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१८४३ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ११७. सासणेसु सांतरो बंधो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पञ्चया सुगमा । उवरि मूलोघभंगो । . पच्चक्खाणावरणकोध-माण-माया-लोभाणं को बंधो को अबंधो? ॥ ११७॥
सुगमं ।
मिच्छादिटिप्पडि जाव संजदासजदा बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ११८ ॥
एदं. पि सुगमं । पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ११९ ॥
सुगमं ।
मिच्छादिहिप्पहुडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठउवसमा खवा बंधा । अणियट्टिवादरद्धाए सेसे संखेज्जाभागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १२० ॥
होता है । ऊपर उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । उपरिम प्ररूपणा मूलोघके समान है।
प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक व कौन अबन्धक
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक बन्धक हैं । ये बन्धक है, शेष अबन्धक हैं ॥११८॥
यह सूत्र भी सुगम है। पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ११९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणबादरसाम्परायिकप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरणबादरकालके शेषमें संख्यात बहुभागोंके वीत जानेपर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १२० ॥
१ प्रतिषु · संखेज्जेसु भागे' इति पाठः ।
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