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________________ ६८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, ३४. परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ बंधो; अपज्जत्तकाले परघादुस्सासाणमुदयाभावे वि, विग्गहगदीए उवघाद-पत्तेयसरीराण' उदयाभावे वि, मिच्छाइट्ठिम्हि पत्तेयसरीरस्स साहारणसरीरोदए संते वि बंधुवलंभादो । अवसेसाणं सोदओ चेव, अपज्जत्त-साहारणसरीरोदयाणमभावादो । णवरि परघादुस्सासाणं पमत्तम्मि सोदय-परोदओ बंधो। तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिणाणं णिरंतरा बंधो, धुवबंधित्तादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुब्वि-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कुदो ? असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो चेव, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जाणं सांतर-णिरंतरो मिच्छाइट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु, भोगभूमिएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरं, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर ......................................... उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें परघात और उच्छ्वास प्रकृतियोंके उदयका अभाव होनेपर भी उनका वन्ध, विग्रहगतिमें उपघात और प्रत्येकशरीरके उदयका अभाव होनेपर भी उनका बन्ध, तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें प्रत्येकशरीरका साधारणशरीरके उदयके होनेपर भी बन्ध पाया जाता है। शेष गुणस्थानवर्ती जीवोंके उनका बन्ध स्त्रोदय ही है, क्योंकि, वहां अपर्याप्त और साधारणशरीरके उदयका अभाव है। विशेषता यह है कि परघात और उच्छ्वासका प्रमत्त गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध है। तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलयु, उपघात और निर्माण, इनका निरन्तर बन्ध है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांग, इनका वन्ध मिथ्याडष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर- निरन्तर है । इसका कारण यह है कि असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यच और मनुष्यों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । इससे ऊपर निरन्तर ही बन्ध है, क्योंकि, एक समयसे बन्धका नाश नहीं होता । समचतुरनसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तरनिरन्तर है, क्योंकि, भोगभूमिजोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर ही बन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पंचेन्द्रिय १ प्रतिषु पत्तेयसरीराणि ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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