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________________ ७५ , छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ३९. कदिहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधति ? __ कधं तित्थयरस्स णामकम्मावयवस्स गोदसण्णा ? ण, उच्चागोदबंधाविणाभावित्तणेण तित्थयरस्स वि गोदत्तसिद्धीदो । सेसकम्माणं पच्चए अभणिदूण तित्थयरणामकम्मस्सेव किमिदि पच्चयपरूवणा कीरदे ? सोलसकम्माणि मिच्छत्तपच्चयाणि, मिच्छत्तोदएण विणा एदेसि बंधा. भावादो। पणुवीसकम्माणि अणंताणुबंधिपच्चयाणि, तदुदएण विणा तेसिं बंधाणुवलंभादो । दस कम्माणि असंजमपच्चयाणि, अपच्चक्खाणावरणोदएण विणा तेसिं बंधाभावादो। पच्चक्खाणावरणचदुक्कं सगसामण्णोदयपच्चयं, तेण विणा तब्बंधाणुवलंभादो । छक्कम्माणि पमादपच्चयाणि, पमादेण विणा तेसिं बंधाणुवलंभादो । देवाउअं मज्झिमविसोहिपच्चइयं, अप्पमत्तद्धाए संखेजदिभागे गदे अइविसोहिट्ठाणमपावेदूण मज्झिमविसोहिट्ठाणे चेव देवाउअस्स कितने कारणोंसे जीव तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मको बांधते हैं ? ॥ ३९ ॥ शंका--नामकर्मके अवयवभूत तीर्थकर कर्मकी गोत्र संशा कैसे सम्भव है ? समाधान--यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, उच्च गोत्रके बन्धका अविनाभावी होनेसे तीर्थकरकर्मको भी गोत्रत्व सिद्ध है। शंका-शेष कर्मोंके प्रत्ययोंको न कहकर केवल तीर्थकर नामकर्मकी ही प्रत्ययप्ररूपणा क्यों की जाती है ? समाधान--सोलह कर्म मिथ्यात्वनिमित्तक है, क्योंकि, मिथ्यात्वके उदयके विना इनके बन्धका अभाव है। पच्चीस कर्म अनन्तानुबन्धिनिमित्तक हैं, क्योंकि, अनन्तानुबन्धी कपायक उदय विना उनका वन्ध नहीं पाया जाता। दश कर्म असंयमनिमित्तक है, क्योंकि, अप्रत्याख्यानावरणके उदय विना उनका बन्ध नहीं होता। प्रत्याख्यानावरणचतुष्क अपने ही सामान्य उदयनिमित्तक है, क्योंकि, उसके विना प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध पाया नहीं जाता। छह कर्म प्रमादनिमित्तक है, क्योंकि, प्रमादके विना उनका बन्ध नहीं पाया जाता । देवायु मध्यम विशुद्धिनिमित्तक है, क्योंकि, अप्रमत्तकालका संख्यातवां भाग बीत जानेपर अतिशय विशुद्धिके स्थानको न पाकर मध्यम विशुद्धि १ तित्थयरणामगोयकम्म-तीर्थकरत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकरनाम, तच्च गोत्रं च कर्मविशेष एवेत्येकवदभावात् तीर्थकरनामगोत्रम् । अ. रा. पृ. २३१३. २ अ-आमत्योः 'तन्त्रंद्धाणाणुवलंभादो', काप्रती · तददाणाणुवलंभादो ' इति पाउः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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