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________________ १२० छपखंडागमे बंधसामित्तयिचओ [३, ६६. एदेण सूइदत्थाण परूवणा कीरदे - थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-ओरालियसरीर-चउसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सर-णीचागोदाणं तिरिक्खगईए उदयवोच्छेदो णत्थि, सासणे बंधवोच्छेदो चेव । णवरि तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुबीए' पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो पच्छा उदओ, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि उदयवोच्छेदादो । अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, सासणसम्मादिहिचरिमसमयम्हि उभयवोच्छेददंसणादो । मणुसाउ-मगुसगइपाओग्गाणुपुब्बीणं तिरिक्खगईए उदओ चेव णत्थि, विरोहादो। तेणेदासिं बंधोदयाणं पुवं पच्छा वोच्छेदविचारो णत्थि । दुभग-अणादेज्जाणं पुव्वं बंधो वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, सासणे वोच्छिण्णबंधाणं अजंदसम्मादिविम्हि उदयवोच्छेददंसणादो । थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-चउसंठाण-पंचसंघडण-उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्जाणं सोदय-परोदएहि बंधो । णवरि तिरिक्खजोणिणीसु इत्थिवेदस्स सोदएणेव बंधो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-णीचागोदाणं सोदएणेव बंधो । मणुस्साउ साथ राधिका इसके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं-स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुखर और नीचगोत्र, इनका तिर्यग्गतिमें उदयव्युच्छेद नहीं है, सासादनगुणस्थानमें केवल बन्धव्युच्छेद ही है। विशेष इतना है कि तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योंकि [सासादनगुणस्थानमें बन्धके नष्ट हो जानेपर तत्पश्चात् ] असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदयका व्युच्छेद होता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों होते हैं, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टिके चरम समयमें दोनोंका व्यच्छेद देखा जाता है । मनुष्यायु और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका तिर्यग्गतिमें उदय ही नहीं है, क्योंकि, वहां इनके उदयका विरोध है । इसी कारण इनके बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार नहीं है । दुर्भग और अनादेयका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय; क्योंकि सासादनगुणस्थानमें इनके बन्धके नष्ट हो जानेपर असंयतसम्यग्दृष्टि में उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। __ स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, चार संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय, इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है । किन्तु विशेष इतना है कि तिर्यंच योनिमतियोंमें स्त्रीवेदका स्वोदयसे ही बन्ध होता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गति और नीचगोत्रका स्वोदयसे ही बन्ध होता है । १ प्रतिषु 'तिरिक्खगइपाओग्गाशुपुवी' इति पाठः ! २ प्रतिषु 'सासणो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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