SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १९. धोक्यवोच्छेदविचारो पत्थि, बंधं मोत्तूण उदयाभावादो । मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाणाणं सोदओ बंधो । णवरि हुंडसंठाणस्स स-परोदओ वि, विग्गहगदीए' तस्सुदयाभावादो । असंपत्तसेवट्टसरीरसंवडणस्स परोदओ बंधो, तत्थ संघडणस्सुदयाभावादो । मिच्छत्तस्स णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं तिण्णं सांतरा, एगसमएण बंधुवरमदसणादो। पच्चया चउट्ठाणियपयडिपच्चएहि समा । एदाओ पयडीओ चत्तारि वि दुगइसंजुत्तं पझंति । णेरइया सामी । [बंधद्धाणं ] बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउन्विहो पंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अद्भुवो, धुवबंधित्ताभावादो। मणुस्साउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ४९ ॥ सुगम। ............... सपाटिकाशरीरसंहननके पूर्व या पश्चात् बन्धोदयव्युच्छेद होनेका विचार नहीं है, क्योंकि, बन्धको छोड़कर वहां इसके उदयका अभाव है। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका सोदय बन्ध होता है । विशेष यह है कि हुण्डसंस्थानका बन्ध स्वोदय परोदयसे भी होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उसका उद्य नहीं रहता । असंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहननका बन्ध परोदयसे होता है, क्योंकि, नारकियोंमें संहननका उदय नहीं रहता। मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी प्रकृति है। शेष तीन प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें उनके बन्धका विश्राम देखा जाता है। प्रत्ययोंकी प्ररूपणा चतुस्थानिक प्रकृतियोंके प्रत्ययों के समान है। ये चारों ही प्रकृतियां दो गतियोंसे संयुक्त बंधती हैं। नारकी जीव स्वामी हैं । [बन्धाध्वान ] और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि, वह भुवबन्धी प्रकृति है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी नहीं है। मनुष्यायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ४९ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ आमतौ · गदीस ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy