SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ । ३,११५. हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं सोदय-परोदओ बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधदसंणादो सव्वेसिं तदुदयणियमाभावादो वा । णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदियचउरिदियजादि-णिरयाणुपुव्वी-आदाव-थावर-सुहुम-साहारणाणं परोदओ बंधो, पंचिंदिएसु एदासिमुदयविरोहादो उदएण सह बंधस्स उत्तिविरोहादो। मिच्छत्त-णिरयाउआणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सेसाणं पयडीणं सांतरो, णिरंतरबंधे णियमाभावादो । पच्चया सुगमा । मिच्छत्तं चउगइसंजुत्तं, णउंसयवेदहुंडसंठाणाणि तिगइसंजुत्तं, अपज्जत्तासंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बझंति । णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयाणुपुवीओ णिरयगइसंजुत्तं, सेसाओ सव्वपयडीओ तिरिक्खगइसंजुत्तं । सेसमोघं । अपच्चक्खाणावरणीयकोध-माण-माया-लोभ-मणुसगइ-ओरा. लियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणामाणं को बंधो को अबंधो?॥११५॥ सुगम । ...................... उदयका अभाव है। हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उनका उदयाभाव होनेपर भी बन्ध देखा जाता है, अथवा सब पंचेन्द्रियोंके उनके उदयका नियम भी नहीं है । नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,न्द्रिय, चतुरिन्द्रय जाति, नरकानुपूवा, आताप, स्थावर, सूक्ष्म आर साधा इनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, पंचेन्द्रियोंमें इनके उदयका विरोध होनेसे उदयके साथ उनके बन्धके कथनका विरोध है। मिथ्यात्व और नारकायुका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, निरन्तर बन्धमें नियमका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । मिथ्यात्वको चारों गतियोंसे संयुक्त,नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानको देवगति विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा अपर्याप्त और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । नारकायु, नरकगति और नरकानुपूर्वीको नरकगतिसे संयक्त. तथा शेष सब प्रकृतियोंको तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । शेष प्ररूपणा ओघके समान है। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ११५ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ आ-काप्रत्योः । णिरंतरबंधो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy