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________________ .३, ३४.] औघेण देवगइ-पंचिंदियादीणं बंधसामित्तपरूवणा पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंत। बंधो । कुदो ? सणक्कुमारादिदेव णेरइएसु भोगभूमिएसु च णिरंतरबंधुवलंभादो। सासणादिसु णिरंतरो, पडिवक्खपयंडिबंधाभावादो । परघादुस्सासाणं मिच्छ.इटिम्हि सांतर-णिरंतरो, देव-णेरइएसु भोगभूमीए च णिरंतरबंधुवलंभादो। सासणादिसु णिरंतरो, अपज्जत्तबंधाभावादो । थिर-सुभाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तो त्ति सांतरो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खपयडिबंधादो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुब्बि-वेउवियदुगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्स-कम्मइय-वेउब्धियदुगाभावादो एक्कवंचास-छाएदालीसपच्चया । सम्मामिच्छादिडिम्मि बादाल सपच्चया, वे उब्वियकायजोगाभावादो । असंजदसम्मादिट्ठिम्मि चोदालीसपच्चया, वेउवियदुगाभावाद। । अवसेसाणं पयडीणं पच्चया सव्वगुणट्ठाणेसु [णाणावरण-] पच्चयतुल्ला, विसेसकारणाभावादो । जदि अत्थि तो चिंतिय वत्तव्यो । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवीओ सव्वगुणट्ठाणजीवा देवगइसंजुत्तं बंधति, अण्णगईहि सह विरोहादो। वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणि मिच्छाइट्ठी देव-णेरइयगइसंजुत्तं । जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध है। इसका कारण यह है कि सनत्कुमारादि देवों, नारकियों और भोगभूमिजों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । सासादन आदि उपरिम गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर वन्ध है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । परघात और उच्छ्वासका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर निरतर बन्ध है, क्योंकि, देव, नारकी और भोगभूमिजोंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है । सासादन आदि उपरिम गुणस्थानों में इनका निरन्तर वन्ध है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तके बन्धका अभाव है । स्थिर और शुभ प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्या दृष्टिसे लेकर प्रमत्त तक सान्तर है । ऊपर निरन्तर है, क्योंकि, वह प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धसे रहित है। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और वैक्रियिकद्धिकके प्रत्यय मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे इक्यावन और छयालीस हैं, क्योंकि, यहां औदारिकमिश्र, कार्मण और वैक्रियिकद्विक प्रत्ययोंका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें व्यालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, वहां वैक्रियिक काययोगका अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें चवालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, वहां वैक्रियिकद्विकका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके प्रत्यय सर्व गुणस्थानों में [ ज्ञानावरणके ] प्रत्ययोंके समान हैं, क्योंकि, विशेष कारणोंका अभाव है । और यदि हैं तो विचारकर कहना चाहिये । देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सब गुणस्थानोंके जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियों के साथ उनके बन्धका विरोध है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगको मिथ्यादृष्टि जीव देवगति व नरकगतिसे संयुक्त बांधते हैं। उपरिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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