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________________ १३६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ अणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिण-णीचागोद-पंचतराइयाणं सोदओ बंधो । णिहा-पयला-सादासादवीसकसाय-ओरालियसरीर-हुंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बि-उवघाद-पत्तेयसरीराणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादो, कासिं च विग्गहगदीए उदयाभावादो एक्किस्से विग्गहगदीए चेव उदयत्तादो। अवसेसाओं' परोदएणेव बझंति । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवधाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ बंधेण धउब्वियादों । अवसेसाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधस्स विरामदंसणादो । [ तिर्यग्गइ-तिर्यग्गइपाओग्गाणुपुवी-] णीचागोदाणं बंधस्स सांतर-णिरंतरतं किण्ण उच्चदे ? ण, तेउ-वाउक्काइयाणं सत्तमपुढवीणेरइयाणं व मणुसेसुप्पत्तीए अभावादो। बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है। निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, वीस कषाय, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात और प्रत्येकशरीर, इनका स्वोदय परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं; तथा किन्हींका विग्रहगतिमें उदय नहीं रहता और एकका विग्रहगतिमें ही उदय रहता है। शेष प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपधात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, बन्धकी अपेक्षा ये प्रकृतियां ध्रुव हैं । शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम देखा जाता है। ___ शंका-[तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और ] नीचगोत्रके बन्धमें सान्तरनिरन्तरता क्यों नहीं कहते? समाधान- नहीं कहते, क्योंकि, तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंकी सातवीं पृथिवीके नारकियोंके समान मनुष्यों में उत्पत्तिका अभाव है। १ अ-काप्रत्योः · अवसेसट्ठाओ'; आप्रतौ ' अवसेसद्धाओ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'दउब्वियादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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