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३, ८६. ]
देवगदीए तित्थयरणामकम्मस्स बंधसामितं ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय-णउंसयवेदपच्चयाणमभावादो । मणुसगइसंजुत्तं । देवा सामी। बंधद्धाणं बंधाभावट्टाणं च सुगमं । सम्मामिच्छत्तगुणेण जीवा किण्ण मरंति ? तत्थाउअस्स बंधाभावादो । मा बंधउ आउअं, पुवमण्णगुणट्ठाणम्हि आउअंबंधिय पच्छा सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जिय तेण गुणेण गूण कालं करेदि ? ण, जेण गुणेणाउबंधो संभवदि तेणेव गुणेण मरदि, ण अण्णगुणेणेत्ति परमगुरुवदेसादो । ण उवसामगेहि अणेयंतो, सम्मत्तगुणेण आउअबंधाविरोहिणा णिस्सरणे विरोहाभावादो । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
तित्थयरणामकम्मस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ८५॥ सुगमं । असंजदसम्माइट्टी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥८६॥
प्रत्ययोंका अभाव है। मनुष्यायुको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधने हैं। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनप्रस्थान सुगम है।
शंका-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके साथ जीव क्यों नहीं मरते ?
समाधान- चूंकि इस गुणस्थानमें आयुके बन्धका अभाव है, अतएव जीव यहां मरण नहीं करते।
शंका-यहां आयुबन्ध भले ही न हो, फिर भी पहिले अन्य गुणस्थानमें आयुको बांधकर और पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्तकर उस गुणस्थानके साथ तो निश्चयतःमरण कर सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि जिस गुणस्थानके साथ आयुवन्ध सम्भव है उसी गुणस्थानके साथ जीव मरता है, अन्य गुणस्थानके साथ नहीं, ऐसा परमगुरुका उपदेश है।
इस नियममें उपशामकों के साथ अनैकान्तिक दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, आयुबन्धके अविरोधी सम्यक्त्वगुणके साथ निकलने में कोई विरोध नहीं है। (देखो जीवस्थान चूलिका ९, सूत्र १३० की टीका)।
मनुष्यायु का बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वह अध्रुववन्धी है। तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ८५ ॥ यह सूत्र सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि देव बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ८६ ॥
१ प्रतिषु 'आउमयंधिय ' इति पाठः ।
२ अप्रती गुणेण्णोणं'; आ-कापत्योः । गुणेणण्णोणं ' इति पाठः । छ.. १९.
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