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________________ ३, १४२.] जोगमगणाएं बंधसामित्त [२०६ ओघम्मि ' अवसेसा अबंधा ' ति उत्तं । एत्थ पुण ' अबंधा णथि ' त्ति वत्तव्वं, जोगप्पणादो । ण च सजोगेसु अजोगा होति, विप्पडिसेहादो । जदि एत्तियमेत्तो चेव भेदो तो एत्तियस्सेव णिदेसो किण्ण कदो ? ण एस दोसो, थूलबुद्धीणं' पि सुहग्गहणई तधोवदेसादो। ओरालियकायजोगीणं मणुसगइभंगो ॥ १४२ ॥ पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं बंधोदयवोच्छेदे मणुसगदीदो णत्थि विसेसो, विसेसकारणाभावादो । जसकित्ति-उच्चागोदेसु विसेसो अस्थि, तेसिमेत्थुदयवोच्छेदाभावादो । मणुसगदीए पुण उदयवोच्छेदो अत्थि, अजोगिचरिमसमर मणुसगदीए सह एदासिमुदयवोच्छेददंसणादो । सोदय-परोदय-सांतर-णिरंतरपरिक्खासु णत्थि भेदो, भेदकारणाणुवलंभादो। पच्चएसु अत्थि भेदो, ओरालियमिस्स-कम्मइय-वेउब्वियदुग-चदुमणवचिपच्चएहि विणा मिच्छाइद्विम्हिं सासणे च जहाकमेण तेदालीस अट्ठत्तीसपच्चयदंसणादो, ओघमें 'अवशेष अवन्धक है' ऐसा कहा गया है। परन्तु यहां 'अबन्धक कोई नहीं है ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि, यहां योगकी प्रधानता है। और सयोगियों में अयोगी होते नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध है। शंका- यदि केवल इतनी मात्र ही विशेषता थी तो इतनेका ही निर्देश क्यों नहीं किया? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, स्थूलवुद्धि शिष्योंके भी सुखपूर्वक ग्रहण हो, एतदर्थ उक्त प्रकार उपदेश किया गया है । औदारिककाययोगियोंकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है १४२ ॥ पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, इन प्रकृतियोंके बन्धोदयव्युच्छेद में मनुष्यगतिसे कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि, विशेष कारणोंका यहां अभाव है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रमें विशेषता है, क्योंकि, यहां उनके उदयव्युच्छेदका अभाव है। परन्तु मनुष्यगतिमें इनका उदयव्युच्छेद है, क्योंकि, अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें मनुष्यगतिके साथ इनका उदयब्युच्छेद देखा जाता है। स्वोदय-परोदय और सान्तर-निरन्तर बन्ध की परीक्षामें कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि, यहां विशेषताके उत्पादक कारणों का अभाव है । प्रत्ययों में विशेषता है, क्योंकि औदारिकमिश्र, कार्मण, वैक्रियिकद्विक, चार मनोयोग और चार वचनयोग प्रत्ययोंके विना मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानमें यथाक्रमसे तेतालीस और अड़तीस प्रत्यय देखे १ प्रतिषु ण एस दोसो एदस्स सुत्तस्स एदम्मि उद्देस विसेसो अस्थि थूलबंधीणं । इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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