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________________ १, २५८.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं [ ३२५ सम्मादिट्ठीसु तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणमभावादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं सव्वगुणट्ठाणेसुबंधो मणुसगइसंजुत्तो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो। सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्माइट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो, अण्णगइबंधाभावादो। देवगइदुगस्स देवगइसंजुत्तो। वेउवियदुगस्स मिच्छाइट्ठीसु दुगइसंजुत्तो, तिरिक्ख-मणुसगईणमभावादो । सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देवगइसंजुत्तो, अण्णगइबंधेण संजोगविरोहादो । उच्चागोदस्स सव्वगुणहाणेसु देवगइ-मणुसगइसंजुत्तो बंधो। पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुवलहुवचउक्क-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभगसुस्सर-आदेज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिण-पंचतराइय-उच्चागोदाण चउगइमिच्छाइट्ठि-सासण सुस्वर, आदेय और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगतिका अभाव है । सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और तिर्यग्गतिका अभाव है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायाग्यानुपूर्वीका सब गुणस्थानों में मनुष्यगतिले संयुक्त बन्ध होता है। औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त वन्ध होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है । देवगतिद्विकका देवगतिसे संयुक्त वन्ध होता है । वैक्रियिकद्विकका मिथ्यादृष्टियों में दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यग्गति और मनुष्यगतिके बन्धका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोम देवगतिसे संयक्त बन्ध होता है. क्योंकि. अन्य गतियोंके बन्धके साथ उसके संयोगका विरोध है। उच्चगोत्रका सब गुणस्थानों में देवगति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, पंचेन्द्रिय जाति, तैजल व कार्मण शरीर, समवतुरस्रसंस्थान, वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तावहायोगति, प्रल, बादर. पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, पांच अन्तराय और उच्चगोत्रके चारों गतियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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