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________________ ३१२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २४५. बंधवोच्छेदो णत्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति वयणादो । धुवबंधीण तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो । असंजदेसु पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय दुगुंछा-मणुसगइ-देवगइपंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउब्बिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउब्बियअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रसफास-मणुसगइ-देवगइपाओगाणुपुब्बी-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघादउस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-वादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोदपंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २४५॥ सुगमं । मिच्छाइटिप्पहडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा। एदे बंधा, अबंधा णस्थि ॥ २४६ ॥ बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं ' ऐसा सूत्रमें कहा गया है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी है। असंयतोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगति व देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, पत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २४५ ॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २४६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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