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________________ ७४ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ३८. सूइदत्थवण्णणं कस्सामो- तित्थयरस्स पुव्वं बंधो वोछिज्जदि पच्छा उदओ, अपुव्वकरणछसत्तमभागचरिमसमए णट्ठबंधस्स तित्थयरस्स सजोगिपढमसमए उदयस्सादि कादूण अजोगिचरिमसमए उदयवोच्छेदुवलंभादो । परोदएणव बंधो, तित्थयरकम्मुदयसंभवट्ठाणेसु सजोगि-अजोगिजिणेसु तित्थयरबंधाणुवलंभादो। णिरंतरो बंधो, सगबंधकारणे सते' अद्धाक्खएण बंधुवरमाभावादो । असंजदसम्मादिट्टी दुगइसंजुत्तं बंधंति, तित्थयरबंधस्स णिरय-तिरिक्खगइबंधेहि सह विरोहादो । उवरिमा देवगइसंजुत्त, मणुसगइदिजीवाणं तित्थयरबंधस्स देवगई मोत्तूण अण्णगईहि सह विरोधादो । तिगदिअसंजदसम्मादिट्ठी सामी, तिरिक्खगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो। मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणःणमभावादो । किंतु पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खे. सुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्त-- ण, बद्धतिरिक्ख-मणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो । तं पि ही प्ररूपण करता है। इसी कारणसे इसके द्वारा सूचित अर्थोका वर्णन करते हैंतीर्थकर नामकर्मका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय, क्योंकि अपूर्वकरणके छठे सप्तम भागके अन्तिम समयमें वन्धके नष्ट होजानेपर तीर्थंकर नामकर्मका सयोगकेवलीके प्रथम समयमें उदयका प्रारंभ करके अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । इसका बन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, जहां तीर्थकरकर्मका उदय सम्भव है उन सयोगकेवली और अपोगकेवली जिनोंमें तीर्थकरका बन्ध पाया नहीं जाता। बन्ध इसका निरन्तर है, क्योंकि, अपने कारणक होनेपर कालक्षयसे बन्धका नहीं होता । असंयतसम्यग्दृष्टि इसे दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका नरक व तिर्यंच गतियं के वन्धके साथ विरोध है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त वांधत हैं, क्योंकि, मनुष्यगतिमें स्थित जीवोंके तोर्थकर प्रकृतिके बन्धका देवगतिको छोड़कर अन्य गतियों के साथ विरोध है । तीन गतियों के असंयतसम्यग्दृष्टि जाव इसके बन्धके स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यग्गतिक साथ तीर्थकरके वन्धका अभाव है। शंका-तिर्यग्गतिमें तीर्थंकरकर्मके बन्धका प्रारम्भ भले ही न हो, क्योंकि, यहां जिनोंका अभाव है। किन्तु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायुको बांध लिया है उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणोंके प्राप्त होजानेसे तीर्थकरकर्मको बांधकर पुनः तिर्यों में उत्पन्न होनेपर तीर्थकरके बन्धका स्वामिपना पाया जाता है। समाधान - इसके उत्तग्में कहते हैं कि ऐसा होना सम्भव नहीं है, क्योंकि, जिन्होंने पूर्व में तिर्य व व मनुष्य आयुका बन्ध करलिया है उन जीवोंके नरक व देव आयुओंके बन्धसे संयुक्त जीवोंके समान तीर्थकरकर्मके बन्धका अभाव है। शंका-वह भी कैसे सम्भव है ? १ प्रतिषु ‘सुत्ते ' इति पाठः । २ प्रतिषु — गई हि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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