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________________ ३, ३२. ] ओवेण देवा अस्स बंधसामित्त परूवणा [ ६५ पच्चया दस अट्ठारस । णाणासमयउक्कस्सपच्चया एक्कवंचास, वेउव्विय - वेडव्वियमिस्सओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणं तत्थाभावादो । सासणसम्मादिट्ठिस्स पच्चया देवाउअं धमाणस्स गाणावरणबंधतुल्ला । णवरि णाणासमयउक्कस्सपच्चया छादलं, वेउव्विय-वेउव्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावाद । असंजदसम्मादिट्ठिपच्चयपरूवणाए . णाणावरण भंगो । वरि णाणासमयउक्कस्सपच्चया बादालं, वेउव्विय-वेउब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । उवरिमेसु गुणाणेसु पच्चया देवाउअस्स गाणावरणतुला । सव्वे देवग संजुत्तं, अण्णगइबंधेण देवाउअबंधस्स विरोहादो । तिरिक्ख - मणुस्सगइमिच्छाडी सासणसम्माइट्टी असंजदसम्माइडी संजदासंजदा सामी । उवरिमा मणुसा चैव, अण्णत्थ महव्वाणमवलंभादो | बंधद्वाणं सुगमं । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिभागे गदे देवाउअस्स बंधवोच्छेदो । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु देवाउअस्स बंधो वोच्छिज्जदि त्ति केसु वि सुत्तपोत्थएसु उवलम्भइ । तदो एत्थ उवएस लवण वत्तव्वं । देवाउअस्स बंधो सादिओ अद्धयो, अद्धवबंधित्तादो । ) जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमशः दश और अठारह होते हैं। नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय इक्यावन होते हैं, क्योंकि, वहां वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययों का अभाव है। देवायुको बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टिके प्रत्यय ज्ञानावरणके बन्धके समान हैं। विशेष इतना है कि नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय छ्यालीस होते हैं, क्योंकि, वैक्रियिक, वैfareकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययों का यहां अभाव है । असंयतसम्यग्दृष्टिकी प्रत्ययप्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है । विशेषता यह है कि नाना समय सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रत्यय व्यालीस हैं, क्योंकि, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययका यहां अभाव है । उपरिम गुणस्थानोंमें देवायुके प्रत्यय ज्ञानावरणके समान हैं । सभी जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंके बन्धके साथ देवायुके बन्धका विरोध है । तिर्यच और मनुष्य गतिके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत स्वामी हैं । उपरिम जीव मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, दूसरी गतियों में महाव्रतोंका अभाव है । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग बीत जानेपर देवायुका बन्धव्युच्छेद होता है । अप्रमत्तकालके संख्यात बहुभागोंके बीत जाने पर देवायुका बन्ध व्युच्छिन्न होता है, ऐसा किन्हीं सूत्रपुस्तकों में पाया जाता है । इस कारण यहां उपदेश प्राप्तकर कहना चाहिये । देवायुका बन्ध सादि व अध्रुव है, क्योंकि वह अध्रुवबन्धी है । छ. नं. ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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