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________________ ३४८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २७२. पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, अपुव्व-खीणकसाएसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । सोदय-परोदओ बंधो, अदुवोदयत्तादो । णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा । णवरि मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो । मिच्छाइट्ठि सासणसम्मादिट्टिसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । उवरि देवगइसंजुत्तो। तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्विणो दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी । बंधद्धाणं सुगमं । अपुवकरणद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । ___असादावेदणीयस्स पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो । उदयवोच्छेदो पत्थि । अरदि-सोगाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, पमत्तापुव्वेसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । अथिर-असुभाणं पंधवोच्छेदो चेव, सुक्कलेस्सिएसु सव्वत्थुदयदसणादो । अजसकित्तीए पुवमुदयस्स पच्छा बंधस्स वोच्छेदो, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । असादावेदणीयअरदि-सोगाणं बंधो सोदय-परोदओ, अदुवोदयत्तादो । अथिर-असुहाणं सोदओ चेव, धुवोदयत्तादो । अजसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टि त्ति स्रोदय करते हैं- निद्रा और प्रचलाका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और क्षीणकषाय गुणस्थानोंमें क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये। मिथ्यादृष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ऊपर देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सोसादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि; दो गतियोंके संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । अपूर्वकरणकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। असातादनीयका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । उदयव्युच्छेद नहीं है। अरति और शोकका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। अस्थिर और अशुभका बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, शुक्ललेश्यावाले जीवों में सर्वत्र उनका उदय देखा जाता है । अयशकीर्तिके पूर्वमें उदयका और पश्चात् बन्धका व्युच्छेद होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें उसके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। असातायेदनीय, अरति और शोकका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोंदयी हैं । अस्थिर और अशुभका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वे धुवोदयी हैं। अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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