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________________ ३३०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २५८.. णवरि मिच्छाइट्ठिम्हि वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया, सासणे वेउब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि ओरालियदुग-वेउब्वियमिस्स-कम्मइय-इस्थि-पुरिसवेदपच्चया अवणेदव्वा; असुहतिलेस्सासु मणुसाउअं बंधमाणाणं देवासंजदसम्मादिट्ठीणमणुवलंभादो । ण च देवेसु पज्जत्तएसु असुहतिलेस्साओ अस्थि, भवणवासिय वाणवंतर-जोदिसिएसु अपज्जत्तयदेवेसु चेव तासिमुवलंभादो। ण च देवा णेरइया वा पज्जत्तणामकम्मोदयतिरिक्खमणुसा अपज्जत्तयदा संता आउअंबंधति, तिरिक्ख-मणुसअपज्जते मोत्तूण अण्णत्थ तब्बंधाणुवलंभादो। मणुसगइसंजुत्तो । तिगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो णिरयगइअसंजदसम्मादिट्ठिणो च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि, किण्हलेस्साए वट्टमाणसंजदासंजदाणमणुवलंभादो । सादि-अडुवो बंधा, अदुवबंधित्तादो । देवाउअस्स सव्वत्थ बंधो परोदओ, बंधोदएसु उदयबंधाणमच्चंताभावावट्ठाणादो । णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । सव्वेसि पि वेउव्विय-वेउवियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया सग-सगोघपच्चएहिंतो अवणेयव्वा । देवगइसंजुत्तो। तिरिक्ख-मणुसा विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको, सासादन गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको, तशा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकहिक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण, स्त्रीवेद और पुरुषवेद प्रत्ययोको कम करना चाहिये; क्योकि, अशुभ तीन लेश्याओम मनुष्यायुको बांधनेवाल देव असंयतसम्यग्दृष्टि पाये नहीं जाते । और देव पर्याप्तकोंमें अशुभ तीन लेयायें होती नहीं हैं, क्योंकि भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी अपर्याप्तक देवों में ही वे पाई जाती हैं । तथा देव, नारकी अथवा पर्याप्त नामकर्मोदय युक्त तिर्यंच व मनुष्य अपर्याप्त होकर आयुको बांधते नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्य अपर्याप्तोंको छोड़कर अन्यत्र उसका बन्ध पाया नहीं जाता । मनुष्यगतिसे संयुक्त वन्ध होता है। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि तथा नरकगतिके असंयत सम्यग्दृष्टि भी स्वामी हैं। बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योकि, कृष्णलेश्याम वर्तमान संयतासयत पाय नहीं जाते । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुववन्धी है ।। देवायुका सर्वत्र परोदय वन्ध होता है, क्योंकि, बन्ध और उदयके होनेपर क्रमसे उसके उदय और बन्धका अत्यन्ताभाव अवस्थित है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है। सभी जीवोंके वैकियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कामेण प्रत्ययोको अपने अपने ओघप्रत्ययोमेसे कम करना चाहिये । देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। तिर्यंच और मनुष्य ही स्वामी हैं। बन्धाध्वान १ अ-आप्रयोः ' असुहा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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