SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३, २३..] संजममग्गणाए बंधसामित्तं [ ३०१ त्ति बंधद्धाणं । अपुव्वकरणद्धाए सत्तमभागचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि । कधमेदं णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो । तिविहो बंधो, धुवाभावादो । एवं चेव पुरिसवेदस्स वत्तव्वं । णवरि अद्धाणमणियट्टिअद्धाए संखेज्जा भागा त्ति वत्तव्वं । देवगइ-अगइसंजुत्तो । दुविहो बंधो, अद्धवबंधित्तादो । कोधसंजलणस्स लोभसंजलणभंगो । णवरि अद्धाणमणियट्टिअद्धाए संखेज्जा भागा त्ति । एवं माण-मायासंजलणाणं पि वत्तव्वं । णवरि कोधबंधवोच्छिण्णुवरिमद्धाए संखेज्जाभागे गंतूण माणबंधद्धाणं समप्पदि। सेसद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण मायबंधद्धाणं सम पदि' त्ति वत्तव्वं । हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, अपुव्वकरणद्धाए चरिमसमए तदभावदसणादो। बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो । हस्स रदीणं बंधो पमत्तम्मि सांतरो। करणकालके सप्तम भागके अन्तिम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्रसे अविरुद्ध आचार्योंके वचनसे वह जाना जाता है। उनका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है । इसी प्रकार ही पुरुषवेदके भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि बन्धाध्वान अनिवृत्तिकरणकालका संख्यात बहुभाग है, ऐसा कहना चाहिये । देवगतिसंयुक्त और अगतिसंयुक्त बन्ध होता है । दो प्रकारका वन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है। __ संज्वलनक्रोधकी प्ररूपणा संज्वलनलोभके समान है । विशेष इतना है कि बन्धाध्वान अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातबहुभाग है । इसी प्रकार संज्वलन मान और मायाके भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि संज्वलनक्रोधके बन्धके व्युच्छिन्न होनेके उपरिम कालका संख्यात बहुभाग विताकर मानबन्धाध्वान समाप्त होता है। शेष कालके संख्यात बहुभाग जाकर मायाबन्धाध्वान समाप्त होता है, ऐसा कहना चाहिये। हास्य, रति, भय और जुगुप्साका बन्ध व उद्य दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके अन्तिम समयमें उनका अभाव देखा जाता है । बन्ध उनका स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। हास्य और रतिका बन्ध प्रमत्स २ प्रतिषु समप्पडि ' इति पाठः । १ प्रतिषु · विविहो' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः समप्पडि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy