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________________ ३, २५८.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं [ ३३१ चेव सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, उवरिम्ह बंधुवलंभादो । सादि-अद्धवो, अदुवबंधित्तादो। तित्थयरस्स बंधो परोदओ, बंधे उदयविरोहादो। णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। ओधपच्चएसु वेउव्विय-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा । देवगइसंजुत्तो, किण्णलेस्सियणेरइएसु तित्थयरबंधाभावेण मणुसगइसंजुत्तत्ताभावादो । सामी मणुसा चेव, अण्णत्यासंभवाशे । बंधद्धाणं णस्थि, एक्कम्हि असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे अद्धाणविरोहादो । बंधवोच्छेदो णत्थि, उवारं पि बंधदसणादो । सादि-अदुवो, अन्डुवबंधित्तादो। एवं चेव णीललेसाए परवेदव्वं । णवरि तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुन्वीणीचागोदाणं सासणसम्माइट्ठिम्हि सांतरो बंधो, सत्तमपुढवीसासणसम्माइट्ठिणो मोत्तणण्णत्थेदासिं सासणेसु णिरंतरबंधाणुवलंभादो। ण च सत्तमपुढवीणीललेस्सिया सासणसम्माइट्ठिणो अत्थि, तत्थ किण्णलेस्सं मोत्तूणण्णलेस्साभावादो । कथं मिच्छाइट्ठीण णीललेस्साए णिरंतरो बंधो १ ण, सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर बन्ध पाया जाता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अधुववन्धी है। तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध परोदय होता है, क्योंकि, बन्धके होने पर उसके उदयका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है । ओघप्रत्ययोंमें वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, कृष्णलेश्यावाले नारकियोंमें तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका अभाव होनेसे मनुष्यगतिके संयोगका अभाव है । स्वामी मनुष्य ही हैं, क्योंकि, अन्य गतियाक कृष्णलेश्या युक्त जीवाम उसके बन्धको सम्भावना नहीं है। बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर भी बन्ध देखा जाता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है। इसी प्रकार ही नील लेश्याम प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सप्तम पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंको छोड़कर अन्यत्र इनका सासादनसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध पाया नहीं जाता। और सप्तम पृथिवीमें नीललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि हैं नहीं, क्योंकि, वहां कृष्णलेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याओंका अभाव है। शंका---नीललेश्याम मिथ्यादृष्टियोंके उनका निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? १ अ-आप्रत्योः । अण्णद्धा-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelibrary.
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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