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________________ ३, २४४.] संजममग्गणाए बंधसामित्तं बंधो, एत्थ धुवोदयत्तुवलंभादो । देवाउ-देवगइ-वे उब्वियसरीर-अंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीअजसकित्ति-तित्थयराणं परोदओ बंधो, बंधोदयाणमण्णोण्णविरोहादो । णिद्दा-पयला-सादासादअट्ठकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइसुस्सरुच्चागोदाणं बंधा सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधविरोहामावादो । __पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-अलसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछा-देवाउ-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग वण्णचउक्कदेवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुवचउक्क-पसत्थविहायगइ-तसचउक्क-सुभग-सुस्सरादेज्जणिमिण-तित्थयरुच्चागोद-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। सादासादहस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीण बंधो सांतरो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा, ओघाणुबइपच्चएहितो भेदाभावादो। सव्वासिं पयडीण देवगइ. संजुत्ता बंधो, अण्णगईणं बंधाभावादो । दुगइदेसव्वइणों सामी, अण्णत्थ तेसिमभावादो। बंधद्धाणं णत्थि, एक्कगुणट्ठाणे तदसंभवादो । अधवा अत्थि, पज्जवट्ठियणयावलंबणादो । बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनका ध्रुव उदय पाया जाता है । देवायु, देवगति, वैक्रियिकशरीर व वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अयशकीर्ति और तीर्थकरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्ध और उदयका परस्परमें विरोध है। निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुस्वर और उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है। __ पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्णादिक चार, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, सादिक चार, सुभग सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका बन्ध सान्तर होता है. क्योंकि. एक समयसे उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, सामान्य अणुव्रतीके प्रत्ययोंसे कोई भेद नहीं है । सब प्रकृतियोंका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके बन्धका वहां अभाव है। दो गतियोंके देशवती स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें उनका अभाव है। बन्धाध्यान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें उसकी सम्भावना नहीं है। अथवा पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करके बन्धाध्वान है। १ प्रतिषु · देसबगइणो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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