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________________ ३, १५४.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं [२१५ असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा॥१५३॥ एदस्सत्थो वुच्चदे - एत्थ बंधो उदओ वा पुव्वं पच्छा वा वोच्छिज्जदि त्ति परिक्खा णत्थि, उदयाभावादो । णवरि तित्थयरस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि । एदाओ पंच वि पयडीओ परोदएण बझंति, ओरालियमिस्सकायजोगम्मि एदासिमुदयविरोहादो। णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । असंजदसम्मादिद्विम्हि एदासिं बंधस्स बत्तीसुत्तरपच्चया, ओघपच्चएसु बारसजोगित्थि-णबुसयवेदाणमभावादो । सेसं सुगमं । चउण्हं पयडीणं तिरिक्ख-मणुसगइ-असंजदसम्मादिट्ठी सामी । तित्थयरस्स मणुसा चेव, तिरिक्खेसु उप्पण्णाणं तत्थुप्पत्तिपाओग्गसम्माइट्ठीण तित्थयरस्स बंधाभावादो । गइसंजुत्तत्तमभणिय किमिदि सामित्तं परूविदं ? ण, देवगइसंजुत्तं बझंति त्ति अणुत्तसिद्धीदो । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो। वेउब्वियकायजोगीणं देवगईए' भंगो ॥ १५४ ॥ असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥१५३ ॥ इसका अर्थ कहते हैं- यहां बन्ध व उदय पूर्वमें अथवा पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह परीक्षा नहीं है। क्योंकि, यहां उन प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। विशेष इतना है कि तीर्थकर प्रकृतिका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है। ये पांचों ही प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगमें इनके उदयका विरोध है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका यहां अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनके बन्धके बत्तीस उत्तर प्रत्यय है, क्योंकि, ओघप्रत्ययों से बारह योग, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। चार प्रकृतियोंके तिर्यच व मनष्यगतिके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी तीर्थकरप्रकृतिके मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुए वहां उत्पत्तिके योग्य सम्यग्दृष्टियोंके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। शंका-गतिसंयुक्तताको न कहकर स्वामित्वकी प्ररूपणा क्यों की गयी है ? समाधान—चूंकि उक्त प्रकृतियां देवगतिसे संयुक्त बंधती हैं, यह विना कहे ही सिद्ध है, अतः गतिसंयोगकी प्ररूपणा नहीं की। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं। वैक्रियिककाययोगियोंकी प्ररूपणा देवगतिके समान है ॥ १५४ ॥ १ प्रतिषु ' देवगईणं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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