SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३, ९९.] अणुदिसादिदेवेसु बंधसामित्तं [१५५ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥९९॥ एदस्सत्थो वुच्चदे- बंधोदयाणं वोच्छेदविचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णियासविरोहादो । परोदएण बंधो, सव्वत्थ तित्थयरकम्मबंधोदयाणमक्कमेंण उत्तिविरोहादो । णिरंतरो बंधो, संखेज्जावलियादिकालेण विणा एगसमएण बंधुवरमाभावादो । एदस्स पच्चया देवोघपच्चयतुल्ला । उत्तरोत्तरपच्चया पुण अरहंताइरिय-बहुसुद-पवयणभत्ति-लद्धिसंवेगसंपत्ति-दसणविसुद्धि-पवयणप्पहावणादओ । मणुसगइसंजुत्तो. बंधो । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । सादि अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो। अणुदिस जाव सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय-सादासाद बारसकसाय--पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय दुगुंछा-मणुस्साउ-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजाकम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुअलहुअ असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ९९ ॥ इसका अर्थ कहते हैं- बन्ध और उदयके व्युच्छेदका विचार यहां नहीं है, क्योंकि, सत् और असत् बन्धोदयको समानताका विरोध है । परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, सर्वत्र तीर्थकर कर्मके बन्ध और उदयके एक साथ रहनेका विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, संख्यात आवली आदि कालके विना एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है। इसके प्रत्यय देवोघ प्रत्ययोंके समान हैं। परन्तु इसके उत्तरोत्तर प्रत्यय अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, वहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, लब्धिसंवेगसम्पत्ति, दर्शनविशुद्धि और प्रवचनप्रभावनादिक हैं । मनुष्यगतिसे संयुक्त इसका बन्ध होता है। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं। सादि-अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी प्रकृति है। अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके विमानवासी देवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy