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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६.
सुहुम-अपज्जत्त-साहारण- अथिर-असुह- दुभग- दुस्सर - अणाज्ज- अजसकित्ती एदाओ चोत्तीसपयडीओ सांतर बज्झति । अवसेसाओ बत्तीस पयडीओ सांतर - निरंतरं बज्झति । तासि णामणिद्देसो कीरदे । तं जहा- सादावेदणीय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-तिरिक्खगइ - मणुस्सगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउव्वियसरीर-समचउरससंठाण - ओरालिय- वेडव्वियसरीरअंगोवंग - वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण - तिरिक्खगइ - मणुस्सगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-परधादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिर- सुह-सुभग-सुस्सर - आदेज्जे-जसकित्ति-णीचुच्चागोदमिदि सांतर- णिरंतरेण बज्झमाणपयडीओ ( एत्थ उवसंहारगाहाओ -
१८]
इथि - उंसयवेदा जाइचउक्कं असाद- णिरयदुगं । आदाउज्जोवारइ - सोगासह पंचसंठाणा ॥ १७ ॥
पंचासह संघडणा विहायगइ अप्पसत्थिया अण्णे । थावर - सुमासुहृदस चोत्तीसिह सांतरा बंधा ॥ १८ ॥
गति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुखर, अनादेय और अयशकीर्ति, ये चौंतीस प्रकृतियां सान्तर रूपसे बंधती हैं। शेष बत्तीस प्रकृतियां सान्तर- निरन्तर रूपसे बंधती हैं । उनका नामनिर्देश किया जाता है । वह इस प्रकार है— सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, राति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र, ये सान्तर- निरन्तर रूपसे बंधनेवाली प्रकृतियां हैं। यहां उपसंहारगाथायें
स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, जाति चार, असातावेदनीय, नरकगति, नरकगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अराति, शोक, अशुभ, पांच संस्थान, पांच अशुभ संहनन, अप्रशस्त विहायोगति स्थावर, सूक्ष्म एवं अशुभ आदि अन्य दश इस प्रकार ये चौंतीस प्रकृतियां यहां सान्तर बन्धवाली हैं ।। १७-१८ ।।
१ णिरयदुग-जाइचउक्कं संहदि-संठाणपणपणगं || दुग्गमणादावदुगं थावरदसगं असादसंदित्थी । अरदीसोगं वेदे सांतरगा होंति चोत्तीसा ॥ गो. क. ४०४-४०५
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२ प्रतिषु मुस्सर दुस्सर-आदेज्ज' इति पाठः ।
३ सुर-पर- तिरियोरालिय-वेगुब्बियदुग-पसत्थगदि वज्जं । परघाददु-समचउरं पंचिदिय तसदसं सादं ॥ हस्सरवि-पुरिस- गोददु सप्पडिवक्खम्मि सांतरा होंति । गट्टे पुण पडिवक्खे णिरंतरा होंति बत्तीसा ॥ गो. क. ४०६ -४०७,
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