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________________ ३, ४४.] णिरयगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं [ ९७. पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदिसोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वजरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवधाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणपंचंतराइयाणि मिच्छाइटि-सासणसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो मणुसगइसंजुत्तं बंधति, सेसगईणं बंधाभावादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्विउच्चागोदाणि सव्वे मणुसगइसंजुत्तं चेव बंधति, सेसगईहि सह विरोहादो । एदासिं सव्वासिं पि पयडीणं बंधस्स हेरइया चेव सामी । बंधद्धाणं सुगमं । एदार्सि णेरइयाणं गुणट्ठाणाणं चरिमाचरिमट्ठाणेसु बंधवोच्छेदो णत्थि । सव्वपयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अणादि-धुवणेरइयाणमभावादो । अधवा, पंचणाणावरणीय छइंसणावरणीय-बारसकसाय-भयदुगुंछा-वण्णचउक्क-अगुरुअलहुव-उवघाद-तेजा-कम्मइय-णिमिण-पंचतराइयाणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो, उवसमसेडीदो ओयरिय णिरयं पइट्ठम्मि सादि-अद्धवबंधदसणादो । सेसगुणट्ठाणेसु धुवं णत्थि, बंधवोच्छेदमकुणमाणसासणादीणमभावादो । सेसपयडीणं बंधो सादि जस व पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, औदारिद कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग,सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय, इन प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि दो [ तिर्यंच और मनुष्य ] गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके शेष गतियोंका बन्ध नहीं होता। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको सभी नारकी मनुष्यगतिसे संयुक्त ही बांधते हैं, क्योंकि, उनके शेष गतियोंके साथ इनके बांधनेका विरोध है। इन सभी प्रकृतियोंके बन्धके नारकी जीव ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है। इन प्रकृतियोंका नारकियोंके गुणस्थानोंके चरम व अचरम स्थानोंमें बन्धव्युच्छेद नहीं है। अर्थात् इन प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद नारकियोंके सम्भव चार गुणस्थानों में नहीं होता। सब प्रकृतियोंका बन्ध सादि-अध्रुव है, क्योंकि, अनादि और ध्रुव नारकियोका अभाव है। अथवा, पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, तैजस व कार्मण शरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध है, क्योंकि, उपशमश्रेणीसे उतरकर नरकमें प्रविष्ट हुए जीवमें सादि व अधुव बन्ध देखा जाता है। शेष गुणस्थानोंमें ध्रुव बन्ध नहीं है, क्योंकि, बन्धव्युच्छेदको न करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि आदिकोंका अभाव है। शेष अ.बं. १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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