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________________ २१४ ] छक्खडागमै बंधसामित्तविचओ [ ३, १५२. मिच्छत्त-चदुजादि-थावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणमेत्थ बंधोदया समं वोच्छिण्णा, अवसाणं पयडीणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो । आदावस्स एत्थ उदओ णत्थि चेव । मिच्छत्तस्स सोदओ बंधो । आदावस्य परोदओ, अपज्जत्तकाले आदावस्सुदयाभावादो | उंसयवेद-तिरिक्ख-मणुसाउ-चदुजादि - हुंड संठण असंपत्तसेवट्टसंघडण थावर - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं सोदय-परोदओ बंधो । मिच्छत्त-तिरिक्ख - मणुसाउआणं बंधी णिरंतरो । अवसेसाणं सांतरो, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो | पच्चया सुगमा । तिरिक्खाउ - चदुजादि -आदाव - थावरसुहुम-साहारणाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो, मणुसाउअस्स मणुसगइसंजुत्तो, सेसाणं तिरिक्ख- मणुस - इसंजुतो बंधो । दुगइमिच्छाइट्ठी सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चदुविंहो बंधो, धुवबंधित्तादो | सेसाणं सादि-अद्भुवो । देवगs - उब्वियसरीर- वे उव्यियसरीर अंगोवंग- देवगड़पाओग्गाणुपुव्वी तित्थयरणामाणं को बंधो को अबंधो ? १५२ ॥ सुमं । दोनों पाये जाते हैं। अथवा मिथ्यात्व, चार जातियां, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर, इनका बन्ध और उदय दोनों यहां साथमें व्युच्छिन्न होते हैं। शेष प्रकृतियों का पूर्व में बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है । आताप प्रकृतिका उदय यहां है ही नहीं । मिथ्यात्व प्रकृतिका स्वोदय बन्ध होता है । आतापका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें आता पके उदयका अभाव है । नपुंसकवेद, तिर्यगायु, मनुष्यायु, चार जातियां, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । मिथ्यात्व, तिर्यगायु और मनुष्यायुका बन्ध निरन्तर होता है। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम पाया जाता है । प्रत्यय सुगम हैं । तिर्यगायु, चार जातियां, आताप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण, इनका तिर्यग्गतिसे संयुक्त, मनुष्यायुका मनुष्यगति से संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंका तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । तिर्यच व मनुष्य दो गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है । देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थकर नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १५२ ॥ यह सूत्र सुगम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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