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________________ ३, ३४.) ओघेण देवगइ-पंचिदियादीणं बंधसामित्तपरूवणा सरीर-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्मास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ सुस्सर-णिमिणणामाणं पुव्वं बंधो वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, अपुव्वकरणम्हि णट्टबंधाणं एदासिं पयडीणं सजोगिचरिमसमयम्मि उदयवोच्छेदुवलंभादो । पंचिंदियजादि तस-बादर पज्जत्त-सुभगादे ज्जाणं पि एवं चेव। णवरि एदासिमजोगिचरिमसमए उदओ वोच्छिण्णो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुग्वि-वेउव्वियसरीर-वेउब्बियसरीरअंगोवंगणामाणं परोदएण सब्वगुणट्ठाणेसु बंधो, परोदएण बज्झमाणएक्कारसपयडीहि सह पादादो । तेजा-कम्मइय-वण्णगंध-रस-फास अगुरुअलहुअ थिर-सुभ-णिमिणणामाओ सोदएणेव बझंति, धुवोदयत्तादो। पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्तणं मिच्छाइटिम्हि बंधो सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, तत्थ पडिवक्खुदयाभावादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सव्वगुणट्ठाणेसु सोदय- परोदओ,पडिवक्खुदयसंभवादो। सुभगादेजाणं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छा-.. इट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ। उवरि सोदओ चेव, पडिवखुदयाभावादो। उवघाद समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर और निर्माण नामकर्मका पूर्वमें बन्ध ब्युच्छिन्न होता है पश्चात् उदय, क्योंकि, अपूर्वकरणमें बन्धके नष्ट होजानेपर पश्चात् सयोगकेवलीके अन्तिम समयमें इन प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद पाया जाता है । पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग और आदेय, इनका भी वन्धोदयम्युच्छेद इसी प्रकार है। विशेषता यह है कि इनका उदय अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें व्युच्छिन्न होता है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका वन्ध सब गुणस्थानों में परोदयसे होता है, क्योंकि, ये प्रकृतियां परोदयसे बंधनेवाली ग्यारह प्रकृतियों के साथ आती हैं । तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर शुभ और निर्माण, ये नामकर्मप्रकृतियां स्वोदयसे हो बंधती हैं, क्योंकि, वे धुवोदयी हैं। पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर और पर्याप्त प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदयपरोदयसे होता है । इसके ऊपर स्वोदयसे ही होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयकी सम्भावना है। सुभग और आदेय प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि एवं असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय परोदयसे होता है। इसके ऊपर स्वोदयसे ही होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। १ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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