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३६४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २०१. वित्तिय वत्तव्यो । पपडिबंधगयभेदपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि
णवरि सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २७९ ॥ सुगमं ।
असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा । सजोगिकेवलिअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अबसेसा अबंधा ॥ २८० ॥
एदं पि सुगमं, बहुसो उत्तत्थत्तादो' । . वेदयसम्मादिट्ठीसु पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-सादावेदपीय-चउसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ-देवगदि-पांचिंदियजादिवेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउव्वियअंगोवंग-वण्णगंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघादउस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग
विशेषता है तो उसे विचारकर कहना चाहिये । प्रकृतिबन्धगत भेदके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
विशेष यह कि सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है १ ॥२७९॥ यह सूत्र सुगम है।
असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं । सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥२८॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, इसका अर्थ बहुत वार कहा जा चुका है।
वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर,
१ प्रतिषु ' उत्तद्धादो' इति पाठः ।
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