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________________ ३, ५.] ओघेण पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं विनाशः, अनुत्पाद एव अनुच्छेदः ( अनुत्पादानुच्छेदः) असतः अभाव इति यावत् , सतः असत्वविरोधात् । एसो पज्जवट्ठियणयव्यवहारो । एत्थ पुण उप्पादाणुच्छेदमस्सिदूण जेण सुत्तकारेण अभावव्ववहारो कदो तेण भावो चेव पयडिबंधस्स परुविदो। तेणेदस्स गंथस्स बंधसामित्तविचयसण्णा घडदि त्ति ।। पंचण्णं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दंसणावरणीयाणं जसकित्तिउच्चागोद-पंचण्हमंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥५॥ बंधो बंधगो त्ति भणिदं होदि । पयडिसमुक्कित्तणाए णाणावरणादीणं सरूवं परूविदमिदि णेह परूविज्जदे, पउणरुत्तियादो। को बंधो को अबंधओ ति णिद्देसादो एदं पुच्छासुत्तमासंकियसुत्तं वा । किं मिच्छाइट्ठी बंधओ किं सासणसम्माइट्ठी किं सम्मामिच्छाइट्ठी किं असंजदसम्माइट्ठी एवं.गंतूण किं अजोगी किं सिद्धो बंधओ त्ति तेणेवं पुच्छा कायव्वा । एदं देसामासियसुत्तं । किं बंधो पुव्वं वोच्छिज्जदि किमुदओ पुव्वं वोच्छिज्जदि किं दो वि समं वोच्छिज्जंति, किं सोदएण एदासिं बंधो किं परोदएण किं स-परोदएण, किं सांतरो बंधो किं अर्थात् असत्का अभाव होता है, क्योंकि सत्के असत्वका विरोध है । यह पर्यायार्थिक नयके आश्रित व्यवहार है । यहांपर चूंकि सूत्रकारने उत्पादानुच्छेदका आश्रय करके ही अभावका व्यवहार किया है, इसलिये प्रकृतिबन्धका सद्भाव ही निरूपित किया गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थका ‘बन्धस्वामित्वविचय' नाम संगत ही है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ? ॥ ५॥ 'बन्ध' शब्दसे यहां बन्धकका अभिप्राय प्रकट किया गया है । चूंकि प्रकृतिसमुकीर्तन चूलिकामें शानावरणादिकोंका स्वरूप कहा जा चुका है, अत एव अब उनका स्वरूप यहां नहीं कहा जाता, क्योंकि ऐसा करनेसे पुनरुक्ति दोष आवेगा । 'कौन बन्धक और कौन अबन्धक' इस निर्देशसे यह पृच्छासूत्र अथवा आशंकासूत्र है, ऐसा समझना चाहिये । इसीलिये क्या मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या संम्यग्मिथ्यादृष्टि बन्धक है, क्या असंयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, इस प्रकार जाकर क्या अयोगी बन्धक है, क्या सिद्ध जीव बन्धक है, ऐसा यहां प्रश्न करना चाहिये। यह देशामर्शक सूत्र है। इसलिये यहां क्या बन्धकी पूर्वमें व्युच्छित्ति होती है (१) क्या उदयकी पूर्वमें व्युच्छित्ति है (२) या दोनोंकी साथ ही व्युच्छित्ति होती है (३) क्या अपने उदयके साथ इनका बन्ध होता है (४) क्या पर प्रकृतियोंके उदयके साथ इनका बन्ध होता है (५) या अपने व पर दोनोंके उद्यसे इनका बन्ध होता है (६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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