SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, १५४. एदमप्पणासुत्तं देसामासिय, तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे- पंचणाणावरणीयछदसणावरणीय सादासाद-बारसकसाय पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छा-मणुसगइपंचिंदियजादि-ओरालिय तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्णचउक्क-मणुसाणुपुवी-अगुरुअलहुअचउक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-थिराथिरसुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचतराइयपयडीओ एत्थ चदुसु गुणट्ठाणेसु बंधपाओग्गाओ । एत्थ पुव्वं बंधो उदओ वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अजसगित्तीणमुदयाभावादो सेसाणं पयडीणमुदयवोच्छेदाभावादो च । 'पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुअलहुअ-उवधाद-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त- पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुहणिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, वेउव्वियकायजोगम्हि एदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । णवरि सम्मामिच्छाइडिं मोत्तूण अण्णत्थ उस्सासस्स' सोदय-परोदओ बंधो, सरीरपज्जत्तीए ___ यह अर्पणासूत्र देशामर्शक हैं, इसलिये इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते है- पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्णादिक चार, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, त्रस आदिक चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां यहां चार गुणस्थानोंमें बन्धके योग्य हैं। यहां पूर्वमें बन्ध या उदय व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और अयशकीर्ति, इनका उदयाभाव तथा शेष प्रकृतियोंके उदयव्युच्छेदका अभाव है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वैक्रियिककाययोगमें इनका ध्रुवोदय देखा जाता है। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टिको छोड़कर अन्यत्र उच्छ्वासका स्वोदय-परोदय बन्ध ... १ प्रतिषु ' उस्सास' इति पाठः .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy