SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४] ... . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ८३. देवचउट्ठाणपयडिपच्चयतुल्ला । मिच्छत्त-णउंसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं, एइंदियजादि-आदाव-थावराणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति, साभावियादो । देवा सामी। बंधद्धाणं बंधविणवाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउबिहो, धुवबंधित्तादो। सेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो । मणुस्साउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ८३॥ सुगमं । मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ८४ ॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे-- देवेसु मणुस्साउअस्स उदयाभावादो बंधोदयाणं पुव्वावरवोच्छेदपरिक्खा णस्थि । परोदएण बंधति', मणुस्साउअस्स देवेसु उदयभावविरोहादो । णिरंतरो बंधो, एगसभएण बंधुवरमाभावादो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं जहाकमेण पंचास पंचेत्तालीस [एक्केत्तालीस] पच्चया, सग-सगोघपच्चएसु ओरालियउनका बन्धविश्राम पाया जाता है । इन प्रकृतियोंके प्रत्यय देवोंकी चतुस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययोंके समान हैं । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तस्पाटिकासंहनन, ये तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावर, ये तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंधती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्ध विनष्ट स्थान सुगम हैं। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकार होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है । शेष प्रकृतिचोंका बन्ध सादि व अध्रुव हेाता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी है । मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अवन्धक है ? ॥ ८३ ॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ८४ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-देवोंमें मनुष्यायुका उदय न होनेसे पूर्व या पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है। मनुष्यायुको परोदयसे बांधते हैं, क्योंकि, देवों में मनुष्यायुके उदयका विरोध है । बन्ध उसका निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयमें बन्धविश्रामका अभाव है। मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंके यथाक्रमसे पचास, पैंतालीस [और इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, अपने अपने ओघप्रत्ययोंमें यहां औदारिक, औदारिकमिंध, वैकियिकमिश्र, कार्मण और नपुंसकवेद १ आ-काप्रयोः बझंति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy