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________________ ३५६ ] छक्वंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २०३. गइसंजदासजदप्पहुडिओ च' सामी । णवरि विसेसो सादावेदणीयस्स मणजोगिभंगो ॥२७३॥ ओघादो को एत्थ विसेसो ? ण, ओघम्मि अबंधगाणमुवलंभादो। एत्थ पुण ते णत्थि, अजोगीसु लेस्साभावादो। का लेस्सा णाम? जीव-कम्माणं संसिलेसणयरी, मिच्छत्तासंजम-कसायजोगा' त्ति भणिदं होदि । सेसं जसकित्तिभंगो । बेट्टाणि-एक्कट्ठाणीणं णवगेवज्जविमाणवासियदेवाणं भंगो ॥ २७४ ॥ एदस्स देसामासियसुत्तस्स अत्थो उच्चदे । तं जहा- थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कित्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचा मनुष्यगतिक संयतासंयतादिक स्वामी हैं। परन्तु विशेष इतना है कि सातावेदनीयकी प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है ॥२७॥ शंका-ओघसे यहां क्या भेद है ? समाधान-नहीं, क्योंकि ओघमें सातावेदनीयके अबन्धक पाये जाते हैं । किन्तु यहां वे नहीं हैं, कारण कि अयोगी जीवोंमें लेश्याका अभाव है। शंका-लेश्या किसे कहते हैं ? समाधान-जो जीव व कर्मका सम्बन्ध कराती है वह लेश्या कहलाती है । अभिप्राय यह कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग,ये लेश्या है । शेष विवरण यशकीर्ति के समान है। द्विस्थानिक और एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा नौ ग्रैवेयक विमानवासी देवोंके समान है ॥ २७४ ॥ इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, १ आप्रतौ ' संजदासजदप्पहुडिसंजदाओ च ' इति पाठः । २ अ-आप्रयोः · संकिलिस्सणयरि ', कापतौ — संकिलिस्सणेरड्य ' इति पाठः । ३ अत्रतौ · कसायाजोगा ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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