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६६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ३३. देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउब्विय तेजा कम्मइयसरीर--समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-अगुरुवलहुव-उवघाद परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ३३ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपट्टउवसमा खवा बंधा। अपुवकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि ! एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ३४ ॥
जेणेदेण सुत्तेण बंधद्धाणं गुणगयसामितं बंधविणटुट्ठाणं वि य वुतं तेणेई देसामासियं । तदो एदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे--- देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वि-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियअंगावंगणामाण पुव्वमुदओ वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो, असंजदसम्मादिडिम्हि णट्ठोदयाणमेदासिं चउण्णं पयडीणमपुव्वकरणद्वाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु बंधवोच्छेदुवलंभादो । तेजा-कम्मइय
देवगति, पंचेन्द्रियजति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण, इन नामकर्म प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ३३॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं। अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर इनका बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं ॥ ३४॥
___ चूंकि इस सूत्रके द्वारा बन्धाध्वान, गुणस्थानगत स्वामित्व और बन्धविनयस्थानका ही निर्देश किया गया है अतएव यह देशामर्शक सूत्र है। इस कारण इसके द्वारा सूचित
प्ररूपणा करते हैं-देवगति. देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी.वैक्रियिकशरीर और वैऋियिक शरीरांगोपांग नामकर्मका पूर्वमें उदय व्युच्छिन्न होता है पश्चात् बन्ध, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इन चारों प्रकृतियों के उदयके नष्ट होजानेपर पश्चात् अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंको विताकर इनका बन्धव्युच्छेद पाया जाता है। तैजस व कार्मण शरीर,
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