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________________ २३.1 छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १५८. सुगमं । पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १५८ ॥ एदस्सत्यो उच्चदे - एत्थ बंधो उदओ वा पुव्वं वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, एक्कगुणट्ठाणम्मि पुव्वावरभावाभावादो। पंचणाणावरणीय-चउर्दसणावरणीय-पुरिसवेदपंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुवच उक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसाकत्ति-णिमिण-उच्चागोदपंचंतराइयाणं सोदओ बंधो । णिद्दा-पयला-सादासाद-चदुसंजलण-छण्णोकसायाणं सोदय-परोदओ बंघो, उभयथावि बंधविरोहाभावादो । देवाउ-देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियसरीरंगोवंगदेवगइपाओग्गाणुपुवी-अजसकित्ति-तित्थयराणं परोदओ बंधो, आहारकायजोगीसु एदासिमुदयविरोहादो। पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-चदुसंजलण-पुरिसवेद-भय-दुगुंछा-देवाउ-देवगइपंचिंदियजादि-वेउव्विय तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्णचउक्कदेवगइपाओग्गाणुपुब्बि-अगुरुवलहुवचउक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-सुभग-सुस्सर-आदेज यह सूत्र सुगम है। प्रमत्तसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ १५८ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- यहां बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या उदय, यह विचार नहीं है; क्योंकि, एक गुणस्थानमें पूर्वापरभावका अभाव होता है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पुरुषवेद, पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णादिक चार, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, त्रसादिक चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है। निद्रा.प्रचला, साता व असाता वेदनीय, चार संज्वलन और छह नौ कषायोंका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारसे बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है। देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अयशकीर्ति और तीर्थकरका परोदय बन्ध होता हैं, क्योंकि, आहारकाययोगियोंमें इनके उदयका विरोध है। पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्णादिक चार, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, प्रसादिक चार, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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