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३, ६६. ]
तिरिक्खगदीए णिहाणिद्दादणि बंधसामित्तं
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सव्वासिं पयडीणं बंधस्स तिरिक्खा चैव सामी । बंधद्वाणं बंधविणट्टट्ठाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय अडकसाय-भय-दुगुंछा - तेजा कम्मइय-वण्ण-गंध-रस - फासअगुरुवलहुव-उववाद- णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइडिम्हि चउव्विहो बंधो, सेसेसु तिविहो, ध्रुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सादि-अद्भुवा ।
णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थीणगिद्धि - अणताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ- इथिवेद-तिरिक्खाउ- मणुसाउ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-ओरालियसरीर- चउसंठाण - ओरालियसरीर अंगोवंग-पंच संघडण -तिरिक्खगइमणुसगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव - अप्पसत्थविहायगइ - दुभग- दुस्सरअणादेज्ज - णीचा गोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६५ ॥
सुगममेदं ।
मिच्छाडी सासणसम्माइट्टी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ६६ ॥
सब प्रकृतियों के बन्धके तिर्यच हो स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय व नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ६५ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ६६ ॥
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