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________________ ३० छक्खंडागमे बंधसामित्तबिचओं ३, ७. संभवादो । जसकित्ति-उच्चागोदाणं पुण बंधो सव्वगुणट्ठाणेसु सादि-अद्भुवो चेव ।। णिदाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोह-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडणतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ७॥ एदं पुच्छासुत्तं देसामासियं च । तेण किं मिच्छाइट्ठी बंधओ किं सासणसम्माइट्ठी बंधओ किं सम्मामिच्छाइट्ठी बंधओ एवं गंतूण किमजोगी किं सिद्धो बंधओ, किमेदेसि कम्माणं बंधो पुवं वोच्छिज्जदि, किमुदओ, किं दो वि समं वच्छिज्जति, एदाओ किं सोदएण बज्झंति किं परोदएण, किं सोदय-परोदएण, किं सांतरं बज्झंति, किं णिरंतरं बज्झंति, किं सांतरणिरंतरं बझंति, किं पच्चएहि बझंति, किं पच्चएहि विणा बज्झंति, किं गइसंजुत्तं बज्झंति, किमगइसंजुत्तं बज्झंति, कदिगदिया एदेसिं बंधसामिणो होति, कदिगदिया ण होति, किं वा बंधद्धाणं, किं चरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि, किं पढमसमए, किमपढम-अचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि, नियमसे बन्धव्युच्छेद सम्भव है । परन्तु यशकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंका बन्ध सर्व गुणस्थानों में सादि और अध्रुव ही होता है । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक ? ॥७॥ ___ यह पृच्छसूत्र भी देशामर्शक है । अतएव क्या मिथ्यादृष्टि बन्धक है,क्या सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि बन्धक है, इस प्रकार जाकर क्या अयोगी बन्धक हैं, क्या सिद्ध बन्धक हैं; क्या इन कर्मोका बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, क्या दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं: ये प्रकृतियां क्या स्वोदयसे बंधती हैं, क्या परोदयसे बंधती हैं, क्या स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं; क्या सान्तर बंधती हैं, क्या निरन्तर बंधती हैं, क्या सान्तर-निरन्तर बंधती हैं; क्या प्रत्ययोंसे बंधती हैं, क्या विना प्रत्ययोंके बंधती हैं; क्या गतिसंयुक्त बंधती हैं, क्या अगतिसंयुक्त बंधती है; इन कर्मोके बन्धके स्वामी किन गतियोंवाले होते हैं व किन गतियोंवाले नहीं होते; बन्धाध्वान कितना है; क्या चरम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्या प्रथम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्या अप्रथम-अचरम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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