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________________ ३, ६४. ] तिरिक्खगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं [ ११५ असं जद सम्मादिडीसु बंधो सोदयपदिओ, एत्थ पडिवक्खुद यदंसणादे । संजदासंजदेसु सोदओ चेव, तत्थ पडिवक्खाणमुदयाभावादो । मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिङि-सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु अजसकित्तीए बंधो सोदय- परोदओ, एत्थ पडिवक्खुदयदंसणादो । संजदासंजदेसु परोदओ, तत्थ पडिवक्खपयडीए चेव उदयदंसणादो । देवगदि वे उव्वियसरीरवेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी उच्चागोदाणं परोदओ बंधो, एदासिमेत्थ उदय विरोहादो | पंचणाण/वरणीय-छदंसणावरणीय अट्ठकसाय-भय- दुर्गुछा- तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंधरस-फास - अगुरुगलहुव-उववाद- णिमिण-पंचं तराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सादासादहम्म रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जसकित्ति - अजसकित्तीणं सांत बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्ठि - सासणेसु सांतरा णिरंतरो च बंधो, पम्म-सुक्क - लेस्सिएस निरंतरबंध दंसणादो | सगुणड्डाणेसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो | पंचिं दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है। संयतासंयतोंमें इनका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में अयशकीर्तिका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका भी उदय देखा जाता है । संयतासंयतों में उसका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतिका ही उदय देखा जाता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र, इनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यचों में इनके उदयका विरोध है । पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कवाय, भय, जुगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम देखा जाता है । पुरुषवेदका मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर व निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है। शेष गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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