SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १६३. उदयणियमाभावादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं मिच्छाइद्विम्हि सांतर-णिरंतरो बंधो । क, णिरंतरो ? सत्तमपुढविणेरइएहितो तेउ-वाउक्काइएहिंतो च कयविग्गहाणं णिरंतरबंधदसणादो। सासणसम्माइट्ठिम्हि सांतरो, तत्तो विणिग्गयसासणसम्माइट्ठीणं संभवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सव्वत्थ सांतरो बंधो, अणियमेण बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तमवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तं बंधीत । चउगइमिच्छाइट्ठी तिगइसासणसम्मादिट्ठिणो च सामी । बंधद्धाणं बंधविणहाणं च सुगमं । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउविहो बंधो। सासणे दुविहो, अणाइ-धुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सव्वत्थ बंधो सादिअद्धवो । सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १६३ ॥ सुगमं । नियमका अभाव है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुकका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुववन्धी हैं। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है । शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान-क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियों और तेजकायिक व वायुकायिकोंमेंसे विग्रहको करनेवाले जीवोंके निरन्तर बन्ध देखा जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहांसे निकले हुए सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी सम्भावना नहीं है । शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सान्तर बन्ध होता है, क्योंके, अनियमसे उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्यय सुगम है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको तिर्यग्गतिसे संयुक्त; तथा शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि और तीन गतियोंके सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान हैं। स्त्यानग्रद्धित्रय और अनन्तानबन्धिचतष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि व ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है। सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १६३ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy