादृष्टि मूलप्रकृतिबन्ध मूलप्रत्यय
२५५, २५६
२, ९, १९
४, ३८६
य
बन्ध बन्धक बन्धन बन्धनीय बन्धविधान बन्धविधि बन्धव्युच्छेद बन्धस्वामित्वविचय बन्धाध्वान बहुश्रुत बहुश्रुतभक्ति बादर बाह्यतप
यथाख्यातसंयत यथाशक्तितप यशकीर्ति योग योगप्रत्यय
७२,
रात
रस
१४६ ३५८
भय भवनवासी भव्यसिद्धिक भंग भावश्रुत भुजगारबन्ध
लब्धि लब्धिसंवेगसम्पन्नता लेश्या लाभदण्डक
७९,८६
३५६
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पारिभाषिक-शब्दसूची
२७)
शब्द
पृष्ठ
शब्द
२५१
49
१०| श्रुतअज्ञानी " | श्रुतकेवली
श्रुतज्ञानी ८३, ८४,९२
२८
८३, ८४
१४६ १९२
वज्रनाराचसंहनन वज्रवृषभनाराचसंहनन वनस्पतिकायिक वन्दना वर्गणा वर्ण वानव्यन्तर वायुकायिक विग्रहगति विनय विनयसम्पन्नता विपरीतमिथ्यात्व विभंगशानी विरति विहायोगति वेदकसम्यक्त्व वेदकसम्यग्दृष्टि
१६०
७२, ८०
२० २७९
१०
३६४
वेदना
२१५, २२२
वेदनीय वैक्रियिककाययोगी वैक्रियिकशरीर वैक्रियिकशरीरांगोपांग वैनयिकमिथ्यात्व वैयावत्य वैयावत्ययोगयुक्तता व्यभिचार व्युत्सर्ग व्रत
समता समाधि सम्बन्ध
१,२ सम्यग्दृष्टि
३६३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि
४,३८३ सयोगकेवली सर्वतोभद्र
९२ संख्यातवर्षायुष्क
११६ संज्ञी
३८६ संज्वलन संयत
२९८ संयतासंयत
४, ३१० संवेग संस्थान सादिक साधारण साधु
८७, २६४ साधुसमाधि
७९, ८८ सान्तर सान्तर-निरन्तर सान्तरबन्धप्रकृति सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयत २९८ सासादनसम्यग्दृष्टि
४,३८० सांशयिकमिथ्यात्व
२० सुभग सुस्वर सूक्ष्म सूल्मसाम्परायिक सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत सूत्र
७९, ८८
७२, ८२
शील शीलवतेषु निरतिचारता शुक्ललेश्या शुभ शोक
१०
३०८
Page #457
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परिशिष्ट
( २८) - शब्द
पृष्ठ
शब्द
स्तव स्त्यानगृद्धि स्त्रीवेद स्थावर स्थितिबन्ध स्थिर स्पर्श
स्वप्रत्यय स्वामित्व स्वोदय स्वोदय-परोदय
हास्य
Page #458
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________________ जैन साहित्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रंथमालाओंमें मो. हीरालाल जैन द्वारा आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रंथ प्रत्येक ग्रंथ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण व अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। 1 षट्खंडागम-[धवलसिद्धान्त ] हिन्दी अनुवाद सहित पुस्तक 1, जीवस्थान-सत्प्ररूपणा, पुस्तकाकार व शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 2, " पुस्तकाकार 10), शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 3-7 (प्रत्येक भाग) , 10, 12) पुस्तक 8, बन्ध-स्वामित्व-विचय , 10 , 12) यह भगवान् महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा संबन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ है। श्रुतपंचमीकी पूजा इसी ग्रंथकी रचनाके उपलक्ष्यमें प्रचलित हुई। 2 यशोधरचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... इसमें यशोधर महाराजका अत्यंत रोचक वर्णन सुन्दर काव्यके रूपमें किया गया है / इसका सम्पादन डा. पी. एल. वैद्य द्वारा हुआ है। 3 नागकुमारचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... इसमें नागकुमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रुतपंचमी विधानकी महिमा बतलाई गई है / यह काव्य अत्यन्त उत्कृष्ट और रोचक है / 4 करकंडुचरित-मुनि कनकामरकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... 6) इसमें करकंडु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिनपूजाका माहात्म्य प्रगट होता है। इससे धाराशिवकी जैन गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राज वंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। 5 श्रावकधर्मदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... .... 2 // इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलोंका बड़ा ही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छंदमें हुई है। प्रत्येक दोहा काव्यकलापूर्ण और मनन करने योग्य है। 6 पाहुडदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... ... ... 2 // ) इसमें दोहा छंदोंद्वारा अध्यात्मरसकी अनुपम गंगा बहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य है। प्रकाशक-श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द, जैन साहित्य उद्धारक फंड, जूनी-बजाजी, अमरावती. मुद्रक-टी. एम्. पाटील, मॅनेजर, सरस्वती प्रेस, अमरावती. jainelibrary.org