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९८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ४५. अद्भुवो चेव, अद्धवबंधित्तादो।
णिहाणिहा-पयलापयला-थीमगिद्धि-अणताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडणतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-- अणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो? ॥४५॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ४६॥
सव्वाणि बंधसामित्तसुत्ताणि देसामासियाणि त्ति दट्ठव्वाणि । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, सासणचरिमसमयम्मि एदस्स समं बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-सिमिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बि-उज्जोवाणं णिरयगदीए उदओ णत्थि, विरोहादो।
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प्रकृतियोंका बन्ध सादि-अध्रुव ही है, क्योंकि, वे प्रकृतियां अध्रुववन्धी हैं ।
निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ४५ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष नारकी अबन्धक
बन्धस्वामित्वके सब सूत्र देशामर्शक हैं, ऐसा समझना चाहिये । इसी कारण इस सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादनगुणस्थानके चरम समयमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका साथ ही बन्धोदयव्युच्छेद पाया जाता है । स्त्यानगृद्धि आदिक तीन, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनका नरकगतिमें उदय नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध
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