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________________ ३००] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २३०. सुगम, सुत्तुद्दिट्टत्तादो। बंधवोच्छेदो णत्थि, उवरि वि बंधुवलंभादो 'अबंधा णत्थि' त्ति सुत्तादो वा । चोदसणं धुवबंधीणं बंधो तिविहो, धुवाभावादो। अवसेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो। सेसं मणपज्जवणाणिभंगो ॥ २३०॥ जहा मणपज्जवणाणीसु सेसपयडीणं परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । को वि विसेसो अत्थि', णqसयवेदाहारदुगपच्चयाणं तत्थासंताणमेत्थत्थित्तदंसणादो। णिद्दा-पयलाणं पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो । उदयवोच्छेदो णस्थि, सुहुमसांपराइय-जहाक्खादसंजदेसु वि तदुदयदसणादो । बंधो सोदय-परोदओ, अद्धवोदयत्तादो। णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितो विसेसाभावादो । देवगइसंजुत्तो, गत्तरस्स बंधाभावादो । मणुसा सामी, अण्णत्य संजमाभावादो। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुवकरणो बन्धाध्वान सुगम है, क्योंकि, वह सूत्रमें निर्दिष्ट है | बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर भी बन्ध पाया जाता है; अथवा 'अबन्धक नहीं है' इस सूत्रसे भी बन्धव्युच्छेदका अभाव सिद्ध है। चौदह ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका बन्ध तीन प्रकार होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुववन्धी हैं । शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है ॥ २३० ॥ जिस प्रकार मनःपर्ययज्ञानियोंमें शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये। यहां कुछ विशेषता भी है, क्योंकि, नपुंसकवेद और आहारद्विकके प्रत्यय, जो मनःपर्ययज्ञानियों में नहीं थे, यहां देखे जाते हैं। निद्रा और प्रचलाका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है। उनका उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक और यथाख्यातसंयतोंमें भी उनका उदय देखा जाता है। बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुघोदयी हैं। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं हैं। देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, संयतोंमें अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। मनुष्य स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें संयमका अभाव है । प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरण तक बन्धाध्वान है। अपूर्व १ अ-आप्रत्योः · को विसेसो अस्थि णत्थि', काप्रतौ ' को वि विसेसो अस्थि णत्थि' इति पाठः । २ प्रतिषु · तथासंताण ' इति पाठः। ३ काप्रतावत्र 'बंधो सोदय-परोदओ ' इत्यधिकः पाठः । ४ प्रतिषु 'गभंतरस्स' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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