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________________ ३, ३८.] तित्थयरबंधकारणपरूवणा [७५ कुदो ? पारद्धतित्थयरबंधभवादो' तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादों । ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज । तम्हा' तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्धं । सादिओ अद्धवो च बंधो, बंधकारणाणं सादि-सांतत्तदंसणादो । तित्थयरकम्मस्स पच्चयपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि .--- समाधान -क्योंकि, जिस भवमें तीर्थंकर प्रकृतिका बंध प्रारम्भ किया गया है उससे तृतीय भत्रमें तीर्थकर प्रकृतिके सत्वयुक्त जीवों के मोक्ष जानेका नियम है । परन्तु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी देवों में उत्पन्न न होकर देवनारकियों में उत्पन्न हुए जीवोंके समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं जिससे कि तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी तृतीय भवमें भक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि ही तीर्थकरप्रकृतिके बन्धके स्वामी हैं, यह बात सिद्ध होती है। विशेषार्थ--यहां शंकाकारका कहना है कि जिस जीवने पूर्व में तिर्यगायुको बांध लिया है वह यदि पश्चात् सम्यक्त्वादि गुणों को प्राप्त कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ करे और तत्पश्चात् मरणको प्राप्त होकर तिर्यचों में उत्पन्न हो तो वह तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका स्वामी क्यों नहीं हो सकता? इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि यह सम्भव नहीं है, कारण कि तीर्थंकर प्रकृतिको बांधनेके भवसे तृतीय भवमें मोक्ष जानेका नियम है। परन्तु यह बात उक्त जीवमें वन नहीं सकती, क्योंकि, तिर्यगायुको बांधनेवाला जीव द्वितीय भवमें तिर्यंच होकर सम्यग्दृष्टि होनेसे तृतीय भवमे देव ही होगा, मनुष्य नहीं । अत एव कोई भी तिर्यच तीर्थंकर प्रकतिके बन्धका स्वामी नहीं होसकता। तीर्थकर प्रकृतिका सादिक व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, उसके वन्धकारणों के सादि-सान्तता देखी जाती है। तीर्थकर कर्मके प्रत्ययोंके निरूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं १ अप्रती · -तित्थयर कम्मरस बंधाभावादो', आकाप्रत्योः । -तिस्थयरबंधाभावादो' इति पाठः । २ एतच्च तीर्थकरनामकर्म मनुप्यगतावेव वर्तमानः पुरुषः स्त्री नपुंसको वा तीर्थकरभवात् पृष्ठतस्तृतीयमवं प्राप्य बद्धमारभते । प्र. सा. १०, ३१३-१९. ३ प्रतिषु ' तं जहा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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