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________________ ११४ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ बंधो, धुवोदयत्तादो । गिद्दा - पयला - सादा साद - अडकसाय- पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भयदुर्गुछा- समचउर संसंठाण-पसत्थविहाय गइ सुस्सराणं सव्वट्टाणेसु सोदय - परोदओ बंधो । णवरि जोणिणी पुरिसवेदबंधो परोदओ । उवघादबंधो मिच्छादिडि सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं सोदय- परोदओ, विग्गहगदीए उवघादस्सुदयाभावादो । सम्मामिच्छादिडि-संजदासंजदाणं सोदओ चेव, तेसिमपज्जत्तकालाभावादो । परघादुस्सास - पत्तेयसरीराणं मिच्छादिट्ठिीसासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय- परोदओ, एदासिमपज्जत्तकाले उदयाभावादो | सदगुणट्ठाणेसु सोदओ बंधो। णवरि जोणिणीसु असंजदसम्मादिट्टी एदाओ सोदणेव बंधदि, तत्थेदस्स अपज्जत्तकालाभावादो । तस - बादर पज्जत पंचिंदियजादीओ मिच्छाइट्ठी सोदय- परोदएण बंधइ, पडिवक्खपयडीणं उदयसंभवादो । अवसेसा सोदणेव, तत्थ पडिवक्खपयडीणमुदयाभावादो । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु सोदणेव सव्वगुणट्ठाणेसु बंधो, एत्थ पडिवक्खपयडीणमुदयाभावादो | णवरि पंचिंदियतिरिक्खेसु मिच्छाइडीणं पज्जत्तस्स सोदय- परोदओ बंधो, तत्थ पडिवक्खपयडीए उदयसंभवादो । सुभगादेज्ज-जस कित्तीणं मिच्छादिट्टि - सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि [ ३, ६४. इनका सोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। निद्रा, प्रचला, साता व असातावेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्स्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वर, इनका सब गुणस्थानों में स्वोदय- परोदय बन्ध होता है । विशेष इतना है कि योनिमती तिर्यचों में पुरुषवेदका बन्ध परोदयसे होता है । उपघातका बन्ध मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उपघातका उदय नहीं होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतों के स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनके अपर्याप्तकालका अभाव है । परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका बन्ध मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंका अपर्याप्तकालमें उदय नहीं होता । शेष दो गुणस्थानोंमें स्वोदय बन्ध होता है । विशेषता यह है कि योनिमतियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव इन्हें स्वोदयसे ही बांधता है, क्योंकि, योनिमतियों के अपर्याप्तकालमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका अभाव है । त्रस, बादर, पर्याप्त और पंचेन्द्रिय जाति, इनको मिथ्यादृष्टि जीव स्वोदय-परोदय से बांधता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का उदय सम्भव है । शेष गुणस्थानवर्ती स्वोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि.. 'उन गुणस्थानों में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंमें स्वोदयसे ही सब गुणस्थानोंमें बन्ध होता है, क्योंकि, इनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है । विशेषता यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें मिथ्यादृष्टियोंके पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय सम्भव है । सुभग, आदेय और यशकीर्तिका बन्ध मिक्ष्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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