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४२] . छवखंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १५. एवमजसकित्ती वि, उदयस्स अद्धवत्तणेण भेदाभावादो। णवीर संजदासंजदम्पहुडि उवरि परोदएणेव बंधो, तत्थ जसकित्तिं मोतूण अवराए उदयाभावादी । अथिर-असुहाण सोदएणेव बंधो, धुवोदयत्तादो। एदासिं छण्णं पयडीणं मिच्छाइटिप्पहुडि छसु वि गुणट्ठाणेसु सांतरो बंधो । कुदो ? एदासिं पडिवक्खपयडीणमेत्थ बंधवोच्छेदाभावादो । णाणावरणादिसोलसपयडीणं जे पच्चया पुरूविदा एदेसु छसु गुणट्ठाणेसु तेहि चेव पच्चएहि एदाओ छप्पयडीओ बझंति । असाद-अरदि-सोगे मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणी णिरयगई मेात्तूण तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिविणो देव-मणुसगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधति । एवं अथिर-असुभ-अजसकित्तीणं,भेदाभावादो । चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छाइटिअसंजदसम्मादिहिणो सामी । दुगइसंजदासंजदा सामी। पमत्तसंजदा मणुसा चेव । बंधद्धाणं बंधवोच्छेदट्ठाणं च सुगमं । एदाओ छ वि पयडीओ बंधेण सादि-अद्धवाओ।
मिच्छत्त-णवंसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बेइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजादि हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण-णिरयगइ
इनका उदय ध्रुव नहीं है। इसी प्रकार अयशकीर्ति भी स्वोदय-परोदयसे बंधती है, क्योंकि, उदयकी अचवताकी अपेक्षा इसके उक्त तीनों प्रकृतियोंसे कोई भेद नहीं है। विशेष इतना है कि संयतासंयतसे लेकर आगे इसका वन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, वहां यशकीतिको छोड़कर अयशकीतिका उदय नहीं रहता। अस्थिर और अशुभ
शुभ प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदयसे ही होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । इन छहों प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि आदि छहों गुणस्थानों में सान्तर वन्ध होता है । इसका कारण यह है कि यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धन्युच्छेदका अभाव है। ज्ञानावरणादि सोलह प्रकृतियोंके जो प्रत्यय इन छह गुणस्थानों में कहे गये हैं उन्हीं प्रत्ययोंसे ही ये छह प्रकृतियां बंधती हैं । असातावेदनीय, अरति और शोक प्रकृतियोंको मिथ्याडष्टि जीव चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिको छोड़कर तीन गतियोंसे संयुक्त, सभ्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव-मनुष्य गतियोंसे संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त वांधते हैं । इसी प्रकार अस्थिर, अशुभ और अयशकीर्ति प्रकृतियोंका भी गतिसंयुक्त बन्ध जानना चाहिये, क्योंकि, उनसे इनके कोई भेद नहीं है। चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी है। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं । प्रमत्तसंयत मनुष्य ही स्वामी होते हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छेदस्थान सुगम है। ये छहों प्रकृतियां बन्धसे सादि एवं अध्रुव हैं।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर,
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