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________________ ३, १६.] ओघेण मिच्छत्तादीणं बंधसामित्तारूवणा पाओग्गाणुपुव्वि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १५॥ एदं पुच्छासुत्तं देसामासियं, तेणेत्थ सव्वपुच्छाओ कायव्वाओ। पुच्छिदसिस्सस्स संसयविणासणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि मिच्छाइट्टी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १६ ॥ ____एदं देसामासियसुत्तं, सामित्तद्धाणाणं दोण्णं चेव परूवणादो । तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवर्ण कीरदे-मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जति, मिच्छाइट्टिचरिमसमए बंधोदयवोच्छेददंसणादो । एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-आदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणं मिच्छत्तभंगो, मिच्छाइट्ठिम्हि बंधोदयवोच्छेदं पडि एदासिं मिच्छत्तेण सह भेदाभावादो। णqसयवेदस्स पुव्वं बंधवोच्छेदो पच्छा उदयस्स', मिच्छाइट्ठिम्हि बंधे णढे संते पच्छा अणियट्टिम्हि उदयवोच्छेदादो । एवं णिरयाउ-णिरयगइपाओग्गाणुपुविणामाणं वत्तव्वं, मिच्छाइट्टिम्हि सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर नामकर्मका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ? यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसलिये यहां पूर्वोक्त सब प्रश्नों को करना चाहिये । पूछनेवाले शिष्यका संशय नष्ट करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं मिथ्यादृष्टि जीव बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ १६ ॥ यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि, वह बन्धस्वामित्व और बन्धाध्वान इन दोनोंका .. ही प्ररूपण करता है । इस कारण इससे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं-मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके समयमें इसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणसरीर प्रकृतियोंका बन्धोदयव्युच्छेद मिथ्यात्व प्रकृतिके ही समान है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें होनेवाले बन्धोदयव्युच्छेदके प्रति इनका मिथ्यात्वके साथ कोई भेद नहीं है। नपुंसकवेदका पूर्वमें बन्धव्युच्छेद और पश्चात् उदयका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर पीछे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उदयका व्युच्छेद होता है। इसी प्रकार नारकायु और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका बन्धोदयव्युच्छेद कहना चाहिये, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर पीछे असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें १ अ-आप्रत्योः पच्छादयस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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