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________________ ३, २७२.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं [ ३४९ परोदओ। उवरि परोदओ चेव, जसकित्तीए णियमेणुदयदंसणादो। छण्णं पि पयडीण बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमदंसणादो । पच्चया ओघतुल्ला । णवरि मिच्छाइट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्यो । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु छण्णं पयडीणं बंधो देव-मणुसगइसंजुत्तो । उवरि देवगइसंजुत्तो। तिगइअसंजदा दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी। बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । बंधो छण्णं पि सादि-अढुवो, अदुवबंधित्तादो। ___ अपच्चक्नाणावरणीयस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि दोणं वोच्छेदुवलंभादो । सेसाणं बंधवोच्छेदो चव, उदयवोच्छेदाणुवलंभादो । अपञ्चक्खाणचउक्कस्स सोदय-परोदएण वि बंधो, अदुवोदयत्तादो । अवसेसाणं बंधो परोदओ, सुक्कलेस्साए सव्वगुणट्ठाणेसु सोदएणेदासिं बंधविरोहादो । अपच्चक्खाणचउक्क-मणुसगइदुगोरालियदुगाणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। वज्जरिसहसंघडणस्स मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा । है। ऊपर परोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नियमसे यशकीर्तिका उदय देखा जाता है । छहों प्रकृतियोंका वन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम देखा जाता है । प्रत्यय ओघके समान हैं । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में औदारिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में छहों प्रकृतियोंका बन्ध देव और मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है । ऊपर देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। तीन गतियों के असंयत, दो गतियोंके संयतासंयत, और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम है । छहों प्रकृतियोंका बन्थ सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। अप्रत्याख्यानावरणीयका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, उनका उदयव्युच्छेद नहीं पाया जाता। अप्रत्याख्यानचतुष्कका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वह अधुवोदयी है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, शुक्ललेश्यामें सब गुणस्थानों में स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यगतिद्धिक और औदारिकद्विकका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है। वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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