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________________ ३, ७४.] तिरिवखअपज्जत्तेसु पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं [१२९ पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो एगसमएण बंधुवरमाभावादो च । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो, तेउक्काइय-वाउक्काइएहिंतो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तकालं णिरंतरं बंधुवलंभादो, अण्णत्थ सांतरत्तदंसणादो । अवसेसाणं पयडीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो । ___ एत्थ सव्वकम्माणं बादाल पच्चया, वेउब्विय-वेउब्बियमिस्स-इत्थि पुरिसोरालिय-मणवचिजोगाणमभावादो। णवरि तिरिक्ख-मणुस्साउआणमिगिदालीस पच्चया, कम्मइयकायजोगेण सह चोद्दसण्णं पच्चयाणमभावादो । सेसं सुगमं । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-आदाउज्जोव-थावर-सुहुम-साहारणाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति । मणुस्साउमणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उच्चागोदाणि मणुसगइसंजुत्तं बझंति । कुदो ? साभावियादो । अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बझंति । सव्वासिं पयडीणं बंधस्स पांच ज्ञानावरणयि, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं, तथा एक समयमें इनका वन्धविश्राम भी नहीं होता। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमेंसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है, तथा अन्यत्र सान्तर बन्ध देखा जाता है । शेष प्रकृतियोंका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम पाया जाता है। ___ यहां सब कौके व्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, औदारिककाययोग, चार मन और चार वचन योग प्रत्ययोंका अभाव है। विशेषता यह है कि तिर्यगायु और मनुष्यायुके इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, कार्मण काययोगके साथ यहां चौदह प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। तियगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायाग्योनुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण, ये प्रकृतियां तिर्यंचगतिसे संयुक्त बंधती हैं । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र प्रकृतियां मनुष्यगतिसे संयुक्त बंधती हैं। इसका कारण स्वभाव ही है। शेष प्रकृति तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बंधती हैं। सब प्रकृतियोंके बन्धके तिर्यंच स्वामी हैं। ... १७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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