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________________ ३, २५७. ] दंसणमग्गणाए बंधमा मित्तं [ ३१९ मिदि ण घडदे ? ण, दव्वट्ठियणयमवलंबिय दिदेसामासियसुत्तेसु विरोहाभावादो । पयडिबंधद्धाणगयभेदपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि- णवरि विसेसो, सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ २५४ ॥ सुगमं । मिच्छाइट्टि पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्था बंधा । एदे बंधा अबंधा णत्थि ।। २५५ ॥ सुगममेदं । ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगो ॥ २५६ ॥ सुगमं । केवलदंसणी केवलणाणिभंगो ॥ २५७ ॥ सुगमं । है' यह घटित नहीं होता ? समाधान —- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन कर स्थित देशामर्शक सूत्रोंमें विरोधका अभाव है । प्रकृतिवन्धाध्वानगत भेदके प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं इतनी विशेषता है कि सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥२५४॥ यह सूत्र सुगम है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ २५५ ॥ यह सूत्र सुगम है | अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २५६ ॥ यह सूत्र सुगम है | केवलदर्शनियोंकी प्ररूपणा केवलज्ञानियोंके समान है || २५७ ॥ यह सूत्र सुगम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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