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________________ ३, ११६.] पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तरसु बंधसामित्तं [१८३ मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ११६ ॥ मणुस्साणुपुवी-अपच्चक्खाणचउक्काणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि तदुभयाभावदंसणादो । मणुसगईए पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, असंजदसम्मादिट्ठि-अजोगिकेवलीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगवज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणाणमेवं चेव वत्तव्वं, असंजदसम्मादिहि-सजोगीसु बंधोदय. वोच्छेदुवलंभादो। अपच्चक्खाणच उक्कादीणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादों । अपच्चक्खाणचउक्कस्स बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतर-णिरंतरो, तिरिक्खमणुस्सेसु सांतरस्स आणदादिदेवेसु णिरंतरत्तुवलंभादो । सम्मामिच्छादिट्टि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, एगसमएण तत्थ बंधुवरमाभावादो। वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणस्स मिच्छाइटि __ मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं । ये बन्धक है, शेष अबन्धक हैं ॥ ११६॥ मनुष्यानुपूर्वी और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्यच्छिन्न होते हैं, क्योंकि. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । मनुष्यगतिका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमशः उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके भी इसी प्रकार ही कहना चाहिये, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। अप्रत्याख्यावरणचतुष्कादिकोंका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर और औदारिक. शरीरांगोपांगका वन्ध मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, वह तिर्यंच व मनुष्योंमें सान्तर होकर भी आनतादि देवोंमें निरन्तर पाया जाता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध १ प्रतिषु ' -सम्मादिट्ठीहि ' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'णिरंतरुवलंभादो' इति पाठः । २ प्रतिषु 'बंधोदयत्तादो' इति पाठः। ४ प्रतिषु । संघडणाणं' इति पाठः। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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