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१९६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ६४. दिय-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो, तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिएसु णिरंतरबंधदंसणादो। सेसुवरिमगुणहाणेसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। समचउरससंठाणस्स बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, असंखेज्जवासाउएसु तेउ-पम्मसुक्कलेस्सियसंखेज्जवासाउएसु च णिरंतरबंधदसणादो । उपरिमगुणेसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । परघादुस्सासाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो बंधो, अपज्जत्तसंजुत्तबंधायावादो तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिएसु संखेज्जवासाउएसु असंखेज्जवासाउएसु च णिरंतरबंधदसणादो । उवरिमगुणेषु णिरंतरो बंधो, तत्थ अपज्जत्तस्स बंधाभावादो। पसत्थविहायगईए मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, सुहतिलेस्सियसंखेज्जासंखेज्जवासाउएसु णिरंतरबंधदंसणादो। उवरिमगुणेसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। सुभ-सुस्सर-आदेज्जाणं मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, सुहतिलेस्सियसंखेज्जासंखेज्जवासाउएसु णिरंतरबंधदसणादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । देवगदिदुग-वेउब्बियदुग
पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवों में इनका निरन्तर बन्ध देखा जाता है। शेष उपरिम गुणस्थानोंमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। समचतुरस्रसंस्थानका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क और तेज, पदम एवं शुक्ल लेश्यावाले तिर्यचोंके इन गुणस्थानोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है। उपारम गुणस्थानोंमें उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । परघात और उच्छ्वास प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तके बन्धसे संयुक्त इनके बन्धका अभाव होनेसे तेज, पद्म एवं शुक्ल लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुप्कों में निरन्तर बन्ध देखा जाता है। उपरिम गुणस्थानों में दोनों प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्तके बन्धका अभाव है। प्रशस्तविहायोगतिका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्ढाष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्कोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है । उपरिम गुणस्थानों में उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है । शुभ, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्कोंमें निरन्तर बन्ध देखा जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिक
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१ प्रतिष 'मिच्छाइष्टीहि ' इति पाठः ।
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